मुझे लगा आज प्रधानमंत्री अरुणाचल प्रदेश के पूर्व सीएम के सुसाइड नोट को लेकर कांग्रेस को बिल्कुल नहीं छोड़ेंगे और कांग्रेस से निकल कर बीजेपी के मुख्यमंत्री बने अरुणाचल के मौजूदा सीएम की तो ख़ैर नहीं होगी जिन पर कालिखो पुल ने सुसाइड नोट में छह सौ करोड़ के घोटाले का आरोप लगाया है।इस सुसाइड नोट में कांग्रेस के बड़े नेताओं पर भी आरोप है फिर भी।
एक बार जवाहर लाल नेहरू पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पिता के लिए प्रचार करने गए। मंच पर चढ़ते वक्त किसी ने नेहरू से कह दिया कि अर्जुन सिंह के पिता पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। नेहरू मंच पर गए और वहाँ आई जनता से कह दिया कि इस उम्मीदवार को हरा देना। नेहरू से हर मामले में बड़ा करने का ख़्वाब देखने वाले प्रधानमंत्री मोदी से इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।पत्रकार आलोक मेहता ने अपनी किताब में इस प्रसंग का ज़िक्र किया है। लेकिन प्रधानमंत्री अरुणाचल वाले मामले पर चुप हैं और कांग्रेसी भी। मुझे यह भी लगा कि प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश में आई एस आई के लिए काम करने के आरोप में पकड़े गए हिन्दू युवकों के बारे में बोलेंगे।
उस पर भी नहीं बोले। उनके नए बयान से कहीं यह मतलब लोग न निकाल लें कि आई एस आई की मदद करने में भेदभाव नहीं होना चाहिए!
ऐसा नहीं है कि आज प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं बोला। दो साल से यूपी के सभी गाँवों को साल भर के भीतर बिजली देने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री ने बिजली को सांप्रदायिक रंग दे दिया।”रमज़ान में बिजली आती है तो दिवाली में बिजली आनी चाहिए। भेदभाव नहीं होना चाहिए।” ये प्रधानमंत्री के शब्द हैं। क्या वाक़ई ऐसा हुआ है? तथ्य क्या हैं ? क्या हमारी राजनीति इस स्तर पर पहुँच गई है कि बिजली को भी हिन्दू मुसलमान में बाँटेगी। यूपी के लोग याद करें कि क्या वाक़ई दिवाली में ऐसा हुआ था?
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपने बिजली विभाग का रिकार्ड नहीं मालूम होगा तो उनकी समस्या है। केंद्र सरकार के ऊर्जा मंत्रालय के एक आई ए एस अधिकारी ने Achieving universal energy access in India by P C MAITHANI, DEEPAK GUPTA ने लिखी है और इसे सेज प्रकाशन ने छापा है। इसके पेज नंबर 52 पर लिखा है कि भारत सरकार ने 2005 में भारत निर्माण के तहत लक्ष्य तय किया था कि मार्च 2012 तक एक लाख गांवों में बिजली पहुंचाई जाएगी। मैथानी साहब लिखते हैं कि सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक भारत के 593,732 गांवों में से 556,633 गांवों को बिजली से जोड़ा जा चुका था। यानी इतने कम समय में लाखों गांवों में बिजली पहुंचा दी गई। जो लोग कहते हैं कि सत्तर साल में गाँवों में बिजली नहीं पहुँची वो जाकर इस अफसर से पूछें कि इसने क्या झूठे आँकड़ें दिये हैं ?
मैथैनी ने लिखा है कि 31 जनवरी 2014 के बाद सिर्फ 37,069 गाँवों को ही बिजली से जोड़ा जाना रह गया था। 31 जनवरी 2014 तक आंध्रप्रदेश, गोवा,हरियाणा,दिल्ली,केरल,पंजाब,सिक्किम, तमिलनाडू में शत प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच गई थी।गुजरात का आंकड़ा 99.8 प्रतिशत था,पश्चिम बंगाल का 99.9 प्रतिशत और बिहार का 97, मध्यप्रदेश का 97.7 और छत्तीसगढ़ का 97.4 फीसदी गांवों में बिजली पहुंचाई जा चुकी थी। 31 जनवरी 2014 तक देश का कोई भी राज्य नहीं हैं जहां 85 प्रतिशत से कम गांवों का बिजलीकरण हुआ हो। उत्तर प्रदेश का आंकड़ा था 88.9 प्रतिशत। यूपी के 887.9 प्रतिशत गाँवों में बिंदास पहुँच चुकी थी।ये अखिलेश ही बता सकते हैं कि बिजली के आरोपों का उनके पास क्या जवाब है या कोई जवाब ही नहीं है।प्रधानमंत्री ने जो बात कही है उसका हिसाब वही दें कि उन्हें किसने बताया है कि दिवाली में बिजली नहीं आती है,रमज़ान में आती है।
पश्चिम उत्तर प्रदेश ने 2017 में 2014 की सांप्रदायिक राजनीति का चेहरा समझ लिया। इसलिए हुकूम सिंह को भी इंडिया टीवी से कहना पड़ा कि कैराना में पलायन या सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है।जाट बिरादरी ने हिन्दू मुस्लिम राजनीति को रिजेक्ट कर दिया।अजित सिंह अकेले नेता थे जो मंच से खुलकर कहते थे कि हिन्दू मुसलमान मत करो,ये इलाका बरबाद हो जाएगा। बीजेपी ने भी पश्चिम यूपी में इस तरह के बयानों से दूरी ही रखी।
ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री को श्मशान, क़ब्रिस्तान,रमज़ान और दिवाली का कार्ड खेल ना पड़ा। क्या उनके लिए सिर्फ चुनाव जीतना ही स्तर और सफलता है। गूगल सर्च कीजिये। हर बड़े अख़बार के हवाले से रिपोर्ट मिलेगी कि गुजरात के तमाम गाँवों में दलितों का अलग से श्मशान होता है।वहाँ अलग श्मशान क्यों हैं? यूपी चुनाव के समय भाजपा अध्यक्ष समरसता के लिए दलितों के घर खाना खाने गए थे,कुँभ में दलित साधुओं के साथ स्नान करने गए थे। क्या उन्हें नहीं मालूम था कि उनके गुजरात में दलितों के अलग श्मशान हैं और कई जगहों पर प्रशासन भी मदद करता है।
यूपी की चुनावी सभाओं में बिजली,कानून और सड़क मात्र को विकास बताने वाले प्रधानमंत्री को रमज़ान और दिवाली में भेद की ज़रूरत क्यों पड़ी?नोटबंदी को ऐतिहासिक फैसला बताने वाले प्रधानमंत्री को क़ब्रिस्तान और श्मशान का बयान क्यों देना पड़ा? क्या वाक़ई भारतीय राजनीति में विकास का कोई मतलब नहीं है।जब तक क़ब्रिस्तान या श्मशान का ज़िक्र न हो,चुनाव नहीं जीता जा सकता है? ये सवाल प्रधानमंत्री से ज़्यादा यूपी की जनता से भी है।