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दूसरे अंक के अंतर्गत ।। अंकावतार ।।

27 जनवरी 2022

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।। बीथी, वृक्ष ।।

(सन्ध्यावली दौड़ी हुई आती है)
सं. : राम राम! मैं दौरत दौरत हार गई, या ब्रज की गऊ का हैं सांड हैं; कैसी एक साथ पूंछ उठाय कै मेरे संग दौरी हैं, तापैं वा निपूते सुबल को बुरो होय और हू तूमड़ी बजाय कै मेरी ओर उन सबनै लहकाय दीनी, अरे जो मैं एक संग प्रानन्ने छोड़ि कै न भाजंती तौ उनके रपट्टा में कबकी आय जाती। देखि आज वा सुवल की कौन गति कराऊं, बड़ो ढीठ भयो है प्रानन की हांसी कौन काम की। देखौ तो आज सोमवार है नन्दगांव में हाट लगी होयगी मैं वहीं जाती इन सबने बीच ही आय धरी, मैं चन्द्रावली की पाती वाके यारैं सौंप देती इतनो खुटकोऊ न रहतो। (घबड़ा कर) अरे आईं ये गौवें तो फेर इतैही कूं अरराईं। ख्दौड़ कर जाती है और चोली में से पत्र गिर पड़ता है, (चंपकलता आती है)
चं. ल. : (पत्र गिरा हुआ देखकर) अरे! यह चिट्ठी किसकी पड़ी है किसी की हो देखूं तो इसमें क्या लिखा है (उठा कर देखती है) राम राम! न जानै किस दुखिया की लिखी है कि आंसुओं से भींज कर ऐसी चपट गई है कि पढ़ी ही नहीं जाती और खोलनं में फट जाती है (बड़ी कठिनाई से खोलकर पढ़ती है)
प्यारे!
क्या लिखूं! तुम बड़े दुष्ट हौ चलो भला सब अपनी वीरता हम पर दिखानी थी। हाँ! भला मैंने तो लोक वेद अपना विराना सब छोड़कर तुम्हैं पाया तुमने हमैं छोड़ के क्या पाया? और जो धम्र्म उपदेश करो तो धम्र्म से फल होता है, फल से धम्र्म नहीं होता, निर्लज्ज, लाज भी नहीं आती मुंह ढको फिर भी बोलने बिना डूबे जाते हौ, चलो वाह! अच्छी प्रीति निबाही, जो हो तुम जानते ही हो, हाय कभी न करूँगी यों ही सही अन्त मरना है मैंने अपनी ओर से खबर दे दी अब मेरा दोष नहीं बस।
"केवल तुम्हारी"
(लंबी सांस लेकर) हा! बुरा रोग है न करै किसी के सिर बैठे बिठाए यह चक्र घहराय, इस चिट्ठी के देखने से कलेजा कांपा जाता है, बुरा! तिसमें स्त्रियों की बड़ी बुरी दशा है क्योंकि कपोतब्रत बुरा होता है कि गला घोंट डालो मुंह से बात न निकलै। प्रेम भी इसी का नाम है, राम राम उस मुंह से जीभ खींच ली जाय जिससे हाय निकलै। इस व्यथा को मैं जानती हूं और कोई क्या जानैगा क्योंकि जाके पांव न भई बिवाई सो क्या जाने पीर पराई। यह तो हुआ पर यह चिट्ठी है किस की यह न जान पड़ी (कुछ सोचकर) अहा जानी! निश्चय यह चन्द्रावली ही की चिट्ठी है, क्योंकि अक्षर भी उसी के से हैं और इस पर चन्द्रावली का चिन्ह भी बनाया है। हा! मेरी सखी बुरी फंसी, मैं तो पहिले ही उसके लच्छनों से जान गई थी पर इतना नहीं जानती थी, अहा गुप्त प्रीति भी विलक्षण होती है, देखो इस प्रीति में संसार की रीति से कुछ भी लाभ नहीं, मनुष्य न इधर होता है न उधर का, संसार के सुख छोड़कर अपने हाथ आप मूर्ख बन जाता है। जो हो यह पत्र तो मैं आप उन्हैं जा कर दे आऊंगी और मिलने की भी बिनती करूंगी।
(नेपथ्य में बूढ़ों के से सुर से)
हाँ तू सब करैगी।
चं. : (सुन कर और सोचकर) अरे यह कौन है (देख कर) न जानै कोऊ बूढ़ी फूस सी डोकरी है ऐसी न होय कै यह बात फोड़ी के उलटी आग लगावै, अब तो पहिले याहि समझावनो परौ, चलूं (जाती है)
।। इति द्वितीयां के भेदप्रकाश नामकोवतारः ।।
 

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रचनाएँ
श्री चन्द्रावली नाटिका
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जहाँ तक इस नाटक का प्रश्न है तो चन्द्रावली एक स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है जिसका मूल स्वर प्रेम और भक्ति है | इसमें सूर, मीरा, रसखान जैसे कवियों के भक्तिकाव्य का आनंद मिलता है। 'चन्द्रावली' को रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखा गया है ।
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समर्पण

27 जनवरी 2022
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प्यारे! लो तुम्हारी चंद्रावली तुम्हें समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है इस पुस्तक को भी उन्हीं की कानि से अंगीकार करो। इस में तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है।

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समर्पण

27 जनवरी 2022
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काव्य, सुरस सिंगार के दोउ दल, कविता नेम। जग जन सों कै ईस सों कहियत जेहि पर प्रेम ।। हरि उपासना, भक्ति, वैराग, रसिकता, ज्ञान। सोधैं जग-जन मानि या चंद्रावलिहि प्रमान ।। स्थान रंगशाला। ब्राह्मण आशीर

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अंक प्रथम

27 जनवरी 2022
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।। जवनिका उठी ।। स्थान श्री वृन्दावन; गिरिराज दूर से दिखाता है। (श्री चन्द्रावली और ललिता आती हैं) ल. : प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यों करती है? चं. : नहीं सखी, मुझे शोच किस बात का है। ल. : ठीक ह

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दूसरा अंक

27 जनवरी 2022
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स्थान: केले का बन। समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए। वियोगिन बनी हुई श्री चंद्रावली जी आती हैं, चं. : एक वृक्ष के नीचे बैठकर, वाह प्यारे! वाह! तुम और तुम्हारा प्रेम दोनों विलक्षण हौ; और निश्चय बिन

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दूसरे अंक के अंतर्गत ।। अंकावतार ।।

27 जनवरी 2022
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।। बीथी, वृक्ष ।। (सन्ध्यावली दौड़ी हुई आती है) सं. : राम राम! मैं दौरत दौरत हार गई, या ब्रज की गऊ का हैं सांड हैं; कैसी एक साथ पूंछ उठाय कै मेरे संग दौरी हैं, तापैं वा निपूते सुबल को बुरो होय और

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