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गीत

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है उत्ताकल तरंग में विलसती उद्दीप्त शृंगावली। किंवा हैं जल-केलि-लग्न जल में ज्योतिष्क आकाश के। किंवा हीरक-मालिका उदधिक में हैं अर्बुदों शोभिता। किंवा हैं हिम के समूह बहुश: पाथोधिक में तैरते॥6॥ ज

सागर की सागरता (5) फूल पत्तो जिससे पाये। मिली जिससे मंजुल छाया। मधुरता से विमुग्ध हो-हो। मधुरतम फल जिसका खाया॥1॥ जो सहज अनुरंजनता से। नयन-रंजन करता आया। काट उस ह-भ तरु को। जन-दृगों में कब ज

रत्नाकर की रत्नाकरता (3) वह कमल कहाँ पर मिलता। जो धाता का है धाता। पाता वह वास कहाँ पर। जो सब जग का है पाता॥1॥ भव-विजयी रव-परिपूरित। प्रिय कंबु कहाँ पा जाते। रमणी रमणीय रमापति। कौस्तुभ-मणि

समुद्र रोला (1) वर विभूतिमय बनी विलसते विभव दिखाये। रसा नाम पा सकी रसा किसका रस पाये। अंगारक-सा तप्तभूत शीतल कहलाया। किसके बल से सकल धारातल बहु सरसाया॥1॥ शस्यश्यामला बनी हरितवसना दिखलाई। ललि

(2) किस वियोगिनी के ऑंसू हो। किस दुखिया के हो दृग-जल। किस वेदनामयी बाला की। मर्म-वेदना के हो फल॥1॥ निकले हो किस व्यथित हृदय से। हो किस द्रव मानस के रस। क्या वियोग की घटा गयी है। आकुलतामय वार

(7) वंशस्थ न चित्त होगा सुप्रफुल्ल कौन-सा। न प्राप्त होगी किसको मिलिन्दता। वसुंधरा के सरसी-समूह में। विलोक शोभा अरविन्द-वृन्द की॥1॥ लगे हुए दर्पण हैं जहाँ-तहाँ। विलोकने को दिव-लोक-दिव्यता। ज

(4) शार्दूल-विक्रीडित पाता है रस जीव-मात्रा किससे सर्वत्र सद्भाव से। धारा है रस की अबाधा किसके सर्वांग में व्यापिता। हो-हो के सब काल सिक्त किससे होती रसा है रसा। पृथ्वी में सरि-सी रसाल-हृदया है क

(2) पाकर किस प्रिय तनया को। गिरिवर गौरवित कहाया। किसने पवि-गठित हृदय में। रस अनुपम स्रोत बहाया॥1॥ हर अकलित सब करतूतें। कर दूर अपर अपभय को। बन सकी कौन रस-धारा। कर द्रवीभूत हिम-चय को॥2॥ प्र

(2) शार्दूल-विक्रीडित माली के उर की अपार ममता उन्मत्ताता भृंग की। पेड़ों की छवि-पुंजता रुचिरता छायामयी कुंज की। पुष्पों की कमनीयता विकचता उत्फुल्लता बेलि की। देती है खग-वृन्द की मुखरता उद्यान को

गीत (3) कहाँ हरित पट प्रकृति-गात का है बहु कान्त दिखाता। कहाँ थिरकती हरियाली का घूँघट है खुल पाता। कहाँ उठा शिर विटपावलि हैं नभ से बातें करती। कहाँ माँग अपनी लतिकाएँ मोती से हैं भरती॥1॥ कोटि-क

विपिन (1) शार्दूल-विक्रीडित शोभाधाम ललाम मंजुरुत की नाना विहंगावली। लीला-लोल लता-समूह बहुश: सत्पुष्प सुश्री बड़े। पाये हैं किसने असंख्य विटपी स्वर्लोक-संभूत-से। रम्योपान्त नितान्त कान्त महि में

(2) शार्दूल-विक्रीडित चोटी है लसती मिले कलस-सी ज्योतिर्मयी मंजुता। होती है उसमें कला-प्रचुरता स्वाभाविकी स्वच्छता। नाना साधन, हेतु-भूत बन के हैं सिध्दि देते उसे। है देवालय के समान गिरि के सर्वा

हिमाचल (1) गीत                 अवलोकनीय अनुपम।                 कमनीयता- निकेतन।                 है भूमि में हिमाचल।                 विभु-कीत्तिक कान्त केतन॥1॥                 है हिम-समूह-मंडि

शार्दूल-विक्रीडित है राकापति, मंजुता-सदन है, माधुर्य-अंभोधि है। है लावण्य-सुमेरु-शृंग, जिसको आलोक-माला मिली। पाती हैं उपमा सदैव जिसकी सत्कान्ति की कीत्तियाँ। जो है शंकर-भाल-अंक उसको कैसे कलंकी कहे

कोई है कहता, अनन्त नभ में ये दिव्य ता नहीं। नाना हस्त-पद-प्रदीप्त नख हैं व्यापी विराटांग के। कोई लोचन वन्दनीय विभु का है तीन को मानता। राका-नायक को, दिवाधिकपति को, विभ्रद्विभावद्रि को॥1॥ वंशस्थ

आकाश (1) शार्दूल-विक्रीडित सातों ऊपर के बड़े भुवन हों या सप्त पाताल हों। चाहे नीलम-से मनोज्ञ नभ के ता महामंजु हों। हो बैकुंठ अकुंठ ओक अथवा सर्वोच्च कैलास हो। हैं लीलामय के ललाम तन से लीला-भ लो

सब विबुध अबुध हो बैठे। बन विवश बुध्दि है हारी। हैं अविदित अगम अगोचर। विभु की विभूतियाँ सारी॥1॥     क्या नहीं ज्ञान है विभु का?     यह ज्ञान किन्तु है कितना।     उतना ही हो बूँदों को     वारिध

शार्दूल-विक्रीडित         आती तो न सजीवता अवनि में जो वायु होती नहीं।         कैसे तो मिलती उसे सरसता जो वारि देता नहीं।         तो मीठे स्वर का अभाव खलता जो व्योम होता नहीं।         कैसे लोक वि

विभु-विभुता शार्दूल-विक्रीडित चाहे हों फल, फूल, मूल, दल या छोटी-बड़ी डालियाँ। चाहे हो उसकी सुचारु रचना या मुग्धकारी छटा। जैसे हैं परिणाम अंग-तरु के सर्वांश में बीज के। वैसे ही उस मूलभूत विभु

(1) अकल्पनीय की कल्पना शार्दूल-विक्रीडित सोचे व्यापकता-विभूति प्रतिभा है पार पाती नहीं। होती है चकिता विलोक विभुता विज्ञान की विज्ञता। लोकातीत अचिन्तनीय पथ में है चूकती चेतना। कोई व्यक्ति अक

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