नई दिल्लीः काशी में गंगा किनारे के जो घाट चैन-सुकून के लिए जाने जाते थे, आज वह सियासी कोलाहल में डूबे हुए हैं। घाट की सीढ़ियों पर आजकल धर्म-अध्यात्म की कम, सियासी बातें ज्यादा हो रहीं हैं। हर किसी की जुबान पर एक ही सवाल-काशी के सियासी रण में जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा और गंगा किनारे मुक्ति किसे मिलेगी। चर्चा शुरू करने से पहले आपको बता दें। पीएम मोदी का संसदीय इलाका बनारस कुल आठ विधानसभा सीटों से मिलकर बना है। शहर से जुड़ी तीनों सीटें फिलहाल भाजपा के कब्जे में हैं, बाकी सपा और बसपा के पास दो-दो और कांग्रेस के पास एक सीट है। बनारस जीतने के लिए एक तरफ आधी मोदी सरकार उधर अखिलेश-राहुल के एड़ी-चोटी का जोर लगाने के पीछे पीछे वजह साफ है। दरअसल यह मोदी का संसदीय इलाका है। अगर यहां हार हुई तो यूपी जीतने का भी पूरा मजा पार्टी नहीं ले सकेगी। क्योंकि विरोधी दल बनारस में यानी घर में हराने का मुद्दा उठाकर मोदी की लोकप्रियता गिरने की बात कहेंगे। यही वजह है कि भाजपा के लिए बनारस जीतना नाक का सवाल बन चुका है।
दक्षिणी सीटः दादा के दिल में क्या है
बनारस में सबसे चर्चित सीट है दक्षिणी। वह इसलिए कि यहां सात बार से चुनाव जीत रहे श्यामदेव राय चौधरी यानी दादा का टिकट भी काटने से अमित शाह नहीं चूके। तर्क दिया कि दादा की उम्र रिटायर होने की है। मगर जब दूसरी सीटों पर दादा से भी बुजुर्ग उतार दिए गए तो श्याम देव राय चौधरी भी एक्शन मोड में आ गए। उन्होंने पार्टी के बड़े नेताओं से खुलकर नाराजगी का इजहार कर दिया। अपनी सीट से नीलकंठ तिवारी को उतारे जाने पर नाराज हुए श्यामदेव राय चौधरी को मनाने के लिए खुद शाह आगे आए। उन्होंने कहा कि भाजपा दादा को एमएलसी बनाएगी। तब जाकर अब बात सुलझने का दावा किया जा रहा है। हालांकि अंदरखाने की बात है कि भाजपा के ही तमाम लोग टिकट वितरण से नाराज होकर पार्टी के खिलाफ काम कर रहे हैं। यही वजह है कि मोदी सरकार की आधी कैबिनेट बनारस में डेरा डाल बैठी है। ब्राह्मण बाहुल्य इस सीट से सपा व कांग्रेस गठबंधन से पूर्व सांसद राजेश मिश्रा ताल ठोंक रहे हैं।
उत्तरी सीटः भाजपा के लिए दो बागी नेता बना मुसीबत
वाराणसी उत्तरी सीट पर भी भाजपा भितरघात से जूझ रही है। भाजपा ने यहां से सिटिंग एमएलए रवींद्र जायसवाल ही मैदान में उतारा है। वहीं सपा व कांग्रेस गठबंधन की तरह से अब्दुल समद अंसारी चुनाव मैदान में हैं। बसपा से सुजीत कुमार मौर्य लड़ रहे हैं। भाजपा के लिए मुसीबत बने हैं सुजीत सिंह टीका और अशोक। जो कभी भाजपा के स्थानीय सक्रिय नेता रहे मगर टिकट न मिलने पर निर्दल ही उतर पड़े। नतीजा भाजपा से निष्कासन के रूप में भुगतान पड़ा है। चूंकि समद इकलौते मुस्लिम प्रत्याशी हैं, इस नाते उन्हें मुस्लिमों का एकतरफा वोट मिलने की उम्मीद है।
कैंट सीटः भाजपा के सामने किला बचाने की चुनौती
मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में कैंट वह सीट है, जहां 1991 से लगातार भगवा परचम लहराता रहा है। भाजपा ने यहां से सिटिंग एमएलए ज्योत्सना श्रीवास्तव के बेटे सौरभ श्रीवास्वत को उतारा है। उनके मुकाबले गठबंधन से कांग्रेस नेता अनिल चुनवा लड़ चुके हैं। जो पिछली बार 50 हजार वोट के आंकड़े तक पहुंच चुके हैं। ऐसे में चूंकि अब सपा का साथ मिला है तो उनका उत्साह दोगुना है। चूंकि विधायक के बेटे को टिकट मिला है, इस नाते भाजपा के स्थानीय नेता परिवारवाद का आरोप लगाते हुए नाराज बताए जाते हैं। यानी कि कैंट सीट पर भी भाजपा को भितरघात झेलनी पड़ रही है।
सेवापुरी विधानसभा सीट
बनारस की सेवापुरी सीट पर पिछली बार भाजपा ने कांटे की टक्कर दी थी। इस बार भी भाजपा ने यह सीट गठबंधन सहयोगी अपना दल को दी है। अनुप्रिया गुट ने नीलरतन पटेल को उतारा है तो मां कृष्णा पटेल गुट ने विभूति नारायण सिंह लड़ रहे हैं। विभूती नारायण सिंह का अतीत भाजपाई का है। वहीं सपा और कांग्रेस गठबंधन की तरफ से मंत्री सुरेंद्र पटेल चुनाव मैदान में हैं। जो पिछली दफा इस सीट से जीते थे।