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समर्पण

27 जनवरी 2022

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प्यारे!
लो तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है इस पुस्तक को भी उन्हीं की कानि से अंगीकार करो। इस में तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है। हाँ एक अपराध तो हुआ जो अवश्य क्षमा करना ही होगा। वह यह कि प्रेम की दशा छाप कर प्रसिद्ध की गई। वा प्रसिद्ध करने ही से क्या जो अधिकारी नहीं है उन के समझ ही में न आवेगा।
तुम्हारी कुछ विचित्र गति है। हमीं को देखो। जब अपराधों को स्मरण करो तब ऐसे कि कुछ कहना ही नहीं। क्षण भर जीने के योग्य नहीं। पृथ्वी पर पैर धरने को जगह नहीं। मुँह दिखाने के लायक नहीं और जो यों देखो तो ये लम्बे लम्बे मनोरथ। यह बोलचाल। यह ढिठाई कि तुम्हारा सिद्धान्त कह डालना। जो हो इस दूध खटाई की एकत्र स्थिति का कारण तुम्हीं जानो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैसे हों तुम्हारे बनते हैं। अतएव क्षमा समुद्र! क्षमा करो। इसी में निर्वाह है। बस-

भाद्रपद कृष्ण 14 हरिश्चन्द्र
सं. 1933 

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रचनाएँ
श्री चन्द्रावली नाटिका
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जहाँ तक इस नाटक का प्रश्न है तो चन्द्रावली एक स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है जिसका मूल स्वर प्रेम और भक्ति है | इसमें सूर, मीरा, रसखान जैसे कवियों के भक्तिकाव्य का आनंद मिलता है। 'चन्द्रावली' को रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखा गया है ।
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समर्पण

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प्यारे! लो तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है इस पुस्तक को भी उन्हीं की कानि से अंगीकार करो। इस में तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है।

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काव्य, सुरस सिंगार के दोउ दल, कविता नेम। जग जन सों कै ईस सों कहियत जेहि पर प्रेम ।। हरि उपासना, भक्ति, वैराग, रसिकता, ज्ञान। सोधैं जग-जन मानि या चंद्रावलिहि प्रमान ।। स्थान रंगशाला। ब्राह्मण आशीर

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अंक प्रथम

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।। जवनिका उठी ।। स्थान श्री वृन्दावन; गिरिराज दूर से दिखाता है। (श्री चन्द्रावली और ललिता आती हैं) ल. : प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यों करती है? चं. : नहीं सखी, मुझे शोच किस बात का है। ल. : ठीक ह

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दूसरा अंक

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स्थान: केले का बन। समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए। वियोगिन बनी हुई श्री चंद्रावली जी आती हैं, चं. : एक वृक्ष के नीचे बैठकर, वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हौ; और निश्चय बिन

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दूसरे अंक के अंतर्गत ।। अंकावतार ।।

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।। बीथी, वृक्ष ।। (सन्ध्यावली दौड़ी हुई आती है) सं. : राम राम! मैं दौरत दौरत हार गई, या ब्रज की गऊ का हैं सांड हैं; कैसी एक साथ पूंछ उठाय कै मेरे संग दौरी हैं, तापैं वा निपूते सुबल को बुरो होय और

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