मित्रों आज कि परिस्थितियों में भगवान् श्रीराम की लीला और भी अधिक प्रसांगिक साबित हो रही है। आपने अक्सर हि देखा, सुना और पढ़ा होगा कि, माता पिता के द्वारा रिश्ते से इंकार करने पर प्रेमी युगल ने जान दे दी। या फिर लड़की ने आत्महत्या की। या फिर माता पिता के इच्छा के बगैर लड़की अपने प्रेमी के साथ भागी या फिर लड़की और लड़का दोनों फरार। ये तो था पहला पहलू अब इसका दूसरा पहलू और भी भयानक है, जिसमें सम्मान के नाम पर भाग कर शादी करने वाले प्रेमी युगल में से किसी एक कि या फिर दोनों के प्राण हर लिए जाते हैं या फिर प्रेमी युगल में से कोई एक दूसरे का प्राण हर लेता है। और आजकल माता पिता कि इच्छा, उनकी ख़ुशी और उनके १८-२० वर्षो के निस्वार्थ प्रेम का कोई अस्तित्व हि नहीं रहा है क्षणिक आकर्षण के मोह पास में बंधकर अपने माता पिता को जीवन भर का अपमान और दुःख देकर आज कि युवा पीढ़ी को क्या मिलता है ये तो वहीं जाने पर अधूनिकता के नाम पर जो अंधकार फैलाया जा रहा है, उसे हम सब अच्छी प्रकार से जानते हैं।
आइये " हम सबके राम भाग-६" के रूप में इस श्रृंखला को आगे बढ़ाते हैं, और स्पर्श करते हैं, उस क्षण को जब राजा जनक के शर्त को "शिवजी का धनुष" भंग कर प्रभु श्रीराम माता जानकी का वरण कर लेते हैं।
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥
भावार्थ:-मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है॥
अब मित्रों यंहा पर यदि प्रभु श्रीराम और महर्षि विश्वामित्र यदि चाहते तो, माता सीता की सभी सम्मान के साथ विदाई कराकर अयोध्या लौट सकते थे। परन्तु मर्यादा पुरुषोत्तम ने इस प्रकार अयोध्या जाना उचित नहीं समझा क्योंकि वो अपने पिता की आज्ञा और रघुवंश की परम्पराओं के अनुसार हि कार्य करना चाहते थे और इसके लिए आवश्यक था, माता जानकी के साथ प्रभु श्रीराम का विवाह सभी धार्मिक अनुष्ठानों के साथ माता पिता के आशीर्वाद दे पूर्ण हो। अत: इसी भावना से ओत प्रोत भाव जब महर्षि ने प्रभु श्रीराम के चंद्रमुखी चेहरे के आभामंडल पर उमड़ते घूमड़ते देखा तो ...
दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥
महर्षि ने मिथिलधिपति को आदेश दिया कि हे राजन जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो अयोध्या के महाराज दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर अयोध्या में यह शुभ समाचार भेज दिया।।
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥
वो मिथिला के दूत थे अत: धार्मिकता, विनम्रता और विनयशीलता के स्तम्भ थे। उन्होंने अत्यंत प्रसन्न भाव लाकर सम्पूर्ण सम्मान और हर्ष के साथ अपना परिचय दिया और मिथिला से अयोध्या आगमन के मंतव्य की जानकारी महाराज को भिजवाई। सुचना मिलते हि अपार हर्ष के साथ महाराज ने पूरे सम्मान के साथ उन्हें अपने दरबार में बुलाया।दूतों ने प्रणाम करके अपने नरेश के द्वारा दी गई चिट्ठी को महाराज के हाथो में सौप दी। विदित हो कि राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनंद के आँसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई॥
एक पिता अपने सबसे प्रिय पुत्र के वियोग को राजधर्म के कारण अनुभव करने को विवश था, परन्तु जैसे हि उसके पुत्रों कि कुशलता और अपने सबसे बड़े पुत्र के विवाह सम्बन्धी समाचार प्राप्त हुआ तो जैसे उनके छाति में वर्षों से दबा समुन्दर अपने मर्यादा को तोड़कर स्वतन्त्र हो गया और रघुवंश कि कीर्ति में चार चाँद लगाने वाले शक्तिशाली सम्राट के आँखों से ख़ुशी के आंसू छलक उठे और अनवरत बहने लगे।
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥
महाराज बोले जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तब से आज ही हमने सच्ची खबर पाई है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेम भरे) वचन सुनकर दूत मुस्कुराए।।
महाराज कि व्याकुलता और अकुलाहट उनके द्वारा प्रस्तुत जिज्ञासा में स्पष्ट दृष्टिगोचित थी।और एक पिता के अपने पुत्रो के प्रति स्नेह देख वो दूत भी शीतल हो गए और...
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥2॥
उन्होंने कहा हे नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक से एक बढ़कर योद्धा एकत्र हुए थे॥
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहिं कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥
-बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ॥
तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥
भावार्थ:-हे महाराज! सुनिए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है!॥
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥
दूतों के मुख से अपने पुत्रों के अद्भुत पराक्रम को सुनकर महाराज भाव विव्हल हो उठे और अपने युवराजो के यश और कीर्ति का इस प्रकार महिमा मंडन सुन प्रजा, मंत्री और सभा में उपस्थित सभी अयोध्यावासी गदगद हो गए।सभा सहित राजा प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे। (उन्हें निछावर देते देखकर) यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। धर्म को विचारकर (उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभी ने सुख माना॥
अब यंहा पर दूतों का कर्म देखिये, ऊनके समाचार से प्रसन्न होकर महाराज ख़ुशी ख़ुशी उन्हें पारितोषिक दे रहे हैं, पर वो कर्तव्य परायण दूत इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वो जानते हैं, कि उनके व्यवहार से मिथिला का स्वाभिमान, मान और सम्मान जुड़ा हुआ है। वो दूत यह भी जानते हैं कि वो कन्या पक्ष से संबंध रखते हैं। वो अपने दूत होने कि मर्यादा से भली भांति परिचित हैं, अत: मनीषीयो के सदृष्य उच्च आदर्श का पालन करते हुए वो न्यौछावर लेने से इंकार कर देते हैं।
क्या आज के जमाने में ऐसा संभव है, ये सोचने वाला तथ्य है।
खैर दूतों के द्वारा दर्शाये तथ्यों से आह्लादित महाराज अपने महल के अंदर जाते हैं, और सभी माताओं को ये सुखद समाचार प्रदान करते हैं, सभी माताओं के आँखों से प्रेम, स्नेह और ममत्व की अश्रुपूर्ण धाराएं बहने लगती परन्तु सभी प्रसन्नचित मुद्रा से ब्रह्मणो को व अन्य प्रजाजनो को दान पुण्य करने लगती हैं। उधर ये सुखद समाचार पूरे अयोध्या को पता चलती है और सभी मार्ग, गलियां, घर, बाग़, बगीचे, फुलवारी तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों को अत्यंत ही सुंदरता के साथ सजाने का कैरी युद्धस्तर पर शुरू हो जाता है।
जब भरत और शत्रुघ्न को इस बात कि सूचना अपने पिता से प्राप्त होती है तो दोनों भाइयों को जैसे मनचाही मुराद मिल जाती है। वो अपार हर्ष और आंनद के साथ बारात की तैयारी करने लगते हैं। पूरी अयोध्या एक दुल्हन कि तरह सजा सवार दी जाती है।
बारात कि आभा तो बस देखते हि बनती है। बारातीयो के स्वर्ण आभूषण और उनकी आभा स्वर्ग के धनकोष को भी चूनौती देती प्रतीत होती है। रथो और उनको खींचने वाले घोड़ो की सजावट तो अद्वितीय है। सभी की आभा अति मनोरम है।
अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥
अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए॥
हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥
-(बाराती तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥
सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥
सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इंद्रपुरी के भोग-विलास को लिए हुए गईं॥
निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥
बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं॥
इधर जनवासे में महाराज दशरथ के नैना व्याकुल थे, अपने पुत्रों को एक झलक देखने और अपने गले से लगाने के लिए। उधर प्रभु श्रीराम के ह्रदय में भी लक्ष्मण के साथ अपने पिता के चरणो कि वंदना कर उनका आशीर्वाद लेने को उत्कण्ठित था, परन्तु संकोचवश वे मुनि से कुछ कह नहीं पा रहे। उधर मुनि विश्वामित्र प्रभु के ह्रदय में उठती पितृ दर्शन के विशाल भावात्मक लहरों को देख अपार हर्ष और आनंद का अनुभव कर रही थी। अत: उन्होंने प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को पिता से मिलने की आज्ञा प्रदान की।
पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥
फिर दोनों भाइयों को दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होंने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥
मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥
मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया,॥
पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥
और उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥
अर्थात हमारे यंहा का ज्योतिष शास्त्र कितना विकसित और उन्नत था, इसकी एक झलक यंहा देखने को मिलती है।
पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥
-राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥
यंहा पर वधू पक्ष के लोगों कि मर्यादा पर तनिक ध्यान दीजिये। बारात में आए सभी लोगों को समान सम्मान जनक जी और मिथिला वासियों के द्वारा दिया गया। जैसा आसन महाराज दशरथ और दो राजकुमारों (भरत और शत्रुघ्न) को प्रदान किया गया वैसा हि आसन सभी बारातीयो को प्रदान किया गया। और आजकल के परिवेश में तो अक्सर हि ऐसा देखने को मिलता है कि वधु पक्ष वर पक्ष के लोगों की विशेष व्यवस्था करता है और बारातीयो को छोड़ देता है, उनके हाल पर।
पहले जनवासा रखा जाता था और बारात दो दो दिन तक वधु पक्ष के गांव, ज़िला या शहर में उनकी मेजबानी में रूकती थी और विदाई कराकर वर वधु के साथ वापस आती थी, परन्तु अब तो बारात रात में पहुंचती है और आधे से ज्यादा बाराती तो खाना खाकर रात में हि लौट आते हैं और बचते हैं तो केवल वर पक्ष के रिश्तेदार और वो सुबह होते हि अपने अपने घरो को लौट जाते हैं।
बड़े हि विधि विधान से, विभिन्न प्रकार के वेश भूषा में आए देवताओं के आशीर्वाद और उनकी उपस्थिति में सभी धार्मिक अनुष्ठान को पूर्ण करते हुए प्रभु श्रीराम और माता जानकी का विवाह सम्पन्न हुआ।दोनों समधि आपस में गले मिले और आंनद के सागर में डुबकी लगाते वर और वधु को आशीर्वाद दिया। सभी माताओ ने आशीर्वाद दिया। सभी श्रेष्ठजनो और गुरुजनो ने भी आशीर्वाद प्रदान किया, तत्पश्चात
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई।।
तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया॥
जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥
-जानकी जी की छोटी बहिन उर्मिला जी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुंदर नेत्रों वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया॥
इस प्रकार बड़े हि धूमधाम से बारात अयोध्या को प्रस्थान कर गई। एक पिता ने अपने घर कि एक नहीं अपितु चार चार लक्ष्मीयो को दूसरे पिता के घर अर्थात उनके ससुराल उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए भेज दिया। माता जानकी, माता मांडवी, माता उर्मिला और माता श्रुतकीर्ति के माता पिता के ह्रदय पर क्या गुजर रही होगी ये तो बस एक कन्या का पिता हि समझ सकता है। पर राजा जनक को इस बात कि ख़ुशी थी की उनकी तीन बच्चियां अपनी बड़ी बहन अर्थात माता जानकी के छत्रछाया में ख़ुशी ख़ुशी अपना जीवन व्यतीत करेंगी और फिर रघुवंश जैसा ससुराल जो उनको प्राप्त हुआ है, उसके क्या कहने।
चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
-डंका बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्ते के) गाँव के स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं॥
बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥
भावार्थ:-बीच-बीच में सुंदर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची॥
मित्रों इस प्रकार इस सम्पूर्ण खंडकाव्य के अंतर्गत वर पक्ष, वधु पक्ष, दूतो कि मर्यादा, बारात की गरिमा, जनवासा, विवाह के संबंध में धार्मिक अनुष्ठान, शुभ मुहूर्त और पिता पुत्र का संयोग और पिता पुत्री के वियोग का अत्यंत हि मार्मिक चित्रण किया गया है। एक पुत्र अपने विवाह को अपने माता पिता के अनुमति और आशीर्वाद के बिना अधूरा समझता है। एक पिता अपने पुत्र के निर्णय में अपनी सहभागिता दर्शाता है। एक दूत अपने कर्तव्य पथ का अनुसरण कर अपने राज्य के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचने देता और राजा और प्रजा का ऐसा प्रेम अद्भुत और अविश्वस्नीय है जो दुर्लभ यदा कदा देखने को मिलता है।
लेखन और संकलन: नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in