ख़्वाहिश ए शह डसने लगी है
गले मे फंदा कसने लगी है
साँसे भी शायद खरीदनी पड़े
आबो हवा रुख बदलने लगी है
धूप ने यूं कहर ढाया हुआ है
छाँव भी अब झुलसने लगी है
समीर कुमार शुक्ल
8 जनवरी 2016
ख़्वाहिश ए शह डसने लगी है
गले मे फंदा कसने लगी है
साँसे भी शायद खरीदनी पड़े
आबो हवा रुख बदलने लगी है
धूप ने यूं कहर ढाया हुआ है
छाँव भी अब झुलसने लगी है
समीर कुमार शुक्ल
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अपनी लिखी यू ही पढ़ देता हूँ
अंदाज़ मे मुझे गज़ल कहने नहीं आते,अपनी लिखी यू ही पढ़ देता हूँ
अंदाज़ मे मुझे गज़ल कहने नहीं आतेD