shabd-logo

गीत

hindi articles, stories and books related to get


मर्मवेधा (19)  त्याग कैसे उससे होगा। न जिसने रुचि-रस्सी तोड़ी। खोजकर जोड़ी मनमानी। गाँठ सुख से जिसने जोड़ी॥1॥ एकता-मंदिर में वह क्यों। जलायेगी दीपक घी का। कलंकित हुआ भाल जिसका। लगा करके कलं

गुण है गौरव गरिमा-रत। हित-निरत नीति का नागर। मानवता उर अभिनन्दन। सुख-निलय सुधा का सागर॥12॥ वह है भव-भाल कलाधर। जो है कल कान्ति विधाता। यह है शिव-शिर-सरि का जल। जो है जग-जीवन-दाता॥13॥ पुलकि

.पतिपरायणा (15)  प्यारे मैं बहुत दुखी हूँ। ऑंखें हैं आकुल रहती। कैसे कह दूँ चिन्ताएँ। कितनी ऑंचें हैं सहती॥1॥ मन बहलाने को प्राय:। विधु को हूँ देखा करती। पररूप-पिपासा मेरी। है उसकी कान्ति न

है शरद-व्योम-सा सुन्दर। गुणगण तारकचय-मंडित। कल कीत्तिक-कौमुदी-विलसित। राकापति-कान्ति-अलंकृत॥9॥ उसके समान ही निर्मल। अनुरंजनता से रंजित। उसके समान ही उज्ज्वल। नाना भावों से व्यंजित॥10॥ है प

थीं कान्त क्यारियाँ फैली। थे उनमें सुमन विलसते। पहने परिधन मनोहर। वे मंद-मंद थे हँसते। था उनका रंग निराला॥3॥ उनके समीप जा-जाकर। थी कभी मुग्ध हो जाती। अवलोक कभी मुसकाना। थी फूली नहीं समाती।

सुरा का सर में सौदा भर। पी उसे बनकर मतवाला। किसलिये ढलका दे कोई। सुधा से भरा हुआ प्यारेला॥5॥ बड़े सुन्दर कमलों के ही। क्यों नहीं बनते अलिमाला। क्यों बना वे बुलबुल हमको। रंगतें दिखा गुलेलाला॥6

टूट पड़ना है बिजली का। हाथ जीने से है धाोना। किसी पत्थर से टकराकर। कलेजे के टुकड़े होना॥5॥ जायँ पड़ काँटे सीने में। लहू का घूँट पड़े पीना। नहीं जुड़ पाता है टूटे। कलेजा है वह आईना॥6॥ भूल ह

(2) भी वह छिलता रहता है। कभी बेतरह मसलता है। कभी उसको खिलता पाया। कभी बल्लियों उछलता है॥1॥ खीजता है इतना, जितना। खीज भी कभी न खीजेगी। कभी इतना पसीजता है। ओस जितना न पसीजेगी॥2॥ कभी इतना घब

अन्तर्जगत् हृदय (1) मुग्धकर सुन्दर भावों का। विधाता है उसमें बसता। देखकर जिसकी लीलाएँ। जगत है मंद-मंद हँसता॥1॥ रमा मन है उसमें रमता। वह बहुत मुग्ध दिखाती है। कलाएँ करके कलित ललित। वह विलसत

दो क्या विंशति बाँह का वधा हुआ है स्वर्णलंका कहाँ। हो गर्वान्धा सहस्रबाहु बिलटा उत्पीड़नों में पड़ा। दंभी तू मन हो न भूलकर भी है दंभ तो दंभ ही। होगा गर्व अवश्य खर्व, न रहा कंदर्प का दर्प भी॥20॥

चाह पीसने लग जाती है, आह बहुत तड़पाती है। कभी टपकते हैं तो टपक फफोलों की बढ़ जाती है। पागल बने नहीं मन कैसे जब कि हैं पहेली ऑंखें। सिर पर उसके जब सवार हैं दो-दो अलबेली ऑंखें॥8॥ शार्दूल-विक्रीडित

कौन-कौन व्यंजन कैसा है, तुरत यह समझ जाता है। मधुर फलों की मधुमयता का भी अनुभव कर पाता है। जो जैसा है भला-बुरा उसको वैसा कह देता है। रसनाहीन कौन बहु रसनाओं से सब रस लेता है॥4॥ मधुर लयों से बड़े म

मन (1) मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका। विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका। है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता। कौन मुलायम ऊन के सदृश ऋजुतम माना जाता॥1॥ मंद-मंद हँसनेवाला छवि-

लाखों भूप हुए महा प्रबल हो डूबे अहंभाव में। भू के इन्द्र बने, तपे तपन-से, डंका बजा विश्व में। तो भी छूट सके न काल-कर से, काया मिली धूल में। हो पाई किसकी विभूति यह भू? भू है भयों से भरी॥24॥ ऑंखें

आरक्ता कलिकाल-मूर्ति कुटिला काली करालानना। भूखी मानव-मांस की भय-भरी आतंक-आपूरिता। उन्मत्ताक करुणा-दया-विरहिता अत्यन्त उत्तोजिता। लोहू से रह लाल है लपकती भू-लाभ की लालसा॥4॥ देशों की, पुर-ग्राम की

विविध भाँति की बहु विद्याएँ श्रम-संकलित कलाएँ कुल। हैं उसको गौरवित बनाते कौशल-वलित अनेकों पुल। सुर-समूह को कीत्तिक-कथाएँ उड़ नभ-यान सुनाते हैं। विहर-विहर जलयान जलधिक में गौरव-गाथा गाते हैं॥11॥ अ

विकंपित वसुंधरा (5) वसुंधरा ! यह बतला दो तुम, क्यों तन कम्पित होता है। क्यों अनर्थ का बीज लोक में कोप तुम्हारा बोता है। माता कहलाती हो तो किसलिए विमाता बनती हो। पूत पूत है, सब पूतों को तुम्हीं क्

किसके बहु श्यामायमान वन बन-ठन छटा दिखाते हैं। नन्दन-वन-समान सब उपवन किसकी बात बनाते हैं। किसके ह-भ ऊँचे तरु नभ से बातें करते हैं। कलित किसलयों से लसते हैं, भूरि फलों से भरते है॥6॥ किसकी कलित-भूत

मानव ने ऐसे महान अद्भुत मन्दिर हैं रच डाले। ऐसे कार्य किये हैं जो हैं परम चकित करनेवाले। ऐसे-ऐसे दिव्य बीज वह विज्ञानों के बोता है। देख सहस्र दृगों से जिनको सुरपति विस्मित होता है॥21॥ आज बहु विम

वसुन्धारा (1) प्रकृति-बधूटी केलि-निरत थी काल अंक था कलित हुआ। तिमिर कलेवर बदल रहा था, लोकालय था ललित हुआ। ज्योतिर्मण्डित पिंड अनेकों नभ-मंडल में फिरते थे। सृजन वारिनिधिक-मध्य बुद्बुदों के समूह-से

संबंधित किताबें

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए