मित्रों आज हम पति और पत्नी के रिश्तों पर चर्चा करेंगे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम और माता सीता के द्वारा प्रस्तुत लीला को ध्यान में रखकर।
क्या आपने कभी भी भारतीय भाषाओ में "Divorce" या "तलाक" जैसे शब्दों के बारे में सुना है। शर्त लगा लो मैंने तो कोई शब्द नहीं पाया। हाँ "सम्बन्ध-विच्छेद" जैसे शब्द अवश्य मिलते हैं, परन्तु यह शब्द पति और पत्नी के रिश्ते के टूटने की परिधि में नहीं बांध कर रखा जा सकता, इस शब्द का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है।
मित्रों हम सनातन धर्मीयों के अंतर्गत विवाह, ईसाई या इस्लामिक मजहब की तरह कोई संविदा (contract) नहीं होता अपितु यह एक धार्मिक अनुष्ठान होता है, जिसके सम्पन्न होने पर "वर और वधु" "पति और पत्नी" के रूप में अगले सात जन्मों के लिए एक दूसरे के जीवन साथी बन जाते हैं, जो सात फेरों और सात वचनों से बंधे होते हैं। विवाह से दो कुटुम्ब आपस में जुड़ते हैं और नए रिश्तेदारीयो से दोनों पक्ष मालामाल हो जाते हैं। और यही कारण है की हमारे यंहा ईसाई मजहब की भांति Divorce और मुसलिम मजहब की भांति तलाक का कोई अस्तित्व हि नहीं होता।
आइये इस पति और पत्नी के अनमोल रिश्ते को जानने का प्रयास करते हैं। प्रभु श्रीराम को माता कैकेयी के हठ के कारण वनवास प्राप्त हो चुका है। उनके अनुज लक्ष्मण जी ने भी अपने स्वामी और अग्रज भ्राता श्रीराम और माता सुमित्रा से आज्ञा प्राप्त कर लिया है, भईया के साथ वन गमन हेतु , परन्तु माता सीता का क्या?
माता सीता अपने स्वामी राम की अनुपस्थिति में क्या अयोध्या में रह पाएंगी। प्रभु माता कौशल्या से आज्ञा प्राप्त करने आए हैं और तभी माता सीता भी काल के इस खेल में उलझ दौड़ी दौड़ी आती हैं और स्वामी को अपनी सासू माता के समीप खड़े देख अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए निर्जीव से खड़ी हो जाती हैं। उनकी ये स्थिती देख प्रभु राम को उनके मन में किसी सुनामी की तरह अचानक ऊमड़ आयी भावनाओं को समझते हुए प्रभु ने कहा: -
मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥
राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू।।
:-माता के सामने राम जी, सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले- हे राजकुमारी! मेरी सिखावन सुनो। मेरे द्वारा दी गई सिख को अपने मन में कुछ दूसरी तरह न समझ लेना॥
आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू॥
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥
:-जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनी! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है॥
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥
:-आदरपूर्वक सास-ससुर के चरणों की पूजा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि भोली हो जाएगी (वे अपने-आपको भूल जाएँगी)॥
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥
:-हे सुंदरी! तब-तब तुम कोमल वाणी से पुरानी कथाएँ कह-कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि! मुझे सैकड़ों सौगंध हैं, मैं यह स्वभाव से ही कहता हूँ कि मैं तुम्हें केवल माता के लिए ही घर पर रखता हूँ॥
इसके अतिरिक्त प्रभु माता सीता को भिन्न भिन्न प्रकार से समझाते हुए उन्हें अयोध्या में हि रुकने के लिए प्रेरित करते हैं, वो यंहा रुक कर गुरु, माता पिता, भाई बंधु भगिनी इत्यादि का ध्यान रखे। उन्हें राम के साथ वन में जाने से अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। काँटों से भरे मार्ग पर चलना होगा, वन में खाने योग्य जो भी कंदमूल या फल इत्यादि मिलेंगे, उन्हीं से भूख मिटानी होगी। वो वन दैत्य, राक्षस और दानव इत्यादि जैसे अनेक भयानक प्रजातियों से भरा पड़ा है जो किसी भी समय घात लगाकर आक्रमण कर सकते हैं। वन में हिंसक पशुओ से कभी भी सामना हो सकता है। अत: वन का जीवन हे सुकुमारी तुम्हारे लिए अत्यंत असहनीय और पीड़ादायक साबित हो सकता है,जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे? सब कुछ अपने-अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा, अत: मेरी सिख मानो यहीं रुककर मेरी अनुपस्थिति में सबका ध्यान रखो और अपने धर्म का पालन करो।
माता सीता धैर्य पूर्वक अपने स्वामी के द्वारा दी जा रही सीख को सुनती रही। और जब उनको अपनी व्यथा को कहने का अवसर प्राप्त हुआ तो तनिक भी विलम्ब नहीं किया और
लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥
:-सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं- हे देवि! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए। मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है, जिससे मेरा परम हित हो॥
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥
:-परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुःख नहीं है॥
प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥
:-हे प्राणनाथ! हे दया के धाम! हे सुंदर! हे सुखों के देने वाले! हे सुजान! हे रघुकुल रूपी कुमुद के खिलाने वाले चन्द्रमा! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥
:-जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! बिना पुरुष के स्त्री है। हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद्-(पूर्णिमा) के निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे॥
और इसी प्रकार माता सीता ने प्रभु श्रीराम और माता कौशल्या से बड़े हि विनम्रता और करुणा से कहा कि स्वामी जिस पथ पर आप चलेंगे वो पथ मेरे लिए कैसे दुश्वार हो सकता है। वो वन के हिंसक पशु आपके रहते भला मुझे छू भी कैसे सकते हैं। वो वन की लताये, वृक्ष और अन्य वन्य जीव हमारे पड़ोसी बन कर रहेंगे। जब मैं अपने स्वामी की छ्त्र छाया में रहूंगी तो भला किस राक्षस, दैत्य या दानव का साहस होगा की वो आपकी अर्धांगिनी की ओर देख भी सके। मेरे लिए तो वहीं कंदमूल या फल छप्पन भोगों से बढ़कर होगा।हे नाथ! आपने वन के बहुत से दुःख और बहुत से भय, विषाद और सन्ताप कहे, परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग (से होने वाले दुःख) के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते।
अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥
:-ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात शरीर से वियोग की बात तो अलग रही, वचन से भी वियोग की बात सुनकर वे अत्यन्त विकल हो गईं।) उनकी यह दशा देखकर श्री रघुनाथजी ने अपने जी में जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहाँ रखने से ये प्राणों को न रखेंगी॥
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥
:-तब कृपालु, सूर्यकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज विषाद करने का अवसर नहीं है। तुरंत वनगमन की तैयारी करो॥
लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥
:-यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता। श्री रामचन्द्रजी ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥
तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥
:-तब जानकीजी सास के पाँव लगीं और बोलीं- हे माता! सुनिए, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया॥
अब मित्रों तनिक विचार करें कि क्या आप आज के परिवेश में पति और पत्नी के मध्य ऐसा समर्पण, स्नेह और त्याग कहीं देखने को मिल सकता है। आज के परिवेश में और आधुनिकता की अंधी दौड़ में पति और पत्नी के पवित्र सम्बन्ध में प्यार, स्नेह, समर्पण और त्याग के स्थान पर दम्भ, ईर्ष्या, स्वार्थ और घमंड ने अपना स्थान बना लिया है। आज बात बात पर पति और पत्नी के मध्य गृह युद्ध आरम्भ हो जाता है। आज छोटी छोटी बातों पर पति और पत्नी एक दूसरे पर चरित्र् को हनन करने वाले आरोप लगा देते हैं। पति और पत्नी के इस प्रकार के झगड़े में यदि बच्चे हों तो उनके भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
आज के पति और पत्नी दोनों प्रभु श्रीराम और माता सीता के त्याग, समर्पण, स्नेह, प्रेम और मर्यादा से सिख लेकर अपने दाम्पत्य जीवन को सुखमय बना सकते हैं।
यदि माता सीता चाहती तो जीवन के वो अनमोल १४ वर्ष बड़े हि आराम से समस्त सुख सुविधाओ का भोग करते हुए व्यतीत कर सकती थीं, परन्तु उन्होंने उन स्वर्ग से भी बढ़कर समस्त सुख सुविधाओं का त्याग कर अपने पत्नीधर्म का पालन करना श्रेष्ठ समझा और उसी पर आगे बढी।
भला सोचिए, प्रभु श्रीराम अपनी अर्धांगिनी सीता को वन के भयानक और कष्टदायक जीवन से बचाने का प्रयास करते हैं और उन्हें भिन्न भिन्न प्रकार से समझाते हैं जबकि माता सीता अपने स्वामी को प्राप्त हो चुके कष्टदायक जीवन में उनका साथ देना चाहती हैं , अत: वो भी भिन्न भिन्न प्रकार से उन्हें उनको अपने साथ ले चलने के लिए मनाने का प्रयास करती हैं और अंतत: सफल हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों ने सच ही कहा गया है कि:-
प्रीणाति य सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम् ।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यत्
एतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥
:- पिता को अपने सद्वर्तन से खुश करनेवाला पुत्र, केवल पति का हित चाहनेवाली पत्नी, और जो सुख-दुःख में समान आचरण रखता हो ऐसा मित्र – ये तीन जगत में पुण्यवान को हि प्राप्त होते हैं ।
सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या या पतिव्रता ।
सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी ॥
वही अच्छी पत्नी है जो शुचिपूर्ण है, पारंगत है, शुद्ध है, पति को प्रसन्न करने वाली है और सत्यवादी है।
इस प्रकार मित्रों माता सीता का अपने पति श्रीराम के प्रति दर्शाया और निभाया गया प्रेम, स्नेह, त्याग और समर्पण अत्यंत अनुकरणीय है, यदि हमारी बहने और बेटियां "माता सीता" या माता " सावित्री" को अपना आदर्श बनायेंगी, पति और पत्नी के मध्य उत्पन्न होने वाली समस्त विवादों से अपने आप छुटकारा मिल जाएगा और फिर किसी भी कुटुंब को टूटने के स्तर पर नहीं जाना पड़ेगा।
🌹🌸🌻 जय सियाराम, जय श्री राधेकृष्णा जय गौरीशंकर 🌹🌸🌻
लेखन और संकलन :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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