अब हम उन घटनाओं का जिक्र करेंगे जो स्वयम्बर के दौरान घटित हुई।
माता सीता के स्वयम्बर का स्थल रंगशाला अत्यन्त ही सुशोभित हो रहा था। स्वयम्बर में भाग लेने के लिए कई राज्यों के बलशाली और महाबलशाली राजा महाराजा अपना आसन ग्रहण कर चुके थे। कुछ असुर भी अपनी भेष भूषा बदलकर उस स्वयम्बर में सम्मिलित हो चुके थे।
सभी अपना अभिमान प्रकट कर रहे थे और अपने मुख से अपनी प्रशन्सा के बाण छोड़ रहे थे। कुछ राजा धर्मात्मा थे वो उन अभिमानीयो के अभिमान को देख मुस्करा रहे थे कि तभी त्रिभुवन के सौन्दर्य को अपनी मधुर मुस्कान और आकर्षक शारिरिक सरंचना में पिरोकर सभी के ह्रदय को हर्षित करते हुए प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ रंगशाला में पधारे !
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥
उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं।
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥
उन्होंने महर्षि के साथ उचित आसन ग्रहण किया।अब जनक जी ने हर्षित होकर विलम्ब करना उचित नहीं समझा और अपने प्राणो से प्रिय पुत्री जानकी को आने का संदेश भिजवाया।
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लिवाइ॥
तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं॥
राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं।।
श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे)। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं-॥
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥
-हे विधाता! जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें। सभी के ह्रदय में ऐसे हि पवित्र भावनाएं रह रह के उत्पन्न हो रही थी पर सभी अपनी अपनी मर्यादा में बंधे थे।
तब राजा जनक ने वंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए। राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था वे भी अति उत्साहित थे और आनंद के सागर से प्रसन्नता के मोती बिखेरते अपने कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ चलें:-
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥
भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा- हे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागण! सुनिए। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं-
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥
राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं से (चुपके से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक की हिम्मत न हुई)॥
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥
उसी शिवजी के कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी॥
इतना सुनते ही रंगशाला में अपार हर्ष व्याप्त हो गया। वे सभी अभिमानी राजा और राजाओं के बीच में आए असुर अपने बल और बुद्धि पर अभिमान करते हुए आदियोगी शिव के उस प्रतापी धनुष (जिसे जानकी ने बड़े हि सरल ढंग से उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित कर दिया था) को पलभर में उठाकर तोड़ने को व्याकुल हो उठे और एक के बाद एक प्रयास करने लगे।
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥
वे तमककर (बड़े ताव से) शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं, करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते॥ वे सभी राजागण जानकी से विवाह करने की इच्छा में इतने खोए थे कि वो धनुष को स्पर्श करने से पूर्व भूल ही गए कि वह् तो साक्षात देवो के देव महादेव का धनुष है, जिसने रावण और बाणासुर जैसे धुरंधर पराक्रमीयो के अभिमान को भी धूल में मिला चुका था, अत: भला उनकी क्या बिसात थी।
सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥
सब राजा उपहास के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए।।
श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥
-राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे॥
अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥
जनक जी ने क्रोध से सने वचन कह कर अपने ह्रदय कि व्यथा व्यक्त करते हुए स्पष्ट चेतावानी दी कि अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥यदि प्रण छोड़ता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो इस प्रकार का प्रण करके उपहास का पात्र न बनता।
जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥
मिथिलाधिपति जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, होठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए॥
कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥
श्री रघुवीरजी के प्रति अपने मर्यादा के बन्धन के प्रभाव से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण से लगे। (जब न रह सके तब) श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाकर उन्होंने रघुवंशीयो के कीर्ति पताका का यश गान किया और स्वय की शक्ति का एहसास सम्पूर्ण रङ्शाला को करा दिया।
लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥
-ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब राजा डर के भय से व्याकुल हो गए। पर सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए उन्हे एसा प्रतीत होने लगा, जैसे उन्होंने कोई चूक कर दी हो ॥ लक्ष्मण जी के क्षत्रिय गुणों से वशीभूत व्यवहार देख, प्रभु श्रीराम मुस्करा उठे और उन्होंने इशारों से लक्ष्मण जी को अपने पास बैठा लिया।
अपने गुरुवर अर्थात महर्षि कि आज्ञा पाकर प्रभु श्रीराम अपने आसन से उठे, गुरु का चरण स्पर्श किया और अपने मधुर मुस्कान को बरकरार रखते हुए एक साहसी सिंह की भांति राजा जनक के प्रण को पूरा करने चल दिए। जब प्रभु श्रीराम को धनुष की ओर बढ़ता जानकी जी ने पाया तो उनका ह्रदय हर्ष से भर उठा, पर अचानक हि अशंका ने उनके ह्रदय पर चोट की यह चितचोर, सुकुमार सुंदर युवा क्या इस धनुष कि कठोरता को पार कर सकता है।
उधर जानकी जी की माता और पिता सहित रंगशाला में उपस्थित सभी राजा महाराजा, मंत्री, प्रजा इत्यादि सभी के ह्रदय में बस एक हि जिज्ञासा थी "क्या ये सुकुमार राजकुमार इस धनुष को तोड़ पायेगा। परन्तु इन सब विचारों से अलग महर्षि और लक्ष्मण जी बस उस वक़्त कि प्रतीक्षा में थे, जब प्रभु अपने इष्टदेव के धनुष को तोड़कर माता जानकी का वरण करते हैं।
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥
सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर श्री रामजी ने जानकीजी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए॥
प्रभु श्रीराम ने सर्वप्रथम इस धनुष को (जो उनके ईश्वर आदियोगी महादेव के हाथों कि शोभा है) प्रणाम किया और पूर्ण सम्मान ह्रदय से दिया।
गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥
मन ही मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे (हाथ में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा (मंडलाकार) हो गया॥
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥
लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा), सबने श्री रामजी को (धनुष खींचे) खड़े देखा। उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए॥
तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥
भावार्थ:-सीताजी के शरीर में संकोच है, पर मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड़ रहा है। समीप जाकर, श्री रामजी की शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी जैसे चित्र में लिखी सी रह गईं॥
सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥
भावार्थ:-(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना दी॥
मित्रों यदि हम उपरोक्त परिस्थितियों पर ध्यान दे तो हम पाएंगे कि:- १:- स्वयम्बर के आरम्भ से लेकर अंत तक प्रभु श्रीराम ने अपने धैर्य, सरलता और गुरु के नेतृत्व की मर्यादा को किसी भी क्षण लांघने का प्रयास नहीं किया।
२:- प्रभु श्रीराम को अपनी योग्यता का भली भांति ज्ञान था अत: जब तक गुरु अर्थात महर्षि ने उन्हें स्वय आज्ञा नहीं दी वो अपने स्थान से हिले तक भी नहीं और यही नहीं महाराज जनक के परिस्थिति अनुसार बोले गए क्रोधित शब्दों को सुनकर भी वो किंचित मात्र भी विचलित ना हुए यद्यपि की उनके अनुज लक्ष्मण जी स्वय को रोक नहीं पाये।
३:- जब गुरु ने स्वयम्बर में भाग लेने की आज्ञा दी, तो उन्होंने सर्वप्रथम गुरु से आशीर्वाद प्राप्त किया तत्पश्चात बगैर किसी अभिमान के वो धनुष के समीप पहुंचे और धनुष को प्रणाम कर उसे धारण करने वाले अपने इष्टदेव महादेव का आशीर्वाद प्राप्त किया और बिना किसी विलम्ब के धनुष पर प्रत्यंचा चढाने की क्रिया के दौरान उसे तोड़ दिया।
इस प्रकार प्रभु श्रीराम ने हमें अपनी लीला से यह बताने का प्रयास किया कि, अपनी योग्यता का सही आकलन करना चाहिए, अपनी योग्यता पर अभिमान नहीं अपितु भरोसा रखना चाहिए, उचित समय की प्रतीक्षा करना चाहिए, किसी भी कार्य को करने से पूर्व अपने गुरु या वरिष्ठ वर्ग का आशीर्वाद प्राप्त कर लेना चाहिए और परिस्थिति कैसी भी हो धैर्य और सयम का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
प्रेम से बोलो जय सियाराम।
लेखन और संकलन: - नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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