गर्मियों में जलता ये अलाव कैसा
ख्वाहिसों का बेढब फैलाव कैसा
मत कहो की अभावों में जिया
अगर जिया तो फिर अभाव कैसा
चूमते हो जिस्म जोंक की तरह
प्रेम का ये कुंठित भाव कैसा
कर रहा मौन संवाद वो मगर
पड़ रहा मुझपे अशांत प्रभाव कैसा
महक रहा है टूट कर भी वो
फूल का ये समर्पित स्वभाव कैसा
समीर कुमार शुक्ल