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चौथा अंक

26 जनवरी 2022

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(राजा और बिदूषक आते हैं)
राजा : अहा! ग्रीष्म ऋतु भी कैसा भयानक होता है! इस ऋतु में दो बातैं अत्यन्त असह्य हैं-एक तो दिन की प्रचण्ड धूप, दूसरे प्यारे मनुष्य का वियोग।
विदू. : संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं-एक सुखी एक दुखी। हम अच्छे न सुखी न दुखी, न संयोगी न वियोगी।
(नेपथ्य में मैना बोलती है)
तो तेरा सिर टूट बेल सा क्यौं नहीं गिर पड़ता?
राजा : मित्र खिलवाड़िन मैना क्या कहती है, सुनो।
विदू. : (क्रोध से) अच्छा दुष्ट दासी देख अभी तुझको पकड़ कर मरोड़ डालते हैं।
(नेपथ्य में मैना बोलती है)
हां हां, निपूते जो हमैं पर न होते तू सब करता।
राजा : (देख कर) क्या मैना उड़ गई? (विदूषक से) कामी जनों की प्यारी इस गरमी की ऋतु में जब निशारूपी मैना जल्दी से उड़ जाती है तो यह मैना क्यों न उड़ै। क्यौं न हो, वा संयोगियों को तो ग्रीष्म भी सुखद ही है। दोपहर तक ठण्डे चन्दन का लेप, तीसरे पहर महीन गीले कपड़े, पु$हारे, खसखाने और सांझ को जल बिहार और हिम से ठण्ढी की हुई मदिरा और पिछली रात ठण्ढी हवा में विहार इत्यादि इस ऋतु में भी सुुख के सभी साज हैं, पर जो करने वाला हो।
विदू. : ऐसा नहीं, मुंह भर के पान, पानी से फूली हुई सुपारी और कपूर की धूर और मीठा भोजन ही गरमी में सुखद होता है।
राजा : छिः, इस गरमी में भी तुझे पान और मीठे भोजन की पड़ी है। गरमी में तो वायु के संयोग से जल, हिम में रखने से मदिरा, चन्दनलेप करने से स्त्री, सुन्दर कण्ठ पाकर फूल और पंचम स्वर से पूरित होकर वंशी यही पांच वस्तु ठण्डी हैं। तथा सिरीस के फूल के गहने, बेल की चोटी, मोतियों के हार, चम्पे की चम्पाकली, नेवारी के गजरे, जल भरी कुमुद की बिना डोरे की माला और हाथ में कमलनाल के कंकण यही सुन्दरियों को रत्नाभरण के बदले योग्य शृंगार हैं।
विदू. : हम तो यही कहेंगे कि दोपहर को चन्दन लगाए, साँझ को नहाए मन्दवायु से कान का फूल हिलाने वाली स्त्री ही गरमी में सुखद होती है।
राजा : (याद करके) देखो, जिन के प्यारे पास हैं उनको गरमी के बड़े दिन एक क्षण से बीतते हैं, पर जो अपने प्यारे से दूर पड़े हैं उनको तो ये दिन पहाड़ से भी बड़े हो जाते हैं, (विदूषक से) मित्र, कुछ उसी की बात कहो।
विदू. : हां मित्र, सुनो, बहुत अच्छी-अच्छी बात कहेंगे। जब से कर्पूरमंजरी को गुप्त घर की सुरंग के दरवाजे पर महारानी ने देख लिया है तबसे सुरंग का मुंह बन्द करके अनंगसेना, क¯लगसेना, बसन्तसेना और विभ्रमसेना, नामक चार सखियों को नंगी तलवार लेकर पूरब में, अनंगलेखा, चन्दनलेखा, चित्रलेखा, मृगांकलेखा, और विभ्रमलेखा इन पांच सखियों को धनुष देकर दक्षिण में, और कुन्दनमाला, चन्दनमाला कुबलमाला, कांचनमाला, वकुलमाला, मंगलमाला और माणिक्यमाला इन सात संखियों को चोखे भाले देकर पश्चिम दरवाजे पर, और अनंगकेलि, कर्पूरकेलि, कंदर्पकेलि और सुंदरकेलि, इन चार सखियों को खंग देकर उत्तर की ओर पहरे के वास्ते रक्खा है और भी हजारों हथियारबन्द सखी चारों ओर फिरा करती हैं, और मदिरावती, केलिवती, कल्लोलवती, तरंगवती और तांबूलवती ये पांच सोने की छड़ी हाथ में लेकर उस सेना की रक्षा करती है।
राजा : वाह रे ठाट बाट! महारानी सचमुच अपने महारानीपन पर आ गईं।
विदू. : मित्र, महारानी के यहाँ से सारंगिका नाम की सखी कुछ कहने को आती है।
(सारंगिका जाती है)
सारंगिका : महाराज की जय हो। महाराज! महारानी ने निवेदन किया है कि आज बटसावित्री का उत्सव होगा सो महाराज छत पर से देखें।
राजा : महारानी की जो आज्ञा।
(सारंगिका आती है)
(राजा और विदूषक छत पर चढ़ना नाट्य करते हैं)
विदूषक : देखिए, मोतियों के गहने से लदी हुई नृत्य में वस्त्र फहराने वाली स्त्रियां हीरे के नगीने से जलकणों में कैसा परस्पर खेल रही हैं, इधर विचित्र प्रबंध से घूमने वाली, फिरकी की भांति नाचने वाली और सम पर पांव रखने वाली स्त्रियां कैसा परस्पर नाच रही हैं, कोई मण्डल बाँधकर पंक्ति से, कोई दूसरी का हाथ पकड़कर और कोई अकेली ही नाचती है। नृत्य के श्रमश्वास के कुचों पर हार कम्पित होकर देखने वालों के नेत्र और मन को अपनी ओर बुलाते हैं, सब देश की स्त्रियों के स्वांग बन कर कुछ स्त्रियाँ अलग ही कौतुक कर रही हैं। यह देखिये जिस ने भीलनी का स्वांग लिया है वह कैसी निल्र्लज्ज और मत्तचेष्ठा करती है? वैसे ही जो गंवारिन बनी है वह अपनी सहज सीधी और भोली चितवन से अलग चित्त चुराती है; कोई गाती है, कोई हंसती है, कोई नकल करती है सब अपने-अपने रंग में मस्त है।
(सारंगिका आती है)
सार. : (आप ही आप) अहा! महाराज तो छत पर पन्ने के बंगले में बैठे हैं (प्रगट) महाराज की जय हो। महाराज! महारानी कहती हैं कि हम सांझ को महाराज का ब्याह करैंगे।
विदूषक : ह हा ह हा! वाह! क्या अच्छी बे समय की रागिनी छेड़ी गई है।
राजा : सारंगिके! सविस्तार कहो, तुम्हारी बात हमारी समझ में नहीं आती।
सारं. : विगत चतुर्दशी को महारानी ने मानिक्य की गौरी बना कर भैरवानन्द जी के हाथ से प्रतिष्ठा कराई थी, सो जब महारानी ने भैरवानन्द जी से कहा कि आप कुछ गुरुदक्षिणा मांगिये तब उन्होंने कहा, "ऐसी गुरुदक्षिणा दो जिसमें महाराज का कल्याण भी हो और वे प्रसन्न भी हों, अर्थात् लाट देश के राजा चन्द्रसेन की कन्या घनसारमंजरी को ज्योतिषियों ने बताया है कि जिससे इसका विवाह होगा वह चक्रवर्ती होगा। उसका महाराज से विवाह कर दो यही हमें गुरुदक्षिणा दो।" महारानी ने भी स्वीकार किया और इसी हेतु मुझे आपके पास भेजा है।
विदू. : वाह वाह! सिर पर सांप और काबुल में वैद्य, आज ब्याह और लाट देश में घनसारमंजरी।
राजा : इससे क्या! भैरवानन्द के प्रभाव से सब निकट है।
सारं. : महाराज, आम की बारी वाली चामुण्डा के मन्दिर में महारानी और भैरवानन्द जी आपका ब्याह करैंगे सो आप यहां से कहीं मत टलियेगा।
(जाती है)
राजा : वह बस भैरवानन्द जी का प्रभाव है।
विदू. : सच है, चन्द्र बिना चन्द्रकान्तमणि को और कौन द्रवावै?
(एक ओर बगीचे और मन्दिर का दृश्य)
(भैरवानन्द आता है)
भैरवानन्द : इस बट के मूल में सुरंग के दरवाजे पर चामुण्डा की मूर्ति है तो यहीं ठहरैं। (हाथ जोड़कर) कल्पान्त महास्मशान रूपी क्रीड़ा मन्दिर में ब्रह्मा की खोपड़ी के कटोरे में राक्षसों का उष्ण रुधिर रूपी मद्यपान करने वाली कराली काली को नमस्कार है। (आगे बढ़कर) अभी तक कर्पूरमंजरी नहीं आई?
(सुरंग का मुंह खुलता है और उसमें से कर्पूरमंजरी निकलती है)
क. म. : महाराज प्रणाम करती हूं।
भै. न. : योग्य वर पाओ! आओ, यहां बैठो।
क. म. : (बैठती है)।
भै. न. : अब तक रानी नहीं आई?
(रानी आती है)
रानी : (आगे देख कर) अरे यही चामुण्डा है? और कर्पूरमंजरी भी बैठी है। (भैरवानन्द से) महाराज, ब्याह की सामग्री से आवें।
भै. न. : हां रानी।
रानी : (आगे बढ़ती है।)
भै. न. : (हंस कर) यह खोजने गई है कि हमारे पहरे में से कर्पूरमंजरी कैसे चली आई? तो अच्छा बेटा कर्पूरमंजरी तुम सुरंग की राह से जाकर अपनी जगह पर बैठो, जब रानी देख ले तब चली आना।
क. म. : जो आज्ञा (उसी भांति जाती है)।
रानी : (आगे एक घर में झांक कर) अरे कर्पूरमंजरी तो यही है, वह कोई दूसरी होगी, बेटा कर्पूरमंजरी जी कैसी है?
(नेपथ्य में) सिर में कुछ दर्द है।
रानी : तो चलें (आगे बढ़कर) लाओ जल्दी तैयारी...। (कर्पूरमंजरी सुरंग की राह से आकर अपनी जगह पर बैठती है)
रानी : (देखकर) अरे! यहां भी कर्पूरमंजरी!
भै. न. : बेटा विभ्रमलेखे! ब्याह की सामग्री ले आई?
रानी : हां लाई सही, पर कर्पूरमंजरी के लायक आभूषण लाना भूल गई।
भै. न. : तो जाओ जल्दी ले आओ।
रानी : जो आज्ञा (आगे बढ़कर उसी घर की ओर जाती है)
भै. न. : बेटा कर्पूरमंजरी फिर वैसा ही करो।
क. म. : जो आज्ञा (वैसे ही जाती है)
रानी : (उसी घर के दरवाजे से झांककर) आहा! मैं निस्सन्देह ठगी गई, (प्रगट) अरे ब्याह की तयारी लाओ (कर्पूरमंजरी वैसे ही आती है) (फिर भैरवानाद के पास आकर और कर्पूरमंजरी को देख कर) यह क्या चरित्र है! हा! हमारी चेष्टा इस योगीश्वर ने ध्यान से सब जानी होगी।
भै. न. : रानी! बैठो, महाराज भी आते होंगे।
(राजा और विदूषक ऊपर से उतरते हैं और कुरंगिका आती है)
भै. न. : महाराज विराजिए (सब बैठते हैं)
राजा : (कर्पूरमंजरी को देखकर) यह कामदेव की मूर्ति मान शक्ति है, वा शृंगार की साक्षात लता है, वा सिमटी हुई चन्द्रमा की चांदनी है, वा हीरे की पुतली है, वा वसन्तऋतु की मूल कला है, जिसको इसने एक बार देखा उसके चित्तरूपी देश में कामदेव का निष्कंटक राज हुआ।
विदू. : (धीरे से) वाह रे जल्दी, अरे अब तो क्षण भर में गोद ही में आई जाती है। अब क्या बक बक लगाए हौ, कोई सुनैगा तो क्या कहेगा?
रानी : (कुरंगिका से) तुम महाराज को गहिना पहिनाओ और सुरंगिका घनसार मंजरी को (दोनों सखियां वैसा ही करती हैं)।
भै. न. : उपाध्याय को बुलाओ।
रानी : महाराज का पुरोहित आर्य कपिंजल बैठा ही है फिर किस की देर है?
विदू. : हां हां, हम तो तय्यार ही हैं। मित्र, हम गठबन्धन करते हैं, तुम कर्पूरमंजरी का हाथ पकड़ो और कर्पूरमंजरी, तुम महाराज को पकड़ो (झूठ मूठ के अशुद्ध मंत्र पढ़ता है और वैदिकों की चेष्टा करता है)।
भै. न. : तुम निरे वही हौ कर्पूरमंजरी का घनसार मंजरी नाम हुआ।
राजा : (कर्पूरमंजरी का हाथ पकड़ कर आप ही आप) आहा! इसके कोमल कर स्पर्श से कदम्ब और केवड़े की भांति मेरा शरीर एक साथ रोमांचित हो गया।
विदू. : अग्नि प्रगटाओ और लावा का होम करो (राजा और कर्पूरमंजरी अग्नि की फेरी करते हैं, कर्पूरमंजरी धुँएं से मुंह फेरना नाट्य करती है)।
रानी : अब विवाह हो गया, हम जाते हैं। (जाती है)
भै. न. : विवाह की आचार्य दक्षिणा दीजिए।
राजा : (विदूषक से) हां मित्र! सौ गांव तुमको दिया।
विदू : स्वस्ति स्वस्ति (उठकर बगल बजाकर नाचता है)।
भै. न. : महाराज, कहिए और क्या होय?
राजा : (हाथ जोड़कर) महाराज! अब क्या बाकी है?
कुन्तल नृपकन्या मिली, चक्रवर्ति पद साथ।
सब पूरे मनकाज मम, तुम पद बल ऋषिनाथ ।
तब भी भरतवाक्य सत्य हो।
उन्नत चित्त ह्वै आर्य परस्पर प्रति बढ़ावै।
कपट नेह तजि सहज सत्य व्यौहार चलावै ।
जव न संसरग जात दोस गन इन सो छूटैं।
सबै सुपथ पथ चलै नितही सुख सम्पति लूटैं ।
तजि विविध देव रति कर्म मति एक भक्ति पथ सब गहै।
हिय भोगवती सम गुप्त हरिप्रेम धार नितही बहै ।


। इति । 

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रचनाएँ
कर्पूर मंजरी
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कर्पूरमंजरी संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार एवं काव्यमीमांसक राजशेखर द्वारा रचित प्राकृत का नाटक (सट्टक) है। प्राकृत भाषा की विशुद्ध साहित्यिक रचनाओं में इस कृति का विशिष्ट स्थान है।इन सबमें कर्पूरमंजरी सर्वोत्कृष्ट और प्रौढ़ रचना है। राजशेखर का संस्कृत और प्राकृत भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। वे सर्वभाषानिषणण कहे जाते थे। कर्पूरमंजरी की प्राकृत प्रौढ़ एवं प्रांजल है।
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कर्पूर मंजरी - सट्टक

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दोहा भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर। जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर । (सूत्रधार आता है) सूत्रधार : (घूमकर) हैं क्या हमारे नट लोग गाने बजाने लगे? यह देखो कोई सखी कपड़े चुनती है, कोई माला ग

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पहिला अंक

26 जनवरी 2022
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स्थान: राजभवन (राजा, रानी, विदूषक और दरबारी लोग दिखाई पड़ते हैं) राजा : प्यारी, तुम्हें बसन्त के आने की बधाई है, देखो अब पान बहुत नहीं खाया जाता, न सिर में तेल देकर कस के गूंधी जाती है, वैसे ही चोली

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दूसरा अंक

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स्थान राजभवन (राजा और प्रतिहारी आते हैं) प्र. : इधर महाराज इधर। राजा : (कुछ चलकर सोच से) हा! उस समय यह यद्यपि कुच नितम्ब भार से तनिक भी न हिली, परन्तु त्रिबली केतरंग भय श्वास से चंचल थे, और गला त

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तीसरा अंक

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स्थान राजभवन (राजा और विदूषक आते हैं) राजा : (स्मरण करके)। उसकी मधुर छबि के आगे नया चन्द्रमा, चम्पे की कली, हलदी की गांठ, तपाया सोना और केसर के फूल कुछ नहीं हैं। पन्ने के हार और मालती की माला से शोभ

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चौथा अंक

26 जनवरी 2022
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(राजा और बिदूषक आते हैं) राजा : अहा! ग्रीष्म ऋतु भी कैसा भयानक होता है! इस ऋतु में दो बातैं अत्यन्त असह्य हैं-एक तो दिन की प्रचण्ड धूप, दूसरे प्यारे मनुष्य का वियोग। विदू. : संसार में दो प्रकार के म

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