1990 के साल से इंस्पेक्टर और लाइसेंस राज के ख़िलाफ़ कानून बनाने से लेकर सियासी नारे लगाते देखा है। कोई भी नेता इस्पेक्टर और लाइसेंस राज की समाप्ति का एलान कर उद्योगजगत की नज़र में दयालु हो जाता है। इंस्पेक्टर और लाइसेंस राज को भारत की आर्थिक प्रगति का दुश्मन माना गया है। आप इंटरनेट में सर्च कीजिए। हज़ारों ख़बरें मिलेंगी जिनमें लाइसेंस राज की समाप्ति का एलान है। 2013-14 के साल में मृत प्राय हो चुके इंस्पेक्टर राज के फिर से मरने का एलान किया जाने लगा। जब minimum government, maximum governance का नारा दिया गया। हिन्दी में इसका अनुवाद गड़बड़ा जाता है। न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन। कम से कम हस्तक्षेप में अधिक से अधिक शासन की बात है। हर महीने दो महीने पर दिल्ली मुंबई के पांच सितारा सम्मेलनों में इस्पेक्टर राज का मर्सिया पढ़ा जाता है। इसके मरने की हर ख़बर पर ताली बजाई जाती है। भारत की आर्थिक प्रगति का दुश्मन लाइसेंस फिर कैसे यूपी की सड़कों पर लौट आया है। छुट्टा सांड की तरह घूम रहा है। बेसिक कोच्चन तो ये है।
इंटरनेट के कबाड़ से जब पुरानी ख़बरों को छान रहा था तब अक्तूबर 2014 की कई ख़बरों से सामना हुआ। उस दौरान प्रधानमंत्री ने श्रमेव जयते नीति का एलान किया था। ख़बरों में प्रमुखता से छापा गया था कि देश के 1800 इंस्पेक्टर के फोन पर उनके नए दायित्व की सूची भेजी गई थी। दस हज़ार होते तो प्रधानमंत्री की टीम के लोग उन सभी को मैसेज भेजती। भारत की लाखों छोटी बड़ी कंपनियां, कारखानों में नियमों का पालन हो रहा है या नहीं, इसके लिए सिर्फ 1800 इंस्पेक्टर? दिन रात काम करने भी ये सारी फैक्ट्रियों का मुआयना नहीं कर सकते हैं। ज़ाहिर है नज़राना चलता होगा। जब ये हैं नहीं फिर भी इनके ख़ात्मे का एलान ज़ोरशोर से किया जाता है। इटरनेट में तमाम मंत्रियों के लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज पर प्राणघातक हमले वाले बयान मिलेंगे।
हम सभी सुनकर राहत ही महसूस करते हैं कि सरकार इंस्पेक्टरों को ख़त्म कर,उनके अधिकारो को सीमित कर अच्छा ही कर रही है। होना भी चाहिए। बहुत नियम बेवजह होते भी हैं। सारे नियम बेवजह नहीं होते। उनके मकसद होते हैं। अब सरकारें कहती हैं कि हम जांच नहीं करेंगे कि कंपनियां इन नियमों का पालन करती हैं या नहीं क्योंकि हम पर लाइसेंस राज का आरोप लग जाएगा। शायद हम यह मान कर चलते हैं कि कंपनियां ख़ुद से कोई ग़लत काम नहीं करती हैं। पर्यावरण के सारे नियमों का पालन करती हैं। बाल मज़दूर नहीं रखती हैं। बस हमारी नदियों का मूड ख़राब हो गया था इसलिए उन्होंने कंपनियों को बदनाम करने के लिए ख़ुद को प्रदूषित कर लिया है। केंद्र सरकार के श्रमेव जयते के तहत अब कंपनियों को एक ही फार्म भरना होता है। पहले 16 फार्म भरने होते थे। इसका सभी ने ज़ोरदार स्वागत किया है।
हम भारतीय नहीं चाहते कि राष्ट्र सेवा कर रहे इन कंपनी वालों को लाइसेंस और इंस्पेक्टर के नाम पर परेशान किया जाए। क्या एक सवाल उस भारतीय से पूछा जा सकता है कि आप अमीरों के लिए लाइसेंस से इतनी नफ़रत करते हैं, फिर किस तर्क से ग़रीबों या साधारण दुकानदारों के लिए लाइसेंस की वकालत करते हैं। क्यों चाहते हैं कि लाइसेंस के नाम पर एक तबके के दुकानदारों को खोज खोज कर मारा जाए,उनकी दुकानें बंद कर दी जाएं। क्या हमने अपनी संवेदनशीलता का भी बंटवारा कर लिया है? शायद कर लिया है। हम सभी भीतर भीतर ही इन क्रूर सहमतियों को दबा कर रखे हुए थे। तभी हमने नुक्कड़ या स्थानीय बाज़ारों में मीट मुर्गा और मछली बेचनों वालों के लिए आह तक नहीं की। हमने मान लिया कि मीट मछली और मुर्गा बेचना गंदगी में रहने वाले, गंदा काम करने वाले, दाढ़ी रखने वाले, भद्दे दिखने वाले मुसलमानों का ही काम है। इन्हें सबक सीखाने की ज़रूरत है। अगर लाइसेंस की ही शिकायत है तो इसकी जांच पुलिस या निगम के इंस्पेक्टर करेंगे या गले में धार्मिक पहचान का पट्टा डालकर घूम रही टोली करेगी। उद्योगपतियों को लाइसेंस देने के लिए सरकारें इंवेस्टमेंट समिट करती हैं। ज़्यादातर इंवेस्टमेंट समिट फ्लाप हैं फिर भी न जाने किन कारणों से हमारे भीतर इन्हें लेकर सहमति बनी रहती है। चूंकि ये ग़रीब हैं या साधारण हैं तो इन पर लात जूते बरसायें जाएंगे? इनके पीछे सरकारी कर्मचारियों की जगह भीड़ छोड़ दी गई है। जो पुलिस के साथ या पुलिस के बिना भी केसरिया पट्टा लगाकर हमलावर बनी घूम रही है। कायदे से तो इस काम के लिए इंस्पेक्टरों की भर्ती की जानी चाहिए थी। इससे लोगों को रोज़गार भी मिल जाता। लेकिन जब रोज़गार ही मिलने लगेगा तो गले में पट्टा डालकर घूमेगा कौन। मारपीट कौन करेगा। लाइसेंस नहीं है तो इसका पालन प्रशासन करेगा या भीड़। क्या इसे लेकर भी आप सहमत हैं? क्या अवैध धंधा करने वाले इन मुसलमानों से रिश्व लेने वाले हिन्दू नहीं होंगे? रिश्वत का समाज ऐसे ही बन गया होगा?
भारतीय शिक्षा व्यवस्था को गरियाते हुए ख़ुद को पढ़ा लिखा समझने वाला कोई भी अवैध दुकानों का समर्थन नहीं करना चाहेगा। बहुतों ने तो अपना कर्तव्य समझ लिया कि अवैध दुकानों का विरोध किया जाना चाहिए। टैक्स चोरी बंद होनी चाहिए। ये वही पढ़ा-लिखा समाज बिना किसी लाइसेंस के अपनी हाउसिंग सोसायटी के बाहर की सार्वजनिक ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा किये रहता है। रस्सी से फुटपाथ को घेर लेता है और वहां कारें लगा देता है। क्या सरकार को हाउसिंग सोसायटी के बाहर खड़ी कारों से पार्किंग शुल्क नहीं वसूलनी चाहिए? अव्वल तो फुटपाथ पर लगी कारों को ज़ब्त कर लेना चाहिए। मुझसे कई लोग मिलते हैं जो प्रधानमंत्री से लेकर ज़िलाधिकारी का ईमेल मांगते हैं। शिकायत करने के लिए कि पास के मार्केट के बाहर बहुत अतिक्रमण है. सड़क के किनारे पटरी पर फल और सब्ज़ी बेचने वालों ने गंदगी कर रखी है। जब मैं उन्हें बताता हूं कि ज़्यादा गंदगी तो आपकी दस दस लाख की कारों की अवैध पार्किंग की वजह से है तो वे भारत को कभी सिंगापुर न बन पाने का श्राप देते हुए चले जाते हैं।
अभी भले लग रहा हो कि यह सारा अभियान चंद मुसलमानों के ख़िलाफ़ है लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि ये वही मानसिकता है जो सड़कों के किनारे ग़रीबों को देखकर उन्हें गंदगी समझती है। उन्हें अपने भारत पर शर्म आती है। अगर अवैध बंद ही करना है तो क्या सिर्फ मीट मुर्गा ही अवैध तरीके से बिक रहा है? क्या लस्सी, नारियल,पान बीड़ी,फल सब्जी सब लाइसेंस से ही बिक रहा है? इन अवैध दुकानों को बंद कराना है तो सरकारी कर्मचारी बंद करायें। क्या पुलिस के साथ या उसके बिना दुकानों पर धावा कर रही ये भीड़ अवैध नहीं है? क्या अवैध का ख़ात्मा अवैध से ही होगा? क्या ये भीड़ भी वैध है? किसने इन्हें लाइसेंस चेक करने का लाइसेंस दिया है? जिनके पास लाइसेंस हैं उन्हें क्यों परेशान किया गया।
टीवी और अख़बार ने इतना बूचड़खाना बूचड़खाना किया कि लगता है कि यूपी में बूचड़खाना छोड़कर कुछ है ही नहीं। किस ज़िले में कितने वैध और अवैध बूचड़खाने हैं इसका कोई अता-पता नहीं है। एक दो बूचड़खाना बंद हुआ उसे लेकर हंगामा मच गया। क्या इतनी जल्दी सारे बूचड़खाने बंद हो गए? दो चार वेबसाइट पर भले बूचड़खानों के हिन्दू मुस्लिम स्वामित्व के बारे में रिपोर्ट छपी लेकिन घर घर पहुंचने वाले टीवी ने क्या आपको जानकारी दी। किसी हिन्दू से पूछना चाहिए था कि आप बूचड़खाना क्यों चलाते है? क्यों धर्म के ख़िलाफ़ जाकर पैसा कमाते हैं। गाय पर बैन है तो क्या भैंस के प्रति कोई करुणा नहीं। हम तर्क क्या कर रहे हैं। अपने भीतर के ज़हर को और भी ज़हरीला किये जा रहे हैं।
मुख्यमंत्री योगी से मिलने गए मीट कारोबारियों की तस्वीर देखिये। थोड़ी मेहनत आप भी कीजिए। इंटरनेट पर तस्वीर है। टीवी ने बूचड़खाने को लेकर आपके मन में ऐसी तस्वीर बनाई कि हत्यारे आक्रांता मुसलमान बूचड़खाना चला रहे हैं। मुख्यमंत्री से मिलने गए कारोबारी इस भयंकर गर्मी में भी सूट बूट में योगी जी के सामने बैठे हैं। न तो किसी की दाढ़ी है न किसी ने पजामा पहना है। ये होता है पैसे का खेल । जो बड़ा कारोबारी है वो सूट बूट में मुख्यमंत्री से मिल आ रहा है। जो छोटा कोराबारी है उसकी छवि निर्दयी मुसलमान की बना दी गई। अगर मांस हिंसा है तो फिर वैध अवैध क्या। इसी पर सहमति बना लीजिए और हर तरह की कटाई छंटाई बंद कर दीजिए। फिर उस भीड़ के ख़िलाफ़ भी खड़े हो जाइये जो लोगों को मार रही है। क्या वो हिंसा नहीं है?
सवाल बूचड़खाने का था, मगर इसके नाम पर गली नुक्कड़ पर मीट मछली बेचने वालों की तलाशी होने लगी। कंपनी वाले वैध तरीके से सूट-बूट में मीटिंग कर रहे हैं। मुख्यमंत्री ने मीट कारोबारियों को भी बुलाकर सुना है। सबने कहा है कि हम लाइसेंस के लिए तैयार हैं। तो इसके बाद उस तरफ देखा जाए कि और कौन कौन हैं जो बिना लाइसेंस के धंधा कर रहे हैं। ऐसा तो हो नहीं सकता कि मीट मुर्गा तक ही ये बीमारी सीमित है।
वैध लाइसेंस का आग्रह तो हर हाल में होना चाहिए। मगर हम वैध लाइसेंस को लेकर ही भेदभाव कर रहे हैं। बड़ी कंपनियों के लिए लाइसेंस राज समाप्त कर रहे हैं। सड़क के किनारे मेहनत मज़दूरी करने वालों के लिए लाइसेंस की वकालत कर रहे हैं। यही राजनीति अवैध बस्तियों को वैध करने की वकालत करने लगती है। अभी दिल्ली चुनाव हो रहे हैं। तमाम बस्तियों को वैध बनाने की दावेदारी और दावे फिर से किये जायेंगे। उन अवैध बस्तियों में बड़ी कंपनियों के कच्चे माल पकाए जाते हैं। कभी आप घूम आइयेगा वहां। वे न होते तो ये कंपनियां और चरमरा जातीं। न्यूतनम मज़दूरी से भी चौथाई पर काम कराकर ये कंपनियां अपना मुनाफा मोटा करती हैं। अवैध समझे जाने वाले इस मानसिकता को प्रियदर्शन से तरीसे से उधेड़ा है। आप satyagrah.com नामक वेबसाइट पर जाकर उनके लेख पढ़ सकते हैं।
“इस तर्क से चलेंगे तो आपको आधे से ज़्यादा हिंदुस्तान को उजाड़ देना होगा। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में जो बहुत बड़ी आबादी झुग्गी-बस्तियों में रहती है, न उसके नाम ज़मीन होती है और न मकान होता है। कानून के तर्क से वह अवैध आबादी है जिसे वहां रहने का हक नहीं है।
इस अवैध आबादी से आपको परेशानी नहीं है क्योंकि यह आपके सबसे ज़रूरी काम निबटाती है। वह सुबह सुबह आपको अख़बार और दूध देती है, आपकी कारें साफ़ करती हैं, यहीं से आपकी कामवालियां, बाइयां और आयाएं आती हैं जिनके सहारे आपकी नई मध्यमवर्गीय जीवन शैली चल पाती है। यह आबादी फिर उजाड़ दी जाती है। वह शिकायत नहीं करती है क्योंकि उसे उजड़ने का अभ्यास है। हिन्दुस्तान किसी भी क़ानून से ज़्यादा इस हक़ीक़त से चलता है”
ग़रीब भी टैक्स देता है।अप्रत्यक्ष करों में उसकी भी भागीदारी है। इनके लिए भी निवेश सम्मेलन होना चाहिए जहां मौके पर ही लाइसेंस सौंप दिये जाएं। जिस लाइसेंस के नाम पर अमीरों को राहत दी जा रही है, उसी लाइसेंस के नाम पर ग़रीबों का गला घोंटा जा रहा है। अभी आप समझेंगे कि ये मुसलमान हैं तो क्या फर्क पड़ता है। मैं नहीं मानता कि आप ऐसे हैं। आप बिल्कुल कानून और टैक्स का राज चाहते हैं। क्या आप सरकार से मांग करेंगे कि वो सार्वजनिक ज़मीन पर, हाउसिंग सोसायटी के बाहर घेरा बनाकर पार्क कर रहे लोगों से पार्किंग शुल्क वसूले? उन दुकानदारों से भी दो दो दुकानों के बराबर लाइसेंस लिये जाने चाहिए जो नियम तोड़कर अपनी दुकान से बाहर सामान रखकर दुकान डबल कर लेते हैं। अब आप इस बहस से ही किनारा कर लेंगे। क्योंकि आपको ये दिखता है कि मुसलमानों का कितना मन बढ़ गया था। आपको ये नहीं दिखता है कि आपका मन कितना बढ़ा हुआ है।
मुझे आपके दोहरेपन को लेकर कोई दुख नहीं है। बस अफसोस है कि आप भीड़ की हिंसा का समर्थन करते हैं। किसी को डराने में यकीन रखने लगे हैं। मुझे चिंता है कि ये फ़ितरत आपको जानवर बना देगी। अपना ख़्याल रखियेगा। आइये हम सबमिलकर भारत से हर वो चीज़ जो अवैध है उसे मिटा देते हैं। हिन्दू अवैध और मुस्लिम अवैध सब मिटा देते हैं। आइये हम और आप मिलकर एक वैध भारत बनाते हैं। वैध भारत ही नया भारत होगा। मेरा नारा चोरी न करें। आजकल बहुत से चोर राजनीति में आ गए हैं जो थानेदार बनकर घूम रहे हैं।
नोट- हिन्दू राष्ट्र हो या कोई भी राष्ट्र हो। राज कानून का रहेगा या भीड़ का चलेगा। हिंसा या भय के माहौल का विरोध कीजिए। राज़ी ख़ुशी कानून का राज हो। यही हम सबके हित में है। अभी जो चंद मुसलमानों पर जो भीड़ हिन्दू बनकर टूट पड़ी है वो एक दिन आपकी तरफ भी मुड़ेगी। बल्कि वो मुड़ चुकी है। यकीन न हो तो आप पार्क से लेकर माल में छापामारी कर रहे नौजवानों की तस्वीरें देख लीजिए। आप एक तरह से अच्छा कर रहे हैं कि मुसलमान होने के नाम पर किसी भी तरह की रियायत का विरोध कर रहे हैं। फिर आपको हिन्दू बनकर थानेदार बनने वाले इन लोगों का भी विरोध करना चाहिए। जो काम पुलिस का है वो पुलिस करे। भीड़ नहीं। भीड़ किसी की नहीं होती है। ये बात लिखकर अपने पर्स में रख लीजिए। अगर आपको लगता है मैं ग़लत हूं तो आप एक काम कीजिए। जो लोग पार्कों में प्रेमियों को पकड़कर धमका रहे हैं, जो मीट मुर्गा बेचने वालों की दुकानें बंद करा रहे हैं, उन्हें अपने घर बुलाइये। परिवार के साथ भोजन कराइये। वो आपके घरों में आएंगे जाएंगे तो संस्कार और संस्कृति का प्रसार होगा। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, इन लोगों को घर बुलाकर सम्मानित नहीं करते हैं तो आप सच्चे हिन्दू नहीं हैं। आप अपनी हिंसा को आउटसोर्स न करें। जो लोग आपके धर्म का काम कर रहे हैं, उन्हें आपकी तरफ से एक लंच तो बनता ही है। है कि नहीं। बुलायेंगे इन्हें अपने घर? जल्दी करें। इन्हें लंच पर बुलाकर फोटो ट्वीट कीजिए। समाज में इनके प्रति लोगों का आदर बढ़ेगा। लोग इन्हें गुंडा बदमाश नहीं समझेंगे। हिन्दू हित के लिए आप भी तो कुछ कीजिए।