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दूसरा अंक

27 जनवरी 2022

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स्थान: केले का बन।

समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए।
वियोगिन बनी हुई श्री चंद्रावली जी आती हैं,
चं. : एक वृक्ष के नीचे बैठकर, वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हौ; और निश्चय बिना तुम्हारी कृपा के इसका भेद कोई नहीं जानता, जानै कैसे? सभी उसके अधिकारी भी तो नहीं है, जिसने जो समझा है उसने वैसा ही मान रक्खा है, हा! यह तुम्हारा जो अखंड परमानन्दमय प्रेम है और जो ज्ञान वैराग्यादिकों को तुच्छ करके परम शान्ति देने वाला है उसका, कोई स्वरूप ही नहीं जानता, सब अपने ही सुख में और अभिमान में भूले हुए हैं, कोई किसी स्त्री से या पुरुष से उसको सुन्दर देख कर चित्त लगाना और उससे मिलने का अनेक यत्न करना इसी को प्रेम कहते हैं, और कोई ईश्वर की बड़ी लम्बी-चैड़ी पूजा करने को प्रेम कहते हैं-पर प्यारे तुम्हारा प्रेम इन दोनों से विलक्षण है, क्योंकि यह अमृत तो उसी को मिलता है जिसे तुम आप देते हौ, कुछ ठहर कर, हाय! किससे कहूं और क्या कहूं और क्यों कहूं और कौन सुनै और सुनै भी तो कौन समुझै-हा!
जग जानत कौन है प्रेम विथा
केहि सो चरचा या वियोग की कीजिए।
पुनि को कही मानै कहा समुझै कोऊ
क्यौं बिन बातकी रारहि लीजिए ।।
नित जो हरिचंद जू बीतै सहै
बकि कै जग क्यौं परतीतहि छीजिए।
सब पूछत मौन क्यौं बैठि रही
पिय प्यारे कहा इन्हैं उत्तर दीजिए ।।
क्योंकि-
मरम की पीर न जानत कोय।
कासो कहौं कौन पुनि मानैं बैठि रही घर रोय ।।
कोऊ जरनि न जाननहारी बेमहरम सब लोय।
अपुनी कहत सुनत नहिं मेरी केहि समुझाऊं सोय ।।
लोक लाज कुल की मरजादा दीनी है सर्व खोय।
हरीचंद ऐसेहि निबहैगी होनी होय सो होय ।।
परन्तु प्यारे, तुम तो सुनने वाले हौ? यह आश्चर्य है कि तुम्हारे होते हमारी यह गति हो प्यारे! जिनको नाथ नहीं होते वे अनाथ कहाते हैं ने त्रों में आंसू गिरते हैं।, प्यारे! जो यही गति करनी थी तो अपनाया क्यों?
पहिले मुसुकाई लजाइ कछू
क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो।
पुनि नैन लगाई बढ़ाई कै प्रीति
निबाहन को क्यौं कलाम कियो ।।
हरिचंद भए निरमोही इतै निज
नेह को यो परिनाम कियो।
मनमाहि जो तोरन ही की हती
अपनाइ के क्यों बदनाम कियो ।।
प्यारे तुम बडे निरमोही हौ, हा! तुम्हैं मोह भी नहीं आती।
आंख में आंसू भर कर, प्यारे इतना तो वे नहीं सताते जो पहिले सुख देते हैं तो तुम किस नाते इतना सताते हौ? क्योंकि-
जिय सूधी चितौन की साधै रही
सदा बातन मैं अनखाय रहे।
हंसिकै हरिचंद न बोले कभूं
जिय दूरहिं सों ललचाय रहे ।।
नहिं नेकु दया उर आवत है
करि के कहा ऐसे सुभाय रहे।
सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले
जिहि के बदले यों सताय रहे ।।
हा! क्या तुम्हें लाज भी नहीं आती? लोग तो सात पैर' संग चलते हैं उसका जन्म भर निबाह करते हैं और तुमको नित्य की प्रीति का निबाह नहीं है। नहीं नहीं तुम्हारा तो ऐसा स्वभाव नहीं था यह नई बात है, यह बात नई है या तुम आप नये हो गये
हौ? भला कुछ तो लाज करो!
कितकों ढरिगो वह प्यार सबै
क्यों रुखाई नई यह साजत हौ।
हरिचन्द भये हौ कहां के कहा
अन बोलिबे में नहिं छाजत हौ ।।
नित को मिलनो तो किनारे रह्यौ
मुख देखत ही दुरि भाजत हौ।
पहिले अपनाइ बढ़ाइ कै नेह
न रूसिबे में अब लाजत हौ ।।
प्यारे, जो यही गति करनी थी तो पहिले सोच लेते।
क्योंकि,
तुम्हरे तुम्हरे सब कोऊ कहैं
तुम्हैं सो कहा प्यारे सुनात नहीं।
बिरुदावली आपुनो राखौ मिलौ
मोहि सोचिबे की कोउ बात नहीं ।।
हरिचन्द जू होनी हुती सो भई
इन बातन सों कछू हात नहीं।
अपनावते सोच विचारि अबै
जल पान कै पूछनी जात नहीं ।।
प्राणनाथ!: आंखों में आंसू उमड़ उठे, अरे नेत्रो,0 अपने किये का फल भोगो।
धाइकै आगे मिलीं पहिले तुम
कौन सों पूछि कै सो मोहि भाखौ।
त्यौं सब लाज तजी छिन मैं
केहि के कहे एतौ कियो अभिलाखौ ।।
काज बिगारि सवै अपुनी
हरिचन्द जू धीरज क्यौं नहिं राखौ।
क्यौं अब रोई कै प्रान तजौ
अपुने किये को फल क्यौं नहिं चाखौ ।।
हा!
इन दुखियान कों न सुख सपने हू मिल्यौ
यों हीं सदा व्याकुल बिकल अकुलायेगी।
प्यारे हरिचन्द जू की बीती जानि औध जोपैं
जैहैं प्रान तऊ येतो साथ न समायेगी ।।
देख्यौ एक बारहू न नैन भरि तोहि यातें
जौन जौन लोक जैहें तहीं पछितायेगी।
बिना प्रान प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय
देखि लीजौ आंखें ये खुली ही रहि जायंगी ।।
परन्तु प्यारे, अब इनको दूसरा कौन अच्छा लगैगा जिसे देख कर यह धीरज धरैंगी, क्योंकि अमृत पीकर फिर छाछ कैसे पीयेंगी।
बिछुरे पिय के जग सूनो भयो
अब का करिए कहि पेखि का।
सुख छांड़ि कै संगम को तुम्हरे
इन तुच्छन कों अब लेखिए का ।।
हरिचन्द जू हीरन को वेवहारन कै
कांचन कों लै परेखिए का।
जिन आंखिन मैं तुव रूप बस्यो
उन आंखिन सों अब देखिए का ।।
इससे नेत्र तुम तो अब बन्द ही रहो आंचल से नेत्र छिपाती है,।
ख्बनदेवी 'संध्या ४ और वर्षा झ् आती हैं,
सं. : अरी बन देवी। यह कौन आंखिनैं मूंदि कै अकेली या निरजन बन मैं बैठि रही है।
व. दे. : अरी का तू याहि नांयं जानै? यह राजा चन्द्रभानु की बेटी चन्द्रावली है।
वर्षा. : तो यहां क्यौं बैठी है।
व. दे. : राम जानै कुछ सोचकर, अहा जानी! अरी, यह तो सदा ह्यांई बैठी वक्यौ करै है और यह तो या बन के स्वामी के पीछे बावरी होय गई है।
वर्षा. : तौ चलौ यासूं कछू पूछ।
व. दे. : चल।
(तीनों पास जाती हैं)
व. दे. : चन्द्रावली के कान के पास, अरी मेरी बन की रानी चन्द्रावली! कुछ ठहर कर, राम! सुनै हू नहीं है (और ऊँचे सुर से) अरी मेरी प्यारी सखी चन्द्रावली! (कुछ ठहर कर) हाय! यह तौ अपुने सों बाहर होय रही है अब काहे को सुनैगी (और ऊंचे सुर से) अरी! सुनै नांय नै री मेरी अलख लड़ैती चन्द्रावली!
चं. : (आँख बन्द किये ही) हाँ हाँ अरी क्यौं चिल्लाय है चोर भाग जायगो।
व. दे. : कौन सो चोर?
चं. : माखन को चोर, चीरन को चोर, और मेरे चित्त को चोर।
व. दे. : सो कहां सो भाग जायगो?
चं. : फेर बके जाय है। अरी मैंने अपनी आंखिन में मूंदि राख्यौ है सौ तू चिल्लायगी तौ निकति भागैगो।
व. दे. : (चन्द्रावली की पीठ पर हाथ फेरती है)।
चं. : (जल्दी से उठ, बन देवी का हाथ पकड़ कर) कहो प्राणनाथ! अब कहाँ भागोगे।
(बनदेवी का हाथ छुड़ा कर एक ओर वर्षा सन्ध्या दूसरी ओर वृक्षों के पास हट जाती हैं)
चं. : अच्छा क्या हुआ यों ही हृदय से भी निकल जाओ तो जानूं तुमने हाथ छुड़ा लिया तो क्या हुआ मैं तो हाथ नहीं छोड़ने की, हा! अच्छी प्रीति निबाही!
(बनदेवी सीटी बजाती है)
चं. : देखो दुष्ट का, मेरा तो हाथ छुड़ा कर भाग गया अब न जाने कहाँ खड़ा बंशी बजा रहा है। अरे छलिया कहाँ छिपा है? बोल बोल कि जीते जी न बोलैगा कुछ ठहर कर, मत बोल मैं आप पता लगा लूंगी। ख्बन के वृक्षों से पूंछती है, अरे वृक्षो, बताओ तो मेरा लुटेरा कहाँ छिपा है? क्यां रे मोरो इस समय नहीं बोलते नहीं तो रात को बोल के प्राण खाये जाते थे कहो न वह कहाँ छिपा है गा ती है,
अहो अहो बन के रुख कहूं देख्यौ पिय प्यारो।
मेरो हाथ छुड़ाई कहौ वह कितै सिधारो ।।
अहो कदम्ब अहो अम्ब निम्ब अहो बकुल तमाला।
तुम देख्यौ कहुं मन मोहन सुन्दर नंदलाला ।।
अहो कुंज बन लता बिरुध तृन पूछत तोसों।
तुम देखे कहुं श्याम मनोहर कहहु न मोसों ।।
ओ जमुना अहो खग मृग हो अहो गोबरधन गिरि।
तुम देखे कहुं प्रानं पियारे मन मोहन हरि ।।
(एक-एक पेड़ से जाकर गले लगती है)
(बन देवी फिर सीटी बजाती है)
चं. : अहा देखो, उधर खड़े प्राण प्यारे मुझे बुलाते हैं। तो चलो, उधर ही चलें। (अपने आभरण संवारती हैं)।
(वर्षा और संध्या पास आती हैं)
व. : (हाथ पकड़ कर) कहाँ चली सजि कै?
चं. : पियारे सों मिलन काज।
व. : कहाँ तू खड़ी है?
चं. : प्यारे ही को यह धाम है।
व. : कहा कहैं मुख सों?
चं. : पियारे प्रान प्यारे
व. : कहा काज है?
चं. : पियारे सो मिलन काम है।।
व. : मैं हूँ कौन बोल तो?
चं. : हमारे प्रान प्यारे हौ न?
व. : तू है कौन?
चं. : पीतम पियारे मेरो नाम है।
स. : आश्चय्र्य से, पूछत सखी के एकै उत्तर बतावति जकी सी एक रूप आज श्यामा भई श्याम है।।
ख्बन देवी आकर चन्द्रावली के पीछे से आँख बन्द करती है,
चं. : कौन है कौन है?
व. दे. : मैं हूँ।
चं. : कौन तू है?
व. दे. : ख्सामने आकर, मैं हूँ, तेरी सखी वृन्दा।
चं. : तो मैं कौन हूँ?
व. दे. : तू तो मेरी सखी चन्द्रावली है न? तू अपने हूं को भूल गई।
चं. : तो हम लोग अकेले बन में क्या कर रही हैं?
व. दे. : तू अपने प्राण नाथै खोजि रही है न?
चं. : हा! प्राननाथ! हा! प्यारे! अकेले छोड़ के कहाँ चले गये? नाथ ऐसी ही बदी थी! प्यारे यह बन इसी विरह का दुःख करने के हेतु बना है कि तुम्हारे साथ बिहार करने को? हा!
जो पैं ऐसिहि करन रही।
तो फिर क्यौं अपने मुख सों तुम रस की बात कही ।।
हम जानी ऐसिहि बीतैगी जैसी बीति रही।
सो उलटी कीनी विधिना ने कछू नाहिं निबही ।।
हमैं बिसारि अनत रहे मोनह औरै चाल गही।
'हरीचंद' कहा को कहा ह्वै गयौ कछु नहिं जात कही ।।
ख्रोती है,
व. दे. : आँखों में आंसू भर के, प्यारी! अरी इतनी क्यों घबराई जाय है देख तौ यह सखी खड़ी हैं सो कहा कहैंगी।
चं. : ये कौन हैं?
चं. दे. : ख्वर्षा को दिखाकर, यह मेरी सखी वर्षा है।
चं. : यह वर्षा है तो हा! मेरा वह आनन्द का घन कहाँ है? हा! मेरे प्यारे! प्यारे कहाँ बरस रहे हौ? प्यारे गरजना इधर और बरसना और कहीं?
बलि सांवरी सूरत मोहनी मूरत
आंखिन को कबौं आई दिखाइये।
चातिक सी मरै प्यासी परीं
इन्हें पानिप रूप सुधा कबौं प्याइये ।।
पीत पटै बिजुरी से कबौं
हरिचंद जू धाइ इतैं चमकाइये।
इतहू कबौं आइकै आनन्द के घन
नेह को मेह पिया बरसाइये ।।
प्यारे! चाहे गरजो चाहै लरजो-इन चातकों की तो तुम्हारे बिना और गति ही नहीं है, क्योंकि फिर यह कौन सुनैगा कि चातक ने दूसरा जल पी लिया; प्यारे तुम तो ऐसे करुणा के समुद्र हौ कि केवल हमारे एक जाचक के मांगने पर नदी नद भर देते हौ तो चातक के इस छोटे चंचु-पुट भरने में कौन श्रम है क्योंकि प्यारे हम दूसरे पक्षी नहीं है कि किसी भांति प्यास बुझा लेंगे हमारे तो हे श्याम घन तुम्ही अवलम्ब हौ; हा!
ने त्रों में जल भर लेती है और तीनों परस्पर चकित हो कर देखती हैं,
व. दे. : सखी देखि तौ कछूं इनकी हू सुन कछू इनकी हू लाज कर अरी यह तो नई हैं ये कहा कहैंगी?
सं. : सखी यह क्या कहै है हम तो याको प्रेम देखि बिना मोल की दासी होय रही हैं और तू पंडिताइन बनि कै ज्ञान छांटि रही है।
चं. : प्यारे! देखो ये सब हंसती हैं-तो हंसै, तुम आओ, कहाँ बन में छिपे हो? तुम मुंह दिखलाओ इनको हंसने दो।
धारन दीजिए धीर हिए कुलकानि को आजु बिगारन दीजिए।
मारन दीजिए लाज सबै हरिचन्द कलंक पसारन दीजिए ।।
चार चबाइन कों चहुं ओर सों सोर मचाइ पुकारन दीजिए।
छंड़ि संकोचन चन्द मुखै भरि लोचन आजु निहारन दीजिए ।।
क्यौंकि-
ये दुखियां सदा रोयो करैं विधना इन कों कबहूं न दियो सुख।
झूठहीं चार चबाइन के डर देख्यौ कियो उनहीं को लिये रुख ।।
छांड्यौ सबैं हरिचन्द तऊ न गयो जिय सों यह हाय महा दुख।
प्रान बचैं केहि भांतिन सों तरसैं जब दूर सों देखिबै कों मुख ।।
व. दे. : (आंसू अपने आंचल से पोंछ कर) तौ ये यहाँ नांय रहिबे की सखी एक घड़ी धीरज धर जब हम चली जांय तब जो चाहियो सो करियो।
चं. : अरी सखियो मोहि छमा करियो, अरी देखौ तो तुम मेरे पास आईं और हमने तुमारो कछू सिष्टाचार न कियो। (नेत्रों में आंसू भर कर, हाथ जोड़ कर) सखी मोहि छमा करियो और जानियो कि जहाँ मेरी बहुत सुखी हैं उन मैं एक ऐसी कुलच्छिनी हूं है।
सं. और व.: नहीं नहीं सखी तू तो मेरी प्रानन सों हूं प्यारी है, सखी हम सच कहैं तेरी सी सांची प्रेमिन एक हू न देखी ऐसे तो सबी प्रेम करैं पर तू सखी धन्य है।
चं. : हाँ सखी और ख्संध्या को दिखाकर, या सखी को नाम का है?
व. दे. : याको नाम संध्या है।
च. : घबड़ा कर, संध्यावली आई? क्या कुछ संदेसा लाई? कहो कहो प्रान प्यारे ने क्या कहा? सखी बड़ी देर लगाई कुछ ठहर कर, संध्या हुई? संख्या हुई? तो वह बन से आते होंगे सखियो चलो झरोखों में बैठें यहाँ क्यों बैठी हौ।
(नेपथ्य में चन्द्रोदय होता है, चन्द्रमा को देखकर)
अरे-अरे वह देखो आया (उंगली से दिखा कर)
देख सखी देख अनमेख ऐसा भेख यह
जाहि पेख तेज रबिहू को मंद ह्नै गयो।
हरीचन्द ताप सब हिय को नसाइ चित
आनन्द बढ़ाइ भाइ अति छकि सों छयो ।।
ग्वाल उडुगन बीच बेनु को बजाइ सुधा
रस बरखाइ मान कमल लजा दयो।
गोरज समूह घन पटल उघारि वह
गोप कुल कुमुद निसाकर उदै भयो ।।
चलो चलो उधर चलो। (उधर दौड़ती है)
व.दे. : (हाथ पकड़ कर) अरी बावरी भई है। चन्द्रमा निकस्यो है कै वह बन सों आवै है?
चं. : (घबड़ा कर) का सूरज निकस्यो? भोर भयो हाय! हाय! हाय! या गरमी में या दुष्ट सूरज की तपन कैसे सही जायगी अरे भोर भयो हाय भोर भयो! सब रात ऐसे ही बीत गई, हाय फेर वही घर के व्योहार चलैंगे, फेर वही नहानो वही खानो बेई बातें, हाय!
केहि पाप सों पापी न प्रान चलैं
अटके कित कौन विचार लयो।
नहिं जान परै हरिचन्द कछू
विधि ने हम सों हट कौन ठयो ।।
निसि आजहू की गई हाय बिहाय
पिया बिनु कैसे न जींव गयौ ।।
हत अभागिनी आंखिन कों नित के
दुख देखिबे कों फिर भोर भयो ।।
तो चलो घर चलैं, हाय हाय! मां सों कौन बहाना करूंगी क्योंकि वह जात ही पूछेंगी कि सब रात अकेली बन मैं कहा करती रही। (कुछ ठहर कर) पर प्यारे! भला यह तो बताओ कि तुम आज की रात कहां रहे? क्यों देखो तुम हमसे झूठ बोले न! बड़े झूठे हौ, हा? अपनों से तो झूठ मत बोला करो, आओ आओ अब तो आओ।
आउ मेरे झूठन के सिरताज।
दल के रूप कपट की मूरत मिथ्यावाद जहाज ।।
क्यों परतिज्ञा करी रह्यौ जो ऐसी उलटो काज।
पहिले तो अपनाइ न आवत तजिबे में अब लाज ।।
चलो दूर हटो बड़े झूठे हो।
आउ नेरे मोहन प्यारे झूठे।
अपनी टारि प्रतिज्ञा कपटी उलटे हम सों रूठे ।।
मति परसौ तन रंगे और के रंग अधर तुब जूठे।
ताहू पै तनिकौ नहीं लाजत निरलज अहो अनूठे ।।
पर प्यारे बताओ तो तुम्हारे बिना रात क्यों इतनी बढ़ जाती है?
काम कछु नहिं यासों हमैं
सुख सों जहां चाहिए रैन बिताइए।
पै जो करै विनती हरिचन्द जू
उत्तर ताको कृपा कै सुनाइए ।।
एक मतो उनसो क्यों कियो तुम
सोउ न आवै जो आप न आइए।
रूसिवे सों पिय प्यारे तिहारे
दिवाकर रूसत है क्यों बताइए ।।
जाओ जाओ मैं नहीं बोलती (एक वृक्ष की आड़ में दौड़ जाती है)
तीनों : भई! यह तो बावरी सी डोलै, चलौ हम सब वृक्ष की छाया में बैठे (किनारे एक पास ही तीनों बैठ जाती हैं)
चंद्रा. : (घबड़ाती हुई आती है। अंचल केश इत्यादि खुल जाते हैं) कहाँ गया कहाँ गया? बोल!उलटा रूसना, भला अपराध मैंने किया कि तुमने? अच्छा मैंने किया सही, क्षमा करो, आओ, प्रगट हो, मुँह दिखाओ, भई बहुत भई, गुदगुदाना वहाँ तक जहाँ तक रुलाई न आवै (कुछ सोचकर) हा! भगवान किसी को किसी की कनौड़ी न करै, देखो मुझको इसकी कैसी बातैं सहनी पड़ती हैं। आप ही नहीं भी आता उलटा आप ही रूसता है, पर क्या करूं अब तौ फंस गई, अच्छा यों ही सही। ('अहो अहो बन के रूख' इत्यादि गाती हुई वृक्षों से पूछती है) हाय! कोई नहीं बदलता अरे मेरे नित के साथियों कुछ तो सहाय करो।
अरे पौन सुख मौन सबै थल गौन तुम्हारो।
क्यौं न कहौ राधिका रौन सों मौन निवारो ।।
अहे भंवर तुम श्याम रंग मोहन ब्रत धारी।
क्यों न कहौ वा निठुर श्याम सों दसा हमारी ।।
अहे हंस तुम राज बंस तरवर की सोभा।
क्यौं न कहो मेरे मानस सों या दुख के गोभा ।।
हे सारस तुम नीके बिछुरेन बेदन जानौ।
तौ क्यौ पीतम सों नहिं मेरी दसा बखानौ ।।
हे कोकिल कुल श्याम रंग के तुम अनुरागी।
क्यौ नहिं बोलहु तहीं जाय जहं हरि बड़ भागी ।।
हे पपिहा तुम पिउ पिउ पिय पिय रटत सदाई।
आजहु क्यौं नहिं रटि रटि कै पिय लेहु बुलाई ।।
अहे भानु तुम तो घर घर में किरिन प्रकासो।
क्यौं नहि पियहिं मिलाइ हमारो दुख तम नासो ।।
हाय!
कोउ नहिं उत्तर देत भये सबही निरमोही।
प्रान पियारे अब बोलौ कहां खोजौं तोही ।।
(चन्द्रमा बदली की ओट हो जाता है और बादल छा जाते हैं) (स्मरण करके) हाय! मैं ऐसी भूली हुई थी कि रात को दिन बतलाती थी, अरे मैं किसको ढूंढ़ती थी, हा! मेरी इस मूर्खता पर उन तीनों सखियों ने क्या कहा होगा, अरे यह तो चन्द्रमा था जो बदली की ओट में छिप गया। हा! यह हत्यारिन वर्षा ऋतु है, मैं तो भूल गई थी, इस अंधेरे में मार्ग तो दिखाता ही नहीं चलूंगी कहाँ और घर कैसे पहुंचूंगी? प्यारे देखो जो जो तुम्हारे मिलने में सुहाने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गये, हा! जो बल आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है, देखो सब कुछ है एक तुम्ही नहीं हो (नेत्रों से आंसू गिरते हैं) प्यारे! छोड़ के कहाँ चले गये? नाथ! आँखें बहुत प्यासी हो रही हैं इनको रूप सुधा कब पिलाओगे? प्यारे बेनी की लट बंध गई हैं इन्हें कब सुलझाओगे (रोती है) नाथ इन आंसुओं को तुम्हारे बिना और कोई पोंछने वाला भी नहीं है, हा! यह गत तो अनाथ की भी नहीं होती, अरे विधिना! मुझे कौन सा सुख दिया था जिसके बदले इतना दुःख देता है, सुख का तो मैं नाम सुन के चैंक उठती थी और धीरज धर के कहती थी कि कभी तो दिन फिरैंगे सो अच्छे दिन फिरे। प्यारे बस बहुत भई अब नहीं सही जाती, मिलना हो तो जीते जी मिल जाओ। हाय! जी भर आंखों देख भी लिया होता तो जी का उमाह निकल गया होता, मिलना दूर रहै मैं तो मुँह देखने को तरसती थी, कभी सपने में भी गले न लगाया, जब सपने में देखा तभी घबड़ा कर चैंक उठी, हाय! इन घर वालों और बाहर वालों के पीछे कभी उनसे रो-रो कर अपनी बिपत भी न सुनाई कि जी भर जाता, लो घर वालों और बहार वालों ब्रज को सम्हालो मैं तो अब यहीं (कंठ गद्गद् हो कर रोने लगती है) हाय रे निठुर! मैं ऐसा निरमोही नहीं समझी थी, अरे इन बादलों की ओर देख के तो मिलता, इस ऋतु में तो परदेसी भी अपने घर आ जाते हैं पर तू न मिला, हाँ! मैं इसी दुख देखने को जीती हूँ कि वर्षा आवै और तुम न आओ, हाय! फेर वर्षा आई, फेर पत्ते हरे हुए, फेर कोइल बोली पर प्यारे तुम न मिले, हाय! सब सखियाँ हिंडोले झूलती होंगी पर मैं किसके संग झूलूं क्योंकि हिंडोला झुलाने वाले मिलेंगे पर आप भींज कर मुझे बचाने वाला और प्यारी कहने वाला कौन मिलैगा (रोती है) हा! मैं बड़ी निर्लज्ज हूँ, अरे प्रेम मैंने प्रेमिन बन कर तुझे भी लज्जित किया कि अब तक जीती हूँ, इन प्रानों को अब न जानै कौन लाहे लूटने हैं कि नहीं निकलते। अरे कोई देखो मेरी छाती वज्र की तो नहीं है कि अब तक (इतना कहते ही मूर्छा खा कर ज्यों ही गिरा चाहती है उसी समय तीनों सखियाँ आ कर सम्हालती हैं)
(जवनिका गिरती है)
।। प्रियान्वेषण नामक दूसरा अंक समाप्त हुआ ।। 

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रचनाएँ
श्री चन्द्रावली नाटिका
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जहाँ तक इस नाटक का प्रश्न है तो चन्द्रावली एक स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है जिसका मूल स्वर प्रेम और भक्ति है | इसमें सूर, मीरा, रसखान जैसे कवियों के भक्तिकाव्य का आनंद मिलता है। 'चन्द्रावली' को रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखा गया है ।
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समर्पण

27 जनवरी 2022
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प्यारे! लो तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है इस पुस्तक को भी उन्हीं की कानि से अंगीकार करो। इस में तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है।

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समर्पण

27 जनवरी 2022
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काव्य, सुरस सिंगार के दोउ दल, कविता नेम। जग जन सों कै ईस सों कहियत जेहि पर प्रेम ।। हरि उपासना, भक्ति, वैराग, रसिकता, ज्ञान। सोधैं जग-जन मानि या चंद्रावलिहि प्रमान ।। स्थान रंगशाला। ब्राह्मण आशीर

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अंक प्रथम

27 जनवरी 2022
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।। जवनिका उठी ।। स्थान श्री वृन्दावन; गिरिराज दूर से दिखाता है। (श्री चन्द्रावली और ललिता आती हैं) ल. : प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यों करती है? चं. : नहीं सखी, मुझे शोच किस बात का है। ल. : ठीक ह

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दूसरा अंक

27 जनवरी 2022
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स्थान: केले का बन। समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए। वियोगिन बनी हुई श्री चंद्रावली जी आती हैं, चं. : एक वृक्ष के नीचे बैठकर, वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हौ; और निश्चय बिन

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दूसरे अंक के अंतर्गत ।। अंकावतार ।।

27 जनवरी 2022
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।। बीथी, वृक्ष ।। (सन्ध्यावली दौड़ी हुई आती है) सं. : राम राम! मैं दौरत दौरत हार गई, या ब्रज की गऊ का हैं सांड हैं; कैसी एक साथ पूंछ उठाय कै मेरे संग दौरी हैं, तापैं वा निपूते सुबल को बुरो होय और

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