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गीत

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पच्ची होता रहता है। जिसके निमित्त जग माथा। अविदित रहस्य-परिपूरित। वह है वह अद्भुत गाथा॥3॥ खोले जिसका अवगुंठन। खुलता न कभी दिखलाया। वह है वह प्रकृति-वधूटी। जिसकी है मोहक माया॥4॥ जैसी कि लोक

कर्म-विपाक (1) कर्म-अकर्म अवसर पर ऑंखें बदले। बनता है सगा पराया। काँटा छिंट गया वहाँ पर। था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥ जो रहा प्यारे का पुतला। वह है ऑंखों में गड़ता। अपने पोसे-पाले को। है कभी पी

क्या इनमें से कोई भी सर्वोत्ताम तारा। स्वर्ग नाम से जा सकता है नहीं पुकारा। हैं तारक के सिवा सौर-मंडल कितने ही। क्या हैं बहु विख्यात अलौकिक स्वर्ग न वे ही॥6॥ क्या न सौर-मंडल हमलोगों का है अनुपम।

स्वर्ग की कल्पना (8) अच्छा होता, दुख न कभी होता, सुख होता। सब होते उत्फुल्ल, न मिलता कोई रोता। उठती रहतीं सदा हृदय में सरस तरंगें। कुचली जातीं नहीं किसी की कभी उमंगें॥1॥ बजते होते घर-घर में आन

जिसके तरल हृदय की महिमा जलधिक-तरंगें गाती हैं। कल-कल रव करके सरिताएँ जिसकी कीत्तिक सुनाती हैं। सकल जलाशय जिसके करुणामय आशय के आलय हैं। पा जिसका संकेत पयोधार सदा बरस पाते पय हैं॥11॥ करके जीवन-दान

ए हैं वे प्रसून जो खिलकर म्लान नहीं होते हैं। सौरभ-बीज जगत में जो सुरभित हो-हो बोते हैं। आदर पाकर जो हैं सुरपति-शीश-मुकुट पर चढ़ते। जो खिल-खिलकर भव-प्रमोद का पाठ सदा हैं पढ़ते॥11॥ देवपुरी उनके व

अप्रतिहत - गति - अधिकारी। निज वेग-वारि-निधिक-मज्जित। नभ-जल-थल-यान अनेकों। अति आरंजित बहु सज्जित॥21॥ जब उड़ते तिरते चलते। किसको न चकित थे करते। श्रुतिमधुर मनोहर मंजुल। रव थे दिगंत में भरते॥22॥

अमरावती (5) मणि-जटित स्वर्ण के मंदिर। विधिक को मोहे लेते हैं। विधु को हैं कान्त बनाते। दिव को आभा देते हैं॥1॥ हैं कनकाचल-से उन्नत। परमोज्ज्वल त्रिकभुवन-सुन्दर। हैं विविध विभूति-विभूषित। दिव

कहाँ बजाकर वीणा तुम्बुरु सुधा प्रवाहित करता है। कहाँ गान कर हाहा हूहू ध्वनि में गौरव भरता है। उनके तालों स्वरों लयों से जो विमुग्धता होती है। परमानन्द-बीज वह अभिरुचि शुचि अवनी में बोती है॥3॥ जिस

स्वर्ग सुरपुर (1) स्वर्ग है उर-अंभोज-दिनेश। भाव-सिंहासन का अवनीप। सदाशा-रजनी मंजु मयंक। निराशा-निशा प्रदीप्त प्रदीप॥1॥ यदि मरण है तम-तोम समान। स्वर्ग तो है अनुपम आलोक। प्रकाशित उससे हुआ सदै

ऑंखें हैं छवि-कांक्षिणी, श्रवण है लोभी सदालाप का। जिह्ना है रस-लोलुपा, सुरभि की है कामुका नासिका। सारी प्रेय विभूति को विषय को हैं इन्द्रियाँ चाहती। जाता है बन योग रोग, किसको है भोग भाता नहीं॥21॥

(20) शार्दूल-विक्रीडित व्याली-सी विष से भरी विषमता आपूरिता क्रोधाना। अन्धाकधुन्धा-परायणा कुटिलता की मूर्ति व्याघ्रानना। है अत्यन्त कठोर उग्र अधामा, है लोक-संहारिणी। है दुर्दान्त नितान्त वज्र-हृदय

(14) अनर्थ-मूल स्वार्थ  स्वार्थ ही है अनर्थ का मूल। औरों का सर्वस्व-हरण कर कब उसको होती है शूल। तबतक सुत सुत है वनिता वनिता है उनसे है बहु प्यारे। स्वार्थदेव का उनके द्वारा जबतक होता है सत्कार।

भंग करके सद्भाव समेत। मनुजता का अनुपम-तम अंग। नर-रुधिकर से रहता है सिक्त। सुरंजित राजतिलक का रंग॥5॥ बना बहु प्रान्तों को मरुभूमि। विविध सुख-सदनों का बन काल। जनपदों का करता है धवंस। राजभय प्रब

सांसारिकता (1) स्वभाव गोद में ले रखता है प्यारे। सरस बन रहता है अनुकूल। मुदित हो करती है मधुदान। भ्रमर से क्या पाता है फूल॥1॥ धारा कर प्रबल पवन का संग। भरा करती है नभ में धूल। गगन बरसाता है

होता जो चित में न चोर, रहती तो ऑंख नीची नहीं। होता जो मन में न मैल, दृग क्यों होते नहीं सामने। जो टेढ़ापन चित्त में न बसता, सीधो न क्यों देखते। जो आ के पति बीच में न पड़ती, ऑंसू न पीते कभी॥36॥ द

बातें क्यों करते कदापि मुँह भी तो खोल पाते नहीं। कोई काम करें, परन्तु उनको है काम से काम क्या। खायेंगे भर-पेट नींद-भर तो सोते रहेंगे न क्यों। लेते हैं ऍंगड़ाइयाँ सुख मिले वे खाट हैं तोड़ते॥16॥ त

जिसमें पड़ता रहता था। सब स्वर्ग-सुखों का डेरा। कैसे है उजड़ा जाता। अब वन नन्दन-वन मेरा॥8॥ किसलिए धारा सुध-बुध खो। है रत्न हाथ के खोती। क्यों नहीं समुद्र-तरंगें। अब हैं बिखेरती मोती॥9॥ क्या

मन-नन्दन-वन अहह अब कहाँ वह प्रसून है पाता। जिसका सौरभ सुरतरु सुमनों-सा था मुग्ध बनाता। उदधिक-तरंगों-जैसी अब तो उठतीं नहीं तरंगें। वैसी ही उल्लासमयी अब बनतीं नहीं उमंगें॥3॥ हो पुरहूत-चाप आरंजित ज

कौन (22) चाल चलते रहते हैं लोग। चाह मैली धुलती ही नहीं। खुटाई रग-रग में है भरी। गाँठ दिल की खुलती ही नहीं॥1॥ न जाने क्या इसको हो गया। फूल-जैसा खिलता ही नहीं। खटकता रहता है दिन-रात। दिल किसी

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