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दूसरा अंक

26 जनवरी 2022

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स्थान राजभवन
(राजा और प्रतिहारी आते हैं)

प्र. : इधर महाराज इधर।
राजा : (कुछ चलकर सोच से) हा! उस समय यह यद्यपि कुच नितम्ब भार से तनिक भी न हिली, परन्तु त्रिबली केतरंग भय श्वास से चंचल थे, और गला तिरछा था, मुखचन्द्र हिलने से वेणी ने कंचुकी का आलिंगन किया था, सो छबि तो भुलाए भी नहीं भूलती।
प्रतिहारी : (आप ही आप) क्या अब तक वही गेंद वही चैगान! अच्छा देखो, हम इनका चित्त बसन्त के वर्णन से लुभाते हैं। (प्रत्यक्ष) महाराज! इधर देखिए, कोकिल के कण्ठ खोलने वाले भ्रमरों की झंकार में माधुर्य उत्पन्न करने वाले और बिरहियों के चित्त पंचम स्वर से घूर्णित करने वाले चैत के दिन अब कुछ बड़े होने लगे।
राजा : (सुनकर अनुराग से) सच है, तभी न लावन्य जल से पूरित अनेक विलास हास के छके सबकी सुंदरता जीतने वाले उस के नील कमल से नेत्रों को स्मरण करके शृंगार को जगाते हुए कामदेव ने वियोगियों पर यह कठिन धनु कान तक तान कर तीर चढ़ाया है, (पागल की भांति) हा! वह हरिननयनी मानो चित्त में घूमती है, उसके गुण नहीं भूलते, सेज पर मानो सोई हुई है, और मेरे साथ ही साथ चलती है, प्रति शब्द में मानो बोलती है, और काव्यों से मानों मूर्तिमान प्रगट होती है, हा! जिसको उसने नेत्र भर नहीं देखा है जब वे बसन्त ऋतु के पंचम गान से मरे जाते हैं तो जिन्हें उसने पूर्णदृष्टि से देखा है उन्हें तो तिलांजुलि ही देना योग्य है। हाय! उसके दूध के धोए सफेद कोए में काली भंवरे सी पुतली कैसे शोभित हैं, जिनकी दृष्टि के साथ ही कामदेव भी हृदय में प्रवृष्ट हो जाता है। (विचार करके) प्यारे मित्र ने क्यों देरी लगाई।
(विचक्षणा और विदूषक आते हैं।)
विदू. : तो विचक्षण तुम सच कहती हो न!
विच. : हां हां सच है, वाह! सच नहीं क्या झूठ कहैंगे!
विदू. : हमको तुम्हारी बात का विश्वास नहीं आता कि तुम बड़ी हंसोड़ हौ।
विच. : वाह! हंसी की जगह हंसी होती है, काम की बात में हंसी कैसी?
विदू. : (राजा को देखकर) अहा! प्यारे मित्र यह बैठे हैं, हा! बिना हंस के मानस, बिना मद के हाथी, तुषार के कमल, दिन के दीपक और प्रातःकाल के पूर्णचन्द्र की भांति महाराज कैसे तनछीन मनमलीन हो रहे हैं।
दोनों : (सामने जाकर) महाराज की जय हो।
राजा : कहो मित्र, तुम्हें विचक्षणा कहां मिली?
विदू. : महाराज! आज विचक्षणा मुझ से मित्रता करने आई थी, इन्हीं बातों में तो इतनी देर लगी।
राजा : क्यों, विचक्षणा तुम से क्यों मित्रता करैगी?
विदू. : क्योंकि आज यह किसी बड़े प्यारे मनुष्य की पति हाथ में लिए है।
राजा : और भला यह केवड़ा कहां से आया?
विच. : केवड़े ही के पत्र पर पत्री लिखी है।
राजा : वसन्त ऋतु में केवड़ा कहां से आया?
विच. : भैरवानन्द जी ने अपने मंत्र के प्रभाव से महारानी के महल के सामने एक लाठी को केवड़े का पेड़ बना दिया, महारानी ने भी आज हिण्डोलनर्तनी चतुर्थी के पर्व में उन्हीं पत्तों से महादेव जी की पूजा की, और दो पत्ता अपनी छोटी बहिन कर्पूरमंजरी को दिया, उस ने भी एक पत्ता मंगला गौरी को चढ़ाया, और दूसरे पत्ते की पुड़िया यह आप के भेंट है जिसमें कस्तूरी के अक्षरों से छन्द लिखे हैं।
(पत्र राजा को देती है)
राजा : (खोल कर पढ़ता है)
जिमि कपूर के हंस सों, हंसी धोखा खाय।
तिमि हम तुम सों नेह करि, रहे हाय पछिताय ।
(इसको बारम्बार पढ़ कर) अहा! यह वही मदन के रसायन अक्षर हैं।
विच. : महाराज! दूसरा छन्द मैंने अपनी प्यारी सखी की दशा में बना के लिखा है; उसे भी पढ़िए।
राजा : (पढ़ता है)
बिरह अनल दहकत नित छाती।
दुखद उसास बढ़त दिन राती ।
गिरत आंसु संग सखि कर चूरी।
तन सम जियन आस भई झूरी ।
विच. : और अब मेरी बहिन ने जो उसका हाल लिखा है वह पढ़िए।
राजा : (पढ़ता है)
तुम बिन तासु उसास गुरु, भए हार के तार।
तन चन्दन पति जात हैं, बिरह अनल संचार ।
तन पीरो दिन चन्दसम, निस दिन रोअत जात।
कबहुं न ताको मुख कमल, मृदु मुसकनि बिकसात ।
राजा. : (लम्बी सांस लेकर) भला कविता में तो वह तुम्हारी बहिन ही है, इसका क्या कहना है।
विदू. : महाराज! विचक्षणा पृथ्वी की सरस्वती और इसकी बहिन त्रैलोक्य की सरस्वती, भला इसका क्या पूछना है, पर हम भी अपने मित्र के सामने कुछ पढ़ना चाहते हैं।
जबसों देखी मृगनयनि, भूल्यो भोजन पान।
निसदिन जिय चिन्तत वहै, रुचत और नहिं आन ।
मलय पवन तापत तनहि, फूल माल न सुहात।
चन्दन लेप उसीर रस, उलटो जारत गात ।
हार धार तरवार से, सूरज सों बढ़ि चन्द।
सबहीं सुख दुखमय भयो, परे प्रान हू मन्द ।
राजा : प्रान न मन्द होंगे, अभी थोड़ी ही देर में लड्डू से जिला दिए जायंगे। अब यह कहो कि रनिवास में फिर क्या क्या हुआ?
विदू. : विचक्षणा, कहो न क्या क्या हुआ?
विच. : महाराज! स्नान कराया, वस्त्र पहिनाया, तिलक लगाया, आभूषण साजे और मनाकर प्रसन्न किया।
राजा : कैसे?
विच. : गोरे तन कुमकुम सुरंग, प्रथम न्हवाई बाल।
राजा : सोतो जनु कचंन तप्यो, होत पीं सों लाल ।
विच. : इन्द्रनीलमणि पैजनी, ताहि दई पहिराय।
राजा : कमल कली जुग घेरि कै, अलि मनु बैठे आय ।
विच. : सजी हरित सारी सरिस, जुगल जंघ कहं घेरि।
राजा : सो मनु कदली पात निज, खंभन लपट्यो फेरि ।
विच. : पहिराई मनि किंकिना, छीन सुकटि तट लाय।
राजा : सो सिंगार मण्डप बंधी, बन्द्रनमाल सुहाय ।
विच. : गोरे कर कारी चुरी, चुनि पहिराई हाथ।
राजा : सों सांपिन लपटी मनहुं, चन्दन साखा साथ ।
विच. : निजकर सों बांधन लगी, चोली तब वह बाल।
राजा : सो मनु खींचत तीर भट, तरकस ते तेहि काल ।
विच. : लाल कंचुकी में उगे, जोबन जुगल लखात।
राजा : सो मानिक संपुट बने, मन चोरी हित गात ।
विच. : बड़े बड़े मुक्तान सों, गल अति सोभा देत।
राजा : तारागन आए मनौ, निज पति ससि के हेत ।
विच. : करनफूल जुग करन में, अतिही करत प्रकास।
राजा : मनु ससि लै द्वै कुमुदिनी, बैठ्यो उतरि अकास ।
विच. : बाला के जुग कान में, बाला सोभा देत।
राजा : òवत अमृत ससि दुहुं तरफ, पियत मकर करि हेत।
विच. : जिय रंजन खंजन दृगनि, अंजन दियो बनाय।
राजा : मनहु सान फेर्‌यौ मदन, जुगल बान निज लाय ।
विच. : चोटी गुथी पाटी सरस, करिकै बांधे केस।
राजा : मनहु सिंगार इकत्र ह्वै , बंध्यो यार के वेस ।
विच. : बहुरि उढ़ाई ओढ़नी, अतर सुबास बसाय।
राजा :फूल लता लपटी किरिन, रवि ससि की मनुआय ।
विच. : एहि विधि सो भूषित करी, भूषण बसन बनाय।
राजा : काम बाग झालरि लई, मनु बसन्त ऋतु पाय ।
विदू. : महाराज! मैं सच कहता हूं।
दृग काजर लहि हृदय वह, मनिमय हारन पाय।
कंचन किंकिनि सों सुभग, ता जुग जंघ सुहाय ।
राजा : (उसकी बात का अनादर करके)
छिः। दृग पग पोंछन को किए, भूषन पायंदाज।
विच. : (क्रोध से) वाह! हम तो गहिने का वर्णन करते हैं और आप उसकी निन्दा करते हैं।
अबि सुन्दर हू कामिनी, बिनु भूषन न सुहाय।
फूंल बिना चम्पक लता, केहि भावत मन भाय ।
राजा : (हंसकर) मूढ़।
बिनु भूषन सोहही, चतुर नारि करि भाव।
चहिअत नहिं अंगूर को, मिश्री मधुर मिलाव ।
विच. : महाराज ठीक है, जो नेत्र कान को छुए लेते हैं उनमें अंजन क्या, और जो मुख चन्द्रमा की निन्दा करता है उसको तिलक क्या, वैसे ही यद्यपि रूप के समुद्र से शरीर में काई से गहिनों की कौन आवश्यकता है, पर यह केवल लोक की चाल है, फूली हुई पीत चमेली को किसने गहिने से सजाया है।
राजा : कपिजंल सुनो, गहिना और कपड़ा तो नाचने वालियों का भूषण है, रूप वही है जो सहज ही चित्त चुरावै, सुभाव ही स्त्री की शोभा है, और गुण ही उसका भूषण है, रसिक लोग कभी ऊपर की बनावट नहीं देखते।
विच. : महाराज! मैं रानी की आज्ञा से केवल उसकी सेवा ही नहीं करती, कर्पूरमंजरी को मेरे प्रेम से मुझ पर विश्वास भी है। इसीसे मैं भी उसे बहुत चाहती हूँ और आप से सच निवेदन करती हूँ कि वह निस्सन्देह विरह से बहुत ही दुखी है। क्योंकि-
मदन दहन दहकत हिए, हाथ धर्‌यो नहिं जात।
करसों ससि की ओट कैं, बितवत सों नित रात ।
मैं तो इतना ही कहे जाती हूँ बाकी सब कपिंजल कहेगा।
(जाती है)
राजा : कहो मित्र और कौन काम है?
विदू. : आज हिण्डोल चतुर्थी के दिन रानी और कर्पूरमंजरी झूला झूलने आवैंगी और महाराज इसी केले के कुंज में छिपकर देखेंगे यही काम है। (कुछ सोचकर) अहा! महारानी बड़ी चतुर हैं तौ भी हमने कैसा छकाया, पुरानी बिल्ली को भी दूध के बदले मट्ठा पिलाया।
राजा : मित्र तुम्हारे बिना और कौन हमारा काम ऐसा जी लगा के करै, समुद्र को चन्द्रमा के सिवाय और कौन बढ़ा सकता है।
(दोनों केले के कुंज में जाते हैं)
विदू. : मित्र इन ऊँचे चबूतरे पर बैठो।
राजा : अच्छा।
(दोनों बैठते हैं)
विदू. : कहो पूर्णिमा का चन्द्र दिखाई पड़ा (एक ओर हाथ से दिखाता है)?
राजा : (देखकर के) अहा! यह तो सचमुच प्यारी का मुखचन्द्र दिखाई पड़ा।
गयो जगत रमनी गरब, पर्‌यो मन्द नभ चन्द।
सकुचि कमल जल मैं दुरे, भई कुमुद छबि मन्द ।
झूलनि मैं किंकिन वजन, अंचल पट फहरान।
को जोहत मोहत नहीं, प्यारी छबि इहि आन ।
विदू. : आप सूत्रधार थे इससे आप ने बहुत थोड़े में कहा, हम भाष्यकार हैं इससे हम विस्तारपूर्वक कहते हैं।
फूली फूलबेली सी नवेली अलबेली बधू,
झूलत अकेली काम केली सी बढ़ति है।
कहैं पद्माकर झमंकी की झकोरन सों,
चारों ओर सोर किंकिनीन को कढ़ति है ।
उर उचकाई मचकीन की झकोरन सों,
लंककि लचाय चाय चौगुनी चढ़ति है।
रति बिपरीत की पुनीत परिपाटी सुतौ,
हौसनि हिण्डोरे की सुपाटी मैं पढ़ति है । 1 ।
छाइहौं मलारे औ जमाइहौं हिये में छबि,
छाइहौं छिगुनि कुंज कुंजहीं के कोरे मैं।
कहैं पद्माकर पियाइहौं पियाला मुख,
मुख सों मिलाइहौं सुगंध के झकोरे मैं ।
नेह सरसाइहौं सिखाइहौं जो सासन मैं,
पाइहौं परी सो सुख मैंन के मरोरे मैं।
उर उर सरझाइहौं हिए सों हिए लाइहौं,
झुलाइहौं कबैंधो प्रानप्यारी हिण्डोरे मैं । 2 ।
रहसि रहसि हंसि हंसि के हिण्डोरे चढ़ीं,
लेत खरी पेंगें छबि छाजें उसकन मैं।
उड़त दुकूल उघरत भुज मूल बढ़ी,
सुखमा अतूल केस फूलन खसन मैं ।
बोझल ह्वै देखि देखि भये अनिमेख लाल,
रीझत विसूर श्रम सीकर मसन मैं।
ज्यौं, ज्यौं, लचि लचि लंक लचकत भावती की,
त्यौं त्यौं पिय प्यारो गहैं आंगुरी दसन मैं । 3 ।
झूलत पाट की डोरी गहे, पटुली पर बैठन ज्यों उकुरू की।
देवजू दै मचकी कटि बाजत, किंकिनि केहर गोल उरू की ।
सीखन के विपरीत मनों ऋतु पावस ही चटसार सुरू की।
खोंटी पटैं उचटैं तिय चोंटी चमोटी लगै मानों काम गुरू की ।
भूलति ना वह झूलनि बाल की, फूलनि भाल की लाल पटी की।
देव कहै लटकै कटि चंचल चोली दृगंचल चाल नटी की ।
अंचल की फहरान हिये, रहि जान पयोधर पीन तटी की।
किंकिनि की झमकानि झुलावनी, झूकनि झुकि जानि कटी की । 5 ।
राजा : हाय हाय! कर्पूरमंजरी झूले से क्यों उतरी? झूला क्या खाली हुआ, हमारे मन के साथ देखने वालों के नेत्र भी खाली हुए।
विदू. : क्या बिजली की भांति चमक कर छिप गई?
राजा : नहीं, बरन छलावे की भांति दिखाई पड़ी और फिर अन्तर्धान हो गई। ख्स्मरण कर के,
गोरी सो रंग उमंग भर्‌यो चित, अंग अनंग को मंत्र जगाए।
काजर रेख खुभी दृग मैं दोउ, भौंहन काम कमान चढ़ाए ।
आवनि बोलनि डोलनी ताकी, चढ़ी चित में अति चोप बढ़ाए।
सुन्दर रूप सो नैनन में बस्यो, भूलत नाहिनै क्यों हूं भुलाए ।
विदू. : मित्र, यही पन्ने का कुंज है, यहाँ बैठ के आप आसरा देखिए, अब सांझ भी हुआ चाहती है।
(दोनों बैठते हैं)
राजा : मित्र, अब तो उसका बिरह बहुत ही तपाता है।
विदू. : तो हमारा लाठी पकड़े दम भर बैठे रहो तब तक ठण्ढाई की तयारी लावें।
(कुछ आगे बढ़ कर) वाह! क्या विचक्षणा नहीं आती है?
राजा : ज्यौं ज्यौं संकेत का समय पास आता है, त्यौं त्यौं उत्कण्ठा कैसी बढ़ती जाती है!
(लम्बी सांस लेकर)
ससि सम मुख दृग कुमुद से, करपद कमल समान।
चम्पा सो तन तदपि वह, दाहत मोहि सुजान ।
विदू. : अहा! विचक्षणा तो ठण्ढाई लिए ही आती है।
(विचक्षणा आती है।)
विच. : अहा! प्यारी सखी को बिरह का ताप कैसा सता रहा है!
विदू. : (पास जाकर) यह क्या है?
विच. : ठण्ढाई।
विदू. : किसके लिए?
विच. : प्यारी सखी के वास्ते।
विदू. : तो आधी हम को दो।
विच. : क्यौं?
विदू. : महाराज के वास्ते।
विच. : कारण?
विदू. : "कर्पूरमंजरी के वास्ते" कारण।
विच. : तुम क्या नहीं जानते महाराज का वियोग?
विदू. : तो तुम क्या नहीं जानती कर्पूरमंजरी का वियोग?
(दोनों हंसते हैं)
विच. : तो महाराज कहां हैं?
विदू. : तुम्हारी आज्ञानुसार पन्ने के कुंज में।
विच. : तो तुम भी वहां जाके बैठो! दम भर में ठण्ढाई के बदले दोनों को दर्शन ही से तरावट पहुंच जायगी।
विदू. : तो वहां जाओ जहां से फिर न बहुरो।
(विचक्षणा को ढकेलता है)
(दोनों आपस में धक्का मुक्की करते हैं)
विच. : छोड़ो छोड़ो! रानी की आज्ञानुसार कर्पूरमंजरी आती होगी।
विदू. : रानी जी की क्या आज्ञा है?
विच. : महारानी ने तीन पेड़ लगाये हैं।
विदू. : किस के?
विच. : कुरवक, तिलक और अशोक के।
विदू. : फिर?
विच. : महारानी ने कहा है कि सुन्दर स्त्रियों के आलिंगन से कुरवक, देखने से तिलक और पैर के छूने से अशोक फूलता है, इस से तुम जाकर मेरे कहे अनुसार सब काम अभी करो, सो वह आती होगी।
विदू. : तो पन्ने के कुंज से प्यारे मित्र को लाकर इन तमालों की आड़ में बैठावें।
(राजा को लाकर तमाल के पास बैठाता है)
विदू. : मित्र सावधान होकर अपने मन रूपी समुद्र के चन्द्रमा को देखो।
राजा : (देखता है)
(सजी सजाई कर्पूरमंजरी आती है)
कर्पूर. : कहां है विचक्षणा?
विच. : (पास जाकर) सखी, रानी की आज्ञा पूरी करो।
राजा : मित्र, कौन सी आज्ञा?
विदू. : घबराओ मत, चुपचाप बैठे बैठे देखा करो।
विच. : यह कुरवक का पेड़ है।
कर्पूर. : (आलिंगन करती है)
राजा : करत अलिंगन ही अहो, कुरवक तरु इक साथ।
फूल्यो उमगि अनन्द सों, परसि पियारी हाथ ।
विदू. : मित्र, यह अद्भुत इन्द्रजाल देखो, जिससे छोटा सा कुरवक का पेड़ कैसा एक साथ फूल उठा! सच है, दोहद के ऐसे ही विचित्र गुण होते हैं।
विच. : और सखी यह तिलक का पेड़ है।
कर्पू. : (देर तक उसी की ओर देखती है)
राजा : अहा, काजर भीनी काम निधि दीठि तिरीछी पाय।
भर्‌यो मंजरिन तिलक तरु, मनहु रोम उलहाय ।
विच. : सखी, अब इस अशोक की पारी है।
कर्पूर. : (वृक्ष को लात मारती है।)
विच. : नूपुर बाजत पद कमल, परसत तुरत अशोक।
फूल्यौ तजि सब सोक निज,प्रगटि कुसुम कल थोक ।
विदू. : मित्र, महारानी ने यह दोहद आप ही क्यौं न किया, आप इस का कारण कुछ कह सकते हैं?
राजा : तुम्ही जानो।
विदू. : मैं कहूं, पर जो आप रूठ न जायं?
राजा : भला इसमें रूठने की कौन बात है, निस्सन्देह जो जी में आवे कह डालो।
विदू. : जदपि उतै रूपादि गुन, सुन्दर मुख तन केस।
पै इत जोबन नृपति की, महिमा मिली विसेस ।
राजा. : जदपि इत जोबन नवल, मधुर लरकई चारु।
पै उत चतुराई अधिक, प्रगटन रस व्यौहारु ।
विदू. : सच है जवानी और चतुराई में बड़ा बीच है।
(नेपथ्य में बैतालिक गाते हैं)
(राग चैती गौरी)
मन भावनि भई सांझ सुहाई। दीपक प्रकट कमल सकुचाने
प्रफुलित कुमुदिनि निसि ढिग आई।। ससि प्रकाश पसरित तारागण
उगन लगे नभ में अकुलाई। साजत सेज सबै जुवती जन पीतम
हित हिय हेत बढ़ाई। फूले रैन फूल बागन में सीतल पौन चली
सुखदाई। गौरी राग सरस सुर सब मिलि गावत कामिनि काम
बधाई ।
राजा : मित्र, देखो सन्ध्या हुई।
विदू. : तभी न बन्दियों ने सांझ के गीत गाए।
कर्पूर. : सखी अंधेरा होने लगा, अब चलो।
विच. : हां, चलना चाहिए।

(जवनिका गिरती है) इति द्वितीय अंक। 

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रचनाएँ
कर्पूर मंजरी
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कर्पूरमंजरी संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार एवं काव्यमीमांसक राजशेखर द्वारा रचित प्राकृत का नाटक (सट्टक) है। प्राकृत भाषा की विशुद्ध साहित्यिक रचनाओं में इस कृति का विशिष्ट स्थान है।इन सबमें कर्पूरमंजरी सर्वोत्कृष्ट और प्रौढ़ रचना है। राजशेखर का संस्कृत और प्राकृत भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। वे सर्वभाषानिषणण कहे जाते थे। कर्पूरमंजरी की प्राकृत प्रौढ़ एवं प्रांजल है।
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कर्पूर मंजरी - सट्टक

26 जनवरी 2022
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दोहा भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर। जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर । (सूत्रधार आता है) सूत्रधार : (घूमकर) हैं क्या हमारे नट लोग गाने बजाने लगे? यह देखो कोई सखी कपड़े चुनती है, कोई माला ग

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पहिला अंक

26 जनवरी 2022
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स्थान: राजभवन (राजा, रानी, विदूषक और दरबारी लोग दिखाई पड़ते हैं) राजा : प्यारी, तुम्हें बसन्त के आने की बधाई है, देखो अब पान बहुत नहीं खाया जाता, न सिर में तेल देकर कस के गूंधी जाती है, वैसे ही चोली

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दूसरा अंक

26 जनवरी 2022
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स्थान राजभवन (राजा और प्रतिहारी आते हैं) प्र. : इधर महाराज इधर। राजा : (कुछ चलकर सोच से) हा! उस समय यह यद्यपि कुच नितम्ब भार से तनिक भी न हिली, परन्तु त्रिबली केतरंग भय श्वास से चंचल थे, और गला त

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तीसरा अंक

26 जनवरी 2022
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स्थान राजभवन (राजा और विदूषक आते हैं) राजा : (स्मरण करके)। उसकी मधुर छबि के आगे नया चन्द्रमा, चम्पे की कली, हलदी की गांठ, तपाया सोना और केसर के फूल कुछ नहीं हैं। पन्ने के हार और मालती की माला से शोभ

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चौथा अंक

26 जनवरी 2022
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(राजा और बिदूषक आते हैं) राजा : अहा! ग्रीष्म ऋतु भी कैसा भयानक होता है! इस ऋतु में दो बातैं अत्यन्त असह्य हैं-एक तो दिन की प्रचण्ड धूप, दूसरे प्यारे मनुष्य का वियोग। विदू. : संसार में दो प्रकार के म

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