मित्रों सुबाहु और ताड़का सहित आतंक मचाकर ऋषि मुनियो के जीवन को दुश्वार बना देने वाले असुरो का वध करने के पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि विश्वामित्र के आदेश का पालन करते हुए उनके संग हो लिए।
याद रखिये प्रभु को विश्वामित्र जी केवल ऋषि मुनियो के यज्ञ अनुष्ठान का विनाश कर उनकी हत्या करने वाले असुरों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु ही महर्षि अयोध्या के युवराज श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण को साथ ले आए थे, अत: हेतुक के समाप्त हो जाने के कारण, प्रभु को अपने भाई के साथ अयोध्या वापस लौट आना चाहिए था, परन्तु महाराज दशरथ द्वारा अपने दोनों जिगर के टुकड़ो को मुनि के चरनो में समर्पित करते हुए यह कहा गया था , कि आज से आप हि इनके पिता हैं" अत: प्रभु अपने पिता के द्वारा कहे गए शब्दों के परे जाकर अपनी मर्यादा का उलंघन नहीं कर सकते थे अत: अपने अनुज के साथ मुनि के आदेश का पालन करते रहे।
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥॥
महर्षि के पथ का अनुगमन करते करते मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा।परन्तु यह क्या यंहा तो एक भी पशु-पक्षी या जीव-जन्तु नहीं था। पर वंहा पर एक पत्थर की शिला अवश्य थी, जिसे देखकर प्रभु श्रीराम अपनी लीला के अंतर्गत आश्चर्य में पड़ गए और महर्षि विश्वामित्र से उसके संदर्भ में जिज्ञासा प्रकट कि। प्रभु की उत्सुकता देख महर्षि विश्वामित्र ने सम्पूर्ण कथा कहते हुए बताया कि किस प्रकार गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इंद्र ने छल करते हुए अपने प्रणय निवेदन को स्वीकार करने हेतु विवश किया और किस प्रकार अहिल्या ने संशय होने के पश्चात भी भ्रम और छल का शिकार हुई और फिर किस प्रकार गौतम ऋषि ने अपनी पत्नी को शिला हो जाने का श्राप दिया। महर्षि ने यह भी बताया कि आज प्रभु के आशीर्वाद से इस शिला रूपी अहिल्या का उद्धार अवश्य हो जाएगा।
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥॥
महर्षि के आदेश पर जैसे हि प्रभु ने उस शिला को पदकमल से स्पर्श किया, श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। अहिल्या देवी का शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥
अपने तारणहार को अपने चक्षुओ के समक्ष उपस्थित देख वर्षो से अपने उद्धार के लिए प्रतीक्षारत अहिल्या आज निशब्द प्रभु के दर्शन करती रही और अपने अश्रुओ कि धारा से उनके चरणो कि वंदना करने लगी।
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥
अहिल्या देवी ने फिर अपने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त निर्मल वाणी से देवी ने मर्यादा पुरुषोत्तम की (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥
प्रभु अपनी लीलाओ की मर्यादा में बंधे थे, अत: उन्होंने अहिल्या देवी को वर्षों से चलें आ रहे श्राप के प्रभाव से मुक्ति दी और उन्हें भक्ति प्रदान कर, उनके सम्पूर्ण जन्म जन्मांतर को मुक्ति प्रदान कर इस लीला के प्रसंग को अमरता प्रदान कर दी।
प्रभु श्रीराम अपने राजधर्म को अच्छी प्रकार समझते थे, अत: उन्होंने अपने राजधर्म का पालन करते हुए, वर्षो से प्रतीक्षा कर रही शिला रूपी अहिल्या को ना केवल अपने दर्शन का सौभाग्य दिया अपितु उन्हें भवसागर से तार भी दिया।
यंहा पर प्रभु श्रीराम ने अपने आचरण से निम्न तथ्यों की ओर मनुष्यता को ले जाने का प्रयास किया:-
१:- यदि आप किसी के नेतृत्व में किसी भी लक्ष्य को भेदने जा रहे हैं तो अपने नेतृत्वकर्ता पर भरोसा रखे;
२:- कई बार व्यक्ति किसी एक धार्मिक कार्य कि पूर्ति करने हेतु घर से बाहर निकलता परन्तु पहले से तय की गई परिस्थितियां उससे अन्य कार्यों को भी पूरा करा लेती हैं, अत: व्यक्ति को हर समय धार्मिक कार्यों कि पूर्ति हेतु तैयार रहना चाहिए;
३:- कभी कभी नेतृत्व करने वाला व्यक्ति कई लक्ष्यो को एक साथ बेधने की योजना के साथ आगे बढ़ता है परन्तु वह सबको आरम्भ में ही प्रकट नहीं करता।
४:- नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को अपनी टिम मे शामिल हर सदस्य के योग्यता और कमियों का जानकर होना चाहिए, तभी वो कमियों को भी अपने टिम के लाभ के लिए उपयोग कर सकता है।
५:- प्रजा के हर सुख और दुःख में सहभागी बनने के लिए राजा को सदैव तत्पर रहना चाहिए, क्योंकि प्रजा की संतुष्टि हि राजा कि असली उपलब्धि मानी जाती है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण के साथ महर्षि विश्वामित्र के साथ आकर यह भी स्थापित किया कि
एक राजा का अपना कुछ नहीं होता है। सबकुछ राज्य का हो जाता है। बल्कि आवश्यकता पड़ने पर यदि राजा को अपने राज्य और प्रजा के हित के लिए अपनी स्त्री, संतान, मित्र यहां तक की प्राण भी त्यागने पड़े तो उसे संकोच नहीं करना चाहिए। क्योंकि राज्य ही उसका मित्र है और राज्य ही उसका परिवार है।
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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