नई दिल्लीः 16 नवंबर, सुबह के 9 बजकर 31 मिनट, मैं नोएडा के सेक्टर 110 के अपने एक्सिस बैंक के सामने लगी लाइन में लग गया हूँ. इस ब्लाक में चार बैंक हैं. लोग चारों तरफ बलखाती लाइनों में खड़े हैं.
घड़ी देखी, साढ़े ग्यारह बज गये हैं लेकिन इन दो घंटों में हम सिर्फ़ तीन क़दम आगे खिसके हैं. चारों तरफ लोग ही लोग, पुलिस वाले और बैंक कर्मचारी भगवान लग रहे हैं. थोड़ी-थोड़ी देर में कुछ लोग लाइन की परवाह किए बगैर आगे पहुँच जाते हैं, पुलिस वालों से कुछ कहते हैं, कभी कोई मोबाइल फ़ोन में कुछ दिखता है, पुलिस वाला देखता है और उसे अंदर जाने देता है, लाइन में खड़े लोग शोर मचाते हैं तो पुलिसवाला कृष्ण भगवान की तरह या फिर किसी नेता की तरह धैर्य रखने का संकेत करता है.
लाइन में खड़े ज़्यादातर लोग दिहाड़ी के मज़दूर हैं. उनकी बातचीत से पता चलता है कि उनमें से कुछ लोग कल भी आए थे, लेकिन साढ़े तीन बजे उन्हें बैरंग लौटा दिया गया था. डेढ़ बज रहे हैं, लोगों के सब्र का बाँध टूट रहा है. कहीं आज भी कल जैसे हालात ना हों. हम लोग इस बीच 15-20 कदम आगे खिसक चले हैं. लेकिन मंज़िल पर पहुँच पाएँगे या नहीं, कोई नहीं जानता. इस बीच कोई बिस्कुट खरीद लाया है तो कोई पानी, ऐसी चीज़ें साझा की जा रही हैं.
अचानक कुछ अजीब सा घट रहा है, तीन पुलिसवाले और दो बैंककर्मी प्रवेश द्वार के पास खड़े कुछ मंत्रणा कर रहे हैं, हमारे आस-पास खड़े लोग, जिनका ये दूसरा दिन है, भद्दी सी गली के साथ भविष्यवाणी कर रहे हैं की लगता है ससुरे आज भी अंदर नहीं जाने देंगे. इतने में एक बैंककर्मी हाथ में पकड़ी हुई कुछ पर्चिया लाइन में खड़े हुए लोगों को थमा रहा है, शायद टोकन नुमा कोई पर्ची है. लाइन टूटकर एक भीड़ में बदल गयी है. लोगों की साँसें रुक गई हैं, ढाई बाज रहे हैं, अचानक पुलिसवाले घोषणा करते हैं कि जिनके पास पर्ची है उनको छोड़कर सब लोग चले जायें. लोग पुलिसवालों को घेरे में ले लेते हैं, पुलिसवाले असमंजस में खड़े लोगों के साथ पूरी सहानुभूति दिखा रहे हैं लेकिन साथ ही अपनी लाचारी भी दिखा रहे हैं कि वो कुछ नहीं कर सकते. लोगों को घर वापिस लौटना ही होगा. मेरे क़रीब खड़ा एक व्यकित रो पड़ा है. साहब प्लीज़ कुछ कीजिए हमारे पास एक रुपया भी नहीं है, सुबह 6 बजे से खड़े हैं, कल भी लौट चुके हैं, पैसा भी नही मिला दो दिन की मजूरी भी गयी, मर जाएँगे साहब. लेकिन पुलिसवला इससे पहले कि उसके आँसुओं में भीग जाए, दूसरे किसी व्यक्ति से उलझ पड़ता है और साथ ही वहाँ से खिसक लेता है.
इस पूरे दृश्य को अगर कुछ आँकड़ों के सहारे समझा जाए तो कोई 20% लोग, जिनका काम हो चुका है, वो चुपचाप खिसक लिए हैं, लेकिन 80% लोग गुस्से से उबल रहे हैं. पुलिसवाले अनुभवी हैं, गुस्से में तप रहे लोगों को संगठित नहीं होने दे रहे हैं, बड़ी चतुराई से मामले को निपटा रहे हैं.
500 और 1000 के नोट बंद हुए आठ दिन हो चुके हैं और लोगों की बदहाली सड़कों पर तांडव कर रही है. लाइन में खड़े लोग सब कुछ जान रहे हैं, कोई कहता है की अब तक २७ लोगों के मरने की खबर है, किसी को मंहगी होती सब्जी की चिंता है, लेकिन इन सबके बीच कोई प्रधानमंत्री के इस निर्णय का विरोध करता नहीं दिखाई दे रहा है.
86% नोट निष्क्रिय हो गये हैं और कोई विरोध नहीं. राजनीति क पार्टियाँ विरोध कर रही हैं, ममता, मायावती, कॉंग्रेस, कम्युनिस्ट और केजरीवाल, यानी नीतीश को छोड़कर पूरा विपक्ष विरोध में मुखर है, राज्य-सभा में वित्तमंत्री पर ताने कसे जा रहे हैं. सियासत मोदी बनाम देश हो गयी है. बीजेपी वाले भी विरोध का मुँहतोड़ जवाब नहीं दे पा रहे हैं, खामोशी ओढ़ कर बैठे हैं.
दरअसल बात ये है कि मोदी के इस फ़ैसले का स्वागत करने वालों के पास दलीलों की कोई कमी नहीं, आतंकवाद को मिलने वाली रसद झटके में रुक गयी, नकली नोटों का कारोबार सेकेंडों में थम गया, कालाधन बाहर आ गया जैसे जुमले रिक्शेवाले की ज़ुबान पर हैं. लाइन में खड़े लोग जो सुबह ग्यारह बजे सीना तानकर मोदी को मर्द बता रहे थे, वही ढाई बजे गुस्से से पागल हो रहे हैं. उन्हें गुस्सा मोदी पर नहीं, उस अफ़रातफ़री पर है जो बैंक के बाहर पुलिसवालों, बैंककर्मियों और उन लोगों की साथ-गाँठ पर है जो कंधे पर लटके मोटे-मोटे बैग के साथ बिना-लाइन के बैंक में आ-जारहे है.
अगर ये दृश्य दिल्ली और एनसीआर जैसे क्षेत्रों का है तो देश के अन्य भागों, उड़ीसा, बिहार, उत्तरप्रदेश, तेलंगाना, असम, बंगाल, जैसे राज्यों से जो खबरें आ रही हैं,उन्हें सत्य कैसे ना माना जाए. देश का आम-आदमी प्रधानमंत्री के फ़ैसले के साथ खड़ा दिखाई देता है लेकिन जब वो ये देखता है कि रुसूखवाले उनके धैर्य और प्रशासन का मज़ाक उड़ाते हुए उनकी आँखों के सामने अपनी दादागीरी का प्रदर्शन कर रहे हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री के फ़ैसले पर शक होने लगता है, "अरे कुछ नहीं, इस देश से भ्रष्टाचार कभी ख़तम नहीं हो सकता", एक व्यक्ति हाथ में पकड़े हुए फार्म के टुकड़े-टुकड़े करते हुए अपनी सायकिल की तरफ बढ़ गया.
मैं भी खाली हाथ लौट आने वालों में से एक हूँ लेकिन इन पाँच घंटों की निरर्थक मेहनत के बावजूद इस पूरे घटनाक्रम से निराश होने के बजाय भयभीत हूँ. प्रधानमंत्री और भारत सरकार एक बहुत नाज़ुक मोड़ पर खड़ी है, फ़ैसला यक़ीनन हिम्मतवाला है, मोदी ने व्यक्तिगत तौर पर अपनी साख को दाँव पर लगा दिया है. देश के करोड़ों-करोड़ लोग अपनी सारी दिनचर्या छोड़कर बैंक की क़तारों में लगे हैं. मगर व्यवस्था की पारदर्शिता गायब है. आम जनता के सामने धनी और ताक़तवाले अपने ज़ोर पर मनमानी कर रहे हैं, विपक्ष के लिए तिल को ताड़ बनाने के अवसर हर तरफ हैं, ऐसे में वो लोग जो इस फ़ैसले को एक क्रांति के रूप में देख रहे हैं,भयभीत इस लिए हैं कि यदि इसका उल्टा हुआ तो देश के लिए बड़ा घातक साबित होगा. जिनके लिए अर्थव्यवस्था का मतलब दो वक़्त की रोटी है, अगर वो मोदी के फ़ैसले पर खुश हैं तो उनकी नाराज़गी कैसी होगी इसका अंदाज़ा, पाँच घंटे किसी कतार में खड़े होकर लगाया जा सकता है.