दिल्ली : 1936 के ओलिंपिक खेल ों में भी स्टेडियम खचाखच भरे थे. दुनिया भर के कोई चार हज़ार सर्वश्रेष्ठ खिलाडी तब बर्लिन में इकठ्ठा हुए थे. जितनी प्रतिस्पर्धा आज रियो में है उतनी ही हिटलर के दौर में तब बर्लिन ओलिंपिक में भी थी. लेकिन ध्यानचंद ने हिटलर के सामने ही उसकी जर्मनी के अभिमान को फाइनल मुकाबले में ध्वस्त किया था. ध्यानचंद ने इसी तर्ज पर एक के बाद एक तीन ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जीतने की हैटट्रिक पूरी की थी.
आज जब 1 .30 अरब के भारत को रियो ओलिंपिक में एक कांस्य पदक भी अभी तक नही मिला है तो हमे ध्यानचंद का हुनर याद आ रहा है .
आज जब देश में रियो की नाकामी पर विलाप हो रहा है तब हमे ध्यानचंद के जलवे याद आ रहे हैं.
आज जब चीन की मीडिया भारत के फ़िस्सड्डी होने का मखौल उड़ा रही है तब हमे ध्यानचंद का दम खम याद आ रहा है.
लेकिन दो बार इसी देश में ध्यानचंद की भारत रत्न की फाइल को सरकार ने ठन्डे बक्से में डाला था. उनके वर्ल्ड चैंपियन बेटे अशोक को अपमान का घूँट पिलाया था. ध्यानचंद को आज भी भारत रत्न इस देश ने नही दिया. शायद इसलिए कि वो साइकिल से चलते थे, उनके पास फेरारी नही थी. शायद इसीलिए की वो ढंग से अपना इलाज नहीं करवा पाए और दिल्ली के सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर उन्होंने 1979 में दम तोड़ दिया था.
ये देश भूल गया कि वो दिन भी 15 अगस्त ही था जब बर्लिन ओलिंपिक का फाइनल जीतने के बाद उन्होंने पहले भारतीय के तौर पर विदेश में तिरंगा(तब चरखे का निशान था ) फहराया था. जी हाँ, आज़ादी से 11 साल पहले ध्यानचंद ने फहराया था तिरंगा.
मित्रों, जो देश अपने महान खिलाड़ियों को अपने माथे पर जगह ना दे सके उसे रियो में अब अपमान के घूँट पीते हुए दुखी नही होना चाहिए. हमारी हार, हमारे राष्ट्रीय पाप की भागीदार है. हमने ध्यानचंद जैसे महानतम खिलाडी का सरकारी फाइलों में घोर अपमान किया है. ऐसा लगता है इस पाप से मुक्त होने के लिए देश को रियो में प्रायश्चित करना पड़ रहा है.