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गीत

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(19) फूले-फले बुरों से बुरा नहीं माना। भले बन उनके किए भला। हमारी छाया में रहकर। चाल चलकर भी लोग पले॥1॥ पास आ क्यों कोई हो खड़ा। हो गये हैं जब हम खोखले। कहाँ थी पूछ हमारी नहीं। कभी थे हम भी

कमनीय कामना (12) बहु गौरवित दिखाये जाये न गर्व से गिर। सब काल हिम-अचल-सा ऊँचा उठा रहे शिर। अविनय-कुहेलिका से हो अल्प भी न मैली। सब ओर सित सिता-सी हो कान्त-कीत्तिक फैली॥1॥ विलसे बने मनोहर बहु द

किसका मंजुल मनोभाव है वह कल कुसुम खिलाता। जिसके सौरभ से मन-उपवन है सुरभित हो जाता। है किसकी अनुपम कृपालुता कल्पद्रुम की छाया। पा जिसका अवलम्बन मानव ने वांछित फल पाया॥4॥ किसके अंकुश में मद-सा मदम

कान्त कल्पना सिन्दूर (1) सिखाए अनुरंजन का मन्त्रा। जमाए अनुपम अपना रंग। लोक-हित-पंकज-पुंज-निमित्त। कहाए विलसित बाल-पतंग॥1॥ भर रग-रग में भव-अनुराग। मानसों को कर बहु अभिराम। रखे शुचि रुचि की

(11) शार्दूल-विक्रीडित है पाताल-पता कहाँ, गगन भी है सर्वथा शून्य ही। भू है लोक अवश्य, किन्तु वह क्या है एक तारा नहीं। संख्यातीत समस्त तारक-धारा के तुल्य ही लोक हैं। लोकों की गणना भला कब हुई, होगी

करेंगे कलिका का न विकास। परसकर उसका मृदुल शरीर। करेंगे सुमन को न उत्फुल्ल। डुलाकर मंजुल व्यजन समीर। प्रकृति के कर अतीव सुकुमार॥11॥ कगा नहीं मनों को मुग्ध। भगा नहीं मही में मोद। बनाएगा न वृत्त

(8) प्रलय-प्रसंग खुले, रजनी में निद्रा-गोद। जब शयन करता है मनुजात। अंक में उसके रखकर शीश। भूलकर भव की सारी बात॥1॥ सुषुप्तावस्था का यह काल। कहा जाता है नित्य प्रलय। क्योंकि हो जाता है उस समय।

संकटों के संहारनिमित्त। किए जाते हैं जितने कर्म। पुण्य के उपकारक उपकरण। जिन्हें माना जाता है धर्म॥7॥ भाव वे जो होते हैं सुखित। दीन-दुखियों को दान दिला। सबों में अवलोके दृग खोल। मृत्यु का भय प

व्यक्ति में रहता है व्यक्तित्व। उसी से है उसका संबंधा। पर मिला एक बार वह कभी। नियति का है यह गूढ़ प्रबन्धा॥17॥ पंचतन्मात्राकओं का मिलन। लाभ कर आत्मा का संसर्ग। प्राणियों का करता है सृजन। पृथक

अवसर पर वसन बदलता। जैसे जन है दिखलाता। वैसे ही जीव पुरातन। तन तज, नव तन है पाता॥5॥ जैसे मिट्टी में मिल तन। है विविध रूप धार पाता। तृण-लता गुल्म पादप हो। बनता है बहु-फल-दाता॥6॥ वैसे ही निज

प्रलय-प्रपंच परिवर्तन (1) जल को थल होते देखा। थल है जलमय हो जाता। है गत्ता जहाँ पर गहरा। था गिरिवर वहाँ दिखाता॥1॥ वे द्वीप जहाँ सुरपुर-से। बहु सुन्दर नगर दिखाते। हैं उदधिक-गर्भगत अधुना। है

हो सावेश नहीं मनुष्य करता है कौन-सी क्रूरता। हो क्रोधान्धा महा अनर्थ करते होता नहीं त्रास्त है। क्या है बर्बरता महा अधामता क्या दानवी कृत्य है। प्राणी है यह सोच ही न सकता विक्षिप्त हो वैर से॥4॥

नाम हैं कर्म-भोग का लेते। पर बने हैं बहुत बड़े भोगी। भाग्य की भूल में पड़े हैं जब। तब भलाई न दैव से होगी॥5॥ चौंक भूले हुए हरिण की-सी। किसलिए नर छलाँग भरता है। कर रहा है सदैव मनमानी। तो वृथा द

(2) देख उत्ताकल तरंगों को। कार्यरत कब घबराता है। शक्ति कुंभज-सी धारण कर। पयोनिधिक को पी जाता है॥1॥ कार्य-पथ का बाधक देखे। वीर पौरुष से भरता है। पर्वतों को पवि बन-बनकर। धूल में परिणत करता है॥

चलें सारी चालें उलटी। भली बातों से मुँह मोड़े। किसलिए माथा तो ठनके। किसलिए तो सिर को तोड़े॥5॥ काम के काम न कर पायें। न तो हित की बातें सोचें। क्यों न तो ठोकर खायेंगे। चौंककर सिर को क्यों नोचे

(2) भाग्य-लिपि मानना बड़ी है भ्रान्ति। वह पतन गूढ़ गत्ता की है राह। वह नदी है भयंकरी दुर्लङ्घ्य। आज तक मिल सकी न जिसकी थाह॥1॥ क्यों न उसको मरीचिका लें मान। है दिखाती सरस सलिल-आवास। पर सकी मिल

चित्त इतना हो जाय दयार्द्र। दु:ख औरों का देख सके न। अगम भवहित का पंथ विलोक। पाँव पौरुष का कभी थके न॥5॥ न ममता छले न मोहे मोह। असंयम सके हृदय को छू न। मिले परमार्थ-शंभु का शीश। स्वार्थ बन जाय

(6) कर्म का त्याग (1) यह सुखद पावन भूति-निकेत। सुरसरी का है सरस प्रवाह। वह मलिन रोग-भरित अपुनीत। कर्मनाशा का है अवगाह॥1॥ यह हिमाचल का है वह अंक। विबुध करते हैं जहाँ विहार। जहाँ पर प्रकृति-व

प्यारे ही से बन सकते हैं। पराये भी अपने प्यारे। बचाना है अपने को तो। और को पत्थर क्यों मा॥4॥ सँभाले, मुँह, करते रहकर। जीभ की पूरी रखवाली। जब बुरी गाली लगती है। तब न दें औरों को गाली॥5॥ जगत

(5) कर्म का मर्म (1) फूल काँटों को करता है। संग को मोम बनाता है। बालुकामयी मरुधारा में। सुरसरी-सलिल बहाता है॥1॥ जहाँ पड़ जाता है सूखा। वहाँ पानी बरसाता है। धूल-मिट्टी में कितने ही। अनूठे फ

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