टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं.
वाजपेयी (अटल बिहारी) की यह वह
प्रिय कविता है, जो जीवन में आगे बढ़ने, कभी हार
नहीं मानने और लड़ने के लिए प्रेरित करती है. यह
वह कविता है जिसने राजनीतिज्ञों से लेकर आम
आदमी को राह दिखायी है. यह वह कविता है,
जिसके माध्यम से आज भी राजनेता अपनी भावनाएं
व्यक्त कर रहे हैं.
वाजपेयी को सक्रिय राजनीति से संन्यास लिये दस साल
बीत गये, उसके बावजूद जब भी भाजपा
की उपलब्धि की बात आती है, तो
वाजपेयी ही याद आते हैं. भारतीय
राजनीति में आज भी वाजपेयी
की कमी खलती है. संसद में जब
विपक्षी दल हंगामा करते हैं, कार्यवाही बाधित होता
है, संसद नहीं चलती, गंभीर पहल
नहीं होती, विषय पर बेहतरीन बहस
नहीं होती तो वाजपेयी को याद किया जाता
है और कहा जाता है कि वाजपेयी की सरकार
होती, तो रास्ता निकल गया होता.
भाजपा के भीतर जब समस्या पैदा होती है, लोगों
की शिकायत होती है कि उनकी बात
नहीं सुनी जाती, तो फिर
वाजपेयी का जमाना याद आ जाता है. संयुक्त राष्ट्र या विदेश में जब
भारत का पक्ष जोरदार तरीके से रखने की बात
आती है, तो वाजपेयी याद आते हैं. ऐसा उनके गुणों
के कारण होता है. एक साफ-पारदर्शी और निष्पक्ष
जीवन. अपनी बात कहने से कभी
वाजपेयी नहीं हिचके. सबको साथ लेकर चला,
जिसकी आज देश को सबसे ज्यादा जरूरत है. वाजपेयी
ऐसे ही आदर्श वाजपेयी नहीं बने,
उसके पीछे लंबा संघर्ष-समर्पण और त्याग का
जीवन छिपा है. पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित
करनेवाले वाजपेयी ने कहा था- मैं सत्ता में रहूं या बाहर, मुझे
फर्क नहीं पड़ता. सत्ता का लोभ नहीं रहा. जब जो
जिम्मेवारी मिली, उसे बखूबी
निभायी.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जब मिशन कश्मीर के दौरान
गिरफ्तार किया गया था, उन दिनों वाजपेयी उनके
राजनीतिक सचिव थे. मुखर्जी ने उन्हें पूरे राष्ट्र में
घूम-घूम कर प्रचार करने और बात पहुंचाने की सलाह
दी थी. उसी दिन से वाजपेयी ने
नयी जिम्मेवारी संभाली और संन्यास लेने के
पहले तक एक प्रखर वक्ता के तौर पर निभाते रहे. 1996 में जब
पहली बार वे प्रधानमंत्री बने और सिर्फ 13 दिनों में
ही उनकी सरकार चली गयी,
वाजपेयी ने भविष्य की गंठबंधन की
राजनीति को महसूस कर लिया था. फिर एनडीए बनाया,
जो आसान खेल नहीं था. विभिन्न दलों को साथ लेकर सरकार
चलायी. सभी दलों की नीतियां
अलग, राजनीति एजेंडे अलग, फिर भी सरकार
चली. आजाद भारत में पहली बार किसी
गंठबंधन की सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया था.
ऐसे इसलिए हुआ, क्योंकि सभी को साथ लेकर चलने
की कला वाजपेयी में थी. अहंकार से दूर,
सभी की बात सुनने का धैर्य. विपक्ष को सम्मान देने
और उनके अच्छे काम की सराहना करने से भी
वाजपेयी नहीं चूकते थे. आज की
राजनीति में इसकी कमी दिखती
है. 1994 में यूएनएचआरसी में भारत के खिलाफ प्रस्ताव आया
था. नरसिंह राव की सरकार थी. उन्होंने विदेश
मंत्री सलमान खुर्शीद के साथ-साथ विपक्ष के नेता
अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का प्रतिनिधित्व करने,
भारत का पक्ष रखने के लिए भेजा था. यह मामूली बात
नहीं थी.
एक प्रधानमंत्री को विपक्ष के नेता पर इतना भरोसा था और इस
भरोसे को वाजपेयी ने अपने भाषण से और मजबूत किया था. चाहे
आर्थिक सुधार का मामला हो, परमाणु परीक्षण का मामला हो या
पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ा कर कश्मीर के
मुद्दे को सुलझाने की पहल करनी हो,
वाजपेयी पीछे नहीं रहे.
पड़ोसी देशों से बेहतर संबंध पर वे जोर देते रहे, लेकिन जब
पाकिस्तान ने करगिल हमला किया, तो उसी ताकत से भारत ने उसे
जवाब भी दिया. जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति
जार्ज बुश ने इराक युद्ध में भारत से सहयोग मांगा, तो दबाव के बावजूद
वाजपेयी ने इराक में भारतीय सेना भेजने से इनकार कर
दिया. यह उनकी विदेश नीति का हिस्सा था.
वाजपेयी ने अपने कार्यकाल में भारतीय
राजनीति के स्तर को ऊपर उठाने के लिए काम किया, संसद
की गरिमा को बढ़ाने पर जोर दिया. पार्टी से ऊपर देश
और डेमोक्रेसी को माना. 2004 के चुनाव में जब उनकी
हार हुई, तो उनकी प्रतिक्रिया थी-
हमारी पार्टी और सहयोगी दलों
की भले ही हार हुई हो, लेकिन देश (भारत)
जीता है. हार को इस प्रकार स्वीकार करना
वाजपेयी के कद को और बढ़ाता है. वाजपेयी आज
बढ़ती उम्र और अस्वस्थता के कारण राजनीति से
बाहर हैं, लेकिन भारतीय राजनीति और पूरा देश
उन्हें हमेशा याद करता है.