किस बात का गम प्यारे
हर दिन नया खेला है
जो बात समझ गया इतनी सी
उस का हर दिन मेला है
रास्ता है तो मंजिल भी होगी
कभी सुलझन तो कभी उलझन भी होगी
कभी कोई सपना देखेगी आंखे
कभी कोई जूनून खुद पर भी हावी होगा
राही राह देख रही है
स्वयं की पहचान कर ले
खोल स्वयं के बन्द अब
स्वतंत्र होले
सुशील मिश्रा” क्षितिज राज “