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पहिला अंक

26 जनवरी 2022

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स्थान: राजभवन

(राजा, रानी, विदूषक और दरबारी लोग दिखाई पड़ते हैं)

राजा : प्यारी, तुम्हें बसन्त के आने की बधाई है, देखो अब पान बहुत नहीं खाया जाता, न सिर में तेल देकर कस के गूंधी जाती है, वैसे ही चोली भी कस के नहीं बांधी जाती, न केसर का तिलक दिया जा सकता है, इसी से प्रगट है कि बसन्त ने अपने बल से सरदी को अब जीत लिया।

रानी : महाराज! आपको भी बधाई है, देखिए, कामी जन चन्दन लगाने और फूलों की माला पहिरने लगे, और दोहर पाएंते रक्खी रहती है, तौ भी अब ओढ़ने की नौबत नहीं आती।

(नेपथ्य में दो बैतालिक गाते हैं।)

जै पूरब दिसि कामिनी कंत।

चंपावति नगरी सुख समन्त ।

खेलत जीत्यौ जिन राढ़ देश।

मोहत अनंग लखि जासु भेस ।

क्रीड़ा मृग जाको सारदूल।

तन बरन कान्ति मनु हेम फूल ।

सब अंग मनोहर महाराज।

यह सुखद होइ रितुराज साज ।

मन्द मन्द लैं सिरिस सुगधहि सरस पवन यह आवै।

करिं संचार मलय पर्वत पैं बिरहिन ताप बढ़ावै ।

कामिनि जन के बसन उड़ावत काम धुजा फहरावै।

जीवन प्रान दान सो बितरत वायु सबन मन भावै । 1 ।

देखहु लहि रितुराजहि उपबन फूली चारु चमेली।

लपटि रही सहकारन सों बहु मधुर माधवी बेली ।

फूले बर बसन्त बन बन मैं कहुं मालती नबेली।

तापैं मदमाते से मधुकर गूंजत मधुरस रेली । 2 ।

राजा : प्यारी, हम लोग तो आपस में बसन्त की बधाई एक दूसरे को देते ही थे अब इन दोनों कांचनचन्द्र और रत्नचन्द्र बन्दियों ने हम दोनों को बधाई दी। अब तुम इस बसन्तोत्सव की ओर दृष्टि करो। देखो कोइल कैसे पंचम सुर में बोलती है, हवा के झोंके से लता कैसी नाच रही है। तरुन स्त्रियों के जी में कैसा इस का उत्साह छा रहा है और सारी पृथ्वी इस बसन्त की वायु से कैसी सुहानी हो रही है!

रानी : महाराज! बन्दी ने जैसा कहा है हवा वैसी ही बह रही है, देखिए यह पवन लंका के कनगूरों की पद्धति में यद्यपि कैसा चंचल है पर अगस्त मुनि के आश्रम में उन के भय से धीरा चलता है, इस के झोंके से चन्दन कपूर कंकोल और केले के पत्ते कैसे झोंका खा रहे हैं, जंगलों में जहां तहां सांप नाचते हैं और ताम्रपर्णी नदी की लहरों को यह स्पर्श करता है तो उन्हें दूना कर देता है।

देखिये, कोयल मानों कामदेव की आज्ञा से इस चैत के त्यौहार में पुकार रही है कि तरुणिओं झूठा-मान छोड़ो, अपने प्यारे को प्यार की चितवन से देखो, और दौड़-दौड़ के प्रीतम को गले लगाओ, यह चार दिन की जवानी तो बहती नदी है, फिर यह दिन कहां और यह समय कहां?

विदूषक : अरे कोई मुझे भी पूछो, मैं भी बड़ा पंडित हूं, जब मैंने अपना मकान बनाया था तो हजारों गदहों पर लाद लाद कर पोथियों नेव में भरवाई गई थीं और हमारे ससुर जनम भर हमारे यहां पोथी ही ढोते-ढोते मरे, काले अक्षर दूसरों को तो कामधेनु हैं पर हमको भैंस हैं।

विचक्षणा : इसी से तो तुम्हारा नाम लबार पाण्डे़ है।

वि. : (क्रोध से) हत तेरी की, दाई माई कुटनी लुच्ची मूर्ख! अब हम ऐसे हो गए कि मजदूरिनैं भी हमैं हंसै!

विच. : तुम्हारी माई कुटनी है तभी तुम ऐसे सपूत हुए, तुम से तो वे भाट अच्छे जो अभी गीत गा गए हैं, तुम्हैं इतनी भी समझ नहीं है कि कुछ बनाओ और गाओ, यह सेखी और तीन काने।

विदू. : अब हम इन के सामने गावेंगे, इनका मुंह है कि हमारी कविता सुनें हां अगर हमारे दोस्त महाराज कुछ कहें तो अलबत्ते गाऊं।

राजा : हां, हां मित्र पढ़ो, हम सुनते हैं।

विदू. : 'लाठी पर तमूरा बजा कर गाता है।'

आयो आयो बसन्त आयो आयो बसन्त। बन में महुआ टेसू फुलन्त ।

नाचत है मोर अनेक भांति, मनु भैंस का पड़वा फूलफालि

बेला फूले बन बीच बीच, मानो दही जमायो सींच सींच ।

बहि चलत भयो है मन्द पौन, मनु गदहा का छान्यो पैर ।

तारीफ और वाह वाह करते जाइए नहीं न गाया जायगा,

देखिए संगीत साहित्य दोनों एक ही साथ करना मेरा काम है।

(गाता है)

गेंदा फूले जैसे पकौरि। लड्डू के फले फल बौरि बौरि ।

खेतन में फूले भातदाल। घर में फूले हम कुल के पाल ।

आयो आयो बसन्त आयो आयो बसन्त ।

(सब लोग हंसते हैं)

राजा : भला इनकी कविता तो हो चुकी अब विचक्षणे! तुम भी कुछ पढ़ो।

विदू. : हां हां, हमारी बोली पर हंसती है तो यह पढ़ै बड़ी बोलने वाली इस को सिवाय टें टें करने के और आता क्या है, क्या ऐसी बदमाश स्त्री राजा के महल में रहने के योग्य है? यह रात दिन महारानी का गहना चुरा कर अपने मित्रों को दिया करती है और उस पर हमारे काव्य पर हंसती है, सच है बन्दर आदी का स्वाद क्या जाने, हमारे काव्य पर रीझने वाले महाराज हैं, तू क्या रीझेगी, अब देखते न हैं तू कैसा काव्य पढ़ती है।

रानी : हां हां सखी विचक्षणे! हम लोगों के आगे तो तू ने अपना बनाया काव्य कई बेर पढ़ा है, आज महाराज के सामने भी तो पढ़, क्योंकि विद्या वही जिसकी सभा में परीक्षा ली जाय और सोना वही जो कसौटी पर चढे़ और शस्त्र वही जो मैदान में निकले।

विचक्षणा : महारानी की जो आज्ञा (पढ़ती है)

फूलैंगे पलास बन आगि सी लगाइ कूर,

कोकिल कुहकि कल सबद सुनावैगो ।

त्यौंही सखी लोक सबै गावैगो धमार धीर।

हरन अबीर बीर सब ही उड़ावैंगो ।

सावधान होहुरो वियोगिनी सम्हारि तन,

अतन तनकही मैं तापन तें तावैगो ।

धीरज नसावत बढ़ावत बिरह काम,

कहर मचावत बसन्त अब आवैगो ।

राजा : वाह वाह! सचमुच विचक्षणा बड़ी ही चतुर है और कविता-समुद्र के पार हो गई है, यह तो सब कवियों की राजा होने योग्य है।

रानी : (हंस कर) इस में कुछ सन्देह है हमारी सखी सब कवियों की सिरताज तो हुई।

विदू. : (क्रोध से) तो महारानी स्पष्ट क्यों नहीं कहती कि यह दासी विचक्षणा बहुत अच्छी है और कपिंजल ब्राह्मण बहुत निकम्मा है।

विचक्षणा : हैं हैं! एकबारगी इतने लाल पीले हो गए, जो जैसा है उसका गुण तो उस के काव्य ही से प्रकट हो गया, तुम्हारे काव्य की उपमा तो ठीक ऐसी है जैसे लम्बस्तनी के गले में मोती की माला, बड़े पेट वाली को कामदार कुरती, सिर मुण्डी को फूलों की चोटी और कानी को काजल।

विदू. : सच है, और तुम्हारी कविता ऐसी है सफेद फर्श पर गोबर का चोंथ, सोने की सिकड़ी में लोहे की घण्टी और दरियाई की अंगिया में मूंज की बखिया।

विचक्षणा : खफा मत हो, अपनी ओर देखो, आप आप ही हो, एक अक्षर नहीं जानते तिस पर भी हीरा तौलते हो, और हम सब पढ़ लिख कर भी अब तक कपास ही तौलती हैं।

विदू. : बकबक किये ही जायगी तो तेरा दाहिना और बायां युधिष्ठिर का बड़ा भाई उखाड़ लेंगे।

विचक्षणा : और तुम भी जो टें टें किये ही जाओगे तो तुम्हारी भी स्वर्ग काट के एक ओर के पोंछ की अनुप्रास मूड़ देंगे और लिखने की सामग्री मुंह में पोत कर पान के मसाले का टीका लगा देंगे।

राजा : मित्र! इस के मुंह मत लगो, यह कविताई में बड़ी पक्की है।

विदू. : (क्रोध से) तो साफ साफ क्यों नहीं कहते कि हरिश्चन्द्र और पद्माकर इसके आगे कुछ नहीं है।

(क्रोध करके इधर उधर घूमता है)

विचक्षणा : चल, उसी खूंटी पर लटक जिस पर मेरा लहंगा रक्खा है।

विदूषक : (क्रोध कर और सिर हिला के) और तू भी वहां जा जहां मेरी बुड्ढी मां के दाँत गए। छिः! हम भी बड़े बड़े दरबार से निकाले गए पर ऐसी अंधेर नगरी और चौपट राजा कहीं नहीं। यहां चरणामृत और शराब एक ही बरतन में भरे जाते हैं।

विचक्षणा : भगवान करे इस दरबार से तुझे वह मिले जो महादेव जी के सिर पर है और तुझे वह शास्त्र पढ़ाया जाय जो कांटों को मर्दन करता है।

विदूषक : लौंडिया फिर टें टें किये ही जाती है, खजाना लूट लूट के खाली कर दिया, इस पर भी मोढ़े पर बैठने वाली और गलियों में मारी मारी फिरने वाली, हम कुलीन ब्राह्मणों के मुंह लगती है। जा तुझको सर्वदा वही फांकना पड़े जो महादेव जी अंग में पोतते हैं और तेरे हाथ सदा वही लगे जिसमें धरम बंधता है।

विचक्षण : तेरे इस बोलने पर तो ऐसा जी चाहता है कि पान के बदले चरनदास जी से तेरा मुंह लाल कर दूं। फिट।

विदू. : (बड़े क्रोध से ऊंचे स्वर से) ऐसे दरबार को दूर ही से नमस्कार करना चाहिए जहाँ लौंडियां पण्डितों के मुंह आवैं। यदि हमें इसी उचक्की की बात सहनी हो तो हम बसुंधरा नाम की अपनी ब्राह्मणी ही की न चरनसेवा करें जो अच्छा अच्छा और गर्म-गर्म खाने को खिलावे (ऐसा कहता हुआ क्रोध से चला जाता है) (सब लोग हंसते हैं)।

रानी : महाराजा कपिंजल बिना सभा ऐसी हो गई जैसे बिना काजल का शृंगार।

नेपथ्य में

नहीं नहीं हम नहीं आवेंगे। विचक्षणा को खसम और राजा को मुसाहब कोई दूसरा खोज लो या आज ये हमारा काम वही गलितयौवना और चिपटे नाक कान वाली करेगी।

विचक्षणा : महारानी! आपके आग्रह से यह कपिंजल और भी अकड़ा जाता है, जैसे सन की गांठ भिगाने से उलटी कड़ी होती है, उसको जाने दीजिए इधर देखिए यह गवांरिनों के गीतों और चांचर से मोहित सूर्य यद्यपि धीरे चलता है तो भी अब कितना पास आ गया है।

(विदूषक घबड़ाया हुआ आता है)

विदूषक : आसन! आसन!!

राजा : क्यों?

विदूषक : भैरवानन्द जी आते हैं।

राजा : क्या वही भैरवानन्द जो आज कल के बड़े प्रसिद्ध हैं?

विदूषक : हां, हां।

(भैरवानन्द आते हैं)

भै. न. : जंत्र न मंत्र न ज्ञान न ध्यान न जोग न भोग केवल गुरु का प्रसाद, पीने को मदिरा औ खाने को मांस, सोने को स्त्री मसान का बांस, लाख लाख दासी सब कड़े-कड़े अंग सेवा में हाजिर रहैं पीए मद्य भंग, भिच्छा का भोजन औ चमड़े का बिछौना, लंका-पलंका सातो दीप नवो खण्ड गौना, ब्रह्मा विष्णु महेश पीर पैगम्बर जोगी जती सती बीर महाबीर हनूमान रावन माहिरावन आकाश पाताल जहाँ बांधू तहां रहे जो जो कहूँ सो सो करे, मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो मंत्र ईश्वरोवाच, दोहाई पशुपति नाथ की, दोहाई कामाक्षा की, दोहाई गोरखनाथ की।

राजा : महाराज! प्रणाम!

भै. न. : राजा! विष्णु और ब्रह्मा तप करते करते थक गए पर सिद्धि मद्य और स्त्री ही में है यह महादेव जी ही ने जाना है तो वह कापालिकों के परम कुलगुरु शिव तेरा कल्याण करै।

राजा : महाराज, आसन पर विराजिए।

भै. न. : हम रमते लोगों को बैठने से क्या काम, तब भी तेरी खातिर से बैठते हैं। (बैठता है)-बोल, क्या दिखावें?

राजा : महाराज! कुछ आश्चर्य दिखाइए।

भैरवानन्द : क्या आश्चर्य दिखावें?

सूरज बांधू चन्दर बांधू बांधू अगिन पताल।

सेंस समुन्दर इन्दर बांधू औ बांधू जम काल ।

जच्छ रच्छ देवन की कन्या बल लाऊं बांध।

राजा इन्दर का राज डोलाऊं तो मैं सच्चा साध ।

नहीं तो जोगड़ा। और क्या।

राजा : (विदूषक के कान में) मित्र, तुम ने कहीं कोई बड़ी सुन्दर स्त्री देखी हो तो बुलवावें?

विदूषक. : (स्मरण करके) हां! दक्षिण देश में विदर्भ नामक नगर है वहां मैंने एक लड़की बड़ी सुन्दर देखी थी, वही बुलाई जाय।

भैरवानन्द : बोल! बुलाई जाय?

राजा : हां! महाराज! पूर्णमासी का चन्द्रमा पृथ्वी पर उतारा जाय।

भैरवानन्द : (ध्यान करता है)।

(परदे के भीतर से खिंची हुई की भांति एक सुन्दर स्त्री आती है और सब लोग बड़ा ही आश्चर्य करते हैं)

राजा : (आश्चर्य से) आहाहा! जैसे रूप का खजाना खुल गया, नेत्र कृतार्थ हो गए, यह रूप, यह जोबन, यह चितवन, यह भोलापन, कुछ कहा नहीं जाता, मालूम होता है कि वह नहा कर बाल सुखा रही थी उसी समय पकड़ आई है, अहा! धन्य है इसका रूप!!! इसकी चितवन कलेजे में से चित्त को जोराजोरी निकाले लेती है, इसकी सहज शोभा इस समय कैसी भली मालूम पड़ती है, अहा! इसके कपड़े से जो पानी की बूंदें टपकती हैं वह ऐसी मालूम होती हैं मानों भावी वियोग के भय से वस्त्र रोते हैं, काजल आंखों से धो जाने से नेत्र कैसे सुहाने हो रहे हैं, और बहुत देर तक पानी में रहने से कुछ लाल भी हो गए हैं, बाल हाथों में लिए हैं उससे पानी की बूँदें ऐसी टपकती हैं मानो चन्द्रमा का अमृत पी जाने से दो कमलों ने नागिनी को ऐसा दबाया है कि उनके पोंछ से अमृत बहा जाता है, भीगे वस्त्र से छोटे-छोटे इसके कठोर कुच अपनी ऊंचाई और श्यामताई से यद्यपि प्रत्यक्ष हो रहे हैं तौ भी यह उन्हैं बांह से छिपाना चाहती है, और वैसे ही गोरी गोरी जांघैं इस के चिपके हुए भीगे वस्त्र से यद्यपि चमकती हैं तो भी यह उनको दबाए देती है, वरंच इसी अंग उघरने से यह लजाकर सकपकाती सी भी हो रही है और योगबल से खिंच आने से जो कुछ डर गई है, इस से और भी चैकन्नी हो होकर भूले हुए मृगछौने की भाँति अपने चंचल नेत्र नचाती है।

स्त्री : (चकपकानी सी होकर एक एक को देखती है) (आप ही आप) यह कौन पुरुष है जिसका देह गम्भीर और मधुर छबि का मानो पुंज है, निश्चय यह कोई महाराज है और यह भी महादेव के अंग में पार्वती की भांति निश्चय इसकी प्यारी महारानी हैं, (विचार करके) यद्यपि यह एक स्त्री के बगल में बैठा है तौ भी मुझे ऐसी गहरी और तीखी दृष्टि से क्यों देखता है (राजा की ओर देखती है।)

राजा : (विदूषक से कान में) मित्र! अभी तो इसने अपने कानों को छूने वाली चंचल चितवन से मुझे देखा तो ऐसा मालूम हुआ कि मानो मुझ पर किसी ने अमृत की पिचकारी चलाई वा कपूर बरसाया वा चांदनी से एक साथ नहला दिया था मोती का बुक्का छिड़क दिया।

विदूषक : सच्च है, अहाहा! वाह रे इस के रूप की छबि! इसकी कमर एक लड़का भी अपनी मुट्ठी में पकड़ सकता है, और नेत्र की चंचलता देखकर पुरुष क्या स्त्री भी मोह जाती है, देखो यद्यपि इस ने स्नान के हेतु गहना उतार दिया है तो भी कैसी सुहानी दिखाई पड़ती है। सच्च है, सुन्दर रूप को तो गहना ऐसा है जैसा निर्मल जल को काई।

राजा : ठीक है, इसकी छबि तो आप ही कुन्दन की निन्दा करती है। तो गहने से इसे क्या, इसका दुबला शरीर काम की परतंचा उतारी हुई कमान है, और इसके गोरे गोरे गोल गालों में कनफूल की परछाहीं ऐसी दिखाती है जैसे चांदी की थालों में भरे हुए मजीठे के रंग में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब, इसके कर्णावलम्बी नेत्र मेरे मन को अपनी ओर खींचे ही लेते हैं।

विदूषक : (हंस कर) जाना जाना! बहुत बड़ाई मत करो।

राजा : (हंस कर) मित्र! हम कुछ झूठ नहीं कहते, तुम्ही देखो, यह बिना आभूषण भी अपने गुणों से भूषित है। जो स्त्रियाँ ऐसी सुन्दर हैं उन पर पुरुष को आसक्त कराने में कामदेव को अपना धनुष नहीं चढ़ाना पड़ता, देखो इसकी चितवन में मिठास के साथ स्नेह भी झलकता है, इसके कान में नीले कमल के फूल झूलते हुए ऐसे सुहाते हैं मानो चन्द्रमा में से दोनों ओर से कलंक निकला जाता है।

रानी : अजी कपिंजल! इनसे पूछो तो यह कौन हैं या मैं ही पूछती हूं। (स्त्री से) सुन्दरी, यहाँ आओ, मेरे पास बैठो और कहो तुम कौन हो?

राजा : आसन दो।

विदूषक : यह मैंने अपना दुपट्टा बिछा दिया है, बिराजौ स्त्री बैठती है,।

विदूषक : हां, अब कहो।

स्त्री : कुन्तल देश में जो विदर्भनगर है, वहां की प्रजा का बल्लभ, बल्लभराज नामक राजा है।

रानी : (आप ही आप) वह तो मेरा मौसा है।

स्त्री : उसकी रानी का नाम शशिप्रभा है।

रानी : (आप ही आप) और यही तो मेरी मौसी का भी नाम है।

स्त्री : (आंख नीची करके) मैं उन्हीं की बेटी हूँ।

रानी : (आप ही आप) सच है, बिना शशिप्रभा के और ऐसी सुन्दर लड़की किस की होगी। सीप बिना मोती और कहाँ हो (प्रगट) तो क्या कर्पूरमंजरी तू ही है?

स्त्री : (लाज से सिर झुका कर चुप रह जाती है)।

रानी : तो आओ आओ बहिन मिल तो लें।

(कर्पूरमंजरी को गले लगा कर मिलती है)

कर्पूरमंजरी : बहिन, यह आज हमारी पहली भेंट है।

रानी : भैरवानन्द जी की कृपा से कर्पूरमंजरी का देखना हमें बड़ा ही अलभ्य लाभ हुआ। अब यह पन्द्रह दिन तक यहीं रहे-फिर आप जोगबल से पहुँचा दीजिएगा।

भैरवानन्द : महारानी की जो इच्छा।

विदूषक : मित्र! अब हम तुम दो ही मनुष्य यहां बेगाने निकले, क्योंकि ये दोनों तो बहिन ही हैं और भैरवानन्द इन दोनों के मिलाने वाले ठहरे, यह सरस्वती की दूसरी कुटनी भी एक प्रकार की रानी ही ठहरी रह, गए हम।

रानी : विचक्षणा! अपनी बड़ी बहन सुलक्षणा से कह कि भैरवानन्द जी की पूजा करके उनको यथा योग्य स्थान दे।

विचक्षणा : जो आज्ञा।

रानी : महाराज! अब हम महल में जाते हैं, क्योंकि बहिन को अभी कपड़ा पहराना और सिंगार करना है।

राजा : इसको सिंगारना तो मानो चंपे के थाल में कस्तूरी भरना है, पर सांझ हो चुकी है अब हम भी तो चलते हें।

नेपथ्य में दो बैतालिक आते हैं,

प. वै. : राग गौरी, भई यह सांझ सबन सुखदाई।

मानिक गोलक सम दिन मनि मनु संपुट दियो छिपाई ।

अलसानी दृग मूंदि मूंदि कै कमल लता मन भाई।

पच्छी निज निज चले बसेरन गावत काम बधाई ।

दू. वै. : रा ग पूरबी, देखो बीत चल्यो दिन प्यारे, आइ गई रतियां

हो रामा। दीपक बरे निकस चले तारे हो, हिलत नहीं पतियां

हो रामा । दासिन महलन सेज बिछाई हो मान गईं मतियां

रामा। काम छोड़ि घर फिरै सबैं नर हो, लगीं तिय छतियां हो

रामा ।

(जवनिका गिरती है।)
पहला अंक समाप्त हुआ। 

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रचनाएँ
कर्पूर मंजरी
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कर्पूरमंजरी संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार एवं काव्यमीमांसक राजशेखर द्वारा रचित प्राकृत का नाटक (सट्टक) है। प्राकृत भाषा की विशुद्ध साहित्यिक रचनाओं में इस कृति का विशिष्ट स्थान है।इन सबमें कर्पूरमंजरी सर्वोत्कृष्ट और प्रौढ़ रचना है। राजशेखर का संस्कृत और प्राकृत भाषाओं पर असाधारण अधिकार था। वे सर्वभाषानिषणण कहे जाते थे। कर्पूरमंजरी की प्राकृत प्रौढ़ एवं प्रांजल है।
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कर्पूर मंजरी - सट्टक

26 जनवरी 2022
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दोहा भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर। जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर । (सूत्रधार आता है) सूत्रधार : (घूमकर) हैं क्या हमारे नट लोग गाने बजाने लगे? यह देखो कोई सखी कपड़े चुनती है, कोई माला ग

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पहिला अंक

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स्थान: राजभवन (राजा, रानी, विदूषक और दरबारी लोग दिखाई पड़ते हैं) राजा : प्यारी, तुम्हें बसन्त के आने की बधाई है, देखो अब पान बहुत नहीं खाया जाता, न सिर में तेल देकर कस के गूंधी जाती है, वैसे ही चोली

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दूसरा अंक

26 जनवरी 2022
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स्थान राजभवन (राजा और प्रतिहारी आते हैं) प्र. : इधर महाराज इधर। राजा : (कुछ चलकर सोच से) हा! उस समय यह यद्यपि कुच नितम्ब भार से तनिक भी न हिली, परन्तु त्रिबली केतरंग भय श्वास से चंचल थे, और गला त

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तीसरा अंक

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स्थान राजभवन (राजा और विदूषक आते हैं) राजा : (स्मरण करके)। उसकी मधुर छबि के आगे नया चन्द्रमा, चम्पे की कली, हलदी की गांठ, तपाया सोना और केसर के फूल कुछ नहीं हैं। पन्ने के हार और मालती की माला से शोभ

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चौथा अंक

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(राजा और बिदूषक आते हैं) राजा : अहा! ग्रीष्म ऋतु भी कैसा भयानक होता है! इस ऋतु में दो बातैं अत्यन्त असह्य हैं-एक तो दिन की प्रचण्ड धूप, दूसरे प्यारे मनुष्य का वियोग। विदू. : संसार में दो प्रकार के म

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