🔴संजय चाणक्य
" कलम सत्य की शक्तिपीठ है बोलेगी सच बोलेगी।
वर्तमान के अपराधो को समय तुला पर तोलेगी।।
पांचाली के चीरहरण पर जो चुप पाये जायेगे।
इतिहास के पन्नों पर वो सब कायर कहलायेगे।।"
देश के सबसे बडे सूबे मे कानपुर के डिप्टी एसपी सहित आठ पुलिसकर्मियों का हत्यारा व पांच लाख का इनामी गैगेस्टर विकास दूबे अपनी गिरफ्तारी के चौबीस घंटे के भीतर पुलिस मुठभेड़ मे मारा गया। यह कहना भी गलत नही होगा कि अपनी जान बचाने के लिए सार्वजनिक तौर पर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाला दरिन्दा विकास दूबे पुलिस अभिरक्षा मे पुलिस की गोलियों का शिकार होकर जहन्नुम सिधार गया।
निसंदेह। विकास दूबे एक कुख्यात अपराधी था वह समाज के लिए कोरोना वायरस से भी ज्यादा खतरनाक था, समाज मे उसे जीने का कोई अधिकार नही था। राष्ट्रहित, समाजहित और मानव हित को ध्यान मे रखा जाये उस दुर्दांत अपराधी की मौत से कम कोई सजा हो भी नही सकती। लेकिन सवाल यह उठता है कि सूबे की जाबांज पुलिस खुद को अपना पीठ थपथपाते हुए जिस निर्लजता से विकास यादव के मुठभेड़ की जो कहानी बयां कर रही है उसमें कितनी सच्चाई है? सवाल यह भी उठता है पुलिस की गोलियों का शिकार हुए विकास दूबे की पुलिस ने एनकाउंटर किया है या फिर हत्या?
" पुलिस महकमे के वो हाकिम, सुन लो मेरी बात।
जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात।।"
बेशक। उ0प्र0 के जाबांज पुलिसकर्मियों के बहादुरी के किस्से पर एक नजर दौड़ाने की जरूरत है। पुलिस के जिम्मेदरानो का कहना है कि विकास दूबे को उज्जैन से कानपुर लाये जाने के दौरान टोल नाके से पच्चीस किलोमीटर दूर बर्रा इलाके मे वह गाडी पलट गई जिसमे विकास दूबे बैठा हुआ था। दुर्घटना का फायदा उठाकर विकास दूबे एक पुलिसकर्मी का पिस्टल छीनकर भागने की कोशिश की, जवानों ने उसे सरेंडर करने का कहा लेकिन कुख्यात अपराधी विकास ने पुलिस पर फायरिंग शुरू कर दी। आत्मरक्षा मे पुलिस ने भी जवाबी फायरिंग की जिसमें दुर्दांत अपराधी विकास दूबे को गोली लगी और उसकी मौत हो गयी। अब सवाल यह उठता है कि यह वही विकास दूबे है न। जिसे जिन्दा या मुर्दा पकडने के उ0प्र0 की पुलिस सात दिनो तक खाक छानती रही लेकिन विकास दूबे इन बहादुर पुलिसकर्मियों के हाथ नही लगा। जगजाहिर है कि विकास वक्त और जगह खुद तय कर अपनी प्लानिंग के तहत मध्य प्रदेश पुलिस के हत्थे चढा। ऐसे मे यह कहना लाजमी होगा कि अगर विकास दूबे को भागना ही होता तो वह उज्जैन पुलिस के हाथो गिरफ्तार क्यो होता। महाकालेश्वर के मंदिर से ही नही भाग जाता। वह तो भागने का तनिक भी प्रयास नही किया। विकास उज्जैन मंदिर मे तब तक वहा घुमता रहा जब तक एमपी पुलिस ने उसे दबोच नही लिया। वह भागने के बजाय चिल्लाकर मंदिर मे मौजूद मीडिया और भीड का ध्यान आकर्षित करता है कि " मै विकास दूबे हूँ कानपुर वाला।" सार्वजनिक तौर पर अपनी गिरफ्तारी के दौरान उसने कोई विरोध नही किया था, गिरफ्तारी के दौरान उसके पास से कोई हथियार भी बरामद नही हुआ। उस समय ही यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि विकास अपनी जान बचाने के लिए सुनियोजित तरीके से आत्मसमर्पण कर मौत पर विजय प्राप्त कर लिया। यही वजह है कि सवाल उठना लाजमी होगा कि जिसने अपनी गिरफ्तारी के दौरान कोई विरोध दर्ज नही कराया वह रास्ते मे भागने का प्रयास क्यो करेगा। ऐसे मे पुलिस द्वारा गढी गयी मनगढत कहानी पर यकीन कर पाना खुद को धोखा देने के बराबर है।
कुख्यात गैंगस्टर विकास दूबे के मुठभेड़ को लेकर मेरे मन-मस्तिष्क मे तमाम सवाल हिलोरें मार रही है। हो सकता है आपके मन मे भी वही सवाल कौध रहा रहा हो... पहला सवाल- कानपुर घटना के दौरान मीडिया के सामने यह बात सार्वजनिक हो चुका है कि विकास दूबे के दोनो पैर मे राड पडी हुई थी और वह लंगडाकर चलता था, तो इतनी भारी संख्या मे हथियारों से लैस पुलिस फोर्स के होते हुए वह क्यो भागा ? जबकि वह अच्छी तरह से जानता था कि वह सौ कदम भी दूर नही भाग पाएगा। दुसरा सवाल- मामूली पाकेटमार और गंजा तस्करों को उ0प्र0 की जाबांज पुलिस हथकड़ी लगाकर ले जाती है फिर सूबे की तुर्रमबाज एसटीएफ मोस्ट वॉन्टेड अपराधी विकास दूबे को हथकड़ी क्यो नही लगाई थी। तीसरा सवाल- आखिर काफिले की वही गाड़ी अचानक कैसे पलट गई जिसमें विकास मौजूद था। यदि इसे संयोग मान लिया जाए तो भी बड़ा सवाल यह है कि जब इतने बड़े अपराधी को पुलिस गाड़ी में ला रही थी तो उसके हाथ खुले क्यों थे? क्या उसे हथकड़ी नहीं लगाई गई थी।
चौथा सवाल - मीडियाकर्मियों का दावा है कि वे भी उस काफिले के साथ ही उज्जैन से आ रहे थे, लेकिन दुर्घटना स्थल से कुछ दूर पहले मीडिया और सड़क पर चल रही निजी गाड़ियों को रोक दिया गया था। न्यूज एजेंसी एएनआई ने भी इसका फुटेज जारी किया है। आखिर क्यों मीडिया को आगे बढ़ने से रोक दिया गया था ? पाचवा सवाल - यदि विकास ने भागने की कोशिश की तो उसके पैर में गोली क्यों नहीं मारी गई? छठा सवाल -गुरुवार को प्रभात और शुक्रवार को विकास दुबे, इन दोनों का जिस तरह दो दिन में एनकाउंटर हुआ क्या यह संयोग है? प्रभात के एनकाउंटर के बाद पुलिस ने इसी तरह का घटनाक्रम बताया था कि पहले पुलिस की गाड़ी पंक्चर हुई फिर प्रभात पुलिसकर्मियों से पिस्टल छीनकर भागने की कोशिश करने लगा और फिर एनकाउंटर में मारा गया। विकास के मौत के दौरान भी सबकुछ ठीक उसी तरह से हुआ है। सातवा सवाल- दो दिन में दो बार अपराधी पुलिसकर्मियों से हथियार छीन लेते हैं। क्या पुलिसकर्मियों ने अपने हथियार रखने में लापरवाही बरती जो उनके गिरफ्त में मौजूद कोई बदमाश हथियार छीन लेता है।
कही ऐसा तो नही विकास दूबे सत्ताधारी नेताओं और पुलिस के आला अफसरों से अपने गठजोड़ के बारे मे कई खुलासे कर चुका था। कहना न होगा कि कानपुर शूटआउट केस मे खाकी के कई बडे अधिकारी और खद्दरधारी सवालो के घेरे मे थे। यही वजह है कि पहले से ही यह आशंका जताई जा रही थी कि गैगेस्टर विकास दूबे को पुलिस मारने की लिए कोई मनगढत इबादत जरूर लिखेगी और हुआ भी वही। अब सवाल यह उठता है कि मानवता का हत्यारा विकास दूबे के जिंदा रहने से किसको नुकसान होने वाला था किसकी कलई खुलने वाली थी। क्या इस हत्यारे के मौत के साथ ही सारे राज दफन हो गये। इस तरह के और भी कई सवाल उठ रहे हैं, जिनका अभी पुलिस को जवाब देना होगा। ऐसे मे यह कहना गलत नही होगा कि लोकतंत्र के इस सबसे बडे राज्य मे कानून का नही बल्कि वर्दी के आड मे " गुण्डाराज" चल रहा है। लोकतंत्र मे जिस सरकार को आम जनता अपने एक वोट के " सवैधानिक अधिकार" से चुनती है उसका पहला दायित्व संविधान का शासन स्थापित करना होता है लेकिन विकास दूबे एनकाउंटर यह साबित कर रहा कि खाकी वर्दी लोकतंत्र के नये शाही दरबारो मे तब्दील हो गया है। ऐसे मे एक पुरानी कहावत बरबस फूट पडती है...
मुजरिम माँ के पेट से कम और पुलिस स्टेशन के गेट से ज्यादा बनते है।
"आज व्यवस्था का चाबूक कमजोर दिखाई देता है।
खाकी का रौब आदमखोर दिखाई देता है।।
‼️ जय हिन्द ‼️