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कस्तूरी

15 मई 2023

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‘‘कस्तूरी‘‘

ःः अनुक्रम:ः

1-हैप्पी न्यू ईयर

2-कस्तूरी

3-तुम

4-ये कहानी नहीं

5-बहुत कुछ है बाकी

6-जवाब

7-चांदी का वरक

8-किराएदार

9-नमक की खदान

10-मिसरानी

11-साहेब का रूमाल

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1-

हैप्पी न्यू ईयर

आॅफीसर्स क्लब की उस न्यू ईयर नाइट को मैं तमाम तमाम अफसरों की तमाम बीवियों के हुजूम से कुछ परे अपने दोनों बच्चों व महेंद्र के साथ एंजाॅय कर रही थी। यह मेरी मजबूरी ही थी कि अफसर की बीवी हो कर भी मैं उन तमाम बीवियों से अलग थी जिनकी पहचान मात्र किसीकी बीवी होने के कारण ही होती है। इसलिये मैं उनसे अलग-थलग पड़ जाती थी, या यूं कहें कि अलग-थलग डाल दी जाती थी। यह तो मेरी न जाने कब से नियति रही कि मुझे सोलो पार्ट ही मिलता रहा।

स्कूल हो कि काॅलेज, मुझे राधिका बना अलग खड़ा कर दिया जाता। फिर आता दौर राधा की विशेषताओं से नवाजे जाने का - - - राधा का मेकअप, राधा के गहने, राधा के कपड़े, राधा की मटकी सब अलग-थलग। सहेलियां चिढ़तीं मन ही मन किंतु चिढ़ने के अलावा वे कर भी क्या सकती थीं ? कुछ नही होता था उनके चिढ़ने से। मैं स्टेज पर स्पाॅटलाइटों के फोकस से बिंधी अलग ही स्पष्ट दिखती। काॅलोनी वालों को स्टेज पर अपनी अपनी बिटियाओं को ढूंढने में मशक्कत करनी पड़ती, मगर- - -

‘बीरो आंटी की सोनकुड़ी वो रही हरी ड्रेस  में, बाकी सब लाल ड्रेस में-अब ढूंढा करो -  -  -  !’‘

यह राधाहुड मेरे साथ न जाने कैसे सदा के लिये चस्पा हो गया। अब भी मैं सोलो, बाकी सब ग्रुप में ! मैं उन तमाम मात्र बीवीनुमा औरतों में मिक्स हो ही नहीं पाती, वे भी मुझे विजातीय समझ क्षण भर में सोलो की इज्जत बख्श देतीं। क्या करूं ?

’‘क्या करूं ? क्या करूं करने से क्या होगा ? खाओ जब बंदे ने परोस ही दिया है तो !‘’

महेंद्र हंस रहे थे अपनी आदत के अनुसार। इन्हीं की बैच का कोई दिलफेंक आॅफीसर था, मध्यम कद, बढ़ी हुई थुल-थुल तोंद, बड़े जतन से संभाली उम्र जो कि ढलान पर रखी फुटबाॅल सी ही तो थी ढलकने को बेताब, आ कर वह बंदा फटाफट मेरी प्लेट में ढेर सारा न जाने क्या-क्या तो परोस गया था। जबकि मैं ठहरी चुनचुन कर अपनी पसंद से ही खाने की शौकीन।

’‘मम्मी फ्रूट सेलेड तो आपकी ही पसंद का है।’‘ नन्हें ने कहा।

’‘मगर मम्मी की थाली तो भुक्कड़ की थाली दिख रही है।‘’ महेंद्र के मजाक का बच्चों ने खूब मजा लिया।

’‘हंसना हो चुका हो तो इस भुक्कड़ की थाली का कुछ इंतजाम करो।’‘ मैंने कहा।

’‘डस्टबिन में डाल दूसरी प्लेट ले लीजिये न।‘’ किसी ने बिन मांगे अपना ’अमूल्य’ सुझाव दिया।

’‘ना ना, खाना यूं वेस्ट करना उचित नहीं।’‘ मेरे मुंह से निकला।

‘’तो अपने पेट को ही डस्टबिन बना लो।’‘  हंसी-मजाक में मैं महेंद्र से नहीं जीत सकती। इधर बड़कू भी मेरे लायक कुछ डिशेज देख आया था, मगर यहां मेरी पहले से ही भरी प्लेट देख चकित रह गया। दोनों बच्चों को मेरी सख्त हिदायत रहा करती थी कि पहले सब तरफ घूम-घूम कर हर टेबल पर देख लो, फिर जो खाना चाहो वही लो।

’‘खूब देखभाल कर ही लिया होगा तुमने मुझे भी।’‘ महेंद्र ने पूछा था एक बार।

’‘आपको तो मैने पिछले जन्मों की तपस्या के बाद ही पाया है।’‘ मेरा जवाब था।

’‘सच्।’‘

’‘कोई शक है क्या ?’‘

नहीं कोई शक नहीं । बिल्कुल भी नहीं, न उन्हें न मुझे।

’‘कोई शक नहीं कि वह बंदा आज तुम पर बहुत फिदा है। अभी तो उसने तुम्हें डिनर  ही सर्व किया  है। अभी आगे देखना वह तुम्हारे साथ डांस भी करने वाला है।’‘ महेंद्र उसे निश्चय ही अच्छी तरह जानते थे। मजाक में भी वे सच्चाई का अहसास दिला रहे थे। उफ् !

’‘उसकी पत्नी कहां है ? उसके साथ करे न जा कर डांस।’‘ मुझे बहुत झुंझलाहट होती है ऐसे शिगूफों से। ढंग के सोच विचार में तो आप अठ्ठारहवीं सदी में खडे मिलेंगे, और फिजूल की बातों में पश्चिम को मात देने में उनसे भी   बीस कोस आगे।

’‘वो देखो बंदा किसी और अफसर की बीवी को मस्का लगा रहा है।’‘ मैने देखा सच ही वह तोंदू अफसर किसी खूबसूरत-सी मगर बौड़म लग रही महिला से घुलमिल कर बतिया रहा था। उसके चेहरे पर लालच की चमक थी। लोलुप सा वह उसके आगे-पीछे हुआ जाता था। फिक्क् से मेरी हंसी छूट गई। महेंद्र भी हंस पड़े।

’‘इसकी बीवी कहां है ?‘’ मैने फिर पूछा।

’‘वह आती ही नहीं ऐसी जगहों पर। बेचारी घर में ही सब मना लेती होगी। ऐसे लोग तुम देखना, महिलाओं के जमघट वाली पार्टियों में बीवी-बच्चों को लाने से कतराते हैं।’‘ महेंद्र बड़े अनुभवी से बोल रहे थे। अवश्य ही वे उसे अच्छी तरह जानते थे।

’‘इसकी इन्हीं आदतों के चलते परेशान बताई जाती है बेचारी। कहीं किसी स्कूल में टीचर है।’‘ मुझे अनायास ही सहानुभूति सी हो आई उस अनदेखी महिला के प्रति कि जो अकेली कहीं अपने घर में होगी अपने बच्चों के साथ, और यह कंबख्त यहां सजी-धजी महिलाओं में परवाना बना डोल रहा है। कोफ्त होनी स्वाभाविक है ऐसे दोगले चरित्र के लोगों को अपने बीच देखकर। किंतु क्या हांसिल होना था ?
ऐसे चिकने घड़ों पर तो आप कोई प्रभाव डालने से रहे। वह चिकने घडे़ सा ही तो था, जो भरपूर उपेक्षा के बावजूद भी रंगी-पुती महिलाओं के बीच ठसा हुआ था।

अब बारह बजा चाहते थे। बैंड ने तेज-तेज गति की धुनें बजाना शुरू कर दिया था। उन धुनों पर जोड़े थिरकने लगे थे। बड़ी भद्दी दिख रही थी किन्हीं बेडौल, थुल-थुल शरीरों की थिरकन। ऊँह। मैने मुंह बनाते हुए उधर से अपनी नजरें घुमा लीं।

’‘तुम उधर न देखकर इधर ही देखो बस्। चलो हम भी थिरकें ?’‘

महेंद्र मजा ले रहे थे मेरी ऊब का। उन्हें पता है क्लासिकल कथक सीख चुकी मुझे ये सारे डांस केवल थिरकन ही लगते हैं। मौका मिलते ही मैं इनकी आलोचना करने को उधार बैठी रहती हूं। महेंद्र ऊबते नहीं, आलोचना भी नहीं करते। वे तो हर माहौल में अपने मनमाफिक व्यवस्था ढूंढ ही लेते हैं। बड़ी तसल्ली से वे घंटों बोर हुए बिना रह लेने के आदी हैं। वही कर रहे थे वे, किंतु मुझे झंुझलाती देख चुटकी ले रहे थे। न जाने क्यों वही इनका बैचमेट स्त्री-पुरूषों की झूमती-थिरकती भीड़ में रह-रह कर मुझे दिख जाता था। जिसे जितना न देखना चाहो उतना ही। ओफ्!

’‘तुम तो उधर देखो ही मत, तुम बस इधर देखो, मुझे।’‘

मेरे प्रत्येक हाव-भाव की खबर थी उन्हें। मैं हंस पड़ी, हंसते-हंसते ही दृष्टि क्षणांश को फिर उसी बैचमेट से जा टकराई अनायास ही। उसने चट से अपना हाथ ऊँचा कर मुझे वेव किया।

अरे बाप रे !

वह मेरी हंसी, बार-बार दृष्टि बहकने का कुछ और ही अर्थ ले रहा दिखता था मैं घबरा गई और महेंद्र के नजदीक कुर्सी खींच कर बैठ गई। मुझे इनके अत्यंत पास आ बैठी देख कर वह मेरी तरफ मंडराने को उत्सुक थुल-थुल खतरा वहीं भीड़ में कहीं गुम हो गया। मैने राहत की सांस ली।

ड्रम के कानफोड़ू शोर में मेरी आंखें उन स्त्री-पुरूषों के संस्कृतिहीन व्यवहार पर रह-रह जा टिकती थी। इन थिरकते हुऐ जोड़ों में से अधिकांश वास्तविक जोड़े नहीं थे। वे समय, परिस्थितियों व अचानक स्थापित हो गई पसंद के अनुरूप बन गए जोड़े थे जो कानफोड़ू देशी-विदेशी धुनों पर थिरक कर स्वयं को आधुनिकता की दौड़ में अव्वल दिखलाने को मरे जा रहे थे। बच्चे न जाने कब मेरी प्लेट मुझसे ले गए थे, न जाने वे उसका क्या कर आए थे -  -  -

’‘माॅम, हमने वो प्लेट एक मोटी-ताजी आंटी को दे दी। वो भीड़ में डाइनिंग टेबल तक पहुंच नहीं पा रही थीं, वो तो भरी प्लेट देख कर बड़ी खुश हो गईं।’‘ मेरी दृष्टि में फिर वही अधपकी उम्र का, छकाछक वो  भरसक  नौजवान बनने की कोशिश का मारा घूम गया।

‘’चलो तुम्हें कुछ खिलाते हैं।’‘ महेंद्र मेरी कलाई पकड़ ले चले।

’‘उफ् ! ये भी क्या बात हुई, छोड़िये मेरा हाथ। इत्ती भीड़ है।‘‘

’‘इत्ती भीड़ में ही तो सरे आम थामा था तुम्हारा हाथ, कोई छुप-छुपाके थोडे़ ही ना लाया था।’‘ महेंद्र का तो कोई जवाब ही नहीं। बच्चों को बड़ा मजा आ रहा था।

काफी कुछ भीड़ डांस फ्लोर पर जा चुकी थी, लिहाजा खाने की मेजों के आसपास कुछ शांति थी अब। बड़ी नफासत से महेंद्र ने प्लेट उठाई और मेरे लिये मेरी पसंद की खाने की वस्तुओं का चुनाव करते मेरी प्लेट में सजा-सजा कर लगाने लगे।

’‘छोड़िये, मैं खुद ले लूंगी।’‘

’‘क्यों ? क्या घर में रोज तुम हमारे लिये नहीं लगातीं ? आज यदि हम बना-बनाया खाना तुम्हारे लिये लगा दें तो क्या हर्ज है तुमको ?’‘

मुझे क्या हर्ज होना था ? तभी तूफान मेल की तरह भागती-दौड़ती मिसेज सिन्हा मुझे धकियाती बोलीं- ’‘न्यू ईयर लगने वाला है। उधर डांस छोड इधर क्या करते हैं आप लोग ? अरे भई अभी तक डिनर नहीं हुआ ? आइये भाभी आइये जल्दी, उधर डांस फ्लोर पर लोकल टीवी का कवरेज हो रहा है। लकी लोगों पर ही कैमेरा फोकस करेगा। आइये, आइये।’‘

वे लोग जिस गति से आए थे, उसी गति से डांस फ्लोर की ओर चले गए।

वे क्या जानें इन क्षणों के मेरे ’लक’ को ! ये मेरी प्लेट में बड़े मनोयोग से चुन-चुन कर मेरी मनपसंद डिशेज सजा रहे हैं। उधर घड़ी के दोनों कांटों के आपस में मिलते ही ड्रम, पटाखे, गुब्बारे, हंसी-उल्लास के शोर में सारा माहौल रंग गया है।

मैं एकटक महेंद्र को देख रही हूं जो इस सारे शोर-शराबे से बेखबर मेरे लिये खाना लगा रहे हैं। मुझे ध्यान आती है वह स्त्री जिसका पति यहां घूम रहा है और वह बेचारी अकेले, अपने बच्चों के साथ खा कर या तो सो गई होगी या टीवी पर लोकल कवरेज देखती, नाचते-मटकते लोगों में अपने पति का चेहरा देखने की कोशिश करती बैठी होगी।

’हैप्पी न्यू ईयर‘’ कहते महेंद्र ने प्लेट मेरे आगे कर मेरी पसंद की स्वीट डिश का एक टुकड़ा मेरे मुंह में डाल दिया है। मैने भी उनके मुंह में स्वीट डिश डालते हुए कहा

’‘हैप्पी न्यू ईयर।’‘

’‘भई खुलकर कहो हैप्पी न्यू ईयर, ये तुमने हमसे नहीं कहा लगता।’‘ महेंद्र मेरे मानस-वन के कोने-कोने को खंगाल लेने में माहिर हैं।

सच् ही तो मैने यह हैप्पी न्यू ईयर उनसे नहीं बल्कि अपने घर में कहीं अकेली पड़ी किसी उपेक्षित महिला व उसके बच्चों से ही तो कहा था।

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2-

कस्तूरी

फोन पर अभी-अभी तुम्हारी सास से बात हुई है। मैं अपने सारे जीवंत वजूद के बावजूद, थरथराती-फड़फड़ाती अपनी सारी चेतना के बावजूद स्वयं को निर्जीव सा पा रही हूं। या शायद यूं लग रहा है कि जैसे मैं आज भी अठारहवीं सदी में खड़ी हूं।

क्यों मुझे ऐसा लग रहा है ?

क्या कारण है कि मैं अपनी नसों में खून थमता-जमता सा पा रही हूं ? क्या कारण है इस सबका ?

फोन पर मुझे बताया गया कि बिटिया की बिटिया नहीं रही !  इससे ज्यादा दुखी तो वे अपने कुत्ते की मौत पर थीं कभी। कितनी आसानी से उन्होंने कह सुनाया कि वो नन्ही नहीं रही। चली गई बहुत दूर वहां, जहां से फिर वापस आया नहीं जाता…

मेरी बेटी ! तुम्हारी सासू कहती हैं कि वह चली गई। पर मेरा मन यह नहीं मानता। वह चली नहीं गई, भेज दी गई। हां, मुझे याद है, उसके पैदा होने से पहले ही, उसका अस्तित्व मिटाने का सोच चुके थे तुम लोग। तुमने कहा था-

‘मम्मी, डाॅ. बोली, फर्स्ट अबाॅर्शन चार बार की डिलीवरी के बराबर है। सो आगे कोई काॅप्लीकेशन न हो,
यही सोच कर हम दोनों चुप लगा गए।’ उसी रोज मुझे उस नन्ही जान की तकदीर पर रोना सा आ गया था।

जब वह पैदा हुई, तब उसकी दादी ने मुंह बनाया था-

‘लो आ ही गई लक्ष्मी ’

मुझे याद है है वह क्षण, जब मेजर आॅपरेशन के बाद, होश में आने पर तुम रो-रो कर अपनी ननद रानियों से, यही पूछ रही थी -

‘बताइए न दीदी, मम्मी नाराज तो नहीं है, कि लड़की हुई ?’

तुम्हें अपनी बिगड़ी दशा की फिक्र नहीं थी। तुम्हें अपनी प्रथम संतान को देखने की उत्सुकता भी नहीं थी। तुम्हारी सारी फिक्र का सार यही था कि कहीं सास नाराज तो नहीं हैं, पोती के जन्म पर ! उस रोज भी मुझे लगा था, मैं अठारहवीं सदी में ही खड़ी कर दी गई हूं।

पर मैंने तो तुम्हें इस तरह नहीं पाला था कि अपने हाव-भाव, हरकतों आदि सभी से तुम पिछड़ेपन के इतने कगार पर खड़ी दिखाई दो ?

या यह भी अगर हुआ, तो कैसे संभव हुआ कि तुम अपने ससुराल के माहौल के मुताबिक, साल-डेढ़ साल में ही यूं बदल गईं कि तुम्हारा सारा मानसिक स्वास्थ्य चौपट ही हो गया !

तुम्हारी सारी सुलझी हुई मानसिकता कहां उलझ गई ? क्या हुआ तुम्हारी सारी शिक्षा-दीक्षा का ? सच, मैंने तो तुम्हें इस तरह नहीं पाला था। स्वयं मैं भुक्तभोगी हूं - तीन-तीन बेटियों को जन्म देने के अपराध के दंड की। पर मैंने संघर्ष किया।
अधिक अविकसित समाज व परिवार में खड़े रहकर, मैने एक सतत लड़ाई लड़ी। मैं अपने विश्वास पर अडिग रही, कि बेटी होना कोई अपराध नहीं, वरन समाज पर एक अहसान है, स्वयं बेटी होना और बेटी को जन्म देना। मैं समझे बैठी थी, कि इस विश्वास को तुम भी अपने स्तर पर जारी रखोगी। पर तुमने तो चुटकियों में ही मेरी सारी जीत को, मेरा भरम सिद्ध कर दिया।

उस रोज तुम्हारी गिड़गिड़ाहट ने पर्त-दर-पर्त उसी कृतघ्न समाज की असली शक्ल, पुनः मुझे दिखा दी थी, जो मैं आज से बहुत पहले देख चुकी थी। कहना न होगा, कि यह शक्ल उस पहले की शक्ल से भी ज्यादा वीभत्स थी।

मैं मरे मन से तुम दोनों को आशीर्वाद दे लौट आयी थी। तब से अब इन छह-सात माहों का यही विवरण रहा है कि तुम्हारा घर बिटिया से अधिक प्रसन्न न था। दिखाने को उसके लाड़ तो लड़ाए जाते पर वो ऐहतियात न बरता जाता उसके साथ, जो तब बरता जाता शायद, जब वो लड़के के रुप में पैदा हुई होती। बुखार, उल्टी-दस्त, खांसी-न्यूमोनिया हो कि ब्रांकाइटिस, घरेलू इलाज ही करती रहती तुम, व तुम्हारी सास।
वह सास, जो युवावस्था में ही विधवा हो, अपने मातृकुल द्वारा अस्वीकृत कर, ससुराल के कड़वे-असहनीय वातावरण में अपमानित-तिरस्कृत होकर जीते रहने को बाध्य कर दी गई थी। उस पर स्वयं का लड़की हो कर जन्म लेना भारी गुजरा था। उसे लड़की का आना प्रिय न लगे, लड़की का जन्म उसके लिए अखरने वाला हो, यह मान भी लिया, किंतु तुम मेरी बेटी, तुमसे तो मैंने ऐसी उम्मीद कभी भी नहीं की थी। वह भी तब कि जब तुम अपने पैरों पर खड़ी थीं। परिवार के लिए हर माह एक बड़ी राशि कमाकर लाती थीं।
तुम अपनी इच्छा से, अपनी एक बच्ची को जीवित रखने की व्यवस्था न कर पाई ?

कहते हैं, मौत अवश्ंयभावी है, अनिवार्य है, अनिश्चित भी है। वह एक न एक दिन आएगी अवश्य पर कब, कहां, कैसे ? यह हमें निश्चित नहीं पता। उसे टाला जा सकता है। अपने इसी विश्वास के बल पर, मैंने तुम तीनों बेटियों को, बिना किसी बड़े डाॅक्टर की मदद के, कई असुविधाओं-अभावों के, कांटो भरे जंगल में पूरी स्वस्थ व हरी-भरी जिंदगी दी। अपने तमाम परिचितों-रिश्तेदारों के सुपुत्रों को भी नसीब न हुई हो, वो बेहतरीन शिक्षा दिलाई और तुम्हीं में से एक ने, उस सबको मटियामेट कर दिया।

तुम तो अपने उंचे-पूर-कद काठी, शिक्षा-दीक्षा के बावजूद, आज बौनी होकर रह गई हो। या शायद ... हर तरह से सर्वगुण संपन्न, सुंदर होकर भी तुम्हारे लिए, वर की तलाश में, जिस तरह कदम-दर-कदम मुझे मुसीबतें उठानी पड़ी थीं, उनसे मुझसे अधिक तुम आक्रंात हो गई थीं, कि एक ही बिटिया को पाकर घबरा गईं !  अपनी इस हताशा को, घबराहट को तुमने अपनी सास के भय की चादर ओढ़ा दी। वरना सास की ऐसी भक्तिन, या उससे इतना डरने वाली बहू तो तुम कदापि न थीं !

खूब याद आता है ... तुम अपनी साढ़े दस से पांच बजे तक की नौकरी में मशगूल रहा करती थीं। बच्ची को पालने का कोई विशेष उत्साह, तुम्हारे परिवार की ही तरह, तुम में भी मैंने नहीं पाया था। बिटिया के स्वास्थ्य से ज्यादा, तुम्हें अपनी देहयष्टि की चिंता खाए जाती थी। तब यह पूरी शिद्दत से महसूस हुआ था मुझे कि सच् ही, शादी के बाद बेटी पराई हो जाती है ! तुम से अपनी नातिन के लालन-पालन के विषय में कुछ कहते, जोर देते जैसे डर-सा लगता था, कि कहीं तुम्हारे ससुराल वाले या स्वयं तुम, यह न समझ बैठो, कि मैं अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं। कह गए हैं न बड़े-बूढ़े कि जिस लड़की के विवाह के बाद, उसके व्यक्तिगत जीवन में उसकी  मां हाथ डालती रहे, वह लड़की अपना घर नहीं बसा सकती ठीक से।

सो यही सोच-सोच सब्र कर लेती थी, कि बेटियां तो किसी तरह जी ही जाती है। आखिर भगवान के घर से सौ कौऐ जो खाकर आती हैं !

तब कई दफा यह भी अफसोस रहा, कि तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई पर व्यर्थ ही इतनी माथापच्ची की, इतना पैसा बरबाद किया। क्या हाॅसिल हुआ तुम्हें ? या तुम्हारी संतान को उस सबसे ? इससे तो मैं अध पढ़ी-लिखी कहीं ज्यादा अच्छी थी, जो मोह-ममतावश ही सही, तुम लोगों को पाल-पोस कर खड़ा तो कर दिया !

मेरा मन तुमसे पूछना चाहता है कि यदि ऐसे ही बिटियाएं जाती रहीं या न आने के लिए अभिशप्त की जाती रहीं, ऐसे ही अवांछित समझी जाती रहीं तो चांद-सी बहू की उस मनोहारी कल्पना का क्या होगा, जो हर एंडे-बेंडे बेटे की मां भी, बड़े अरमान से कर ही लिया करती है ?

वह चली गई या ....? एक उस लापरवाही की शिकार हुई है, जिसकी शिकार हमारे समाज में केवल लड़कियां ही हुआ करती हैं ???

जिस लापरवाही से मैंने आज से तीस बरस पहले, तुम्हें बचाया, वही लापरवाही मेरी नातिन को उठा ले गई। वह भी स्वास्थ्य सुविधाओं से अटे-पड़े एक अच्छे शहर में- - -

मेरा मन-मस्तिष्क दिग्भ्रमित-सा हो रहा है। उस बर्बर समाज से भी, इस आज के समाज की तुलना कैसे करुं, जो बेटियां के जन्मते ही उन्हें मार डालता था ? वह उन्हें जन्म लेने का मौका तो देता था, आज तो उन्हें जन्मने के पहले ही मारने की कोशिश शुरु हो जाती है।

मैं सोचती थी, कि मैंने तुम्हें एक इंसान के रुप में बड़ा किया है। एक मानव को पुष्पित-पल्लवित किया है। पर ओह !   पता नहीं, कहां कोई कमी रह गई, जो तुम मानव नहीं, बल्कि वही एक पारंपरिक ’औरत’ मात्र में तब्दील होकर रह र्गइं, जो उस बेवकूफ कस्तूरी मृग की भांति है, अपनी ही खूशबू के स्रोत की जानकारी के अभाव में, जो पगलाया फिरता है। अपनी भीतरी शक्ति को बाहर कहीं खोजता वह दौड़े जा रहा है, कहीं अज्ञात दिशा में, कि जहां से उसे कुछ भी हांसिल नहीं होना हैं।
तुम्हें यदि पुत्र मिल जाता तो असंभव से असंभव होने पर भी, तुम व तुम्हारा ससुराल उसे बचाने में प्राण-प्रण एक कर डालता। वहीं उस पुत्री को न बचाया जा सका।

बुढ़ापे की लाठी, सुनिश्चित भविष्य का सुनहरा आश्वासन, नाम-वंश चलाने की शुद्ध गारंटी-ये कुछ वे कल्पनाएं हैं, जो बेटे की चाह के पीछे रही आई हैं। वहीं, युगों-युगों से नालायक संतानों ने इन्हें मात्र कपोल कल्पनाएं सिद्ध करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक बार तो बेटी को भी भरोसे के लायक समझ कर देखो। एक बार तो उस भरोसे को भी गर्व करने का आधार दे दो, जो मैंने तुम पर किया है !

डरती हूं, कहीं मेरे अनुभवों की यह चोट, किसी और मां का भरोसा न हिला दे।

मैं तुम्हें कैसे समझाऊं कि उस राह जाने से कोई लाभ नहीं जो सुरम्य तो हो, मगर अपनी ही तरह सुरम्य किसी निश्चित मंजिल तक न पहुंचाती हो।

अपनी ही कस्तूरी की सुवास से अनभिज्ञ, ओ मेरी भटकी हुई नादान बिटिया, तुम जैसी ‘सुशिक्षिता’ का यह हाल देख हैरान हूं कि अपनी ही जड़ों पर वार करने की यह सनक, आखिर कब, कहां जाकर समाप्त होगी ?

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3-

तुम

यह तुम ही थीं। स्वयं को बगुलों में हंस सा महसूस करती, किसी चित्रपट की हसीन किन्तु मगरुर नायिका सी काॅलेज आती-अपनी लंबी कार में। नाप-नाप कर कदम रखती बरामदे पार करतीं, अनछुई अलग-थलग सी बैठी रहती कक्षाओं में, और ऐसे ही सबसे मीलों के फासले बरतती हुई, नपे-तुले कदमें से लौट जातीं। काॅलेज में तुम्हारा प्रवेश लेना ही एक हलचल मचा गया था। शहर के सबसे रईस की पुत्री, वह भी इकलौती, खूबसूरत और एक हद तक बुद्धिमती भी। यह स्थिति कम ही मिल पाती है।

तुममें वे सभी खूबियां थी जिन्हें पा कर हर लड़की को अपने आप पर घमंड हो सकता था। तुम खूबसूरत थीं और तुम्हें पूरा-पूरा पता था कि तुम खूबसूरत हो। जब किसी खूबसूरत लड़की को यह पता होता है तब उसका रुप द्विगुणित हो उठता है। तेज से भर उठता है। जिसके प्रकाश को, जिसकी आभा को सह पाना अच्छे-अच्छों की कूबत नाप ले सकता है।

कुछ यही तो था सुखिंदर के साथ। वह रोजाना काॅलेज कंपाउंड में तुम्हारी राह में खड़ा रहता, बेसब्र आंखों में प्रतीक्षा का सैलाब लिए। दूर से आती हुई तुम्हें, तकता रहता। तुम जैसे-जैसे नजदीक आती जातीं, उसकी आंखें धरती में गड़ती जातीं, जैसे कोई उगते सूरज को देखता रहे, जब सूरज दपदपा उठे तो देखने वाले की निगाहें स्वयं उस पर टिक न रह सकें। यही तो कुछ होता था।

तुम इससे भी अवगत थीं कि किसी को तुम्हारी बेसब्री से प्रतीक्षा रहती है। मगर उफ्। कितनी निष्ठुर थीं तुम, कि एक निगाह तक उस पर डाल देने की जुर्रत न करने देती स्वयं को। क्योंकि तुम्हें पता था कि तुम काॅलेज में इश्क-मुहब्बत करने नहीं, सिर्फ पढ़ने आती हो। वह भी इसलिए ताकि तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए अच्छे से अच्छा वर तलाश सके। फिर

सुखिंदर चीज ही क्या था कि जिस पर तुम मर सकतीं ? कुल जमा साढ़े पांच फुट का अदना सा, लट्ठे का सिला, घर पर धुला कुरता पाजामाधारी और कहां एक  से  एक आधुनिक वेषभूषा,  हाई हील्स और कटे केश गुच्छों से विभूषित तुम।

किन्तु उस दिन अपने नजरिये में तुमने बला का परिवर्तन पाया था, जब तुम्हें पता चला था कि सुखिंदर आई.ए.एस. की मुख्य लिखित परीक्षा पास कर चुका है और इंटरव्यू की तैयारी कर रहा है। तब तुम्हें उसके तकते रहने में कुछ बल दीखने लगा था। यह तकना तुम्हें गुदगुदाने लगा था। अब तुम कभी-कभार उससे नोट्स की कापी मांगने लगी थीं। शनैः शनैः वह सूरज जो तुम्हारे भीरत छिपा रहता था अब सुखिंदर में तुम्हें प्रतीत होने लगा था। निहाल हो-हो उठा था सुखिंदर।

नोट्स का आदान-प्रदान करते-धरते, तुम्हें न्यूरो सायकोलाजी की पेचीदगियां समझाते-समझाते हुए उस पगलू से सुखिंदर पर अब सिर्फ निगाहें जा ही नहीं ठहरती थीं तुम्हारी, बल्कि अक्सर निगाहें उसे ढूंढने सी लगी थीं। यदा-कदा क्या, हमेशा ही बड़ी अदा से तुम उसकी ओर मुस्करा भी दिया करती थीं। तुम्हें पता था कि तुम्हारे मुस्कराने में सप्रयास डाले गए डिंपलों में सुखिंदर फंस चुका था। वह उबर नहीं सकता अब। कितनी खुश, कितनी उत्फुल्ल रहतीं तुम और - - -    सुखिंदर ! उसके तो सपनों के जैसे पंख लग गए थे !

सालाना इम्तहान से बरी होकर गर्मियों की छुट्टियां तुम पहली बार शहर में ही बिता रही थीं, क्योंकि सुखिंदर यहीं था। इन्हीं दिनों तुम्हें पता लगा कि सुखिंदर पर्सनैलिटी टेस्ट में फेल हो गया है। कितना दुःख हुआ था तुम्हें। बिस्तर पर पड़ तुम रोई भी थीं।

क्यों ?

सुखिंदर के दुःख की कल्पना करके ? निश्चय ही नहीं !
तुम्हें दुःख इसका नहीं था कि सुखिंदर को दुःख हुआ होगा, बल्कि इसका था कि सुखिंदर के फेल होने से तुम्हें ही दुःख हुआ था। अपने ही दुःख से, पीड़ा से परेशान हो तुम रोई थीं।

लेकिन आशा की एक किरण फिर तुम्हारे साथ थी। सुखिंदर फिर से परीक्षा में बैठ रहा था। पूरे आत्मविश्वास से भरा दिखता वह। प्राध्यापकगण भी उसके हौंसले बढ़ाते और सबसे बढ़ कर तो तुम अपनी अर्थपूर्ण निगाहों से उसकी हिम्मत बढ़ाने को तत्पर रहतीं। मगर  उसके और तुम्हारे  सारे यत्न-प्रयत्न बेकार गए।

तुम्हारे डैडी ने अब तुम पर साफ कर दिया था। तुम हैरत में थीं कि वे तुम्हारे प्रेम संबंध को भली-भांति जानते-बुझते हुए भी चुप क्यों थे ? वैसे ही जैसे तुम्हारे नजरिये में परिवर्तन आया था, उनका नजरिया भी बदल गया हो।
किन्तु अब वे स्पष्ट कर चुके थे, ‘स्वर्णिए ! ये लड़का नहीं है काम का। साधारण से घर का। दो बुढ्ढे मां-बाप, ये कहां रखेगा तुझे ?’

सच ही लगा था तुम्हें । बुढ्ढों के साथ ही कंहीं  जिन्दगी कटेगी ? और फिर अगर सुखिंदर आई.ए.एस. नहीं तो सुखिंदर है ही क्या ?
बस !  तुम्हें तुम्हारे पिता द्वारा तय किया गया बड़े पूंजीपति घराने का, लंबा कद्दावर, चिकना-चुपड़ा सा लड़का क्षणमात्र में भा गया था। उसके सामने सुखिंदर की याद करके तुम्हें हंसी आने लगी थी।

‘बाबुल डोला नईयों लंघदा’ की मार्मिक स्वर लहरी तुम्हारे पिता की कोठी का सीना बजाती रही। तुम्हारा डोला तुम्हारे हंसते मुस्काते बेखटके लंघ गया था। तुम्हें पता था कि सुखिंदर सबसे छुप कर खूब रोया होगा। किन्तु क्या किया जाए। भोंदू कही का।

नए सिरे से खुशनुमा जीवन की कल्पनाएं संजों तुम उड़ गई थीं, अपने पति के साथ पेरिस के लिए और कुछ  वर्षों बाद वहां से लौटने पर अपनी रंगमय कल्पनाओं को तुमने रुपाकार दे दिया था-अपने हृदय की सारी ममता समेट अपनी आत्मा का सत्व निचोड़, अपने समर्थ पति के प्रति अपने वाजिब स्नेह के प्रतीक रुप में नन्हीं मुन्नी अति सुंदरी बच्ची को जन्म देकर।

निःसंदेह तुम्हंे कभी सुखिंदर का गम न रहा,
क्योंकि पति-पत्नी, गृहस्थी रुपी रथ के दो पहियों की भांति होते हैं, जिनमें से एक की कमी, कमजोरी पूरे रथ के अस्तित्व के लिये घातक हो सकती है। अतः स्वयं के समकक्ष तुम्हें सुखिंदर का निरा निकम्मा, फालतू प्रतीत होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं लगती, वस्तुतः तुम्हें दे क्या सकता था सुखिंदर ?

उन भाग्यशालियों में से थीं तुम, जो अंधे प्रेम के हाथों बेमोल बिक नहीं जाते वरन् अपनी जिंदगी, अपने भविष्य का फैसला आँखें व मस्तिष्क जागृत रखते हुए करते हैं। इसीलिए तो तुम आज सुखी हो - - -   अपनी खूबसूरत दुनिया में, अपने खूबसूरत पति व बच्ची के साथ। यद्यपि अब तुम्हें अपने सौंदर्य के प्रति पहले की अपेक्षा अधिक चाक-चौबंद  रहना पड़ता है तथापि तुम आज भी काफी खूबसूरत हो। तुम्हारा विश्वसनीय आईना पच्चीस बार पूछे जाने पर भी यही जवाब देता है। जरुर वजन व मोटापा पहले की अपेक्षा थोड़ा बढ़ गया है किन्तु तरतीब भी कोई चीज है, जिसे देख आईना भी दांतों तले अंगुली काट लेता है। है न ?

तुम
एक बार फिर से स्वयं को निहारती हो, बालों के लच्छों को एक तरंगमय झटका देती हो, तनिक जोर से मुस्करा कर देखती हो -ठीक वैसे ही डिंपल जैसे कि तुम अपने गालों में मुस्कराते वक्त चाहती हो।
अपनी तमाम सहेजी-सकेरी गई खूबसूरती को आधुनिक लीपा-पोती का जामा पहना चुकी तुम, अपनी ढाई इंची पेन्सिल हील्स पर घूम महंगी साड़ी का लंबा आंचल नजाकत से संभालती-उड़ाती फटा-फट कमरे से निकल गैलरी पार कर सीढ़ियां उतर दौड़ी जा रही हो, क्योंकि तुम्हंे कार का हाॅर्न सुन पड़ा हैं। तुम्हारे पति ने घंटा पहले तुम्हें फोन पर बिता दिया था कि वे अपने साथ किन्हीं विशिष्ट मेहमान को ला रहे हैं। तुम्हें ड्राइंगरुम में ही मिलना है।

तुम

उनके आदेश व अपने अपने वादे के अनुरुप वहां हो, पूरी सजगता से, तन्मयता से, विशिष्ट अतिथि के भरपूर स्वागत को तैयार। तुम्हारे कानों में बातों की व कदमों की हल्की-हल्की आहट सुन पड़ी है। नौकर ने अदब से परदा हटाया है। घुंघरुओं की मीठी टन्नाटन के साथ ही तुम्हारे होठों पर मुस्कान की पताका फहरा उठती है। गृह स्वामिनी होने का विजयी भाव तुम्हारी आँखों  को खूबसूरत अंदाज में थोड़ा और बड़ा कर देता है। अतिथि सत्कार को तुम थोड़ा आगे बढ़ती हो। हाथ नमस्ते के रुप में जुड़ते हैं। गर्दन गुलाब की डाली की भांति एक ओर जरा झुकती है। गालों के डिंपल और गहरे हो उठते हैं किन्तु अतिथि पर नजर पड़ते ही तुम्हारे शरीर में जैसे बिजली सी दौड़ गई है। चेहरे का रंग उड़ सा गया है।

यह क्या हो गया है तुम्हारी मुस्कान को ? गालों में सिमटे गड्ढे भर ही क्यों  रह  गई तुम्हारी मुस्कराहट की आकृति ? देखो अब तुम्हारे पति व अतिथि का पूरा ध्यान तुम पर ही केंद्रित हुआ जाता है
... हां अतिथि भी सकते की सी अवस्था में है।

' इनसे मिलिए ये हैं मेरी पत्नी स्वर्णी और स्वर्णी ये है मेरे मित्र सुखिंदर खोसला, इन्होंने अभी ही यहां कलेक्टर के तौर पर ज्वाइन किया है।’

हवा से हिल-हिल जाते परदे में बंधे घुंघरुओं में फिर झनक झनझना उठी है। तुम्हारा मन भी झनझना सा उठा है। तुम भीतर से कहीं परदे की ही तरह थरथरा रही हो। दिल के किसी कोने में कुछ तोड़ा-टूटन, चटखन-बिखरन मच गई है। भागो वहां से वरना, दब-पिस जाओगी। स्थिति को संभालो, कहीं ये सुखिंदर तुम्हारी कमजोरी, घबराहट, बौखलाहट न भांप ले।

अब तुम पुनः अपने आलीशन शानो-शौकत भरे ड्राइंगरुम में लौट आई हो, जहां सुखिंदर कुछ भौचक सा बैठा है। है न यह तुम्हारे खूबसूरत सुयोग्य, लंबे-उंचे पति, तुम्हारे धन-दौलत व वैभव से परिपूर्ण रुप-लावण्य का संयुक्त प्रभाव ? निःसंदेह सुखिंदर तुममें ज्यादा परिवर्तन न हुआ पाकर हैरत में है।

तुम

अपने गालों में पड़ने वाले हसीन गड्ढों  को समेट होंठों में मुस्कराहट चिपका, बड़ी अदा से ठीक सुखिंदर के सामने पड़ सको, ऐसे बैठ जाती हो। तुम्हारे पति सुखिंदर के खासे मित्र प्रतीत होते हैं। तभी तो दोनों  इतनी-इतनी बातें किए जा रहे हैं। अच्छा तो तुम्हारे पति ने भी आई.ए.एस. के लिए ‘ट्राई’ किया था और तुम्हें आज तक पता नहीं ! उनकी और सुखिंदर की पहचान परीक्षा केन्द्र पर ही हुई थी। अचानक ही तुम्हें अपने पति का आकार छोटा होता जा रहा सा लगने लगा है। एक हीन भावना तुममे डोल-डोल जा रही है।

मगर यह सुखिंदर कितना संतुलित दीख पड़ रहा है अब। जरुर इसने बड़ी मुश्किलों से अपनी भीतरी उथल-पुथल पर काबू पाया होगा। हो सकता था कभी यह तुम्हारे सामने इतना आत्मविश्वासी ? पता है, किस तरह याचकों सा तकता रहता था तुम्हें ? तुम अपनी हर कोशिश से उसे बिखेर देने पर तुल सी आई हो। यह वही है, वही सुखिंदर है ?
इसे आज तुम्हारी दया की जरुरत नहीं रही। इसमें तुम्हारे बगैर ही पूर्णता आ गई।

कहां गया तुम्हारे सौंदर्यमय व्यक्तित्व का वह जादू जो इसे सदा घेरे रहता था ? आज यह तुम्हारे बगैर भी ‘कुछ’ दीख रहा है, ‘कुछ’ है। तुम्हारी नजरों में तो यह सब सुखिंदर की उद्दंडता है, तुम्हारे अस्तित्व का नकार है।

भला यह सह सकती हो तुम ?

तुम

अपनी सारी शक्ति से, उसे अपनी सुख समृद्धि से आहत, हताहत कर डालोगी। उसकी उद्दंडता तुम्हें बर्दाश्त नहीं हो पा रही है। फिर भी कुलबुलाहट पर काबू कर तुम आपसी बातचीत में सिर्फ मुस्करा ही नहीं रही हो वरन् अपनी खूबसूरत ‘बक टूथ’ का अविराम प्रदर्शन करती हुई, खूबसूरत ठहाके भी लगा रही हो।

बीच-बीच में तुम्हारी आंतरिक बेचैनी तुम्हारे नेत्रों को सुखिंदर के चेहरे पर जमा देती है किन्तु वहां किसी पीड़ा, घुटन, छटपटाहट का कोई भाव न पाकर तुम पुनः अपने कमान पर नए तीर कसने लगती हो। आज तुम अपना तरकश खाली होता महसूस कर रही हो क्योंकि सुखिंदर पर तुम्हारे  सारे तीर निष्प्रभावी जा रहे हैं।

तुम फिर भी निराश नहीं हो। ओफ् !
कितनी नफासत से, काफी के प्याले में चम्मच चला रही हो तुम। एक भर नजर सुखिंदर ने तुम्हें देखा और पूछ बैठा है ‘पेरिस में आपने इतने सालों तक क्या किया ?

तुम
उसका प्रश्न समझ गई हो। वहां किसी कोर्स-वोर्स के लिए समय देना तुम्हें अपने पति का ही  भारी गुजरता था, तुम खुद भला क्या करतीं। तुम सिटपिटा गई हो। तुम्हारे पति सुखिंदर को बता रहे हैं कि वहां उन्हें उनके खुद के अध्ययन में तुमने कोई मदद नहीं दी। तुम सिर्फ घूमने-फिरने का शौक रखती थीं। सुखिंदर भी तुम्हारे पति के साथ-साथ हंसता जा रहा है।

पसीना पसीना हो उठी हो तुम  , कुछ शर्म से, कुछ क्रोध से । अजीब भोंदू आदमी हैं तुम्हारे पति भी। झूठ-मूठ नहीं कह सकते थे कुछ भी ? और अगर नहीं भी तो तुम्हें ही खुद कहने देते ।

अब करो भी क्या तुम ? अक्ल कहीं बाजार में तो बिकती नहीं कि खरीद लाओ थोड़ी बहुत उनके लिए। तुम्हारी पराजय तुम्हें दग्ध किए डाल रही है, जिसे विजय में बदल डालने को पुनः दृढ़ प्रतिज्ञ सी हो तुम क्षण भर को कुछ सोचती हो।

‘सुखिंदर।’

तुम्हारे होठों से शब्द हवा में गोता लगाते हैं। ठीक सामने बैठा सुखिंदर तड़ाक से अचकचा कर तुम्हें देखता है। तभी ‘जी मेमसाब’ कहता हुआ तुम्हारा नौकर आ खड़ा होता है, जिसे कभी भी तुम नाम पसंद न होने के कारण इस नाम से नहीं बुलाती थीं। तुम इसे सदा ‘बाॅय’ कहती थीं। वह भी तुम्हारे मुंह से अपना पूरा नाम सुन घबराया सा लग रहा था। तुम्हारे पति ने भी तुम्हें अचरज से देखा है।

‘आया से कहो बेबी उठ गई हो तो उसे ले आए’ तुमने आदेश दिया है। हालांकि तुम्हें पता है कि बेबी कभी की उठ ही नहीं चुकी होगी, बल्कि तुम्हारे लिए कई बार रो भी चुकी होगी। दो तीन माह पहले ही अपना ठुमक-ठुमक तीसरा बर्थ डे मना चुकी तुम्हारी बेबी थोड़ी ही देर में आया द्वारा सजी-धजी गुड़िया सी पेश कर दी गई है।

सुखिंदर ने उसे अपने पास बुला लिया है, वह ठुमकती-ठुमकती जा कर अपनी बाल सुलभ मोहक शैली में अंकल से ‘शेक-हैंड’ कर रही है।
सुखिंदर ने उसे गोदी में उठा लिया है। वह उससे बतिया रहा है। लाड़ लड़िया रहा है। खेल रहा है और बेबी ? वह है कि रुआँसी हो रही हैं।

पता नहीं क्या करती रहती है ये आया ईडियट ! जरा सी बच्ची को ठीक से नहीं संभाल सकती ! तुम आया के लिये अपने शालीन गुस्से का इजहार करने के लिये योग्य शब्दों के चुनाव में ही लगी हो कि सुखिंदर ने बच्ची आया की ओर बढ़ा दी है। अब वह तुमसे मुखातिब है - ‘बेबी को डाॅक्टर को दिखाइये
वह बीमार है शायद।’

तुम

तपते तवे पर पैर पड़ जाने की तरह उछल कर खड़ी हो गई हो। बेबी को आया से छीन अपनी छाती में समेट लेती हो। उसकी आंखंे बेतहाशा लाल है। नाक बह आई है। गरमी का एक गोला तुम्हारे सीने में आ लिपटा है।

‘चिंता न करें मेम केवल हलकी हरारत सी है। आपके पास आने के लिए रोते रहने के कारण कुछ परेशान है मिस बाबा, आपका आदेश नहीं था, इसलिए मैं अब तक लाई नहीं थी।’ आया ने अपनी ओर से स्पष्टीकरण दिया।

भाड़ में जाए आदेश ! तुम चटाक-पटाक से अपनी बच्ची को अपनी बाहों मे भींच उसके नाजुक गालों पर चंुबनों की बरसात कर देती हो। बच्ची थोड़ा कुनमुनाती है। इठलाती, मुंह बनाती है। तुम मर मिटती हो
न उसकी इन्ही अदाओं पर।

तुम्हारे पति सुखिंदर को अपना गुलाबों का बगीचा दिखाने ले चले हैं। और कोई वक्त होता तो तुम मोहक गुलाबों के बीच एक चलता-फिरता दिलकश गुलाब बन साथ-साथ लगी रहतीं किंतु इस वक्त तुम सचमुच ही अपनी मासूम बिटिया के प्रति वात्सल्य से आकंठ डूबी सारी दुनिया भुला चुकी हो।

हौले-हौले तुम्हारे कदम तुम्हें बाहर की ओर टेरेस पर ले गए हैं। वहां पड़े सोफे पर तुम बच्ची सहित लुढ़क सी गई हो।
चंद मिनटों में मीठी-मीठी, प्यारी-प्यारी बातों से, अपनी ममतामय उपस्थिति से तुमने बच्ची की उदासी, छू कर दी है। तुम्हारी स्वस्थ, स्नेहिल हंसी गुलाबों के बगीचे तक आ गुलाबों की महक को मूल्यहीन बना रही है।

तुम्हें  अपने मेकअप के बिगड़ जाने की फिक्र नहीं रह गई है। तुम्हारी साड़ी का आंचल जहां-तहां लतर रहा है। तुम्हारे पाॅलिश्ड बालों के कर्लर्स अस्त-व्यस्त हो चुके हैं। उनकी विद्रोही लटें तुम्हारें चेहरे पर बेतरतीबी से उत्पात मचा रही हैं। हकोबा की अत्याधुनिक महारानी से तुम अब एकदम घरेलू, स्नेहमयी मां के स्तर पर आ गई हो। तुम अपनी सारी नजाकत-नफासत भूल गई हो। तुम्हारे गालों में अब डिम्पल नहीं
हैं, हंसी है। आनंद ही आनंद है। उत्साह है। उमंग है। तुम्हारे इस व्यवहार से बच्ची खुश है, खिलखिला रही है ।
आया हतप्रभ है। तुम्हारे पति हतप्रभ हैं।

और ... और सुखिंदर बेचैन है। तुम्हारी सुरुचि संपन्नता, तुम्हारे वैभवपूर्ण हाव-भावों तमाम चीजों से वह निर्लिप्त था किन्तु तुम्हारी अस्त-व्यवस्ता, तुम्हारा अपने परिवार में, अपने उत्तरदायित्वों के लिये यूं आपा खो देना उसे अस्त-व्यस्त किए डाल रहा है।

अन्यमनस्क-सा वह तुम्हारे पति से जाने की इजाजत ले रहा है। तुम्हें अपनी बिटिया के साथ व्यस्त जान उसी ने तुम्हारे पति से मना कर दिया है कि तुम्हे डिस्टर्ब न करें। वह भरसक अपने आपको सामान्य बनाए रखने का प्रयत्न कर रहा है किन्तु उसकी चाल-ढाल में, उसके व्यवहार में एक मायूसी-सी आ
समाई है, उखड़ापन-सा आ समाया है क्या ?

तुम्हारे पति को तुम्हारा अशिक्षितों-सा रवैया खल रहा है। इस पागलपन के लिए अवश्य ही वे बाद में तुमसे जवाब-तलब भी करेंगे। तुम जैसी ’सुसंस्कृत’ महिला से उन्हें ऐसे ‘गंवारु’ व्यवहार की कतई-अपेक्षा नहीं थी। जरुर मिस्टर खोसला को तुम्हारे इस फूहड़ व्यवहार से ही उकताहट हुई है। तुम्हारे पति
आक्रोश को दिल में लिए-लिए ही पिनपिना से रहे हैं।

काश ! कि तुम्हें अपनी विजय की खबर होती। सुखिंदर की जीप मुड़ ही चली है। बेसब्री में तुम्हारे पति अब आते ही होंगे। तुम्हें तुम्हारे गुस्ताख व्यवहार के लिए लताड़ेंगें । लेकिन तुम तो सुखिंदर का हाल जान-समझ कर मुस्कान व हंसी से गद्-गद् हो जाओगी और अपनी बच्ची को इतना ज्यादह चूमोगी कि वह तंग आकर अपने नन्हें-नन्हें हाथों से अपने गाल पोंछ-पोंछ डालेगी।

तुम

पति से सुखिंदर को पुनः अपने घर आमंत्रित करने को कहोगी, किन्तु याद रखो अब वह यहां नहीं आएगा। अपनी अधिकार संपन्न जिंदगी में वह और उसकी आई.ए.एस. पत्नी दोनों ही बेहद व्यस्त प्राणी हैं। अब तुम्हीं लोगों को उसके घर जाना होगा। वह तुम्हारे पति को अपने बेटे के जन्म-दिवस पर आने का निमंत्रण दे गया है। इसी अपने बेटे को घर जाकर वह भी खूब-खूब प्यार करेगा निःसंदेह। तुम्हारे पति से उक्त निमंत्रण के बारे में जान कर शायद तुम हकबका जाओगी, और कुछ क्षणों बाद भावनाओं का ज्वार शांत हो जाने पर अपने विवाह की सालगिरह की तारीख, अपने पति के, खुद के व अपनी बिटिया के जन्म दिनों की तारीखें धड़कता दिल लिए याद करने लगोगी, कि कहीं ये सब निकल तो नहीं चुकी है !

महा  सुसंस्कृत तुम !

तुम नहीं बदलोगी कभी !

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4-

ये कहानी नहीं

उस रात बच्चों की जिद थी कि सोऐंगे तो कहानी सुन कर ही सोएँगे !  फुरसत के क्षणों में अखबार और कुछ चुनिंदा पत्रिकाएं लिये उस रात मैं उनके सामने बेबस बैठी थी। दो मेरे बेटे, एक मेरी बहन का बेटा, तीनों जब जिद पर आते हैं तो अपनी मनवाकर ही रहते हैं, ये सो जाएं तो ही पढ़ सकूंगी कुछ।

‘‘हाँ तो सुनो एक राजा था’‘ -

‘‘नहीं-नहीं, राजा-रानी की कहानी नहीं सुननी’‘

‘‘ये तो पुरानी कहानी है’‘ -

‘‘तो एक हंस था . . . . .’‘

‘‘नहीं-नहीं ये वाली भी नहीं’‘

‘‘जू में एक लंगूर था . . . . ’‘

‘‘नहीं-नहीं लंगूर वाली भी नहीं’‘

मैं एक-एक कहानी का नाम भर लेती और वे तीनों के तीनों उसे पूर्ण बहुमत से अस्वीकार कर देते। अब और कहां से लाऊं नई कहानी ? सारा तो कहानियों का मेरा स्टाॅक ये लोग सुन चुके हैं !   चंदा मामा से लेकर रामायण-महाभारत तक की अपनी याददाश्त की सारी परीक्षा देती आई हूं आज तक इन लोगों के सामने। अब तो दिमाग में कुछ और सूझ ही नहीं रहा।

‘‘मम्मी सोच रही हैं, अब जरुर कोई नई कहानी सुनने को मिलेगी . . .‘‘ बच्चों की खुशी व बैचेनी उनकी आँखों से नींद उड़ाए दे रही है। ये लोग मानेंगे नहीं सो, मेरी दिमागी लायबे्ररी से जो कहानी मेरे हाथ आई तो आप भी सुनिये .....

‘‘एक मम्मी थीं, एक पापा थे . . . . ‘’

‘‘ओहो,  अब आप बोलोगी कि मम्मी कहती थीं कि रात को जो बच्चे ब्रश करके नहीं सोते‘‘ . . .’

‘‘नहीं-नहीं, ये ऐसी कहानी नहीं, मैं तुम्हें एक सच्ची-मुच्ची की कहानी सुनाने जा रही हूं। बीच-बीच में बोलोगे तो कहानी सुनाना बंद’‘ . . . .

‘‘अच्छा-अच्छा अगर कोई सुनी हुई कहानी हुई तो बीच में बोलेंगे ।‘’

‘‘ठीक है !   ये कहानी मैं तुम लोगों  को पहली बार सुना रही हूं ।’‘

‘‘मम्मी क्या कहानी भी झूठ-मूठ की और असली की भी होती है ?‘’ छुटके ने सीरियस होकर पूछा था।

ओफ्फो!   सच ही तो पूछा था मगर . .. . .

क्या कहानी भी असली होती है ? मेरा दिमाग फिर सोच के दायेरे में फंसा देख दोनों बड़े भाई जल्दी से छुट्टू यानि गुल्लू  पर बरसने लगे-

‘‘चुप रहो, गुल्लु  देखते नहीं, फिर कहानी रुक गई।’‘

‘‘बस  ये ही तो पूछ रहा हूं के क्या कहानी असली होती है ?‘’ गुल्लु नहीं मानता, उसे जब सच में ही किसी बात का उत्तर चाहिये तो वह इसी प्रकार सीरियस हो जाता है।

‘‘बेटे कहानी सच्ची-झूठी दोनों तरह की होती हैं। अपने लिये उनमें कुछ शिक्षाएं भी होती हैं। पर ये कहानी बिल्कुल असली है जो मैं अब सुनाने जा रही हूं।’‘

कहाँ से शुरु करुं ,  मेरे मन में रील सी चल रही है, आज से करीब 35-40 वर्ष पहले ही रील। अनेक शुरुआतें सामने आ रही है इस कहानी की जो मेरी मम्मी ने मुझे अनेक बार सुनायी थी।

ये कहानी कहाँ थी ? ये तो एक वास्तविक घटना थी जिसे मैं आज बच्चों को किसी अनसुनी कहानी की तरह सुनाने जा रही थी। तो ये शुरुआत ठीक रहेगी ‘‘एक मम्मी थीं, एक पापा थे . . . . ’‘

‘‘हें हें, राजा-रानी जैसी कहानी लग रही है . . . . .’‘

‘‘नहीं-नही, ये वैसी कहानी नहीं, एक मम्मी-पापा थे उनकी दो छोटी-छोटी बेटियां थीं पापा थानेदार थे, मम्मी हाउस वाइफ थीं।’‘

‘‘थानेदार क्या ?‘’ गुल्लु ने फिर टोका।

आज की शहरी बच्चों की पीढ़ी थानेदार को बहुत अच्छी तरह नहीं जानती, मैंने उसे जब थानेदार के बारे में बताया तो वह फिर बोला -‘‘अच्छा , तो पुलिस बोलो न ‘‘

‘‘हां चलो वही, पापा पुलिस में थे। अक्खड़, बिंदास , निडर, ढीठ, जिद्दी, गुस्सैल और भी जैसे उन दिनो अंग्रेजों  के जमाने के कई वर्षों बाद तक पुलिस वालों का जो रंग-ढंग था, वैसे ही सारे गुण उनमें थे। एक वह गुण उनमें अलग से था, जिसे ईमानदारी और कत्र्तव्यनिष्ठा कहा जाता है, जो तब भी ‘रेयर’ था। आज भी ‘रेयर’ है, उन्हें इसी ‘गुण’ के कारण छह-छह महीनों में ट्रांसफर झेलना पड़ता था। सी.आर. बिगड़ती थी, प्रमोशन रुके पड़े रहने का डर तो खैर था ही। एक इसी ईमानदारी के कारण जो कि प्रायः गुण के स्थान पर अवगुण ही अधिक समझ लिया जाता है, उन्हें कई परेशानियां उठानी पड़ती थीं, तब भी ऐसा ही था, आज भी व्यवस्था ऐसी ही है।’‘

‘‘मम्मी आगे बढ़ो न कहानी बोर लग रही है, समझ में कुछ नहीं आ रहा। आप तो लेक्चर जैसा ़ ़ ़ ’‘

सच था, मैं पिछली यादों में खो, बड़ी-बड़ी बातों के चक्कर में उलझ अनावश्यक रुप से कहानी को बच्चों के लिये बोर बनाए दे रही थीं।

‘‘ठीक है, अब बीच में कुछ बोर नहीं। केवल कहानी कहती हूं, हां तो मैं कहाँ थी ?’‘

‘‘पापा पुलिस में थे, और  पुलिस जैसी खराब होती है वैसे ही . . . . ’‘

‘‘ना . . . , ये मतलब कैसे निकाल लिया तुमने ? न तो पुलिस खराब थी न पापा खराब पुलिस थे। वे एक अच्छे मगर सख्त थानेदार थे। शहर में अपराधियों के साथ सख्ती की तो उनका ट्रांसफर शहर से दूर एक छोटे से गांव में  कर दिया गया . . . सुन रहे हो न तुम लोग ?’‘

‘‘मम्मी साफ-साफ कहो न कि कहानी शहर की है या गांव की ?’‘ बड़े बेटे ने पूछा, उसे भी बोर कर रही थी मैं।

‘‘बेटू कहानी गांव में घटी, वहाँ . . . . जब पापा ने ज्वाइन किया तो अफीम की खेती वाले उसे एरिया में अफीम की स्मग्लिंग जोर-शोर से होती थी, आज भी होती होगी .
. . ’‘

‘‘मौसी आप बस कहानी पर कंसंट्रेट करो . . . . ’‘ मंझलू मेरी बहन का बेटा अपने हीमेन सीरीज को परे डालता कहता था।

‘‘अच्छा लो बाबा,आदत से लाचार हूँ न  प्रोफेसर जो ठहरी, क्या करुं ? हां, तो तब अफीम का एक स्मग्लर था। खान या शायद पठान, अपन सुविधा के लिए उसे पठान कहेंगे। पूरे इलाके के लोग डरते थे उससे। तब पुलिस वालों के पास घोड़े हुआ करते थे। गांव-शहर के रईस, रुतबे और शान-शौकत पसंद लोग भी बढ़िया नस्ल के घोड़े रखते थे। पठान के पास कई अच्छे घोड़े थे। जैसे आज कारें स्टेट्स-सिंबल होती है, वैसे तब घोड़े स्टेट्स-सिंबल हुआ करते थे। पापा के पास भी एक शुद्ध अरबी नस्ल का ऊँचा-पूरा सफेद घोड़ा का जिसके माथे पर गहरे भूरे रंग का . . . . . ’‘

‘‘भूरा रंग कैसा होता है मम्मी ?’‘ छुटके ने फिर टोका।

‘‘अरे हां, भूरा रंग यानि ब्राउन, डार्क ब्राउन टीका था उसके माथे पर ’‘

‘‘मम्मी-पापा और सईस उस दिलखुश नाम के घोड़े का खूब ख्याल रखते। सईस यानि घोड़े की देखभाल करने वाला,     जैसे आज तुम लोग कार से, बाइक से राउंड लगाने जाते हो, तब दोनों बच्चियां बारी-बारी से उस घोड़े पर सवारी करती थीं, उसके बाद ही पापा को जाने देती थीं।’‘

‘‘फिर . . . . . ?’‘

फिर . . . .।   मैंने पाया कि बच्चे कहानी में इंटरेस्ट ले रहे हैं, मुझे भी कुछ उत्साह हो आया।

‘‘फिर एक दिन वही हुआ जो आखिर एक न एक दिन तो होना ही था। पठान के खिलाफ बहुत रिपोर्ट मिलती थी।

पर- - -     सबूत के अभाव में वह आजाद ही घूमता था। उसने थानेदार पापा के सामने भारी भरकम रिश्वत की पेशकश भिजवायी, जिसे उन्होने आदतन अस्वीकार कर दिया।’‘

‘‘पुरानी कहानी है इसलिय पुराने-पुराने वड्र्स हैं ‘’ बच्चे कुछ शब्द नहीं समझ पाने की वजह से खुस-फुस कर रहे थे ।

‘‘ठीक है भई नए शब्द लेती हूं। उसके खिलाफ कोई प्रू्फ नहीं था इसलिए उसे पकड़ा नहीं जा सकता था, पर एक दिन आखिर वही हुआ . . . . एक दिन पठान अपने काले घोड़े पर और पापा अपने सफेद घोड़े पर आमने-सामने टकरा ही गए”

‘‘सलाम है थानदार साहब को ’‘

पापा ने ऊपर से नीचे उसे घूरा और सलाम के जवाब में केवल लंबी सी ‘‘हूँ . . . . ‘’ कह कर सिर हिलाया। थोड़ी देर कांईयां से सिर हिलाते उसे घूरते रहे। वह भी कम न था। दो-दो हाथ करने के मूड में था। बोला . . . .

‘‘बड़े जलवे हैं सुना आपके, बंदे को अंदर करके ही मानेंगे सुना है ‘’

‘’क्यों नहीं पठान ? आज के बाद उल्टी गिनती गिनना शुरु कर दे . . . ‘’ पापा ने घोड़े का सिर थपथपाते हुए पुलिसिया रुआब से कहा।

‘‘वो तो ठीक है हुजुर, मगर घर में थानेदारनी साहिबा को बिंदी और चूड़ी का तो शौक होगा . . . ’‘ पठान बहुत तल्खी
से पेश आ रहा था, ना, ना पुराने शब्द नहीं,
‘वह एकदम टाॅटिंग वे में बात कर रहा था . . . . ‘‘

‘‘चुप बे, चूड़ी तो तेरे हरम में भी पहनी जाती है। मेरे घर में तो एक की ही चूड़ियां टूटेंगी। तूु न जाने  कितनियों की
फुड़वाएगा . . . ’‘

‘‘बस् बहुत हो गया हुजुर, आज तो दल-बल के साथ मिले हैं। कभी अकेले न निकल जाइयेगा। वरना सच ही थानेदारनी चूड़ियों को तरस जाएगी ’‘

पापा ने फिर एक गुस्साई गाली दी और दांत पीसते हुए कहा - ‘‘अबे भिड़ना है तो खुद भिड़, औरतों को बीच में लाने वाले को मैं भिड़ने के लायक नहीं समझता . . . ‘’ दांत पीसते थानेदार को भर नजर घूरता रहा पठान, उसकी आँखों में खून उतर आया था मानो ।

" ठीक है, यह तय रहा कि या तो अब आप रहेंगे या मैं रहूंगा’ और . . .
‘‘सुन ले छोकरे,  क्या तुझे आप-आप कर रहा हूँ ? क्या उमर और क्या हैसियत है तेरी मेरे सामने ? जितना तू सरकार से लेता है उससे दोगुना तो मैं अपने सईस को देता हूं। अब उसकी तनख्वाह और बढ़ा दूंगा क्योंकि जिस नस्ली घोड़े पर तू बैठा है वह समझ ले अब मेरे अस्तबल की शान बढ़ाएगा, क्योंकि ऐसे नस्ली घोड़े मुझ जैसे नस्ली लोगों के ही लायक होते हैं . . . . ’‘

‘‘तो अब तक क्यों कुत्ते की सवारी कर रहा है ? ले ले नस्ली घोड़ा तुझसे संभले तो । ’‘

बात बढ़ती जाती थी। पापा को अपराधियों से उलझने की आदत थी। ऐसे में उन पर अजमेर के मेयो काॅलेज की अपनी शिक्षा-दीक्षा का कोई असर न रह जाता था। सो वे झुकने को तैयार न थे। और पठान अब तक पैसे से पुलिस को खरीदता आया था। अतः वह भी झुकने को तैयार न था।

पापा के साथ कुछ कांस्टेबल और एक हेड कांस्टेबल थे। उन्होंने किसी तरह पापा को बात खत्म करने के लिये राजी किया और इस प्रकार उनका काफिला कुछ आगे बढ़ा।

लेकिन पठान को बात चुभ गई थी। वह कहां रुकने वाला था ? वह पीछे-पीछे आया चुनौती देता हुआ सा बोला ‘‘थान्दार छोकरे, तू समझ ले मेरे घोड़े पर सवारी कर रहा है। अब ये घोड़ा मैं लेकर रहंूगा। तेरी तो कहीं लाश भी नहीं मिलेगी। साल दो साल घोड़ा कहीं दूर रहेगा फिर इसे यहीं लाकर इसी पर बैठ कर अपना काम धंधा संभालूंगा - खूब ’‘

‘‘खूब, ससुरे क्या छोकरे-छोकरे की रट लगा रखी है ? मेरी लाश की बात करने वाले मैं तेरा बाप साबित होउंगा। तेरी लाश जरुर तेरे जनानखाने में भिजवा दूंगा। किसी की मिट्टी खराब करने में मेरा यकीन नही। हां तेरे पीछे तेरी बेवाओं की गिनती करने जरुर अपने दल-बल के साथ जाऊंगा . . . . ’‘

इस तरह की फजूल की बातों में उलझते-उलझते वे दोनों आखिरकार अपने-अपने रास्ते चले गए, गुस्से में दांत किटकिटाते हुए से। पापा ने साथ वालों को सख्त मना कर दिया कि वे घटना की चर्चा किसी से न करें;

‘‘सर हेड आॅफिस तो खबर किये देते हैं, वहां से थोड़ी और फोर्स आ जाएगी। ये तो सीघे-सीधे आपको जान से मारने की धमकी दे गया है। इसी आधार पर इसे धरा जा सकता है .... ’‘

‘‘नहीं । कोई मुंह नहीं खोलेगा, यही मेरी रणनीति है . . . ’‘

अड़ियल थानेदार का हुक्म था, सो मुंह बंद रहे। लेकिन एक फिक्रमंद कांस्टेबल ने मम्मी को थोड़ा-बहुत बता कर अपना फर्ज पूरा कर ही दिया। मम्मी ने भी उससे वादा किया कि वे उसका नाम समय आने से पहले ’थान्दार साब’
को मालूम नहीं पड़ने देंगी। वरना बिचारे की खैर नहीं थी।

‘‘अब मम्मी को चिंता के सागर ने घेर लिया। क्या करें ? पूजा-पाठ, भक्ति प्रार्थना के अलावा ? थानेदार कई-कई बार आकेले दौरे पर निकल पड़ते, जरुर पठान से मुठभेड़ की उम्मीद में . . . । पठान उन पर जुनून के जैसे सवार हो गया था। मम्मी पीछे से कुछ फासला रखते हुए पापा के पीछे कुछ विश्वस्त सिपाहियों को भी जरुर भेजतीं, वो थानेदार के आॅर्डर और गुस्से की परवाह किये बिना भी जाते, ऐसे लोग हुआ करते थे पहले . . . ‘’ कहानी कुछ रोकी मैंने, देखा तीनों बच्चे भय-मिश्रित हैरत में आंखें और होंठों को गोल किये पूरी तरह कहानी के क्लाईमेक्स का इंतजार कर रहे थे, उनकी कल्पनाओं में वो निःसंदेह वह सब घटित होते देख रहे थे जो मैं सुना रही थी।

बात कहानी सुनते हुए सोने की हुई थी यहां तो तीनों जागने के लिये मुस्तैद दिख रहे थे।

‘‘हां तो आगे क्या हुआ मम्मी ?’‘ बड़ा बेटा बेहद बेसब्र था।

‘‘क्या थानेदार पापा को पठान ने मार डाला मौसी . . . ?’‘ मंझलू मरने-मारने की बात से घबराया दिख रहा था।

‘‘ना, ना, ना , ऐसे थोड़े ही ना हुआ कुछ। पूरी कहानी तो सुनो पहले, अब दिन हो कि रात हो। पापा बस पठान के पीछे साए की तरह लग गए। कहां-कहां की मुखबिरी कैसे-कैसे ईनाम के लालच, कैसी-कैसी पुलिस दस्तों की तैनाती आए दिन होती। पर पठान था कि माल इधर-उधर करके सांप सा सरक लेता। उसे ढूंढना भूसे के ढेर में सुई ढूंढने के जैसा हो गया। यहां तक कि उसका कोई एक गुर्गा तक न पकड़ा ना सका। पापा पर ‘ऊपर’ से दबाव आने लगा। सीनियर अफसर सोचने लगे कि थानेदार ने पठान से पैसा खा लिया है। इसीलिए लुका-छिपी का खेल दिखा रहे हैं दोनों; ‘ऊपर’ से दबाव आने लगा कि पैसा इधर भी दो भई ! अकेले-अकेले खाओगे ?’‘

मगर थानेदार पैसा खाते तो देते ।
एक तरफ पठान से झड़प का बेतहाशा इंतजार, दूसरी तरफ अफसरों से बिन बुलायी झड़पें । पापा का पारा आसमान पर रहने लगा। स्टाॅफ की मुसीबत हो गई। पापा कहें कि कोई तो पठान की तरफ मिल गया है जो पुलिस की अगली चाल उस तक पहुंचा देता है। मगर इसका भी कोई सबूत नहीं मिल पा रहा था।

‘‘मम्मी सबूत माने प्रुफ ना ?’‘ छुटकू नींद आने के पहले की ऊंघती सी स्थिति में आ गया था फिर भी ध्यान से सुन रहा था।

‘‘हां बेटा वही . . . मम्मी की रातों की नींद और दिन का चैन सब गायब ।  लेकिन पापा को अपनी धुन के आगे किसी से कोई मतलब नहीं रहता था। मम्मी सोचतीं कभी-कभी, कि ऐसे जिदैले लोगों को घर नहीं बसाना चाहिये।‘‘

मगर सोचने से क्या होता है ?
घर तो बस ही चुका था, न जाने कब कैसे तिनका-तिनका बिखर जाएगा। बस् यही देखना बाकी बचा था क्या ? उनकी चिंताओं का ओर-छोर नहीं था।

‘‘अब आती हूं असली बात पर, जिसे सुनाने के लिये ही तुम लोगों को इतना बोर किया . . . । ‘’

कहानी ने यद्यपि बहुत उत्सुकता जगायी थी फिर भी बच्चे नींद की बाहों में दिख रहे थे। जल्दी से खत्म करती हूं कहानी वरना कल फिर पूरी सुनने की जिद करेंगे।

‘‘एक गर्म चिलचिलाती दोपहर थी वह। गर्मी ही गर्मी, ऐसी गर्मी कि बस हाल-बेहाल थे। थानेदार का क्वार्टर थाने से कुछ दूर पर था। वहां मम्मी अपनी  नन्ही बच्चियों और एक बूढ़े से चौकीदार के साथ लगभग अकेली सी ही थीं । चौकीदार बगीचे का काम निपटा कर खाना-वाना खाकर ऊंघ रहा था।
थाने के घड़ियाल पर ड्यूटी वाले कांस्टेबल ने दो के घंटे बजाए और तेज धूप की चिलक से बचने वह भी थाने के अंदर जा बैठा, हो सकता है वह भी ऊंघने की तैयारी में हो । ’‘

‘‘खाना खा कर नींद तो कुछ-कुछ मम्मी को भी आ रही थी। रातों को दहशत में जागती थीं। हल्की सी आहट पर भी उठ बैठती थीं। इसलिये दिन में थोड़ी आंख लग जाया करती थीं। अभी जरा मम्मी की आंख लगी ही थीं कि किसी के भागते-घिसटते कदमों की आवाज ने उनकी लगती नींद उड़ा दी। धड़ाक् से दरवाजा बंद हुआ। लोहे की मोटी जंजीर नुमा सांकल लगने की कर्कश आवाज सुन पड़ी। जोरों से धड़क कर सीने से बाहर निकल पड़ने को बेताब होते ह्दय को संभालने की कला मम्मी अब तक बड़ी अच्छी तरह सीख चुकी थीं। वे झट से उठीं और बेडरुम के पल्ले जरा खोल बाहर झांकती हैं तो देखती हैं किचौकीदार जोर-जोर से सांस लेता, बाहर बरामदे की ओर खुलने वाला दरवाजा बंद कर, वहीं बैंठक कक्ष में, दरवाजे के पास बैठा, भारी गठरी सा हिलता-डुलता अपने किसी ईष्ट देव को बेतहाशा याद किये जा रहा था। मरा !  मगर अंदर कैसे चला आया ?
मम्मी को गुस्सा  आने लगा--‘‘

‘‘क्या है रे चौकीदार ?’‘ गुर्राती आवाज में पूछा उन्होंने, लेकिन चौकीदार के जवाब देने के पहले ही घोड़े की बढ़ी चली आ रही टापों ने स्थिति को अजीब तरह से  रहस्यमय व डरावनी सी बना दिया। निःसंदेह वे टापों की आवाजें अपने घोड़े की नहीं थीं। वो अलग तरह के स्ट्रोक्स थे। मम्मी धक्क् ।
ब्बाई, बाई सा . . . प . . प... प ठान ’‘

वह घबराहट से बेहोश ही न हुआ बस्। मम्मी के काटो तो खून नहीं । पहले आज की तरह फोन वगैरह भी नहीं थे। बाकी क्वार्टर भी दूरी पर थे। थाना भी इतनी दूर था कि गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाएं तो भी शायद ऊंघते कांस्टेबल की नींद न खुले। और यदि नींद खुल भी जाए तो क्या गारंटी कि उसकी हालत चौकीदार जैसी या और भी उससे बुरी न हो रहेगी ?

चौकीदार की हालत देख कर सुनसान वीरान दुपहरी में निपट असहाय वे भी भयभीत हो गई, डर संक्रामक होता है। एक से दूसरे को फैलता है। मम्मी को मानो घिघ्धी बंध गई - - -

मैंने थोड़ा रुक कर देखा कि बच्चे अभी पूछेंगे कि ये घिध्घी बंधना, ये संक्रामक क्या होता है ? लेकिन उन्होंने नहीं पूछा कुछ। वे तो सो गए थे डरे-डरे से। एसी में भी पसीने से उनकी गरदन के नीचे नाइट शर्ट गीली हो चुकी थी। ए.सी. का ब्लोअर उनकी तरफ स्थिर कर मैंने उनके चेहरों पर गौर किया। डर से तने हुए चेहरे, आंखें कस कर बंद, दांत भिंचे हुए से। अवश्य ही डर उन पर हावी था। मैंने उनके पसीना भीगे बालों में अंगुलियां फिराई, थोड़ा उनके चेहरे थपथपाए, थोड़ा उन्हें प्यार किया ताकि वे डर के साए से मुक्त हो कर सो सकें।

अब उनकी मुखमुद्रा कुछ नार्मल लगी।

आश्वस्त होकर कि वे अब अच्छी नींद में हैं, नाइट लैंप ऑफ करने के लिये मैं बेड स्विच को दबाना ही चाहती थी, कि बड़कू ने हाथ थाम लिया। वह फुसफुसाया . . . .
‘‘मम्मी कहानी पूरी करो।  मैं सुनना चाहता हूं। ‘’ नींद में दिखता हुआ सा वह पूरी तरह सोया नहीं था।

‘‘आगे क्या हुआ मम्मी ? क्या सच में पठान आ गया था ?’‘

‘‘नानी कैसे बचीं ? जल्दी से बताओ ना। ’‘

अपनी ननिहाल इंदौर से कुछ ही घंटे की दूरी पर किशोर कुमार के खंडवा शहर में मेरी चार साल की पोस्टिंग के दौरान वह नानी का बहुत करीबी हो गया था। मुझसे अधिक नानी ने उसे संभाला था सो नानी से ज्यादा अटैच्ड था वह। उसकी बेताबी मैं महसूस कर सकती थी।

मुझे अपनी स्मृतियों के उसी माहौल में फिर से जाना पड़ा जहां आगे खुला बरामदा, पीछे पांच फुट ऊंचाई की कंपाउंड वाॅल से घिरा बड़ा सा आंगन और इनके बीच कुल जमा तीन छोटे-छोटे कमरों व रसोई वाले थानेदार के मकान के तरतीब से सजे साफ-सुथरे मेहमान कक्ष में हक्की-बक्की मेरी मम्मी बेहाल हो चुके चौकीदार के सामने खड़ी थीं। घोड़े की सधी हुई वे  टापें एक क्षण को खामोश हुईं, फिर उसकी बैचेनी का तबला वादन सा प्रस्तुत करने लगीं। घोड़ा खड़ा नहीं रहना मांग रहा था। इधर-उधर हो रहा था बैचेन-अधीर घोड़ा ।

‘‘कोई है ?‘’

एक निहायत खुरदुरी मगर ठेठ रौबीली आवाज गूंज मचाती हुई मेहमान कक्ष तक आ कर फर्श पर ओंधे से, घुटनों के बल पड़े, कुछ कोई प्रार्थना सी बुदबुदाते चौकीदार से कुछ कदम दूरी पर बुत सी बनी खड़ी मम्मी को झुरझुरी दे गई। वे बताती थीं कि ‘‘बेटा बोलना चाहूं तो आवाज ही न निकले, ऐसी हालत, घिघ्धी बंधना क्या होता है तब पता चला।’‘

‘‘अरे कोई है ? कहाँ छिपा है थान्दार ?‘’ पठान फिर दहाड़ा,

जुझारु महिला थीं मम्मी। स्थितियों से लड़ने-भिड़नेे का अनुकूल साहस वे अपने में ले ही आती थीं। क्षण-क्षण साध रही थीं खुद को, सोचती हुई कि सारे पूजा-पाठ, सारी प्रार्थनाओं के सफल या असफल होने की घड़ी आ ही गई न आखिर! मुश्किल घड़ियों में दिमाग बड़ी तेजी से काम करता था उनका। पास की खिड़की की दरार में, आलमारी में मैकिनटोश के नीचे, फर्श पर कालीन के चारों कोनों में, कई गुप्त ठिकानों पर कई दिनों पहले से नए-नए ब्लेड छिपा कर रख छोड़े थे उन्होंने, कि यदि कोई बुरी स्थिति आ ही जाए तो, सामने वाले से यदि जीता न जा सके तो उसे खुद पर भी राई-रत्ती जीत हाँसिल न होने दें। वे ब्लेड काम में लाए जाने का मौका आज आ गया दिखता था।

खिड़की में रखा ब्लेड अंगुलियों में दबाते ही उनकी बंद जुबान में जैसे ताकत लौटने लगी . . . दूसरे, थानेदार को गांव भर में ‘थान्दार सा’ के अलावा ‘थान्दार’ मात्र कह कर पुकाने का दुस्साहस करने वाला चाहे कोई भी शख्स हो मम्मी के गुस्से की गिरफ्त में आने लगा . . . । फिर भी उन्होंने भरसक तमीज से जवाब दिया।

‘‘वे तो नहीं हैं घर पर ’‘

‘‘हूं . . .  कहां गया है ?‘’

’‘भर दुपहरी हमारे में मर्द लोग अपने-अपने काम-काज की जगह पर मिलते हैं घरों में नहीं ’‘ थीं तो आखिर वे भी अक्खड़, पुलिस वाले की बीबी,  सो उठाया और दाग दिया बात-गोला !

थोड़ा अचकचा गया पठान, जवाब नहीं सूझा उसे एकबारगी।

टप्. . . टप् टप् की बेचैनी भरी लय थमी नहीं थी ।

अब यह लय बंद  खिड़की के पास से गुजरते हुए बेडरुम और उसके पास किचन, फिर पीछे आंगन का चक्कर लेती जान पड़ती थी।

कहीं सोई बच्चियां न जग जाएं !

और, कहीं थानेदार ही न आ जाएं किसी काम से घर वापस। धक्-धक् कलेजा हो रहा था, तो एकदम चौकन्ने कान
मम्मी के, उस टप् टप् पर जा चिपके थे मानो ।

हाय राम !   कहीं आंगन का पिछला दरवाजा खुला , यूँ ही भिड़ा न रहा गया हो !

पठान पूरा चक्कर लगा रहा था मकान का कि कहीं शायद पीछे घोड़ा बंधा हो। न घर में घोड़ा था न घोड़े का सवार। दोनों का घर में होना न होना प्रायः साथ-साथ ही होता था। पठान पूरे घाघपन से तस्दीक कर रहा था
. . . उसकी तस्दीक पूरी हुई।

न तो घर में घोड़ा था न घुड़सवार।’

‘‘मम्मी बहुत धीरे-धीरे सुना रहे हो . . . ।’‘ बेटू की बैचेनी बढ़ी जाती थी। नानी के लिये खासा चिंतित था वह।

‘‘जब पठान ने जान लिया कि वाकई वे वहां दोनों नहीं है तो . . . ’‘

‘‘तो मम्मी ?’‘

‘‘वह फिर से घर के सामने बरामद के पास आ खड़ा हुआ क्योंकि घोड़े की टापों की आवाजें मम्मी को वहीं से आती सुन रही थीं। घोड़े को काबू में करता पठान बोला . . . ‘‘इंशा अल्ला आज उसका दिन मुबारक था जो वो इस वक्त घर
पर नहीं है . . . ’‘

बेतहाशा गर्मी से परेशान थमा हुआ, मगर एक ही जगह जरा खड़े न रहना मांगता घोड़ा . . . और उसका सवार शायद
उससे भी ज्यादा परेशान था। अपने मकसद में कामयाब न होने से और भीषण गर्मी से भी . . . .

‘‘मुझे प्यास लगी है, बड़ी मेहरबानी होगी अगर थोड़ा पानी का बंदोबस्त करा देंगी किसी चौकीदार से . . . ?’‘

‘चौकीदार’ शब्द सुनते ही अर्ध - मूर्छित से चौकीदार  को जैसे करंट सा लगा। वह जोर-जोर से कांपने लगा। मम्मी सहमी हुई तो थीं मगर वह सोच कर कि कम से कम ये खतरा आज अभी तो टले यहां से, जल्दी से चौकीदार को बोलीं

‘‘जा रे पानी दे कर आ . . . ’‘

‘‘नी बई सा, नी जाउं हूं तो मरी जउं पन नी जउं ’‘

हें !  कैसा अवज्ञाकारी चौकीदार है ये ? किसीको  पानी पिलाने में इसे मौत आ रही है। उसने पानी मांगा है तो उसे  देना ही होगा न ? चलूँ  मै ही लाए देती हूं। जाए तो ये बला जल्दी से, कहीं ऐसा न हो कि इसी बीच घर का मालिक ही आ जाए। तब तो अनर्थ ही हो जाएगा। यही सोचती मम्मी अपनी पूरी ताकत समेट रसोई की तरफ लपकीं और सबसे ठंडे मटके से एक ग्लास भरा . . . फिर उन्हें ख्याल आया कि एक ग्लास के बाद उसने दुबारा मांगा तो ? उन्होंने झट से एक बड़ा मुरादाबादी चित्रकारी किया गया खूबसूरत लोटा पूरा भरा और जल्दी-जल्दी चौकीदार  के पास आ कर समझाने के स्वर में बोलीं . . . .

‘‘ले उठ तो, दे दे जरा . . .  देख देर मत कर ’‘

मगर कुछ असर नहीं पड़ा था चौकीदार पर, ‘‘आप मारी लाखो जद भी नी उठी संकू हूं तो ’‘ वह तो वहीं और पसर
गया।

‘‘आप भी मती जाओ बई सा, वा आपणा ने मारी लाखेगा। आप तो बईरा (स्त्री) हो। साब का दुस्मण है वा, कजने कंई करेगा । मती जाओ बसा, मती जाओ . . . ’‘ फुसफुसाते चौकीदार ने किसी भी तरह मम्मी का आदेश नहीं माना।

अब क्या करें मम्मी ?

द्वार पर खड़ा था प्यासा बैरी - - -    
कहीं बिना पानी और बिगड़ गया तो ? और फिर है तो द्वार खड़ा मेहमान। ऐसी गर्मी में बिना कहे पानी का अधिकारी .... जबकि वह तो खुद हो कर पानी मांग रहा है तो उसे कैसे पानी न दें ? यहां तक जब पानी ले आई हैं तो ... डर भी लग रहा था। एकमात्र ब्लेड के सहारे क्या कुछ बिगड़ पाएंगी वे उसका ? आज कहीं सचमुच ही दीनो-दुनिया खोने का समय तो नहीं आ गया ... ? हे किशन, मोहना रे,  ये जान तेरी ही दी हुई है तू ही आना इसे ले जाने - - -

मन ही मन प्रार्थना करती मम्मी ने दिल कड़ा किया। लोटा संभाला, दरवाजे की ओर बढ़ सांकल को उसकी कुंडी से उतार ही तो दिया। चौकीदार तो अब बोल भी नहीं पा रहा था। बस् हाथों को ना, ना की मुद्रा में हिलाता मना किये
जाता था, पर मम्मी ने सांकल उतार दरवाजा इतना ही खोला कि लोटा भर बाहर रखा जा सके और कहा-

‘‘लो भैया पानी !  ’‘

उनका एक हाथ पानी के लोटे को संभाले दरवाजे के बाहर था। दूसरे हाथ से पूरी ताकत से वे दरवाजे को दुबारा बंद
करने को तत्पर थीं। सुनसान दुपहरी में मम्मी को अपनी ही आवाज अजीब तरीके से गूंजती  लगी ‘लो भैया पानी ’ इधर उन्होंने पानी से भरा लोटा देहरी के पार रखा उधर चट से दरवाजे को बंद कर सांकल चढ़ाने में देर न लगाई।

पठान घोड़े से अदब से उतरा, रास थामे-थामे सीढ़ियां चढ़ बरामदे में आया। दुनाली को दीवार के सहारे टिका कर रखा। उसे बरामदे के अधखुले दरवाजे से एक पल के लिये दिख पड़ा था गोरा चिट्टा चूड़ियों भरा हाथ और पानी से
भरा बेल-बूटोंदार लोटा साथ ही सुन पड़ा था- -  -

‘लो भैया पानी’

जितने अदब से वह वहां तक पहुंचा था उससे भी कहीं ज्यादा अदब से उसने पानी से भरा लोटा थाम लिया। इधर लोटा उसने थामा, उधर मम्मी दरवाजे के पीछे से गिन रही थीं मानों --- गट् ....गट् ..... गट् मम्मी गिनती सी रहीं जैसे, पूरे  भरे  लोटे का ठंडा पानी उसके गले से नीचे उतर गया।

लोटे को वहीं दरवाजे के पास रख दुनाली फिर से उठाकर कंधे पर लटकाई उसने और कहा ‘‘शुक्रिया ’‘ वह समझ रहा था कि अभी लोटे की वापसी के लिये दरवाजा नहीं खुलेगा। बराम्दा पार कर तीन सीढ़ियां उछल कर वह घोड़े पर
जा बैठा। जरुर अच्छा भारी-भरकम हट्टा-कट्टा रहा होगा वह। क्योंकि जैसे ही वह उछल कर घोड़े पर जा बैठा, उसी की जोड़ का घोड़ा बड़े जोर से हिनहिनाया था।

मम्मी तो पल-पल गिन रही थीं कि यह जाए। जल्दी जाए। ऐसा लग रहा था उन्हें मानो वह वहां अरसे से खड़ा था।

‘‘आप उससे मेरी तरफ से एक दरख्वास्त कर दीजियेगा ... ‘‘ ‘‘बेटू दरख्वास्त यानि रिक्वेस्ट हां, कि मैं .... आया तो
दुश्मनी के इरादे से था, पर आज आपने जो मुझे भैया कह दिया है ....मैं अब दुश्मनी कायम नहीं रख पाऊंगा।’‘

मम्मी को यकीन नहीं आया कि वो सब क्या सुन रही है !

वो घोड़े को मोड़ता हुआ फिर बोला ‘‘अब आप मेरी बहन है तो वो  ठहरा बहनोई। मेरी अब उससे दुश्मनी नहीं, अलबत्ता वो चाहे तो अपनी तरफ से  दुश्मनी निबाहे .....’‘

मम्मी की नसों से रुकता-अटकता खून फिर से दौड़ने लग पड़ा था।  ये क्या सुना था उन्होंने ?  क्या खतरा सचमुच  टल गया था ? उनकी तो आदत थी प्रायः हर किसी छोटे-बड़े को ‘भैया’ कह कर पुकारने की ... यू.पी. की आम महिलाओं की तरह ....

‘‘शुक्रिया ...  अलविदा बहन ...’‘

वो रौबदार आवाज खौफ को तोड़ती, घोड़े की दूर जाती टापों के साथ गुम होती चली गई।

अब चौकीदार जल्दी से उठा खड़ा हुआ। उसकी चेतना लौट आई। साँकल चैक की। अपने कपड़े-लत्ते झाड़े, कुछ शरमाया अपनी हालत पर ... और मम्मी ? .... उन्हें तो यकीन ही नहीं आ रहा था कि क्या हो गया !

‘‘मम्मी चले गए न अंकल पठान ? नानी को कुछ ‘हार्म’ नहीं किया ना उन्होंने ? फिर नानाजी को भी परेशान नहीं किया ना ?’‘ बेटू ने बेसब्री से पूछा।

मैंने नोट किया कि हम भारतवासियों के खून में पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह शै है कि हम आत्मीय रिश्ते क्षण भर में बना लेते हैं। इसी से पठान बिना कोई खुराफात किये लौट गया और इधर इतने अर्से बाद... मेरे बेटे ने ‘पठान’ के लिये ‘अंकल’ शब्द का प्रयोग करने में पल भर भी नहीं बरबाद किया।

‘‘फिर और क्या हुआ मम्मी ?’‘

‘‘कुछ नहीं बेटा, बस इतना ही मम्मी बताती थीं कि जब तक तुम्हारे नानाजी उस जगह रहे पठान ने उनके इलाके में वारदात नहीं की और.....’‘

‘‘और नानाजी ने भी उनको नहीं पकड़ा ना ?’‘

‘‘अ ? हाँ शायद, लेकिन शायद क्योंकि वो उनके इलाके में कुछ करता ही न था तो ‘पकड़ते कैसे ?’‘

‘‘नहीं मम्मी मुझे लगता है नानाजी ने भी.....’‘

‘‘छोड़ो इसे .... अब सो जाओ .... कहानी खत्म पैसा हजम ’‘

बेटू फिर से पूछ रहा था-

‘‘मम्मी लास्ट क्वेश्चन, ‘‘क्या ये कहानी थी या सचमुच की कोई घटना ? सच-सच कहना मम्मी।’‘

मेरे बेटे को तो मैं यकीन दिला चुकी हूं कि ये मेरी इमेजिनेशन नहीं थी, बल्कि मेरी मम्मी के साथ घटी खरे सोने-सी सच्ची एक घटना थी, आप को यकीन न आए ऐसा तो इसमें कुछ नहीं  !

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5-

बहुत कुछ है बाकी

वरदा के काटो तो खून नहीं ! भौचक्की सी कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रही थी वह। कहीं प्राणों का कोई स्पंदन नहीं रह गया था मानो। दिल की धड़कनें थीं कि न जाने किस युग में जा ठहरी थीं, क्लांत मन अतीत के न जाने किस भूले-बिसरे गलियारे में गुमा जाता था ़ ़ ़ हां कैशोर्य से गुजर कर युवावस्था में कदम रख चुकी थी तब वह। उस गुमशुदा मगर पुरअसर गलियारे को वह कैसे भूल सकती थी कि जिसमें विचरते-टहलते उसने भावी खुशनुमा जीवन के न जाने कितने ख्वाब बुने थे रोहित के साथ। रोहित, वही रोहित कि जो अर्सा पहले तक उसके रग-रेशे में यूं शामिलरहा जैसे हवा में आॅक्सीजन, जैसे जल में तरलता, जैसे नसों में खून और खून में लाल रंग ! कोई इन्हें कैसे जुदा कर सकता था ? लेकिन ओह ! वरदा का तेज-तेज धड़कता हृदय वह क्षण भी भुला नहीं सकता जब तेत्तरी बहन के विदा होने के साथ ही घर की सारी श्री-समृद्धि भी बिदा हो गई थी। निठल्ले तीन बड़े भाई, असहाय लकवाग्रस्त पिता और उनकी गृहस्थी को जब केवल वरदा की नौकरी का ही सहारा था, तब नियति के आगे किसकी चलनी थी ? रोहित के माता-पिता ने वरदा की छोटी बहन को रोहित के लिये पसंद कर लिया क्योंकि वे समझते थे कि नौकरी वाली बहू शायद निबाह कर नहीं चलेगी ! तब वरदा के परिवार ने जो चैन की सांस ली थी उसकी आंच में जीवन भर तपती आई थी वरदा।

धीरे-धीरे भाईयों की गृहस्थियां बस चुकी थीं और इन्हीं में से किसी के अथक प्रयास से, सायकल के कलपुर्जों का नाममात्र का व्यवसाय करने वाले, बड़ी भाभी के नाकारा से ही कहे जा सकने वाले एक अधेड़ भाई से वरदा के फेरे करवा दिये गए थे। हींग लगा न फिटकरी, हो गई थी एक बेटी, एक बहन के प्रति कर्तव्य की इतिश्री।

वरदा ने सोचा था कि शायद पति के घर उसे सुकून मिलेगा। उसका अपना घर होगा वह, जहां उसके अपने किन्हीं भूले-भटके सपनों को पनाह मिलेगी। मगर यहां भी ़ ़ ़ ओह री किस्मत ! कितनी कृपण थी
उसकी किस्मत कि पति के पास उसे देने को कुछ था ही नहीं। रूपया-पैसा तो खैर उसकी कूबत में ही न था, मान-मुहब्बत और पौरूष रूपी सर्वस्व भी वह अपनी भाभी पर लुटा चुका था, लुटाने से बाज न आता था।
सो एक खाली कनस्तर सा, निचुड़ा-सूखा सा वह आदमी वरदा की मांग का सिंदूर बन गया जो हर माह उसकी मोटी कमाई झपटने और बिजूका सा बन उसकी पल-पल चैकसी-चैकीदारी करना ही अपना पति धर्म समझता था।

चोट खाया, बौराया तन-मन लिये वह भरसक संभल-संभल, खुश दिखने के ढोंग करती, जमाने को बेवकूफ बनाती रही पर एक कमजोर पल में रोहित जीजू के साथ ने उसकी इस दिखावट की सारी बखिया उधेड़ कर रख दी थी। पति की सारी चौकीदारी धरी की धरी रह गई थी।

रोहित के संग ब्याही बहन कमाल की पेंटिंग करती थी। एक पेंटिंग में प्रसंग था कि राधा अपनी नाजुक कमर पर गगरी लिये इठलाई खड़ी है पीढ़े पर अपना एक पैर रखे, राधा के उस पैर पर कृष्ण आलता लगा रहे हैं।

कृष्ण ने राधा से मिलने के लिये आलता लगाने वाले का रूप बनाया था मगर कृष्ण कहां छिपते थे ?
वे तो सरासर पहचाने जाते थे। अपना बचाव तो बराबर कर लेते थे, लेकिन राधा को लांछन से वे कब
बचा पाए ?

इस पेंटिंग के पूरी होते न होते रोहित और वरदा में वह घटित हो गया था जो वरदा और उसके पति में कभी मन-प्राण से न घटित हो पाया था। निःसंदेह रोहित भी अपनी पत्नी के लिये वैसा ही पति रहा होगा।
दबी-घुटी इच्छाऐं राख में चिंगारी सी दबी थीं, तनिक कुरेदते ही शोले भड़क उठे।
उन शोलों की आग में बहन का जीवन स्वाहा हो गया। अपने शक को सच पा कर भी वह मौन रह गई। उसकी क्या मनोगति रही होगी उसने किसीसे कुछ न कहा, न कोई उलाहना-शिकवा ही किया। बस् एक   रोज तपती-जलती दोपहरी में ढेर सारी सल्फास की गोलियां उसने अपने कंठ में डाल ली थीं। उसे बचाया न जा सका। क्योंकि कौन चाहता था उसे बचाना ? बीमार थी, पीलिया हो गया था, टीबी के लक्षण थे,
हैजा भी हो गया था। क्या-क्या न बहाने गढ़कर रोहित ने आनन-फानन सुहागन की सजी अर्थी को अपना कंधा दे कर पति होने का अपना फर्ज पूरा कर लिया था। तब वरदा को उसके जमीर ने लताड़-लताड़ कर, झिंझोड़ कर पूछा था कि कौन है आखिर कौन है बहन की मौत का जिम्मेदार ? मगर ऐसे में समय व
परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहराने में माहिर हो चुके वरदा और रोहित दोनों के लिये ऐसी फटकारों के कोई मायने रह ही कहां गए थे ? सो जमीर बेचारा नाहक ही उछल-कूद कर रह गया गरीब !

अब, नाकारा, काहिल पति के साऐ में वरदा को रोहित से वह सब अब मुक्त रूप से हांसिल हो रहा था जिसकी एक पत्नी को तमन्ना होती है लेकिन फिर वाह री किस्मत ! इधर वरदा मां बनी उधर यहां रोहित के पिता का बिजनेस डिजल्व हो गया। मानो दोनों घटनाऐं साथ-साथ ही घटित हुईं थीं। वे लोग दीवालिया घोषित हुए, समय की आंधी न जाने उन्हें यहां से कहां उड़ा कर ले गई, कोई जान न पाया।

रोहित ने भी वरदा को यूं भुला दिया जैसे वह उसे जानता ही न था। रोहित यूं स्वयं तो चला गया था मगर नन्हें मोहित के रूप में वरदा के पास अपना वह अंश छोड़ गया था जिसके सहारे वरदा को जीने का वरदान मिल गया था। नन्हें, प्यारे, लुभावने मोहित को पा कर वरदा तो अपने सारे दुख भूल गई थी। मोहित को देख रिश्तेदार-परिचित लोग कहते कि ’वह अपने पापा पर बिल्कुल नहीं गया।’

वरदा हंसती। मन ही मन कहती ’‘अरे बेवकूफों, अपने खुद के पापा पर ही तो गया है !’‘ उपरी तौर पर कहती ’‘बच्चों का क्या है? वो तो सात पीढ़ियों में से किसी पर भी चले जाते हैं।’‘ लेकिन-

कुछेक लम्पट-चंपट औरतें मजाक ही मजाक में अपने शक को जाहिर करने से कहां बाज आती थीं-

’‘पीढ़ियों पर ही तो जाते हैं। ये तो अपने कुल-परिवार का लगता ही नहीं। बताओ  तो  कांछे उथा के लाए हैं इछे ?‘’ लड़िया-लड़िया कर सुना देतीं उनमें से अनेक।

कहती रहो, बकती रहो, झींकती रहो ससुरियों-वरदा को परवाह नहीं थी। दूसरी तरफ पति को भी परवाह न थी क्योंकि वरदा को एक झुनझुना मिल जाने से अब वह पति की जान खाने को उधार नहीं बैठी रहती थी।

वक्त का दरिया बहता रहा। इसके किनारे सूखी सी, निपट अभागी सी जिंदगी लिये खड़ी रह जाती वरदा यदि मोहित न होता उसके अंक में।
मोहित, मोहित और मोहित, उसके पल-छिन सब मोहित के हवाले हो गए थे। भाड़ में जाए चरित्रहीन पति, उसकी दुश्चरित्र भाभी, उसके ऐरे-गैरे नत्थू खैरे नाते-रिश्तेदार सब ससुरे जाऐं भाड़ में। मन ही मन बड़बड़ती वरदा अपने मोहित को बड़ा करने में सब कुछ भूल सी गई थी। पइयंा-पइयां चलते-खेलते, झूझू झुलाते, तुतलाते, इठलाते लो मोहित तो बड़ा भी हो गया था !

और लो, उसका एक मल्टीनेशनल कंपनी में जाॅब भी लग गया ! मोटे वेतन ने पिता के हृदय को बेटे के प्रति वात्सल्य से लबरेज कर दिया। अब तक बाप-बेटे में जो दूरियां रहीं थीं वो पैसे ने पलक झपकते मिटा दी थीं। क्यों इतनी ताकत होती है नोटों की बेजान कड़कड़ाती गड्डियों में ? दिल-दिमाग, प्यार-मुहब्बत, जात-पात, रंग-रूप, नाते-रिश्ते सब पर क्यों कर भारी पड़ जाती हैं ये कड़कड़ाती गड्डियां ? उफ !

इन्हीं गड्डियों के बल पर पिता का प्यार खरीदे ले रहा था मोहित। खासा दुनियादार निकला था। खूब खुश रहो, सदा फलो फूलो मेरे लाल !
वरदा की आर्शीध्वनि थमती न थी। उधर, पिता के अधूरे सपने, ख्वाहिशें जैसे पूरे होने का नाम न लेते थे। नई बाइक हो, कार हो, मुहल्ले की दुछत्ती से परे किसी पाॅश काॅलोनी में डुप्लेक्स हो, एसी हो, नई डिजाइन का फर्निचर हो।

बेटा न हुआ अलादीन का चिराग हो गया। खुद वरदा के भाव बढ़ गए थे। कमाऊ पूत की मां का रूतबा जो हांसिल हो गया था। स्वयं की कमाई तो अब मिट्टी लगने लगी थी। जीवन में पहली बार अब उसे बेटे के राज में स्वयं की पसंद से जीने-पहनने का सौभाग्य मिला था।

सही मायनों में वह अब अपने को सुखी पाती थी। पति पर रौब चलता था, जेठानी-देवरानियों पर ऐंठ दिखलाती थी। चाहे चलानी न आए मगर घर में कार थी, चाहे रहने का तमीज सीखनी पड़ रही थी मगर पाॅश काॅलोनी में मकान था। नए जेवर, साड़ियां देख मुहल्ले वालियों के हृदय धू-धू कर जलते ही होंगे तभी ना वे एक दूजी को वरदा की नजर बचा कर कोहनी मार के बतिया ही लेती थीं। मारो गोली स्सालियों को।

ये दबी-घुटी औरतें कब सुधरनी हैं ? ये तो पैदा ही सड़ने को हुई हैं। उसे तो अब मोहित की बहू लाने की सोचना चाहिये वरना कहीं ऐसा न हो कि महानगर की कोई चंचला उसके सोनपाखी को अपने जाल में फांस ले।

वरदा का चिंतित होना स्वाभाविक था क्योंकि सब कुछ ठीक होने के बावजूद भी न जाने कुछ ऐसा क्या था कि मनचाहे रिश्ते नहीं आ रहे थे, और जो आते थे वे पिता की लपलपाती मांगों की भेंट चढ़ जाते थे।

इस सबसे, सारे देहातीपन से मोहित को कोई फर्क नहीं पड़ना था। वह तो इस भुच्च देहाती स्टाइल के लोगों से नफरत करते ही बड़ा हुआ था न। ये सब तो वैसे ही थे जो अपनी गंदगी देखे बिना दूसरों के अंदरूनी जीवन में ताक-झांक करते, खंगालते मरे जाते थे। जैसे छलनी सुई को छेड़े-उलाहना दे कि तेरे में एक छेद है !!! मोहित जरूर बेफिक्र था मगर वरदा के दिल की धुकधुकी कम न होती थी।

और उस रोज,

सब कुछ वहां बड़ा पाॅश था। पाॅश लोकेलिटी, पाॅश मल्टीस्टोरी बिल्डिंग जिसमें फ्रंट लोकेशन का पाॅश फ्लेट ़ ़ ़ पाॅश, पाॅश और बस् पाॅश से गुजरते हुए वे लोग उस पाॅश ड्राइंगरूम में पहुंचे तो मानो वे दोनों चित्रखचित से ही रह गए थे। उन दोनों की हालत चमत्कृतों सी ही थी। हालांकि मोहित ऐसे माहौल में एकदम नाॅर्मल था।

वरदा दिल ही दिल में कहीं आश्वस्त हुई कि आखिर मोहित का संबंध एक ’ऊँचे परिवार’ में होने जा रहा था। धड़कते दिल को काबू में करने की गरज से, उसने मंहगे सोफे में धंसते हुए, ड्राइंगरूम में नजरें दौड़ाईं - -    
कि तभी अचानक वरदा और उसके पति की नजर पड़ी थी रूम के उस कोने में जहां बड़े सलीके से मंहगे फ्रेम में सजी एक पेंटिंग लगी थी-

और ़ ़ ़

भीतर-बाहर सिहर सिहर गई थी वरदा। उसे काटो तो खून नहीं। कुछ ऐसे ही हालात से गुजर रही थी वह। कहीं प्राणों का कोई स्पंदन नहीं था मानो। मोहित ने अपनी पसंद की लड़की से मिलवा कर ये क्या हालत कर दी थी वरदा की ? कि उसे काटो तो खून नहीं !

’‘मम्मा, शीनी के पेरेंट्स टू वीक्स के लिये बेंकाक गए हुए हैं। मैं भी अभी मिल नहीं पाया हूं उनसे, जबकि मैं और शीनी पिछले डेढ साल से एक दूसरे को जानते हैं। आप शीनी को जरूर पसंद कर लंे माॅम क्योंकि अगर यह आपको पसंद नहीं आई तो ़ ़ ़ ‘‘ मोहित मां से तो पिता शीनी से मुखातिब थे।

’‘तो तुम्हारे माता-पिता भी रायपुर से हैं ? उन्होंने किस सन में, कब मुंबई आकर अपना बिजनेस डाला ??? ऐं ? अच्छा ़ ़ ़ अच्छा, अरे ! ओह ! अरे वाह ! वा !’‘

वरदा के कानों में पिघला सीसा सा गिरा जाता था। उसकी फटी-फटी सी आंखें जा चिपकी थीं भव्य ड्राइंगरूम के उस निहायत नफीस कोने में कि जहां सजी थी एक वह पेंटिग जिसमें राधा अपनी नाजुक कमर पर गगरी संभाले अपना एक पांव पीढे पर रखे इठलाई खड़ी, कृष्ण से आलता लगवाती थी। ़ ़ ़

शीनी के शब्द वरदा के कानों में पिघलता सीसा बन, तो हृदय पर हथौडा बन कर बरस रहे थे। शीनी अपनी मधुर आवाज में बता रही थी-

’‘इट्स माय पापाज फर्स्ट वाइव्ज पेंटिंग हू हेड डाइड आॅव काॅलेरा, दे वर इश्यूलेस एट दैट टाइम, दैन सम ईयर्स लेटर माय फादर केम टू मुंबई, सैटल्ड हिज बिजनेस हियर ऐंड मैरीड माय माॅम ़ ़ ़’‘

वरदा के मनोभावों से अनजान, उसके इस काले अतीत की अतल गहराई से बहुत कुछ अनजान उसके पति खुशी से उछल न पड़ते तो क्या करते ?

’‘अरे रे ! मेरी सब समझ में आ गया, सब समझ में आ गया। ये तो अपना ही घर है। रोहित मिल गया, रोहित मिल गया।’‘

वरदा का कलेजा मगर टूक-टूक हुआ जाता था। कैसे संभाले वह अपने आप को ?

रोहित तुम क्यों मिले अब ???

’‘मम्मा अगर आपने नापसंद कर दिया तो मैं और शीनी कोर्टशिप कर लेंगे।’‘

नहीं नहीं, मेरे बच्चे नहीं। वरदा की आंखों में उसके जीवन का सारा दर्द उतर आया था। नहीं मेरे बच्चे।

यह कैसे होगा ????
बड़बड़ाती, कसमसाती वरदा सोफे पर ढेर हो गई थी। उसकी लुप्त होती चेतना में उसे दिख पडी थी उसकी वह बहन जिसकी असमय, दुखद मौत का बदला लिया जाना शायद अभी बाकी था !

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6-

जवाब

सौतेले भाई ने केवल ये बताने को फोन किया था कि पिता का रात अंतिम पहर देहांत हो गया था, और निःसंदेह सुमि ने भी केवल यही सुनने को फोन अटेंड कर लिया था। . . .  फोन सुनने के बाद उसके मन में कोई एक सन्नाटा सा गूंजता था किन्हीं पलों के लिये। एक वितृष्णा भरा सन्नाटा !

’’तो पिता नहीं रहे !’’

पिता यानि वो जनक कि जिसके जीवन में उसका रोल सिर्फ एक गल्ती की सजा पाने से अधिक नहीं था। जिसने उसे केवल इसलिये जन्म लेने दिया था कि तब उसे मार देने का कोई बेहतर तरीका उनके पास न था। या, तब ऐसे अनेक जनम हो ही जाते थे जो ऐसे जनक के लिये कोई मायने नहीं रखते थे। हां, इसी तरह जन्मी थी वह और उसकी बड़ी बहन। एक बेमेल विवाह का नतीजा थीं वे दोनों कि जिसमें पिता कस्टम की अपनी रसूख वाली नौकरी में सुरा-संदरी में रमे रहते थे और मां ? मां के पास इस गम में पागल हो जाने के सिवा कोई चारा न रहा था। सो मां ने मानसिक रोग की अधिकता में मूक बन कर उन दोनों बहनों के भविष्य पर मानो रेड़ ही मार दी। यह अंधे धृतराष्ट के साथ गांधारी
द्वारा अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेने जैसा ही तो हुआ।

पागलपन की शिकार हो मां के लिये सारी दुनिया के कोई मायने न रह गए थे और उन दोनों बहनों को पालना ताई-चाची के लिये पहाड़ सा हो आया था। बस्। पिता ने आनन-फानन बड़ी बहन को जहां जो सामने आसानी से मिला
एक बाबू से ब्याहा और दूसरी के ब्याह का इंतजाम करने को ही थे कि बड़ी बेटी ने मायके आ कर इधर बेटा जन्मा, उधर उसने नीला थोथा खा कर प्राण तज दिये। पिता का सारा इंतजाम वह धरा का धरा छोड़ गई थी।

’’लो, अब इस पिल्ले को और पालो !’’ कहती न थकती थीं वे चाची-ताईयां कि जिनके चूल्हे पिता के बल पर ही जलते थे। रें रें करती नन्हीं सी जान, पागल मां, शराबी, बदचलन पिता, पिता से छुप कर बक-बक करती ताई-चाचियां और सारे घर में छाया अजीब, बेबस सा, निरीहता भरा अनचाहा माहौल। तब उसके जीवन में सागर ने प्रवेश किया था। सागर को देख वह खुशी से पगला ही तो गई थी। अपना सारा गम भूलने लगी थी। जिंदगी जीने लायक लगने लगी थी कि इसीने, जिसे उसका पिता कहा जाता था, इसीने एक अहम् फैसला ले कर उसकी जिंदगी का सारा नूर उससे छीन लिया था। तब लगता था कि कोई दावानल जले और वो उसमें कूद पड़े। बस कूद पड़े कि फिर कहीं कुछ न रह जाए।

’’मैं नहीं करूंगी जीजा से ब्याह !’’

कितना कितना तो कहना चाहती थी वह मगर कह पाई ?

कहीं भाग जाने की, कहीं जा कर छिप जाने की, कहीं जा कर मर जाने की कोई सोच काम न आई और किसी ईश्वरीय चमत्कार की आशा लिये उसे उस जीजा से विवाह करना ही पड़ा था जो उसे अपने जीजा के रूप में भी कभी अच्छा न लगा था। पति के तौर पर उसे पा कर तो उसे उबकाई के दौरे के दौरे पड़ते थे।

उसके पति ने उस पर पहली ही रात स्पष्ट कर दिया था कि उसे अपने ही निकट संबंध की, रिश्ते में बहन कही जाने वाली किसी सगोत्र युवती से प्रेम था जिससे उसका विवाह नहीं हो सकता था।

’’विवाह भले न हो सके किंतु संबंध तो रखे ही जा सकते हैं !’’ कहता था वह ठीठ ! और उतनी ही ठीठता से बताता था कि पहली शादी भी उसके पिता द्वारा नौकरी दिलवा देने के कारण की थी। और उसी परिवार की लड़की से उसने ये दूसरी शादी भी उस नौकरी को पक्का करा देने के आश्वासन पर ही की है। वरना कोई वजह न थी कि इतना संुदर, लंबा नौजवान उस जैसी कूबड़ सा निकाले, मुंह फुलाए घूमते रहने वाली सांवली-काली मरगिल्ली से ब्याह करता। सो,

‘‘मुझे अपनी प्रेमिका  के पास जब, जहां, जैसे जाना होगा जाऊंगा। वो भी पर्व-त्यौहार या के जब हम दोनों चाहेंगे यहां आऐगी, तुझे इससे कोई मतलब नहीं रखना है। ये बात तेरी बहन को भी समझाई थी उसे समझ नहीं आई। तुझे भी समझा रहा हूं। समझ में आए तो ठीक, नहीं आए तो जहां तेरी बहन गई तू भी जहां मर्जी हो अपना ये बिजूका सा मुंह उठाऐ जा सकती है।’’

इतना-इतना अपमान और सबसे बढ़ कर बड़ी बहन की मौत का राज पता चलने पर वह सन्न सी रह गई थी। एकबारगी मन हुआ कि घर जा कर पिता को बताए, शायद उनमें बेटी का ममत्व जागे। किंतु फिर लगा कि नहीं ! वो निष्ठुर बाप जो अपनी रंगरेलियों के लिये अपनी बेटियों से यूं पिंड छुड़ा रहा है उसे कौन ममता घेरेगी ? वह तो मां और हम सबकी मौत की प्रतीक्षा ही कर रहा लगता था।

ओह् ! पहली ही रात मगर इतना दर्द व अपमानजनक सब सह कर भी उसे तसल्ली हुई थी कि चलो उसे अनचाहे, एक गलाजत भरे संबंध को नहीं ढोना पड़ेगा किंतु कहां ? कहता पति कुछ और था किंतु उसकी देह का पोर-पोर तो वह अधिकारपूर्वक नोंचता ही था। विवाह जैसे पवित्र कहे जाने वाले रिश्ते से उपजी उस वितृष्णा का कोई ओर-छोर ही न था, उससे बचने का कोई तरीका न दिखता था उसे। तब लगा था कि मां के पागलपन के बाद अब पागल हो जाने की स्वयं उसकी बारी तो नहीं थी शायद ?

उधर चाची-ताईयां इधर सास-ननद, जेठानियां। एक बेसहारा लड़की का तब भगवान भी सहारा न था। वह जाती तो कहां जाती ? सागर ने यूं मुंह मोड़ लिया था मानो उसे जानते ही न हों। मायके आ कर उसने कुछ मदद भी चाही तो-

’’यूं बनो भी मत बन्नो, इस तरह की आशिकी यहां नहीं चलेगी। अपने घर जा बसो अब। लड़की का ठिकाना उसके पति का घर ही होता है।’’

चाची ने उसे खरी खरी सुनाने में कब देर की थी ? चाची-ताई अब उससे पूरी तरह पिंड छुड़ाने को आतुर थीं। पिता ने तो अपनी दोनों बेटियों से कभी कोई संबंध रखा ही कब था ? वे तो उनके ब्याह निबटा कर बस गंगा नहा गए थे।

’’दूधों नहाओ पूतों फलो।’’ आशीर्वाद दे दे कर ब्याह दिया और बस् अब बेटी की चिंता अगले शिकारी पर डाल वे एकदम निश्चिंत हो अपने खेल में जा रमे थे। वो तो गनीमत थी कि बड़ी बेटी ने आत्महत्या प्रसव के दौरान की थी, इसमें उसकी आत्महत्या की सब पोल दब दबा गई वरना नाहक ही पुलिस और बदनामी का दाग और लगता।

‘ईश्वर ने बचा दिया है अब तू वहीं निभा, तेरी बहन का बच्चा पाल और खुश रह।‘ यही आशीर्वाद था कि आदेश था पिता का, जिसे लिये-लिये या कि ढोते-ढोते ही अब उसे जीना था।

तब कितने जोड़-तोड़ करती थी वह कि बस् एक बार कुछ तो ऐसा हो जाए कि उसे उस घिनौनी जिंदगी में न घुसना पड़े। गनीमत थी कि उस जमाने के लायक थोड़ा सा पढ़ गई थी। सो किसी तरह उसे वह एक मामूली सी टीचरशिप
मिल गई थी।

वह दौड़ गई थी जाॅइन करने। सोचा था अलग रह कर अपना जीवन जिएगी किंतु कहां ? उस छोटे से कस्बे में पिता-पति के नाम से ही मकान किराए पर मिलना था, इसी पहचान के सहारे वह जी सकती थी। बहुत ही जल्दी मांग में भरे सिंदूर और गले में लटके मंगलसूत्र की महत्ता व क्षमता उसे समझ में आ गई थी। इसे चिपटाए-लटकाए रख कर ही उसे अपनी लड़ाई लड़नी थी अब उस समाज में कि जिसमें अकेली औरत का कोई वजूद ही न समझा जाता था।

नौकरी पा जाने से निष्ठुर चाची-ताईयों के या उनसे भी डेढ़ गुना आगे ससुरालियों के पास पड़े रह कर उनके दुधारी
शब्द-बाण सुनने से अब वह कुछ बच गई थी। सोचती थी कि कहीं ठीक-ठाक जगह पर आ जाए तो मां का ठीक से इलाज कराऐगी किंतु मां तो एक दिन अपना इलाज कराए बिना ही अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गई थी चुपचाप।

’’तुझे शरम आनी चाहिये कि उस बच्चे के कारण तुझे इतना अच्छा पति और ससुराल मिला है और तू उस बच्चे को नहीं संभाल रही। सीधी अपने ससुराल जा नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।’’

अपने स्वार्थों व लिप्साओं के लिये सारी बेशर्मी के दलदल में डूबा वह उसका जनक उसे शर्म का पाठ पढ़ाता था। सुमि
में हिम्मत नहीं थी कि सबके सामने पिता को कोई जवाब दे। हालांकि वह सोचती थी कि मां से रिश्ते की जो डोर थी उसके टूट जाने के बाद अब उसे अपने पिता व उस घर से कोई चीज नहीं थी जो जोड़ती हो। किंतु वो डर ?

वो डर एक ऐसे अटूट रिश्ते को कायम रखता था जिससे उसका कहीं कोई छुटकारा न था। और इस तरह, मां की मौत के बाद का कारज निबट जाने पर पिता ने उसे जबरदस्ती पति के साथ ससुराल भेज दिया। जहां पहुंचते ही उसकी सास ने वो रिरियाता, नाक बहाता, कमजोर सा मातृहीन बच्चा उसकी गोद में डाल दिया था। चौतरफा एक गलाजत, नफरत, दुख, अवसाद व हताशा से भरी सुमि को कहीं से नहीं लगा कि वो उसकी अपनी बहन का बच्चा था। उसे वो बच्चा बस एक जंजीर ही लगा था। एक रें रें करती, बजती जंजीर। कैसी तो निष्प्राण, निष्ठुर हो आई थी वह। स्त्री के रूप में इतना कुछ सह-सह कर क्या वो एक स्त्री नहीं रह गई थी ? ममत्व का कोई दौरा न पड़ता था उस पर। क्यों ?

’’जहां चाहे जा लेकिन इस आफत के पिटारे का अपने साथ ले कर जा। न सोने देता है न जीने देता है ठीक से।’’

पति ने साफ साफ कह दिया था। उसके सामने कोई चारा न था और छुट्टियां खत्म होने को थीं। आखिर उसे उस बच्चे को अपने साथ ले जाना ही पड़ा।

’’कैसी मां हो बाई ? बच्चे को संभालो, रिक्शे से गिर गिरा गया तो मेरे रिक्शे की बदनामी कराओगी।’’

रिक्शे वाले ने उसकी लापरवाही पर उसे लेक्चर पिला दिया था। अभी तो खुद उसीकी उमर बच्चों जैसी थी, उस पर ये बला। क्या जरूरत थी उसकी बहन को इसे पैदा करने की ? और क्या ये नहीं हो सकता था कि बहन इसे भी अपने साथ ले जाती ? पूरे समय रें रें रें रें। इसीसे मुक्ति नहीं थी उधर- -  -

पति की जोर जबरदस्ती का एक परिणाम खुद उसकी कोख में पलने लगा था। उसे पता चला तो उसने क्या-क्या कोशिश नहीं की थी कुछ जड़ी-बूटियां और न जाने क्या-क्या तो खा-खिला कर उसे भीतर ही भीतर मिटा डालने की। लेकिन वो सच ही कहा है जाको राखे साईंया ़ ़ ़। उसे तो आना ही था और वो आ ही गई थी।

’’लो, लक्ष्मी जनी है लक्ष्मीजी ने।’’ लोकदिखावे के लिये पति डिलिवरी के लिये उसे साथ लिवा ले गया था मगर एक-एक पाई को अपने कब्जे में करके। ससुराल में कोई खुशी नहीं, मायके में कोई खुशी नहीं। पिता को कोई खुशी नहीं, मां को कोई खुशी नहीं। ऐसे जनम गई थी उसकी पहली संतान। कितनी हताशा, निराशा में घिरती, मरती-खपती,
गिरती-पड़ती जीवन जिये जा रही थी वो। यदि इसे ही जीवन जीना कहते हैं तो। किसी तरह बस किसी प्रकार काट रही थी अपने दिन। दोनों बच्चे उसीकी जिम्मेदारी थे। और उसका चोट खाया तन-मन इस जिम्मेदारी को छोड़ कहीं भाग जाना चाहता था। मगर कहां ? न जाने कहां। वो खुद नहीं जानती थी।

बरस पर बरस बीतते गए, मां के जाने के तत्काल बाद पिता ने अपनी उसी सहकर्मी के साथ अपने विवाहेत्तर संबंधों पर सामाजिकता की मोहर लगाने में देर न की थी जिसके कारण मां को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। कभी मां को कोसती थी वह कि यदि घर संभाला होता तो उसे यूं दर-दर की ठोकरें न खानी पड़तीं। मगर अब पति के वैसे ही संबंधों के चलते उसका मन बेहाल हुआ रहता था। अब मां की मजबूरी समझ में आती थी। गनीमत थी कि वो मां के जितनी लाचार न थी क्योंकि अपना जीवन चलाने लायक कुछ तो कमाती थी।

इस जीवन में यदि कभी कोई खुशी उसने पाई थी तो वो अपने प्रमोशन के रूप में ही पाई थी। कोई और बात उसे खुशी न दे पाती थी। टीचर से होते होते वो एडीआई तब पहुंच गई थी और उसके लिये तसल्ली की सबसे बड़ी बात ये थी कि पति बस् बाबू का बाबू ही रह गया था। दिखाने को वो अब भी अपनी ऐंठ दिखाने में ही लगा रहता था लेकिन बड़े हो रहे, उसके लिये सहारा बनते जा रहे बच्चों के साथ वो अपना अलग ठिकाना बना चुकी थी जहां उसकी अपनी चलती थी। किसीको रहना है तो रहो, मरना हो तो मरो। घर-बाहर की विकट परिस्थितियों ने उसमें एक बेशर्मीभरी ढिठाई ठूंस-ठूंस कर भर दी थी। इसीके चलते वो अपने आप को जीने के लायक बना सकी थी। अपने लिये शहर में एक घर खरीद कर उसने दोनों बच्चों की परवरिश और अपनी नौकरी में खुद को लगा दिया था क्योंकि इसके अलावा कोई चारा भी न था उसके लिये। दोनों बच्चे मार-डांट खा खा कर, रोते-गाते न जाने कैसे बड़े हो लिये थे, और एक दिन-

इंजीनियर बन चुके बेटे ने उसके सामने अपनी एक सहकर्मी ला खड़ी कर दी थी। बेटी ने भी अपनी पसंद का लड़का चुन लिया था। उसे कोई एतराज न था सिवाय इसके कि दोनों की पसंद विजातीय थी। पर तुरंत उसे खयाल आया था कि अपनी ही जाति-समाज वालों ने कब कोई साथ दिया ? सबने जी भर के जैसी-तैसी बातें ही तो बनाईं। तो भाड़ में जाऐं जाति व समाज ! अच्छा था कि बच्चे अपने मनपसंद जीवनसाथी के साथ तो रहेंगे। पति और उसके परिजन टांय-टांय करते रह गए थे, मगर उसने कब से उन पर ध्यान देना बंद कर दिया था। उसने दोनों बच्चों की शादियों में उन लोगों को कार्ड तक न भेजा था। उसकी धीरे-धीरे बढ़ चली दिलेरी हालांकि पति व पिता को बेहद नागवार गुजरती थी मगर अब वह कुछ कर न पाते थे। चाचियों-ताईयों से रिश्ता तोड़े तो जमाना बीत गया था। अब दोनों तरफ उसका था ही कौन ? मरो तुम सब, इसी लायक हो कि तुम्हारे मुंह किसी शुभ कार्य में नहीं ही देखे जाऐं !

उसे जीवन भर ये गम कचोटता था कि वह अपनी पसंद के जीवनसाथी के साथ न रह पाई थी। पूरे जीवन उसे एक अनचाहे आदमी के साथ अपना तन बांटना पड़ा था जो कि उसके लिये किसी बलात्कार से कम न रहा था। कैसा
लगता होगा अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ जीवन बिताना चाहे वह कुछ ही दिनों का क्यों न हो ?

प्रेम विवाह करने वालों को समाज अक्सर ही कोसता पाया जाता है, कहा जाता है कि उनके विवाह जल्दी ही टूट जाते हैं। समाज में भली बनने को वो भी इस चर्चा में हां में हां मिलती आई थी किंतु अरेंज मैरिज में जो घुटन, जो अनाचार होता है उसका कोई जवाब किससे पूछे वो ? और फिर, अरेंज मैरिज में क्या तलाक नहीं होते ? इनमें भले ही तलाक दिखते नहीं मगर एक ही छत के तले मन ही मन तलाक हुए रहते हैं। इसे कौन नहीं जानता ? खुद पिता ने मां को क्या दिया था ? इससे तो बेहतर था कि मां-पिता का तलाक हो गया होता। मां को यूं तिल-तिल कर मरना तो नहीं पड़ता। हो सकता हो मां भी किसी अन्य को चाहती रही हो, उन्हें मजबूरी में पिता के साथ रहना पड़ा हो। अपने मनमाफिक
कोई पति उन्हें मिला होता तो कोई और ही बात होती।

उसके मन के किसी कोने में प्रेम विवाह न हो पाने की मजबूरी दबी छुपी तो रह ही गई थी। अक्सर सोचती थी कि कैसा होता जीवन जो सागर मिल गए होते ? सागर का दिलफेंक स्वभाव जैसा बाद में पता चलता गया, शायद अभी तक तो उसका उनसे तलाक हो गया होता किंतु जो अनमोल क्षण उसके हाथ लगे होते उनकी तुलना तो किन्हीं क्षणों से नहीं की जा सकती न ? वो तरस-तरस कर रह जाती थी उस अनमोल अनुभव के लिये जो सागर की बाहों में उसे मिला होता, यदि उसके पिता ने उसके जीवन में काड़ी न लगाई होती।

इसी पिता ने उसे और उसकी बहन को अवांछित समझ समाज के सामने किसी तरह बस् अपना फर्ज पूरा करने का जो ढोंग किया उस ढोंग के चलते उसकी बहन व मां तो दुनिया से ही कूच कर र्गइं और वह बची रह गई तो भी प्रति पल पिता की करनी को भोगने को ही बची रह गई थी। उसकी पूरी जिंदगी इसीमें होम हो गई लगती थी।

क्या पिता कभी समझ सकते थे कि कच्ची उमर में उन्होंने अपनी बेटी को जिसके हवाले किया था वो क्या, कैसा जानवर था ? अपनी पत्नी व बेटियों से पल्ला झाड़ कर उन्होंने तो अपनी मनचाही जिंदगी जीने का रास्ता साफ कर लिया था किंतु वह विवशता की अनेक बेड़ियों में न चाहते हुए भी जकड़ी हुई थी। उन्होंने फिर कभी उससे मिलने की, अपनी कोई जायदाद, कोई विरासत उसे देने की कोशिश तक नहीं की। शायद उन्होंने कभी उसे अपनी बेटी समझा ही नहीं। तब वही क्यों पिता-पिता की रट लगाए रहे ? सब तो जानते थे कि कैसे थे उसके पिता। उन्हीं पिता के कारण उसे पति नाम के बलात्कारी को झेलना पड़ा वो भी तब कि जब वो अपने पैरों पे खड़ी थी। उस आदमी से मुक्ति न थी। बच्चे बड़े हो गए, जब उसने अपना अलग घर ले लिया, जब उसके कई प्रमोशन हो गए, और सबसे बढ़ कर जब वो आदमी स्वयं ही शरीर से लाचार हो गया तब कहीं जा कर देहदंड से मोक्ष मिल पाया था सुमि को।

’’किसका फोन था ? बड़ी देर से चुप बैठी हो ?’’ पूछता था पति आ कर।

सुमि  ने भर नजर देखा था, देखा था उस मानव को जिसने उसे एक गिचगिच जिंदगी में ताउम्र लिथड़े रखा, जिसने उसे केवल अपनी हवस मात्र का निवाला बनाए रखा, जिसने जब तक संभव हुआ पैसों व अनचाहे संबंधों के लिये सामाजिकता की आड़ में उस पर अपनी धोंस-दपट चलाई और अब बुढ़ापे में सीधा बनने का ढोंग करता फिरता था ससुरा ! कैसा निरीह सा दिखने लगा था ! बीमारियों से जर्जर होता जा रहा हाड़-मांस का एक चलता-फिरता पिंजर सा। सच् ही कहा है किसीने कि जवानी का दोषी बुढ़ापे में भोगता है। उसे कुछ और न सूझा।

कई बार वह अवज्ञा करती पति की बातों का जवाब देना भी जरूरी नहीं समझती थी। उससे बात करने का तो प्रश्न भी उसे बेमानी लगता था। किंतु जब वह पूछ रहा था कि क्या हुआ था ? किसका फोन था कि वह चुप हो कर बैठी है तो उसका जी हो आया था कुछ न कुछ सटीक जवाब देने को। और बस् उसने कह ही दिया था-

’’उस आदमी की आज मौत हो गई जिसने तुम्हें बाबू की नौकरी दिलाई थी और वह नौकरी पक्की भी कराई थी।’’

इससे अधिक वह कुछ न बोल पाई थी।

वह सोच रही थी कि उसके पास और जवाब था भी क्या ?

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7-

’’चांदी का वरक’’

उस दिन माया का मन कहीं न था। हुआ क्या था उस दिन भला ?

और तो कुछ नहीं बस् इतना ही हुआ था कि कुछ ही दिनों की उसकी दोस्त बनी सहाय मेम ने लौटते में उस दिन पूनम बाई के प्रसिद्ध मिठाईशाॅप पर जरा देर गाड़ी रूकवाई और बेसन व शुद्ध घी के होममेड लड्डू का एक किलो का डब्बा खरीद कर बड़े ही अपनत्व से माया की कार के डेश बोर्ड पर धर दिया था, क्योंकि होली जो आ रही थी ! और बस् ! लेकिन इसमें इतना अपसेट होने की क्या बात हो सकती थी कि माया के तो संभाले न संभलता था उसका मन ? क्या करती, कैसे पार पाती ?

वो कोई वीतरागी, कोई अध्यात्मवेत्ता तो थी नहीं कि मन को काबू करने की कोई तरकीब जानती। सो बस् ढीठ मनवा उसका उचटता ही था रह रह कर !

उन बेचैन पलों में अपनी जिंदगी के बीते हुए एक एक लमहे का ईमानदारी से ध्यान आता था उसे कि कैसे किस्मत ने उसे बेहद अच्छे दोस्तों से नवाजा मगर कुछ ही समय में उन्हें खो देना उसकी नियति बन चुकी थी। अभी पिछले ही दिनों रायचैधरी मेम से भी उसकी दोस्ती का कुछ इसी तरह पटाक्षेप हुआ था। मेम व उन्हीं की तरह के कुछ सुलझे-सुथरे-संभ्रात लोग उसके ओछेपन पर चुप लगा उससे किनारा कर लेने में ही भलाई समझते थे। कोई उसे क्या समझा सकता था ? उसकी ये मानसिक बीमारी कहीं ठीक होती न दिखती थी। सो,

रायचैधरी मेम हों कि शिल्पा, नम्रता हो कि सरला, थोड़े ही दिनों में माया सबसे विरत हो जाती थी। उसके अंदर का खालीपन उसे यूं मजबूर कर देता था कि आगे हो-हो कर बनाए अपने दोस्तों को कुछ ही दिनों बाद कहीं बेतरह जलील कर के ही उसे शांति महसूस होती थी। हालांकि यह स्वाभाविक रूप से तय था कि इस तरह की हरकतों से
वह उनकी ही नहीं औरों की नजरों में भी बुरी तरह गिरती जाती थी। इस तरह उसकी इमेज ही अस्थिर मनोवृत्ति वाली एक कुटनी की बन चुकी थी। वैसे,

उसे कहीं न कहीं पता था कि उसे दोस्त नहीं बल्कि अपने उचटते-भरभराते, गिरते-पड़ते मन को संभालने के लिये दोस्तनुमा टूल्स ही तो चाहिये होते थे। इसीसे, जैसे ही कोई उसे दोस्त समझने लगता, तो बस् उस पर न जाने कैसी एक ओछी मानसिकता हावी हो जाती थी जिसके चलते उसकी पाॅलिश कुछ ही दिनों में उतर ही जाती थी, क्योंकि पाॅलिश तो पाॅलिश ठहरी। और उसके द्वारा सप्रयास ओढ़े गए संभ्रांत चोले पर उसके भीतर का पीतल लाख छुपाने पर भी अपने पूरे सस्तेपन से आ पसरता था।

अपनी इसी आदत के कारण वह कई अवसरों पर स्वयं को एक फुटबाॅल में तब्दील हो चुकी पाती थी, जो कभी इस तो कभी उस पाले में ठोकरें खाती कहीं ठीक से टिक न पाती थी। उसे जानने वाले पुराने बंदे उसे मुंह न लगाते थे। होते होते अब हो यह रहा था कि निहायत ही क्लासी क्लब के बीच वह नापसंद की जाने लगी थी। ज्यौंहीं किसी नए सहकर्मी से उसकी छनने लगती, भुक्तभोगी सहकर्मियों की नजरों में छुपे बंकिम हास्य वह पढ़ ही तो लेती थी। उसे यह भी पता था कि इसी आदत के कारण रह-रह कर वो अपने आॅफिस में गाॅसिप का केंद्र बनती थी। पर नए-नए मुर्गे   फाँसना अब उसकी मजबूरी और कला दोनों बन चुकी थी।

उचटता हुआ मन उसे कहीं न कहीं गरियाता भी था आज कि आखिर क्या कारण था कि जब भी ऐसी परिस्थिति आन पड़ी है, वो घटियापन को यूं उतावली हो उठती थी कि अच्छे बन रहे किसी संबंध से वंचित हो जाती थी।

संबंध के नाम पर उसे ध्यान आया अपने व अपने पति से संबंधों का जो एक छत के नीचे अजनबियों जैसे ही थे। कभी याद नहीं आता उसे कि उसके पति ने उसे समझा हो, हालांकि उसके बारे में पति का भी यही कहना था। उल्टे वो तो हर किसीसे अपना दुखड़ा भी रो लेने में माहिर थे। कोई भी परिचित आया नहीं कि यदि बात शुरू हुई तो फिर उसके पति अपनी कह के ही रहेंगे। भले ही वह कितनी ही उच्चवर्गीय होने का ढोंग करती, औरों को अपने सामने कमतर समझने की कवायदें करती, अपनी पीड़ा सबसे छुपाने में ही अपनी जिंदगी सार्थक समझती, मगर पति तो सबके सामने उसका सारा मुलाम्मा पल भर में उतार फंेकते थे। इसीलिये उसने अपने आप को सब तरफ से सीमित कर लिया था, मित्र-अहबाब, घर-बाहर सबसे कटती जा रही थी वह कि जो भी मित्र-परिचित बना नहीं कि पति ने उसकी शिकायतों का पिटारा खोला। इससे वह आहत महसूस करती थी, जबकि पति तरोताजा। वह अपने हृदय पर भार महसूस करती थी जबकि पति का हृदय हल्का हो जाता था। इस बारे में एक कोई जुमला वे बोलते न थकते थे कई
बार कि-

’’जो दिल खोल लेते हैं यारों के साथ,

दिल उनके ना खुलते अस्पतालों में
औजारों के साथ !’’

हुंह !

’’न जाने कहां से, न जाने क्या देख कर पापा ने  एक एम आर से , इस तोंदू-भोंदू जैसे आदमी से ब्याह दिया था।’’ माया मन ही मन उबलती थी-’’कितनी सुंदर हूं, लोग सच ही तो कहते हैं कि कहीं किसी आईएएस, आईपीएस के बंगले की शोभा बनना था मुझे तो।’’ दांत पीसती अपने आप ही से कहती थी-’’उन्होंने तो गंगास्नान कर लिया मगर मेरा तो जनम ही बेकार हो गया।’’ युवावस्था में कभी किसी के संग प्रेम  की पींगें बढ़ाते हुए देखे अपने तमाम सपनों की बलि चढ़ा चुकी माया एक-एक पल अपने पति व पिता को कोसने से बाज न आती थी। उसे हमेशा लगता था कि यदि वह जरा भी समर्थ होती तो अपनी बड़ी दीदी की ही तरह अलग हो रहती। मगर . . .

समर्थ कैसे नहीं थी वह ? इतना अच्छा कमाती थी कि उसके पति को तो उसके जितना वेतन पूरे दो माह में देखना नसीब होता था। वो किस्मत का धनी मगर माया के वेतन की पाई-पाई ले कर घरैलू खर्चों के लिये भी उसे अपने मुंहताज रखता था। किसी प्रकार बचा कर, छिपा कर रखे गए ओवर टाइम वगैरह के पैसे से ही मायके वालों से लेनदेन कर पाती थी। कोई मानेगा कि विवाह के समय की मंहगी लिपस्टिक उसे तब तक चलानी पड़ी थी जब तक कि उससे इंफैक्शन न हो गया था। इतना कमाने के बाद भी अपने व बच्चों के अधिकांश खर्च के लिये उसे पति को तरह-तरह से पटाना पड़ता था। लेकिन, ओह् !

केवल कमाने से ही महिला स्वतंत्र होती है क्या ? हमारे समाज ने तो उसके तन में ही नहीं मन में भी, उसके पूरे जीवन में बेड़ियों का ऐसा जाल बिछा रक्खा है कि वो जरा हिली नहीं कि उसे चौतरफा नश्तरों से बींधने को तैयार ! आज की पीढ़ी से पिछली पीढ़ी पर तो यह बात सौ प्रतिशत लागू होती है। फिर भी,

दीदी ने तो अपने चरित्रहीन पति से चुटकियों में तलाक ले ही लिया था वो भी पापा की पूरी देख-रेख में क्योंकि पापा
को रिटायर होने के बाद जो पैसा मिला था उससे बाकी दोनों बेटियों के ब्याह निबटा कर वे ठनठन गोपाल हो चुके थे।

’’भैया ये तो सबको दिखता है कि उनकी नौकरी में पेंशन तो थी नहीं। सो बेटी के भरपूर वेतन पर अब उनकी नजर थी ही न  !’’
कहने वाले मगर बाज कहां आते थे, वे तो कहते ही थे। हुश ! पहले पहल ऐसा वो नहीं मानती थी पर लोग तो ऐसा कहते ही थे। यहां तक कि उनमें से कई इसे साबित भी करते थे कि-

’’आखिर कोई भी पिता एक बार के ही झगड़े में विवाहित बेटी का यूं अपने पास स्थांतरण नहीं करा लेता।’’

’’यूं आनन-फानन बेटी का तलाक नहीं करा लेता वो भी तब कि जब बेटी को अपने निहायत परिचित परिवार में ही ब्याहा गया हो।’’

’’माता-पिता तो बेटी का तलाक रोकने की पूरी कोशिश करते हैं चाहे दामाद व उसका परिवार अवगुणों की खान ही क्यों न हो !’’

माया सोचने को मजबूर हो जाती थी कभी कभी कि कोई अपना निज स्वार्थ ही रहा होगा, जो तब मम्मी-पापा को लोगों के कहने का जरा ध्यान न आया। वरना उसे तो बचपन से यही तो सिखाया गया कि लोग क्या कहेंगे ? ऐसे बैठो, ऐसे रहो, ऐसे उठो, ऐसे पहनो, ऐसे खाओ वरना लोग क्या कहेंगे ! अपना जीवन अपने लिये, अपने परिजनों कि लिये, अपने किसी लक्ष्य के अनुसार नहीं बल्कि लोगों के अनुसार जियो। उसका मन और कड़वा हो आया इस प्रसंग के याद आ जाने से।

उसकी बड़ी बहन परिवार की पहली संतान होने से बड़ी लाड़ली थी। उसका विवाह भी बड़ी धूमधाम से किया गया कि
संबंधियों-नातेदारों ने कहने में देर न की थी कि भैया सारा पैसा एक ही बेटी पे लुटा दोगे क्या ? अभी दो और बैठी हैं छाती पे !

होता था, ऐसा होता था तब कि आपकी बेटी आपको भारी नहीं लगती पर लोगों को लगती थी।

और . . .  लोगों के कारण ही वो आपको भी भारी लगने लगती थी। लोग न जाने क्या क्या कह-कह के आपको कितना-कितना तो डरा देते हैं। जो लोगों के कहे से मानव न डरे तो जिंदगी कुछ और ही हो ! माया सोचती थी।

सही तो सोचती थी गरीब। लोग कब चाहते हैं कि आप सुखी-संपन्न-सम्मानित रहो ? लोगों का वश चले तो किसीको चैन से जीने न दें। अब यहीं देख लो कि पापा ने बेटियों की अच्छी शादी की तो भी कह रहे थे, अच्छी नहीं करते तो भी जाने क्या क्या कहते ही।

वो सोचती तो बहुत ठीक थी किंतु उसमें उस ठीक को अपनाने का साहस न था। अपना आकलन लोगों के अनुसार करते करते ही उसकी उमर हो चली थी। अब क्या रक्खा था ?

लेकिन, उसे लगता था कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। जितनी भी बची है जिंदगी शांति व सम्मान से जीना चाहती थी। इसीलिये अपने आसपास, कुछ अच्छे लोगों से बनते सहज संबंध उसमें उष्मा का संचार तो करते थे किंतु जब वे संबंध घर की देहलीज तक आने लगते तो उसे अपने घर के भीतर की घुटन का बाहर फैल जाने का डर बेतरह सताने लगता था और फिर वही होता था जो वह अब करने वाली थी मिसेज सहाय के साथ !

ऐसा क्या वह जान-बूझ कर करती थी ? ऐसा तो उससे स्वाभाविक रूप से हो जाता था।

उस मिठाई के डब्बे ने माया को सचेत कर दिया था कि अब तुम्हारी भीतरी सारी कालिमा तुम्हारी बाहरी चमक-दमक को लीलने की तैयारी में है। अभी तो ये मिठाई का डब्बा घर पहुंचा है, कल को मिसेज सहाय घर पहुँची कि जितना खुशहाल तुमने अपने आप को लोगों के सामने दिखाया हुआ है उस दिखाऊ खुशहाली के प्लास्टर की सारी पर्तें उतर जाऐंगी। इसलिये, जिसने भी अपनापन बरतते हुए तुमसे घरोपा बनाने की कोशिश की, उसके साथ जो करती आई हो अब भी करना वही होगा, वरना जल्दी ही सारा भांडा फूट जाऐगा ! उसे अंदर ही अंदर दुख सालता था कि कितनी आत्मीय, कितनी सुकोमल हैं मिसेज सहाय, जिनके साथ उसे अब पुनः अपनी चिर-परिचित कू्ररता अपनानी ही पड़ेगी !

वह अपने आप में अकेली होती जा रही थी, असहाय सी। अपने घरैलू तनावों को सहने की अजब आदत की मारी वो आज तक किसीको अपना आंतरिक दर्द नहीं बता पाई। अगर किसीसे कुछ बांट लिया होता तो आज वो अपने आप में सिमटी, सड़ियाती बंद गली सी न होती। उसके भीतर का वह बेबस सन्नाटा उसके समूचे जीवन पर, उसके सारे सौंदर्य पर तारी हो उसे निर्जीवता की मूर्ति में यूं बदल चुका था कि उसे देख कर कोई यह कह सकता था कि वह बरसों से दिल खोल कर न हंसी होगी न रोई होगी ! जैसे उसके जीवन में पतझड़ सदा को आ बिराजा था। वह जानती थी अपनी समस्या लेकिन कैसे संभाले वह अपने आप को ?

इसी समस्या के एकमात्र और अंतिम समाधान के मद्देनजर जब पति से अलग होने की अपनी इच्छा मां के सामने एक दिन रख ही दी थी तो वे तो भड़क ही गईं थीं-

’’तुम भी तलाक ले कर आ बैठोगी तो लोग हमें जीने देंगे ? अकेली तो रह नहीं सकोगी, भगोगी किसी के साथ। और हम भुगतें ! जैसा भी है ठीक ही है तुम्हारे लायक। निभाओ वहीं। नहीं निभे तो कहीं जा कर डूब मरो !’’ उल्टे पिता ने भी जली-कटी सुनाने में देर न की थी-’’गार्गी के इनलाज तो सीधे निकले कि उन्होंने ज्यादे कोर्ट-कचहरी नहीं की। तुम्हारे तो बाबा, अपनी मोटी बछिया को ऐसा रगड़ेंगे कि थाने-दीवाने सब कर डालेंगे। जित्ता पैसा मिलेगा उतने से चार गुना सब कोर्ट-कचहरी की भेंट चढ़ जाऐगा। कौन भुगतेगा अब इस बुढ़ापे में ? आइंदा यहां इतना आया भी मत करो। पति को खुश रखो और वहीं पड़ी रहो चुपचाप।’’

कहते तो वे ठीक ही थे। पर माया का प्रताड़ित जेहन तिलमिलाता था कि अब उन्हें लोगों का ख्याल आ गया था। दीदी के वक्त भी यह ख्याल किया होता तो शायद आज उनकी गृहस्थी आबाद होती।

मगर, क्या इसे ही आबादी कहते हैं कि एक दूसरे को नीचा दिखाते हुए एक छत के नीचे दुनिया को दिखाने को साथ रहा जाए ? महीनों एक-दूसरे से बात भी न हो और दूसरों के सामने होंठों पर मुस्कुराहटों के स्टिकर चिपका लिये
जाऐं फौरन से पेशतर। भीतर भीतर खाली-खटारे, बाहर से लोगों के सामने खुशियों का ढोंग करते रहो कि लोग जल जल कर मरें कि कितने खुशहाल हो आप, कितने खुशकिस्मत ! किसी अपने के लिये मत सोचो, किसी अपने बड़े लक्ष्य के लिये मत जियो, केवल लोगों का ख्याल लिये जीते रहो। लोगों को दिखाने, जलाने से बढ़ कर कोई जिजीविषा ही नहीं मानो !

सो, मन मसोस कर माया को लोकलाज निभानी पड़ रही थी। इस लोकलाज के चक्कर में कई बार पूरी शिद्दत से उसे लगता कि जैसे वह एक जिस्मफरोश में तब्दील हो गई है। मगर किसी जिस्मफरोश बदनसीब को अपना शरीर देने से पैसा मिलता है जबकि यहां उसे अपना सब कुछ देने के साथ अपना पैसा भी देना पड़ता है कि ले ! अजीब बदकिस्मत से बदकिस्मत जिस्मफरोशी थी यह उसकी।

इस विवाह के क्या मायने थे ? जिसमें उसे अपनी कमाई अपनी नहीं, अपने बच्चे अपने नहीं, पति अपना नहीं, अपना मकान अपना नहीं, गम और खुशी तक अपने नहीं, पति के परिवार में होने वाले गम और खुशी पर अपना गम और खुशी मनाओ। यह कैसा जनम-जनम का साथ था कि जिसमें उसे एक पल चैन-आराम नहीं। वह नींव में जिंदा दबा दी गई थी मानो। पल पल उसके लिये यही दर्शाया जाता था कि उसे कुछ नहीं चाहिये था सिवाय आराम तलबी, श्रृंगार-पटार और सुविधाओं के। हुंह !

आराम तलबी का आलम ये था कि उस छोटे से ढाई कमरों वाले घर का कौन सा काम था जो पति की इच्छा का मान रखने को, कहो कि पैसा बचाने की गरज में उसे न करना पड़ता था ? इसीलिये, अपने पहने हुए घर के गाउन में यदि वह बाहर निकल जाए तो आसपास वालों की नौकरानियां भी उससे बेहतर दिखें। बाप रे ! दो-तीन साल पहले, मालिनी ने जिसने कि कभी उसे अचानक घर पर उसकी लबड़धोंधों हालत में देख लिया था, सबके बीच कितना ना मजाक बना के रख दिया था उसका ! ओह् ! और रही बात श्रृंगार-पटार की तो, आॅफिस जाने पर थोड़ी सी लिपस्टिक और हेयरकलर क्या वो अपने लिये लगाती थी ? बन ठन के पुराने माॅडल की ही सही, कार में जाती थी तो तुम्हारी ही, परिवार की ही मान-मर्यादा बढ़ती थी। वह सुखी दिखेगी तो तुम्हारी ही इज्जत रहेगी।

वहां लेकिन इस प्रकार की बातों से किसे सरोकार था ? ढिंढोरा पिटता है तो पिटे। किसे परवाह ? माया ही थी जो परवाह कर-कर के मरी जाती थी। इतना मरी जाती थी कि वह तो अपने परिवार की इज्जत बचाने अपने आप को एक
ऐसा टापू बना बैठी थी जिस तक कोई नहीं आ सके। यह दूर से दिखता टापू लोगों को लुभाता तो था किंतु इसमें जो वीरानापन था, कोई नजदीक आ कर इस वीरानेपन को, इसके खस्ताहाल को न पढ़ ले इसलिये माया हर उस नजदीक आते शख्स को किसी न किसी बहाने लज्जित कर के ही दम लेती थी। यह उसकी मजबूरी ही हो चुकी थी।

अनायास ही उसका ध्यान गया था मोबाइल की बजती रिंगटोन पर। रिंगटोन बता रही थी कि फोन किसका था। उसने फोन बजने दिया। पति और बच्चों के आने में अभी समय था जिसका सदुपयोग बाल रंगने, दाढ़ी के बाल खींचने जैसे
कामों में माया को करना था। एक दो बार पूरी तरह बजने के बाद उसने आखिर फोन उठाया।

दूसरी तरफ मिसेज सहाय ही तो थीं जो बड़ी ही सहजता व अपनेपन से जानना चाह रही थीं कि-

’’कल इंस्पैक्शन था सो कितने बजे निकलेंगे आॅफिस के लिये ? तुम लंच की फिक्र मत करना, मैं सब बना लूंगी। तुम्हें
राजस्थानी कढ़ी पसंद है न, मैं बना कर ला रही हूं। कल हम साथ ही लंच लेंगे।’’

ओह्, कितनी स्निग्धता !

माया ने सच ही आसन्न खतरा भांप लिया था। उसने अनमनेपन से न जाने क्या जवाब दिया उन्हें और फिर जरा भी परवाह नहीं की कि उन्हें क्या जवाब दिया ! क्योंकि-

अब कि जब उसने लोगों पर अपनी कार में किसीको लिफ्ट देने वाली रईसी का भरपूर दिखावा कर लिया था, आॅफिस और घर की अपनी बेरौनक जिंदगी में किसीको साथी बना कर कुछ पलों की रौनक हांसिल कर ली थी। तो अब आगे संबंध बनाऐ रखने में खतरा था, अब पिंड तो छुड़ाना होगा न। देखा नहीं मिसेज सहाय ने कितने अपनेपन से इतनी महंगी होममेड शुद्ध घी की मिठाई उसके परिवार के लिये रख दी थी, उसके लिये उसकी पसंद का लंच बना कर लाने वाली थीं। यानि वे अब उससे घरैलू रूप से जुड़ने जा रही थीं। यह तो होने से रहा क्योंकि घर में घुटन-सड़न इतनी थी कि जिसे यदि बाहरी लोगों ने देख लिया तो माया का सारा तिलिस्म बिखर जाना था। उसे लगता था कि वह ऐसी सड़ चुकी, बेस्वाद मिठाई हो चुकी थी जिसे चांदी के वरक लगा लगा कर चलने योग्य बना रखा हो।

एक उसांस ले कर माया उठ खड़ी हुई, अब वह कल की तैयारी में लगने जा रही थी। कितने काम करने थे उसे कल को ध्यान में रख कर क्योंकि कल हेड आॅफिस का इंस्पैक्शन था और कल वह अपना सेलफोन जानबूझ कर घर पर ही भूल कर रोज की अपेक्षा कुछ जल्दी ही निकल लेगी ताकि मिसेज सहाय उसे फोन कर-कर के, उसका इंतजार करती रह जाऐं। जब वे थकी-हारी भागती हुई सी किसी रिक्शे आॅटो में पहुंचेंगी, जरूर कुछ शिकायत जैसा करेंगी तो अपने हर इस-उस परिचित के सामने तब कानाफूसी करना भी माया के लिये उचित रहेगा कि

’’भई इतने जरूरी समय पर भी आप इतनी लापरवाह ! मैं भी क्या करती ? सेल घर पर ही रह गया।’’
बड़ी मासूमियत से तब वह अपनी दरियादिली व रईसी का किस्सा बयान कर सकेगी कि किस प्रकार ’’मिसेज सहाय उसकी कार में रोजाने उसके साथ लद जाया करती हैं !’’

यह बात और थी कि माया द्वारा आए दिन ’’चलिये न, मैं वहां से आगे तक जाती हूं।’’ कह-कह कर लिफ्ट देने के पहले बेचारी मिसेज सहाय वाॅक करने की गरज में ही पैदल आया-जाया करती थीं। वे कईयों को इस बारे में समझा भी चुकी थीं किंतु माया ने तो आग्रह पर आग्रह करके आखिरकार अपना उल्लू सीधा कर ही लिया था।

जब मिसेज सहाय उसके झांसे में आ गईं तो अपने को एलीट क्लास में शामिल करने का, और सबसे बढ़ कर अपने नीरस-बेरंग जीवन में कुछ दिनों के लिये ही सही, मानसिक संबंल हांसिल कर लेने का माया का आंतरिक उद्येश्य पूरा हो चुका था तो अब उन्हें यूज्ड टिश्यू पेपर की तरह फेंका जा सकता था न्।

अतः बड़े इतमीनान से रूपरेखा बना रही थी। आॅफिस में नई आई खासी रसूखदार बताई जा रही सहकर्मी जिसे देख कर साफ-साफ लगता था उसे अपने अनुभवी मनस से कि वो भी उसीकी तरह अपने आप में बंद सी ही थी।
जिसकी उसे अपने सहकर्मियों से ज्यादा अपनेपन, घरोपा जैसे संबंधों को बनाने-संवारने की उत्सुकता व अपेक्षाऐं नहीं दिख रही थीं। माया ऐसे ही लोगों का साथ पसंद करती थी ताकि आॅफिस में गाॅसिप के लिये कोई आसानी से उपलब्ध भी रहे और घरैलू ताक-झांक का खतरा भी न हो ! उसकी तो मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई थी तो अब
मिसेज सहाय का भला क्या उपयोग ? वह बड़े ही ध्यान से, योजनाबद्ध तरीके से सोच में लगी थी कल के लिये यानि अपने नए शिकार को फांसने की तैयारी में क्या-क्या कहेगी वह ? कुछ यही कि -

’’भई सब बराबर कमाते हैं कि नहीं ! लेकिन मुझे तो लगता है इनके पति इनको आना-धेला नहीं देते हैं। बेचारी देखो न कैसे टक-टक करती आती-जाती थीं। एक दो बार मैंने बिठा क्या लिया कि रोज-रोज का धंधा बना लिया इन्होंने तो। भई आप कार खरीदो अपनी। और यदि कार है तो क्या शोकेस में सजा के रखने को है ? चलाओ उसे। और अगर चलानी नहीं आती तो ड्रायवर रखो। जो ड्रायवर नहीं रख सकतीं तो रिक्शे-विक्शे में आओ। भई कब तक कोई इनको ढोए ? भई आज के जमाने में भी मोहतरमा न तो टूव्हीलर चलाती हैं न फोर व्हीलर! गजब है भई गजब है। मेरे हस्बैंड तो इतना चाहते हैं मुझे कि बिल्कुल पसंद नहीं करते कि मैं कभी किसीसे लिफ्ट लूं। इसलिये अपनी कार में आती हूं। अपने हिसाब से रहती हूं। किसी पर डिपेंड नहीं करती।’’

वह अपने आप से पूछती थी कि प्लान ठीक है न ? सब सही फिट हो रहा है न ? उसके भीतर के बचे-खुचे स्वस्थ उजले पक्ष को दबा-घोंट कर वहां एक लगातार सड़ता-गलता जा रहा पक्ष पूरी तसल्ली से जवाब देता था-

’’धन्य हो, धन्य हो मायारानी ! एकदम ठीक !

बिल्कुल ठीक कोटिंग है चांदी के वर्क की !’’

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8-

किराएदार

आज के मोबाइल, ई-मेल आदि न जाने क्या-क्या के जमाने में, पोर्च में आउटडेटेड सा पड़ा वह पत्र मुझमें उत्सुकता का वह ज्वार भर गया कि मैं कार गेट पर ही छोड़ उस पत्र पर वैसे ही झपट पड़ी कि जैसे बर्थ डे पार्टी में बच्चे चाॅकलेट पर झपटते हैं। हैंडराइटिंग तो बड़ी जानी-पहचानी सी है फिर भी याद क्यों नहीं आ रहा कुछ ? कौन है आखिर ये पत्र लिखने वाला ? पत्र दूर, विदेशी धरती से आया था। पल भर में मेरा दिमागी घोड़ा सरपट दौड़ने लगा अपनों-परिचितों की ओर।

‘’माॅम, कार अंदर पार्क करके भी तो लेटर पढ़ा जा सकता था।‘’

अरे ! ये तो बड़कू बाबा थे जो न जाने कब मेरे पीछे आ लगे थे।

’‘देख तो बेटा ये किसका पत्र है ?’‘
जल्दी-जल्दी चश्मा निकालने की कोशिश किये जाती थी मैं। आजकल ऐसा ही होता है कि चश्मा ढूंढती हॅूं तो पेन हाथ में आ जाता है, जब पेन ढूंढती हूं तो चश्मा हाथ में आ लगता है। और जब दोनों ही ढूंढो तो भानुमति के पिटारे से मेरे पर्स में बस ढूंढा ही करो। मेरी हालत से जर्रा-जर्रा वाकिफ बेटे राम ने बड़े इत्मीनीन से मुझे ढूंढती-खंगालती छोड़ कार की चाबी ले ली है। उसे आज अपने दोस्तों के साथ कोई पार्टी अटैंड करनी है सो कार के खासे फेशियल के मूड में दिख रहा था वह। गनीमत है कि चश्मा मिला, और पेन भी। पेन की नोक से पत्र खोले दे रही हूं मैं। ओह् !

’‘ प्रिय बिट्टो! ‘’

बस् इस एक संबोधन से ही सब समझ में आ गया। मम्मी-पापा अब हैं नहीं, ममेरे पक्ष के लोग फोन करते हैं पत्र नहीं लिखते, चचेरे पक्ष के भी यही हाल हैं। और कोई बड़ा है नहीं अब, जो उम्र की हाफ सेंचुरी पर आ लगी मुझे बिट्टो कह
सके। ये तो वही थे अंकल-आंटी, आज से सात-आठ साल पहले अमोल की असामयिक मृत्यु से आहत, अपनों के दगा दे जाने के दौर में भी जिन्हांेने मेरा साथ न छोड़ा था। बिन खेवइया की नैया की तरह हो चुकी मुझ अकेली को, स्वयं की खेवनहार के रूप में सक्षम बनने के पलों के साक्षी थे ये लोग जिन्हांेने जीवन के उस कठिन मोर्चे पर मेरी व मेरे बच्चों की भरपूर हौंसला आफजाई करने का अपना मानवीय फर्ज पूरे मनोयोग से निभाया था।

अमोल की मौत एक हादसा थी। इस हादसे से मैं और मेरे दोनों बच्चे उबर पाते कि इसके पहले ही उसके लालची घरवालों, ऐसे ही दोस्तों व पार्टनरों तथा पाई-पाई लूट लेने को मरे जा रहे तमाम नाते-रिश्तेदारों, देनदारों की भीड़ ने हमें घेर लिया था। मकान, कार, दुकान-जमीन सब कुछ कर्ज में दबा था और कर्ज के इस दलदल से निबटने को मेरे पास थी बस् थोड़ी सी जमापूंजी और मेरी ये नौकरी जो कि कभी मेरे लिये समय काटने का एक शगल सा ही हुआ
करती थी। मगर अब यही नौकरी मेरे अर्थ-तंत्र की मजबूत नींव बन गई। अमोल की फिजूलखर्ची, दिखावे भरी जिंदगी जीने की आदत ने हमें कर्ज से पाट दिया था। किंतु अब, अपने हर गैरजरूरी खर्च में बेतहाशा कमी ला कर, आय के अपने उपलब्ध थोड़े से ही सही किंतु निश्चित साधनों की सार-संभाल करते हुए मुझे हर कदम फूंक-फूंक कर उठाना था। बच्चे भी अमोल के रहते शाहखर्ची की आदत के शिकार थे किंतु अमोल के जाते ही वे भी मेरी ही तरह पाई-पाई के हिसाब-किताब मिलाने वाले महाजन हो लिये ! दिल में कहीं हूक सी उठती जब सोचती कि बच्चों को दुनियादार बनाने के लिये अमोल का इस तरह जाना जरूरी था क्या ?

या शायद वे सही समय पर गए, क्योंकि यही समय था बच्चों की सही शिक्षा-दीक्षा का। अगर वे अमोल की तरह लापरवाह, गैर जिम्मेदार बन जाते तो फिर निःसंदेह ठोकरें खा-खा कर ही सुधरते - - -    या, शायद अमोल की तरह नहीं ही सुधरते ! खैर।

मेरा विशाल बंगला शहर से इतना बाहर था कि अब गाड़ी, शोफर के बिना मेरा आॅफिस बच्चों का स्कूल तक मेरे लिये समस्या बन गये। सुरक्षा व बंगले के रख रखाव आदि को देखते हुए मजबूरी में किसी सरकारी आॅफिस के लिये उसे किराए पर उठा अपने बच्चों के साथ जब मैं बीच शहर में, अपने आॅफिस के बेहद नजदीक छोटे से उस साधारण से मकान में शिफ्ट हुई तो खुद मुझे यकीन नहीं था कि मेरी मुश्किलों के किले फतह होने के दिन आ गए हैं !

जरूर वे पुरानी बेफिक्री भरे बेवकूफियत के दिन अपने जाने का प्रतिपल अहसास कराते थे जब बच्चों के आइसक्रीम-चिप्स के बिल ही हजारों में होते थे। जब सुई भी खरीदनी हो तो पैट्रोेल कार रवाना की जाती थी। जरूर वे बेवकूफी भरे, बेफिक्री के दिन अब न लौटने थे, उनके लौटने का मगर इंतजार भी किसे था ?

बच्चों ने बड़ी मार्मिकता से एडजस्ट कर लिया था। बड़ी शीघ्रता से उन्होंने स्वयं को वातावरण के अनुकूल ढाल लिया
था। उनकी यह मासूम मगर विराट क्षमता, मेरी अदना सी नौकरी,

और -

और अंकल-आंटी का अचानक उपलब्ध हो गया अपनापन ही मेरे आत्मबल को बनाए रखने में कामयाब हुआ था।

कौन थे ये अंकल-आंटी ? ये तो वे देवदूत से थे जिन्हांेने उस कठिन दौर में मुझे अपना मकान किराए पर दे, जीने का हौंसला ही दे दिया था। उनका एक ही बेटा था जो शिकागो में सैटल्ड था। वे दोनों बुजुर्ग अपने घर-घाट के मोह में फंसे थे। उनका यह मोह मेरे बड़ा काम आया। दिनभर की मेरी नौकरी, बच्चों के स्कूल, हारी-बीमारी, अमोल के कानूनी पचड़े सुलझाते-सुलझाते मैं हताश हो जब-जब रोई मुझे आंटी ने संभाला। जब बाहर की कोई मुश्किल मुझसे कतई न संभाली गई तो अंकल उसे भरसक सुलझा लाए। कब वे हमारे, कब हम उनके हो गए, कब वे मुझे बिट्टो,
कब बच्चे उन्हें दादाजी-दादीजी कहने लगे पता ही न चला। कब मेरे पोर्शन की चाबियां उन्हीं के पास रहने लगीं और कब उनके रूटीन मेडिकल चैकअप करवाने मैं उनके साथ जाने लगी-सचमुच पता ही न चला !

यूं ही समय की चोट खाए तलवों के घाव धीरे-धीरे भरते गए। जिंदगी अपनी अविराम गति से खिसकती गई। अपनों ने, कईयों ने मुश्किलों के उस दौर में अपना मुंह तक न दिखाया मगर पराए हो कर भी अंकल-आंटी ने इंसानियत से
मेरा विश्वास डिगने न दिया था। मेरे सभी अपनों ने मुझ पर केवल कर्तव्य लादे, वे स्वयं अधिकार ओढ़ते गए। पारिवारिक स्नेह, अपनत्व की उष्मा वहां कहां थी ? वहां तो थी केवल लूट, ज्यादा से ज्यादा पाने
की चाह, इसी चाह में हर रिश्ता अपना संभावनाएं तलाशता भूखे हिंसक जानवर का रूप लिये जाता था।
ऐसे डरावने जंगल से, आदमखोरों के चंगुल से अकेली अपने बच्चों को बड़े साहस व सलीके से सुरक्षित
निकाल लाई थी मैं, यकीन नहीं आता था।

शुरू-शुरू में तो अनजान-अपरिचित अंकल-आंटी भी मुझे दबे-छिपे भेड़िये ही लगते थे। इसीसे काफी समय तक दोनों ही पक्ष एक दूसरे से कटे-कटे से रहे थे। शायद उनके भी कुछ ऐसे ही अनुभव रहे होंगे। न वे यकीन करते थे हमारा न हम यकीन करते थे उनका। न वे हमसे खुलते थ, न हम उनसे खुलते थे। लेकिन सारे दुनियावी रिश्तों की भीड़ में भी एक रिश्ता है जो पीड़ित-दुखी मन को थपकता, तसल्ली देता है।
यही मानवता का रिश्ता आग उगलते रेगिस्तान में नखलिस्तान की ही तरह सही, मगर जीने की प्रेरणा तो दे ही देता है। धीरे-धीरे, यही प्रेरणा मुझे अंकल-आंटी से, तो अंकल-आंटी को हम लोगों से मिली। और . . . भयानक जानवरों के मेले में भी हमने इंसानियत का टेंट तान ही तो दिया था !

उन्हें जैसे विधाता ने मेरी मुश्किलों का साथी बना कर ही भेजा था। मेरी तकलीफों को जब मैने खुश हो कर झेलना
सीख लिया, जब मुझे उन तकलीफों-पेरशानियों से ठीक तरह से निबटना आ गया, परेशानियों से जब मेरा डरना बंद हो गया ़ ़ ़ तभी पता चला कि अंकल-आंटी के बेटे-बहू ने उन्हें वह मकान बेच कर शिकागो चलने के लिये राजी कर ही लिया था। एकबारगी तो बहुत कुछ सूना-सूना सा आया मेरे हिस्से में, लेकिन फिर एक बार हम लोगों को होनी के आगे सिर झुकाना पड़ा।

मेरा बंगला यद्यपि अपनी ही जगह पर था लेकिन तेज गति से अपने कदम बढ़ाते हुए शहर वहां तक पहुंच गया था। अब आसपास अनेक काॅलोनियां बस चुकी थीं सो कन्वींस की, किसी तरह की कोई असुविधा अब न रही थी। मैं किसी अन्य जगह पर किराए का मकान लेने की जहमत से बचने के लिये फिर से अपने विशाल बंगले में आ गई, किंतु अब इसके एक छोटे से हिस्से में ही मैने अपना बसेरा डाल बाकी हिस्से को किराए पर ही रखा क्योंकि बच्चों की पढ़ाई के अनेक खर्च थे जो इस किराए के भरोसे चलते थे।

अब छोटे-छोटे, नन्हें-नन्हें पौधे वृक्ष बन कर सघन साए में तब्दील होने की तैयारी में थे। अंकल-आंटी के अभाव के
बावजूद मैं अब बेसहारा न थी। नन्हीं कोपलें अब अपनी धरती मां को छांव देने में सक्षम थीं।

’‘एक जमीन से उखाड़ कर वृक्ष दूसरी माटी में खोंस दिये गए थे। हां, बिल्कुल यही हुआ था।’‘

आंटी ने पत्र में विस्तार से सब लिखा था कि कैसे एक शुद्ध भारतीय वातावरण में पली-बढ़ी बहू निखालिस विदेशिनी ही हो चुकी थी।

बेटा-बहू दोनों अपने नर्सिंगहोम में व्यस्त रहते, अपनी देर रात की पार्टियों में सुध-बुध खोए रहते। बच्चों की जिम्मेदारी
दादा-दादी की थी। कौन ऐसा मनहूस होगा जो इस जिम्मेदारी से बचना चाहेगा ? लेकिन आंटी-अंकल की असहाय होती जा रही हड्डियों में उतनी ताकत न रही थी। फिर भी हरसंभव सब संभालते वे ठेठ नौकरों-चाकरों की ही श्रेणी में रख दिये गए थे। बुरी तो उन पर तब गुजरने लगी जब बच्चे बार्डिंग भेज दिये गए। उनकी सारी दिनचर्या, सारी जिंदगी को उनके संस्कारों के विरूद्ध दिशा में ठेल दिया गया था। देर रात तक चली पार्टियों के जूठे शराब के ग्लास तक वे अतिथि सत्कार का अपना कर्तव्य समझ कर धोती ही थीं। मगर नहीं सहा जाता था उन साग-पात खाने वालों से कि उसी एक फ्रिज में बहू बीफ, मीट, फिश, चिकन और न जाने क्या-क्या तो ठूंस दिया करती। उनका तो मानो कोई नियम-धर्म ही न रहा हो।

बहुत हाय-तौबा के बाद अंततः बेटे-बहू की ओर से उन्हें वापस इंडिया जाने की ’अनुमति’ मिल ही गई। लेकिन अब कि जब वे अपना मकान भी खो चुके हैं तो यहां अपनी मात्र पेंशन के भरोसे कहां और कैसे रहेंगे ? बेटे-बहू आश्वस्त थे कि अब इंडिया में उनका क्या ठौर-ठिकाना ? कौन डाॅक्टर को फोन करेगा ?
कौन उनकी देख-रेख करेगा ? कौन भाग-दौड़ करेगा? कौन मार्निंग वाॅक पर साथ देगा जैसे खयालों से घबराए रहने वाले वे लोग स्वयं ही अपना इंडिया वापस लौटने का इरादा रद्द कर उनकी नौकरी बजाते रहेंगे।

आंटी-अंकल ने पत्र में मुझसे खुल कर पूछा था कि क्या मैं उन्हें अपने बंगले में किराए से रख सकती हूॅं ? वे अपना अंतिम सफर अपने ही देश में बिताना, यहीं पूरा करना चाहते थे।

पोर्च के कोने में हौले-हौले मुझे झूला सा झुला रहा राॅकर जिस पर बैठी मैं पत्र पढ़ रही थी किसी के थामने से थम
गया था। मैंने पलट कर देखा, छह फुट की उंचाई को पहुंच रहा बड़कू था यह। जिसके हाव-भाव से
लग रहा था कि शायद पीछे खड़ा वह पत्र पढ़ चुका था।

अनेक बातें ऐसी होती थीें कि बच्चों की इच्छा जानना मैं जरूरी समझती थी। मेरे कद से उंचे हो चुके बेटे की ओर
मैंने आशा भरा प्रश्न उछाला ’‘रख लें बेटा अपन इन्हें अपने साथ वाले पोर्शन में किराए से ?’‘

मगर उसके चेहरे और जुबान पर यह क्या था ? क्यों था ?

’‘नहीं मम्मी, कभी नहीं।’‘

अपने दोनों बच्चों के पालन-पोषण में उठानी पड़ी बेहिसाब मुश्किलें मेरे मनो-मस्तिष्क में चलचित्र की तरह घूम गईं।
मेरे बेटे को क्या वे जरा भी याद न रही थीं ? ये तो खुद साक्षी रहा है मेरे उस कठिनाई भरे दौर का ! अंकल आंटी बच्चों के बुखार उतरने की प्रतीक्षा में बैठे हैं उनके सिरहाने। ठंडे पानी की पट्टियां रख-रख कर बुखार उतार रहे हैं। मेरे ऑफिस  से आने तलक वे उनका होमवर्क करा देते, टेस्ट की तैयारी करा, खिला-पिला कर खेलने भी भेज दिया करते।

बच्चे कभी ’टिफिन अच्छा नही’ कह कर टिफिन नहीं ले जाते तो आंटी अपने हाथ से कुछ ’अच्छा’ बनातीं, बेचारे अंकल अपने खटारा स्कूटर से धीरे-धीरे जा कर रिसेस के पहले बच्चों को टिफिन दे आते। सात-आठ घंटों की अपनी प्रतिस्पर्धा भरी नौकरी क्या मैं उतनी बेफिक्री से कर पाती जितनी अंकल-आंटी के साए में मैने कर ली थी ? क्या कुछ भी याद नहीं मेरे इस बच्चू को आज ?

’‘क्यों रखें हम उन्हें किराए से ?’‘

मेरा कलेजा मुंह को आने लगा था। बच्चू पूछ रहा था मुझसे, सीधे मेरी आंखों में आंखें डाल कर।

’‘क्या आपके मम्मी-पापा होते तब भी क्या आप किराए की सोचतीं ? क्यों रखें हम उन्हें किराएदार की तरह ? वे दादा-दादी या नाना-नानी की ही तरह रहेंगे हमारे साथ। लाइये उनका काॅन्टेक्ट नंबर दीजिये मैं फोन करता हूं उन्हें। बोलूंगा कि मैं कितना नाराज हूं उनसे बड़े आए किराएदार बनने।’‘

दिप् दिप् करती आशा की एक भरपूर किरण उजियारा बन कर मेरे मन-प्रांत पर फैल गई थी। मैं भी कैसी बुद्धू ठहरी ! मेरे संघर्ष और दर्द की तपती आंच को मेरे अलावा सबसे नजदीक से झेलने वाले मेरे बच्चे ही थे जिनके जज्बातों को समझने में मैं कैसे गल्ती कर रही थी ? अपने बच्चों से क्यूं कर आश्वस्त न  थी ? अपने ही पाले-पोसे को पहचान न पाई ! कंठ में रूलाई का कुछ गोला सा अटकता था मगर खुशी से बल्लियों उछलता हृदय लिये मैं पत्र पर आंसुओं से लबालब बेसब्र नजरें वहां गड़ा दिये दे रही थी वहीं कि जहां अपना कोई फोन नंबर दिया था उन्होंने ़ ़ ़

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9-

नमक की खदान

’’आभा सुना कुछ तूने ?’’ खासा आश्चर्य जनक उत्साह से भरपूर सा ही तो स्वर था लीना का !

’’क्या?’’

’’तुझे कुछ पता भी है कि वर्तिका का तलाक हो गया !’’

’’तो क्या हुआ ? कोई आकाश थोड़े ही ना टूट पड़ा है !’’

कल्पना मेम के साथ कुछ समय तक महिला थाने में काउंसिलिंग का कार्य करती आई थी मैं, सो पता था मुझे वर्तिका का मामला। इसलिये मुझे कोई आश्चर्य न हुआ था। यही बात लीना के लिये बड़ी आश्चर्यकारी थी, कि मुझे पता था सब कुछ फिर भी मैने इतने सनसनीखेज मुद्दे का कोई अफसाना न तो खुद बनाया, न ही उन लोगों को कोई ऐसा अवसर दिया। अरे भई, ये भी कोई ऐसी बात थी जिसे यूं चुपचाप अकेले-अकेले हजम कर लिया जाए ? इतनी चटपटी बात को मैं कैसे आसानी से घुटक गई ? यह खुद पर तो आप खुद ही जानो मगर सखियों पर तो असहनीय अत्याचार ही था न ! मगर ओहो !

नाहक ही महिलाओं को बेसिर-पैर की गप्पबाजी के लिये बदनाम किया जाता है, मैं तो मर्दों को भी इस क्षेत्र में बहुत प्रगति करते पा रही थी। वैसे यह तो वह एकमात्र वह क्षेत्र है जिसमें दोनों ही के लिये अपना गम गलत करने के साथ-साथ मनोरंजन भी खासा उपलब्ध हो जाता है। और, हींग लगे ना फिटकरी ! बशर्ते चमड़ी मोटी हो आपकी, या कहें कि चमड़ी की जगह चमड़ा ही तो हो !

जब मैं काॅलेज में पढ़ती थी तब मुझे अपने महाविद्यालय का स्टाॅफरूम बौद्धिक बहस का एक अति सम्मानजनक व रहस्यमय स्थल प्रतीत होता था क्योंकि कभी उसमें जाने का मौका ही नहीं मिला था मुझे। लेकिन प्रोफेसरी मिलने के साथ ही स्टाफरूम से जुड़े सारे भ्रम वैसे ही गायब हो गए थे जैसे गधे के सिर से सींग ! आप सुधी पाठक वृंद, थोड़ा लिखा ज्यादा समझ ही लिया होगा आपने। तो-

स्टाफरूम में अनेकों की हालत देखते ही बनती थी। उनकी आंतरिक निश्चिंतता का ओर-छोर न था कि वाह, क्या टाॅनिक उपलब्ध हुआ है कि जिसकी जुगाली कभी भी की जा सकती थी। बड़े सब्र से भरे हुए वे कभी इस गुट में तो कभी उस गुट में हाजिरी बजाते नित नई सूचनाओं का आदान-प्रदान करते न अघाते थे। वे सब थे कौन ? वे सब दोस्त-अहबाब ही तो कहे जाते थे। सामने खीस निपोर-निपोर अपनों में शुमार वे पल के पल में बात बदलने की कला में सोलहों आने खरे थे। कहां तो टिकता था गिरगिट उनके सामने भला ? यह मैं देखती थी कि मुंह पर दोस्ती का दम भरने वाली-वाला भी पीठ मुड़ते ही कुछ और था। जो मुंह भर-भर कर कहता कि वो आपका दोस्त है वह मात्र मुंह से जुमले निकालने के अपने फर्ज को पूरा करने की मजबूरी के नाते ही ऐसे जुमले उगलता था। आपके पीछे ही वह हंसी-मजाक का ठंडा छुरा लिये तैनात ! पीछे काटता है, सामने दुम हिलाता है।

वे कुछ दिन बड़े रंग-रंगीले हो लिये थे उन सबके लिये कि जब उनके हाथ में कोई ऐसा दिल को तसल्ली देने वाला मुद्दा था-कि अव्वल तो आप जिसे सुखी समझ कर भारी दुख पाते थे वह आपका दुख उड़न छू ! दूसरे आपका अपना जो दुख, जो झंझट है उससे आपका अपना भी व औरों का भी ध्यान हटाने का कुछ सरंजाम तो जुटा ! साथ ही टाइम पास करने की गारंटी अलग मिली !

जब इतनी सारी मनमाफिक आने वाली सुविधाऐं मिलती हों तो दोस्ती जाए भाड़ में !

अनेक वे महिलाऐं अपने ढेर सारी चूड़ियों भरे हाथों को बड़ी तसल्ली से सहला लेती थीं कि खैर हुई कि उस छन-छन में उनके भीतर की तनहाई दब-घुट जाती थी बिल्कुल उनकी दबी-घुटी मानसिकता की ही तरह। वे अपने भीतर की निरी कालिख को गहने-जेवर की कलई-पाॅलिश पोत-पात कर ढंकने में निपुण कुछ मोहतरमाऐं तो किसी अनहोनी की आशंका में दुबलाने भी लगी थीं एक रोज।

अनहोनी माने ?

’’अरे उसका तो पैच-अप हो गया !’’
बड़ी ही बुझी हुई आवाज थी एक मोहतरमा की। कभी हर पल झांकते रहने वाले उनके बत्तीसों ही दांत उनके मुंह की विराट खोह में जा छिपे थे। उनके पुते-रंगे चेहरे की सारी उड़ती-बुझती रौनक न छिपा सका था उनका मेकअप। भीतर की तमाम असलियत उनके व्यक्तित्व पर एकदम ही एक मुरझाएपन के रूप में फैल-बिछ गई थी। बुझी रौनक बता रही थी कि किसीके पैचप से उन्हें फिर अपने झंझटों की याद हो आई थी कि जो जस के तस थे।

तो चलो कोई और मुद्दा ढूंढें !

’’ना कहां से पैचप हो गया दीदी ?’’
एक उनकी भक्तिन अपने कद से बढ़-बढ़ कर उछली पड़ती थी। ’’कुछ पता भी है आपको ? फलानी जो उसकी काॅलोनी में ही रहती है बता रही थी कि अभी भी दोनों अलग-अलग रहते हैं।’’

’’हें ? ऐसा क्या ?’’ दीदी को मिलती राहत के साथ-साथ अनेक चेहरों की रौनकें चटपट लौट पड़ी थीं। उनके अपने घरैलू मुद्दे फिर से हवा हो लिये थे कुछ देर के लिये। इतनी ही राहत कोई कम थी क्या ? इतना दिलासा भी रोज-रोज
मिलता रहे तो विषवृक्ष के लिये पर्याप्त है यह खाद-पानी।

’’हां, ढिमाके के यहां शादी में अपने भाई के साथ आई थी, पति के साथ नहीं।’’

’’अरे मेरी कामवाली बाई उसकी कामवाली को जानती है। वो बता रही थी कि ़ ़ ़ ’’

चेहरों का रंग-रोगन, शरीरों पर धारण की गई वेशभूषाओं में ही वह कुछ था जो उन्हें पढ़ी-लिखी दिखाता था। जुबानों से निकल रहे शब्द विन्यास में वे गरीब, अनपढ़ कामवाली किन्हीं बाईयों के स्तर को भी पार कर लेने की जुगत में लगती थीं। वो मजबूर कामवालियां अनपढ़, जाहिल हो कर इनके जैसी ! ये पढ़ी-लिखी, अच्छी-अच्छी डिग्रीधारी हो कर उनके जैसी ! किसने किससे ग्रहण किया था, राम जाने !

आऐ दिन वे आपको अपने-अपने ग्रुप में चहकती मिलेंगी। ये चहकन तब और बढ़ जाती जब कोई मसाला उपलब्ध हो गया हो। मसाला न भी हो तो क्या फर्क पड़ता उन्हें ? वे उर्वर दिमाग इतनी कि साधारण से साधारण बात को भी चटपटी और मसालेदार बनाने की कला में महानिपुण ! जहां देखो वहां मसाले की अपनी पोटली साथ लिये फिरती हैं ये मसालचिनें, कहें कि मसालेदारिनें !

जो भी कोई भलामानुस-मानुसी इनकी चटखारेबाजी में साथ न दे, या जो इन्हें अपने से उच्चतर लगता हो ये उसे निशाने पर लिये रहने को अभिशप्त सी उसके पीछे मैग्नीफाइंग ले कर ड्यूटी न बजाऐं तो आखिर करें क्या ? कोई और न मिले तो अपने ग्रुप मेंबर को भी शिकार बनाने से गुरेज नहीं इन्हें। मौका लगा नहीं कि लो जी लो दीदी को भी नाथ दिया, दीदी बेचारी को क्या पता कि उसके राई-रत्ती में क्या-क्या न घुसेड़ दिया भोली आत्मा ने !

पेट फट जाए, पेट अफर जाए इनका जो ये मसालेबाजी न करें तो !

अपनी उचित शिक्षा-दीक्षा के अभाव को भली भांति जानती, उसे भुलाती-झुठलाती, स्वयं पर उच्च शिक्षिता कहलाने का ठप्पा लगाए घूमती ये महिलाऐं मानों कोयले की वो खदान हैं जिसमें हीरा तलाशना चांद और मंगल पर पानी
तलाशने जैसा ही है। न हो तो एक बार वहां पर पानी मिल भी जाए मगर ़ ़ ़ छोड़िये।

’बड़े भाग मानुष तन पायो’ कह गए हैं संत तुलसीदास। मगर मानुष तन पा कर भी ये मानुषी न हुईं, मात्र औरत ही हो रहीं। निरी लुगाई की लुगाई ही रह गईं। स्वयं की पतली दाल छुपाने के निमित्त वे किसीकी भी हंडिया में अपनी लपलपाती जीभ लिये ताकने-झांकने से बाज नहीं आऐंगी। उनके मुंह में जो बीस गज जुबान है वह क्या बिना मतलब के दी है भगवान ने ? उसका उपयोग अपने अलावा हर किसी के विरूद्ध कर सकने का जन्मसिद्ध अधिकार है उन्हें। उनके सबजेक्ट का कुछ मत पूछ लें उनसे, इसके अलावा हर किसी के बेडरूम में क्या हो रहा है इसे वे राई-रत्ती जानती मिलेंगी। मानों वे हर किसीके बेडरूम में हर पल उसके बेड के नीचे ही छुपी रहती हों अपने काम-काज छोड़ के !

’’ये तो दिखाने के लिये मंगलसूत्र पहनती है।’’ एक चतुरी बाई तीन-चार अपने ही जैसियों में बड़े दावे से खुलासा कर रही थी - -

तुम्हें कैसे पता ? तुम्हें बताया क्या स्वयं उसने या उसके पति ने ? यदि हां तो तुम उसके पति के इतने करीब कैसे ? चलो छोड़ो ! आगे बढ़ो!

’’ये तो महीने में बीस दिन अपने पति से बात नहीं करती है।’’

ऐल्लो, तुम्हें इसके पति ने भी सब कुछ बता ही दिया, या तुम इसके घर में ही छुपी बैठी रहती हो अपने सब काम-काज छोड़ कर ? तभी तो तुम  दिन भी गिन आईं लाड़ो !

’’इसकी लड़की तो मुंह पे कपड़ा बांध के स्कूटी पे न जाने कहा-कहां फिरती है।’’

वहीं न जहां-जहां तुम फिर रही होंगी उसकी बेटी के पीछे-पीछे !

’’उसकी बेटी तो ठीक होली के दूसरे दिन श्याम टाकीज में पिक्चर देख रही थी।’’

तुम्हारे पति तो टूर पर गए थे तब। तुम किसके साथ गईं थी उस टाकीज में उस रोज ?

’’ये तो अपने पति को पीट भी चुकी है।’’

अच्छा ! मगर तुम क्या करने गईं थी वहां तब ? और तुमने उसके पति बेचारे को पिटने से बचाया क्यों नहीं ? चलो इसे भी छोड़ो।

’’ये तो ’उसके’ लिये सज-धज के आती है।’’

कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके लिये तुम सज-धज के आना चाहती रही हो ? तुम्हें चांस नहीं मिला तो ़ ़ ़ ? जाने दो, इसे भी छोड़ो।

क्या छोड़ो छोड़ो ? इतनी अंदरूनी बातें जानने वाली मोहतरमाओं का तो मान-सम्मान किया जाना चाहिये। आखिर समाज पर कितना अपना बहुमूल्य समय जाया करती हैं। अपना बीपी, शुगर सब तो बढ़ाए रहती हैं बेचारियां समाज की चिंता में। कैसे होगी इन सफाईदारिनों के बिना समाज की गंदगी साफ ?

इन्हें तो समाज की नालियां कहा जाना चाहिये जिनसे हो कर गंदगी को बह जाने का मौका मिल जाता है वरना अंदर ही अंदर सड़न फैलती रहे !

और यह भी तो देखो कि कितना जनरल नाॅलेज है इन्हें। कितनी अप्रतिम क्षमता है इनमें ! भारत सरकार को चाहिये कि इनमें से किसीको भी राॅ की चीफ बना दे। हर किसी के मन में झांक कर उसके भीतर की बात निकाल लाती हैं ये, वैसे ही जैसे फतेहपुर-सीकरी में जोधाबाई के महल में बने कुएं में से आसपास के गरीब बच्चे आपका फेंका सिक्का निकाल लाते हैं पल के पल में। कितनी सामर्थ्य व सच्चाई है इनमें। आप अपने बारे में झूठे, ये आपके बारे में शत-प्रतिशत सच्ची !

यही है इनके लिये जिंदगी के मायने। जहां-तहां दूसरों के फटे में पैर डालने की समाज सेवा में तत्पर ये तथाकथित
भद्र आत्माऐं हर गांव-शहर, गली-मुहल्ले में एक ढूंढो हजार मिल जाऐंगी। ढूंढने की जरूरत ही नहीं वे बेसाख्ता आपके आसपास मंडराया करती हैं। आप जानो या न जानो। ये वे भूत हैं जिन्हें कोई हनुमानजी नहीं भगा सकते।

सच् !

इत्ता मजा क्यों आता है इन्हें किसीके दुख, किसीके दर्द को कुरेदने में ! क्या कमी रह गई इनके पालन-पोषण में ? अपने दुखों-कमियों को भुलाने का, अपने मनोरंजन का यही एक तरीका क्यों कर बचा है इनके पास ?

छात्रों को अरस्तू का न्यायवाक्य समझा कर, अरस्तवी प्रभाव से उबरने की कोशिश में हल्की कुनकुनी धूप की ओर पीठ किये बैठी हूं स्टाफरूम के सामने बराम्दे में। कानों में चिर परिचित स्वर सुन पड़ता है ़ ़ ़

’’पता है, अरे सुनो सुनो, फलानी की लड़की ने ढिमाके के बेटे के साथ भाग कर शादी कर ली !’’ धमाकेदार न्यूज से खलबली मच गई थी। सब की सब वे खबरचिन को हाथों-हाथ लिये ले रही थीं।
आनंद ही आनंद बिखर पड़ा था सब तरफ।

’’किसने बताया ? कैसे मालूम पड़ा ???’’
शोर बरपा था, आनंद छलका पड़ता था।

’’मेरे भाई ने बताया ! उसीके आॅफिस में तो काम करता है - - ’’ अच्छा ! तो भाई को भी इसी काम में लगा रखा है !

मैने किसे सुना था ?

मस्त  हंसी हंसती किसी की बेटी के भाग कर विवाह कर लेने की चटपटी खबर का मजा लूट रही थी वह। खट-खट करती वह अगले ही पल मुझसे मुखातिब थी ’’देखिये आप नहीं मान रही थीं न ?
मगर यह न्यूज मेरी सच निकली। अब मैं आपको मनवा कर ही रहूंगी कि ’इसका’, ’उसके’ साथ चक्कर है। देखिये न
पहले कैसी तो भी रहती थी लबड़धोंधों, और अब कैसे सज-धज के आती है नेलपाॅलिश, मैचिंग चूड़ी-बिंदी,
लिपस्टिक में एकदम टिपटाप। पूछिये क्यों ? क्योंकि इसका उससे कुछ चल रहा है। मैने तो खुद अपनी आंखों
से देखा है।’’

- - - - -

मुझे भी हंसी आ रही है। क्यों भला ? क्यों ? हंसना अच्छी चीज है स्वास्थ्य के लिये ! इसीलिये हंस रही हॅूं ? और, इसलिये भी हंस रही हूं कि क्या मैचिंग के पीछे किसी अफेयर का होना जरूरी है ? या मुझे कहीं उस किसी पति के
लिये तो हंसी नहीं आ रही जो समझता होगा गरीब कि उसकी पत्नी उसके लिये सजती-धजती है ? या फिर
सचमुच ही तसल्ली भरी कोई कुटिल हंसी तो नहीं आ रही मुझे ?

कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे भी निंदा रस भाने लगा था ! निंदारस से मीठा कुछ नहीं ।

ऐसे ही तो नहीं कहा है किसीने !

’’आप नहीं मानेंगी पर मैं आपको मनवा कर रहूंगी। लीजिये और प्रमाण देती हूं ़ ़ ़ आप अपनी विश्वस्त मित्र सुमतिजी से पूछें उन्होंने तो दोनों को एक खाली क्लासरूम मे लिपटते-चिपटते पाया था। अब ये मत पूछियेगा कि आपकी वे मित्र वहां क्या कर रहीं थीं। आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि वे उधर वाशरूम से आ रही थीं ़ ़ ़’’

सारी जानकारी मय प्रमाणों के प्रस्तुत है मी लार्ड ! पर जाने किसके लिये कह गए हैं पुरखे ’’तू अपनी निबेड़ तुझे
औरों की क्या पड़ी !’’

मेरी हंसी, मेरे मौन को मेरा नकार मान कर प्रमाण पर प्रमाण देने पर आमादा वह थी कौन ? कौन ?

आखिर कौन ?

वही वर्तिका ! जो अब तक खुद टारगेट बनी हुई थी किसी अन्य को टारगेट बनी पा कर बड़ी ही प्रसन्न थी !

नमक की खदान में सब नमक ही तो हो जाता है ! न जाने क्यूं यह मुहावरा मेरे मन में गूंज रहा था, मुझे भयभीत सा कर रहा था कि आखिर मैं भी तो उस नमक की खदान में ही थी !

अब मेरा क्या होगा कालिया ? - -  -

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10-

मिसरानी

‘‘आज ही क्यूं मि. सब्बरवाल और उनकी नकचढ़ी पत्नी को बुला आई ?’‘ दबा-दबा स्वर उनके बेटे का था। अपने सर्कल में केवल और केवल घर का बना खाना पसंद करने वालों में अव्वल माने जाने वाले मि. सब्बरवाल बेटे के सीनियर आॅफिसर थे, उसकी सी.आर. वगैरह का बहुत कुछ दारोमदार उन पर था।

’‘अब तुम्हीं संभाल लो किचन। मम्मी को आराम करने दो। आज ही तो आई हैं और आते ही रसोई में। बेचारी सारी उम्र रसोई में ही खटती रहती हंै।’‘

जलती-तपती, दरकती जमीन पर जैसे बरखा की नन्हीं-नन्हीं फुहारें पड़ती हों, ऐसी ही लग रहा था उन्हें बेटे की आवाज सुनते हुए, मगर अगले ही क्षण ज्यों फूस के ढेर में आग का लपलपाता हुआ पलीता आ गिरा हो ! कुछ ऐसी ही तो थी बहू की कुढ़ी हुई सी आवाज ‘‘मुझसे चैबीसों घंटे महाराजिनों-मिसरानियों की तरह किचन में नहीं रहा जाता। माता जी का क्या है ? उस जमाने के मुताबिक उनके हालात ही ऐसे थे किचन में लग कर जिंदगी काटनी ही थी उन्हें ‘‘

बहू के कहे शब्दों ने उन्हें भीतर तक झकझोर कर रख दिया। ‘मिसरानी’ बींध गया उन्हें, यह शब्द। एक अव्यक्त से दर्द से छटपटा उठीं वे भीतर ही भीतर, जब सुना कि बेटा धीमें स्वरों में बहू को समझाने के नाम पर उसकी मिन्नतें कर रहा था। उनका कद्दावर बेटा यूं बहू के आगे बौना हो गया। वही बेटा जो उनके पकाए-खिलाए से अपने बाप की कद-काठी पा सका था।

उन्हें यक-ब-यक याद आ गए सद्य-वैधव्य के वे दिन। उनके नाजों पाले बच्चों के बुआओं-ताइयों के हाथों रुखा-सूखा पा कर पेट भर लेने के वे कड़वे दिन। वे कैसे भूल सकती हैं नन्हें अबोधों की वे आश्चर्य व लाचारी से कातर आंखंे, जिनकी बदौलत ही मानो वे पुनः जी उठी थीं। यह बात और है कि श्वसुर गृह में भी हमेशा किचन में ही खटर-पटर करती रहने वाली उन्हें, मजाक ही मजाक में मिसरानी बहू या मिसरानी बाई कह दिया जाता था। वह उन्हें कभी
बुरा नहीं लगा था पर आज दिल पर यह शब्द मानो घूसे की तरह लगा, क्यों ? क्योंकि यह शब्द उन्हें कल परसों की आई अपनी बहू से सुनना पड़ा था जिसे वे
अनुभव के लगभग हर क्षेत्र में स्वयं से कमतर समझती थीं। उसे क्या पता कि जिस योग्य पति को उसने पाया है वह सिर्फ उन्हीं की अथक मेहनत, बुद्धिमत्ता व कौषल की बदौलत ही पाया है। वरना यह भी संभव था कि एक भरे-पूरे घर में पितृहीन बच्चे एक वटवृक्ष के तले उगने वाली बेल जैसे कमजोर लाचार व परनिर्भर हो रहते। उन्होंने ही रसोई का सारा दायित्व संभाल, स्वयं को उपयोगी, महत्वपूर्ण दर्जा दिलाया और इसी घर-भर के लिये अति-उपयोगी, महत्वपूर्ण माता की संतानों को भी अपेक्षित मिलना ही था। उन्हीं में से एक उनकी संतान आज उनके सामने बौना व्यक्तित्व लिये खड़ी थी।

बरसों से बंद अतीत की हवेली के दरवाजे-खिड़कियां क्षणभर में धड़धड़ा कर खुल गए थे। एक झटके से वे दर्द भरे साएजिन्हें आज तक वे बड़े जतन से छुपाए बैठी थीं, एक-एक कर उनके सामने उन्मुक्त नृत्य करने लगे ........

मांझा चढ़ी डोर सी तनी रहती थीं वे। मायके में सबकी दुलारी। आठ भाइयों पर अकेली बहन, वह भी नख से शिख तक सुंदर। ससुराल में चार अदद जेठानियों व इतनी ही कृष्णवर्णी ननदरानियों के बीच वे एकमात्र श्वेतवर्णा अपने आप को कांटो के बीच फूल सा घिरा पातीं। इस फूल को पूरी तरह से अपनी महक सुवासिह करने का अवसर दिया था उनके चतुर ससुर ने। जिन्हें उनके रुप में गोरी-चिट्टी बहू तो मिली ही थी साथ ही मिला था तबियत हरी कर देने वाला दहेज। सो वे सब पर भारी थीं।

‘छोटी को बुलाओ,’ ‘छोटी से पूछो,’ ‘छोटी की क्या राय है ?’ जैसे मानदायी वाक्यों के बीच उठते-बैठते समय जैसे सुनहरे पंख लगाए उड़ रहा था। हर तरह से सुखी थीं वे। बहू का भारी होता जाता बदन और उस पद लदता जाता गहनों का भार तथा बच्चों की संख्या ही उस घर में पति के प्यार व नारी के सुख को नापने का पैमाना समझे जाते थे तब।

सो, तकदीर ने उन्हें इफरात से सब सुख नवाजे थे। श्वसुर गृह में जिस बहू की तूती बोलती हो, उस घर में स्वयं उसका व उसके गहनों का भार बढ़ना कोई कठिन व आष्चर्य की बात नहीं थी। साथ ही, पति के प्यार का वह आलम था कि कुल जमा चार-पांच वर्षों में   ही दो गोल-मटोल स्वस्थ्य बच्चों की मां हो वंश परंपरा को मशीनी गति दे चुकी थीं वे। पर बस यहीं विराम लग गया। किस्मत ने एकदम ही कृपणता ओढ़ ली। एक ही झटके में देवता तुल्य पति व पिता तुल्य ससुर कार एक्सीडेंट ने छीन लिये।

वे मुंह बाए देखती रह गई। मांझा चढ़ी डोर सी तनी रहने वाली वे इस एक ही आघात से कराहना भी भूल गई। अपने ही घर-आंगन में कटी पतंग सी आश्रयहीन, निस्तेज, महत्वहीन हो उठीं।

‘नजर लग गई,’ ‘नजर लग गई’ मायके वालों ने कहा - ‘नजर लग गई’ सभी ने कहा।

जिसकी आंखो के इशारों पर सारा घर नाचता था, वही अब सबकी नजरों का निषाना बन शून्य पथराई दृष्टि से अपने कमरे में जा पड़ी थी, फालतू साामान की भांति।

‘बड़ी से पूछो,’ ‘इससे पूछो,’ ‘उससे पूछो’ जैसे शब्द उनके कानों में उबलते लावे से बहने लगे। वे एक साथ दुहरे दुख के पहाड़ तले दब गई थीं। उनका पति गया, अधिकार व सामथ्र्यदाता ससुर गए। अब कहां था उनका दबदबा, उनका अखंड सामा्रज्य ? ढलान पर गिरे पानी की तरह सब बह गया था।

पति उनके लिये वह आश्रय स्थल था कि जिसकी छत्रछाया में वे केवल पैसा बहाना ही जानती थी। पैसा कहां धरा है ? किसके लिये धरा है ? जैसी बातें उनके लिये बेमानी रही थीं। अब इन बातों को जानना उनके लिये और भी बेमानी मान लिया गया था। बस माने रखता था तो जेवरों का वह भार जो वास्तव में भारी था, उन्हीं के स्वामित्व में था।

माली के आंख मूंदते ही डाल-डाल से पराई हो गई थी। यूं दिखने को सब एक था पर भीतर ही भीतर सब हिस्सा बांट हो गया चुटकियों में। उनके हिस्से आया घर का अपना कमरा ही अब उनकी गृहस्थी था। कर्ता-धर्ता अब दूसरे थे। वे अपने व अपने बच्चों के खर्चों के लिये उन पर आश्रित, खर्च में यथासंभव कटौती के लिये बाध्य। अभी भी पूरे घर में उनके दहेज का फर्नीचर, सामान अटा पड़ा था। पर पूरे घर में चलने वाले उनके रौब की पूर्ण इतिश्री हो चुकी थी।

वे अब विधवा थीं। सो न तो उनके बदन का भार बढ़ना चाहिए। न ही गहनों-जेवरों का। विधवा का भला क्या श्रृंगार-पटार, रुप लावण्य ? विधवा की न कोई अपनी आवश्यकता होती है न इच्छा। सब पति के साथ ही भस्म हो जाती
है। कुछ यही मान लिया गया है।

ठीक है, अपनी आवश्यकताएं, इच्छाएं उन्होंने मार दीं, पर वे देखतीं कि भरे-पूरे परिवार में उनके लड़ियाएं बच्चे अपने मनपसंद खाने को भी तरस गए। छोटे-छोटे बच्चे किसी को बैंगन नहीं पसंद, किसी को अरहर की दाल नहीं पसंद, किसी को प्याज का तोकिसी को जीरे का छौंक नहीं पसंद। लेकिन जब थाली में वही सब आता तो टुकुर-टुकुर
चाची-ताई को ताकते मासूम बिना शिकायत किये खा लेते थे। कैसे चंद ही दिनों में, प्रकृति ने अबोधों में   इतनी सामंजस्य क्षमता विकसित कर दी थी। उनका दिल दरक-दरक जाता । आंखें मिला न पातीं बच्चों से वे।

अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। आठ भाई तो थे पर वे भी अपनी ‘ठोस’ जमीन पर असहाय विधवा बहन व उसके छोटे-छोटे बच्चों को रख कर ‘भूकंप’ का शिकार होना नहीं चाहते थे। लिहाजा वे समझ गई थीं कि उनकी जो गति होनी है वह यहीं इसी घर में होनी है बस् !

कब तक माथे पर हाथ धरे बैठी बिसूरोगी छोटी बहू ? कुछ काम-धाम को हाथ लगाओगी तो बच्चों के पेट में भी ठीक से अन्न-पानी पड़ेगा । घर की झाडू-पौछा वाली बाई कह रही थी उनसे एक दिन।

उस दिन मानों जीवन का महासत्य सत्य उद्घाटित हो गया था उन पर, और सामने ठोस जमीन पर उतर आई थी
वे बच्चों के जिक्र पर।

आखिर पहले का सा मान-सम्मान तो अब उन्हें मिलना नहीं। न ही उनके बच्चों के नाज-नखरे अब चलेंगे। आए दिन वे अनदेख। करती हुई भी देख ही लेतीं थीं कि उनके नन्हें-नन्हें, मनुहारों से पले बच्चों के आगे धम्म से दूध का ग्लास धर दिया जाता, अपने इस अपमान को दूध भी सह न पाता था। छलक ही जाता ग्लास के आसपास।

लेकिन वे देखतीं कि बदल गए माहौल से अतिशीघ्र परिचित होते जा रहे अबोध जो भी, जैसे भी दिया जाता, चुपचाप ग्रहण लेते, उफ् !

कब तक आखिर कब तक यूं हाथ पर हाथ धरे बैठ बिसूरेंगी वे ? ये हाथ अब बच्चों के सुख-दुख बांटने के काम न आए तो किस काम के ये हाथ ? न अब इनमें मेंहदी रचेगी, न इनमें चूड़ियां पडं़ेगी। आखिर क्या होगा इन हाथों का जो अपने ही जायों को प्यार से, सुख-सम्मान की सूखी रोटी भी न खिला सकें ये हाथ ?

माथे पर सोच लादे, धुंधलाई दृष्टि से आंखें जहां जिधर भी देख पातीं दुखों का रेगिस्तान ही दिखपड़ता था उन्हें। तप्त भूमि पर मन निपट प्यासे बनपाखी सा बेकल तड़फड़ाता-भटकता फिरता पर एक बूंद भी न मिलती थी प्यास बुझाने को। न जाने कैसी अनंत यात्रा शुरु हुई थी उनकी कि न कहीं कोई पड़ाव था न कोई छांव, न कहीं कोई मंजिल। होंठ रीते हुए, सब शहदीले गान खत्म हो चुके थे। जीवन को झंकृत कर गई वीणा के तार टूट चुके थे और इस वीरान-उजाड़ अनंत पथ पर चलने के साथ ही उनके पांव जैसे थक चुके थे।

पर चलना था। चलना जरुरी था। वे चलेंगी, थके पांवों को घसीटते हुए ही सही ...... पर वे चलेंगी। टूटे तारों को जोड़ कर वे बजने लायक बना लेंगी ताकि सफर का सन्नाटा उनके बच्चों के जीवन में न उतरने पाए। वीरान पथ को अपने बच्चों की खुशियों से सजा लेंगी वे। वे अपनी दुनिया यूं पूरी की पूरी लुटने न
देंगी। इस वीरान पथ पर बस अथक यात्रा, आशाभरी यात्रा ही करनी थी उन्हें ...............

और वे चारों ओर से तमस भरे पथ पर नन्हीं-नन्हीं रोशनियों को साथ ले मंजिल की आस में चल ही पड़ी थीं ............... लड़खड़ाते कदमों से। दूर-दूर तक कोई ‘अपना’ न दिखता हो जहां, सिर पर आग उगलता आसमां, पैरों तले फटी-दरकी जमीन थी जहां, वहां,
युवा सपनों की समाधि बना, कामनाओं के समस्त बुझे दीपों से उड़ते धुएं से धुआंते वातावरण में बस् चल पड़ी थीं अकेली। न जीत की फिक्र थी न हारने का गम। यह बात और थी कि एक किस्म की घुटन उनके मन-प्राण पर हरदम छाई रहती थी। धूप खिलखिलाती हो कि चांदनी गाती हो, उन्हें कोई खबर न रही।

जिस घर में रसोई को आलस की मारी स्त्रियों ने उपेक्षित छोड़ा हुआ था, भार सा बना रखा था उसी घर में इस भार को उन्होंने अपने सिर ले लिया चुपचाप। अल्लसुबह वे रसोई में जो घुसतीं तो देर रात गए ही निकलती।

ऐसे ही, बस् ऐसे ही चचेरों-ममेरांे के बड़े कपड़े छोटे करके पहनते-पहनाते, उन्हीं की पुरानी किताबों से पढ़ते-पढ़ाते बच्चे न जाने कब बड़े हो चले थे। वे अपने बच्चों को ठीक से    अन्न-पानी की व्यवस्था करने की गर्ज से मिसरानी सी हो अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा रसोई के हवाले करर् आइं। इसका लेशमात्र भी अफसोस उन्हें कभी नहीं रहा।

कोई भी अवसर हो, त्यौहार-वार हो, घर का कोना-कोना उनके बनाए पकवानों की गंध से तो बाकी समय स्वाद व स्वास्थ्य से भरपूर खाने की गंध से गमकता-महकता रहता। लोग समझते कि असमय मिले वैधव्य तथा भाग्यहीनता ने ही उन्हें घर के कामकाज में लगा दिया। पर वही जानती थीं, और आज भी उनके ईश्वर के अलावा वही, केवल वही जानती हंै कि नन्हें नन्हों को आंसू व अपमान से भूख न मिटानी पडे़ इसीलिए, बस इसीलिए
उन्होंने अपने सूने हाथों को, अपने आपको रसोई में झोंक दिया था। अपने बच्चों को ठीक से खिलाने-पिलाने का यही चोर रास्ता था जो उन्हें सीधे रसोई तक पहुंचा गया था। इस तरह अपना छिन गया साम्राज्य बहुत कुछ उन्होंने फिर
से पा लिया था।

फिर से डोर पर मांझा चढ़ने लगा था। सारा घर निर्भर करता था उनके हाथों। पर हर कोई उनसे भोजन पाता था। वे न करें तो क्षण भर में सारा घर भूखा बैठा रह जाए। मेहमानों को चाय पानी तक न पहुंचे। न ठाकुरजी को भोग लगे, न कामवाली को बासा मिले। चट से ये काम निबटा, पट से वे दूसरे काम में हाथ डाल देतीं थीं। पहले की तरह पुनः परिवार अब उनके ईशारों पर ‘ता-थैया’ करता था। बड़े जतन से उन्होंने यह स्थिति हाॅसिल की थी। संतोष, परितृप्त की चमक से दमकता था उनका चेहरा। सबसे शुद्ध बेहतरीन खाती थीं वे, उनके बच्चे, बस इसी निमित्त बाकी परिवार को विभिन्न सुस्वादु व्यंजन नसीब हो जाते थे। वे कभी-कभी स्वयं हैरत में रह जातीं कि कितनी तरतीब से वे पुनः सर्वेसर्वा बन गई थीं।

पूरे साल के लिये कितना अनाज आना है, कितना दालें आएंगी। महीने भर के लिये क्या-क्या कितनी मात्रा में, और कौन कहां से आएगा, सब उनके निर्देशों पर होता। किसी न किसी रुप में वे पुनः परिवार को अपने महत्व का अंदाज करवा ही चुकी थीं। उन्हें मंजूर ही न था कि किसी भी कीमत पर उनके भरे-पूरे साम्राज्य पर कोई तनिक भी सेंध मार जाए। सो उनकी कोशिश व कामना यही रही कि परिवार की औरतों को और आलस मार जाए।

वह तो उन्हीं के बड़े बेटे की नई ब्याही बहू ने जब एक रोज बनाकर सबको खिलाया तो जो वाह-वाह हुई बस् उसी से बौखला सी गई वें। और तो और वह बेटा जो उम्र भर मां का मंुह देखता रहा, वह भी चटखारे ले-ले कर यूं खा रहा था कि जैसे कभी-कुछ ढंग-ढांग का खाया ही न हो तो जैसे वे आसमान से गिर पड़ीं थीं। उन्हें लगा जैसे भरी भीड़ में उन्हें चुनौती दी गई हो !

और बस्  चटपट निर्णय लेते हुए उन्होंने बहू को रसोई में फटकने ही कब दिया फिर ? सुबह उठे तो चाय-नाश्ता तैयार, दोपहर का खाना तैयार शाम की चाय व रात के खाने की व्यवस्था चुटकियों में कर चौकस निगाहों से घड़ी पर नजर डाल चीते की सी फुर्ती से सब काम आनन-फानन में निबटा निवृत्त हो बैठ थोड़ा उंघ भी लेतीं वे।

ज्योंहि बेटा अपनी पोस्टिंग वाली जगह पर जाने लगा उन्होंने आव देखा न ताव बहू को भी उसके साथ चलती कर
इधर चैन की सांस ली। उधर बहू का पत्र आ पहुंचा जिसका मजमून कुछ यही था कि भगवान सबको उनके जैसी सास दे !

विजयी मुस्कान से उनका चेहरा गुलाब-गुलाब हो आया। पति की मृत्यु के बाद यह शायद पहली तृप्त मुस्कान पायी थी
उन्होंने। लगे हाथों बहू ने उन्हें अपनी गृहस्थी देखने बुला लिया था। वे बड़े महत्भाव से आईं और आते ही यहां भी वही मशीनी जाल बुन कर रख दिया।

बेटे-बहू की रसोई गुलजार हुई। खुशबूदार, रसीली-महकती दावतें शुरु हुई ही थीं कि उनके ससुराल से उनके अभाव में हाय-हाय का तांता लग गया। आखिरकार एक रोज बड़े जेठ आ कर उन्हें लिवा ले गए। वे इधर आइं कि उधर बहू-बेटे ने कोहराम मचा दिया। बस् यूं ही बड़े संतोष व आत्म-गौरव से कट रहे थे उनके दिन। बेटे-बहू के पास जातीं तो इधर जमी-जमाई रसोई अकुलाने लगती। इधर आ जातीं तो बेटा-बहू बैचेन हो जाते।

‘‘जलन   होती है छोटी तुझसे, तेरे बिना तो जैसे पत्ता भी नहीं हिलना चाहता।‘’
जेठानियां कहतीं तो वे गर्व से दिपदिपा उठतीं। एक तो विधवा, उस पर भी ठसकेदार जेठानियों की ईष्र्या की पात्र।
भला किसे नसीब है ऐसी जलन  ?
वैधव्य के आरंभ के दिनों में तो वे स्वयं को सबकी कृपा, करुणा व दया की ही पात्र बन गई पाती थीं। उन्हें बरबस याद आ जाती मासूम बच्चों की वह असहाय दृष्टि जिसकी बदौलत वे आज इस मकाम पर आ लगी हैं कि घर में बिना उनके
जैसे पत्ता भी नहीं हिलना चाहता !

आज जब पीछे पलटकर देखती हैं तो पाती हैं क  स्वयं को व बच्चों को स्थापित करने में इतना परिश्रम किया है उन्होंने कि पति के वियोग जैसा भारी गम भी उनके लिये गौण हो रहा था।

इसी प्रकार धीरे-धीरे एक अव्यक्त सी प्रतिस्पर्धा जीत लेने की लालसा उनमें आ समाई। जो कि पति के न रहने से ही उत्पन्न हुई थी। इस लालसा ने ही पति के न होने की पीड़ा को समाप्त प्रायः कर दिया था। अब तो बस् एक टीस ही बची थी। फिर भी गम की तरह का कोई गम न था। सब कुछ अच्छी तरह चल ही रहा था। ये बहू का कहा ‘मिसरानी’ शब्द ही मानो उन्हें उनके साम्राज्य के सिंहासन की हिलती कीलों का भान करा गया था। क्या महत्व था उनका ? क्यूं इधर और उधर सब उन्हें लाते-लिवाते रहते थे ? तनिक सी भी बीमार हो जाएं तो जल्द से जल्द अच्छी हो जाने की कामना क्यों की जाने लगती थी ? सब उन्हंे समझ में आ गया।

पूरे परिवार को अच्छा खाना खाने की लत पड़ी हुई थी। साथ ही, घर की स्त्रियों को आलस्य व अहदीपने की। बस् यही वजह थी कि ‘रसोई’ के मोर्चे पर उन्हें जानते-बूझते जीत लेने दिया गया। एक असहाय, युवा विधवा के लिये यही मोर्चा खुला छोड़ दिया गया था। इस पर भाड़े के आदमी को रखने के अपने अलग नुकसान थे।
इस मोर्चे के लिये पूरे परिवार को विधवा होने पर वे बड़ी सहजता से उपलब्ध हो गई थीं। अब वे समझ पा रही थीं कि क्यूं उनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता था ?  यह बात और है कि वे स्वयं यही चाहती थीं कि उनकी स्थिति नचैया की रहे नाचने वाले की नहीं, लेकिन समय ने कुछ ऐसा चक्र चलाया कि कब नचैया नाचने वाले में तब्दील हो गया पता ही न चला।

इतने बरस हो गए वैधव्य का दुख उन्होंने स्वयं पर हावी न होने दिया था। वरन् वैधव्य के रुप में विधाता ने उनके सामने जो एक अप्रत्याशित चुनौती खड़ी कर दी थी, एक कठिन प्रतियोगिता की अप्रिय स्थिति ला दी थी उसी से जूझने जीतने में ही बीच के सारे बरस कट गये कुछ पता ही न चला जैसे ।

अब जब पता चला कि इससबका पूरा-पूरा फायदा उठाया गया है तो रोकते-रोकते भी उनके आंसू निकल पड़े। यूं लगा जैसे एक बार फिर नए सिरे से वैधव्य की असहनीय पीड़ा से गुजर रही हों। यदि पढ़ी-लिखी किसी योग्य होतीं तो बात और होती किंतु एक अनपढ़ या उन जैसी कम पढ़ी-लिखी महिला की क्या यही नियति है कि वह पूरी उम्र दूसरों पर आश्रित रहे ? अपने ही घर में उसकी स्थिति अपने परिवार व बच्चों के लिये मात्र रोटी-पानी बनाने वाली ‘मिसरानी’ की सी ही हो ? तनिक से प्यार की कामना उसे न हो ? वे बौराई सी पूछ रही थीं अपने आपसे,  दिमाग में अनगिनत घंटियां सी बज उठी थीं।

उनका ध्यान भंग हुआ। घड़ी की टन्-टन् समय के अथक प्रवाह की सूचना दे रही थी। यह शाम बहुत भारी बीत गई उन पर।
समय हो चला था। बेटे के बाॅस को आज आमंत्रित किया गया था। एक बारगी उनका मन हुआ कि सब छोड़-पटक कर वापस चली जाएं आज, अभी इसी वक्त यहां से। मगर कहां ?

दिमाग, यद्यपि थक चुका था फिर भी उसने मनरुपी उद्याम हुए जा रहे घोड़े को चाबुक लगाया। कहां ?
कहां चली जाएं ? वहां जा कर भी क्या हासिल होना है ? उल्टे पति के सीनियर आॅफिसर व उसकी नकचढ़ी बीबी के लिये बढ़िया घरैलू दावत की व्यवस्था करते-करते बहू अवश्य पगला जाएगी। लंबी उसांस ली उन्होंने। थक कर ढीले पड़े शरीर में पुनः रही-सही ताकत बटोरी और खड़ी हो गई स्वयं ही से कहती हुई सी -

‘‘चल री मिसरानी चल, लग काम धंधे से !  ‘‘

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11-

साहेब का रूमाल

जंगल के राजा के दर्शनों का प्यासा मन मुझे कहां-कहां न लिये फिरा है, कैसी-कैसी जगहों की खाक न छानी है। मगर वे मुझ जैसी अपनी दीवानी को, बावली को दर्शन लाभ कब देने लगे शरमीले ? ऐसी ही एक तलाश का अंश थी मेरी बारनवापारा अभयारण्य की वह तीसरी यात्रा कि जिसमें कुछेक चीतल, मोरों के झुंड, खरहे और मात्र एक अकड़ू
बाईसन देखकर ही संतोष करना पड़ रहा था। बच्चे बाईसन को देख बहुत हंसे कि जैसे भैंसे ने सफेद मौजे पहन रखे हों !

अभयारण्य की सीमा के बाहर आते ही मानो हमें अभय मिल गया था, सांपों की केंचुली, सूखी आर्टिस्टिक टहनियों आदि की तलाश में और बढ़कर पुरूष वर्ग को यत्र-तत्र-सर्वत्र यूरिनल की जो सुविधा उपलब्ध है उसी का लाभ उठाने
के लिये गाड़ी एक अनजान मगर सुरक्षित जगह पर रोकी गई। कहते हैं कि यथा को तथा मिल ही जाता है। धुर घने वन में भी मुझे न जाने कैसे दिख पड़ी थी, पत्तों आदि के कुछ कचरे नुमा ढेर में दबी वह कोई कब्र। इतने जंगल में किसकी कैसी कब्र है वह ? जरा देखूं तो। इसी उत्सुकता में मैंने कार का डोर खोलना ही चाहा था कि पीछे फारेस्ट वालों की जीप से सरकारी गाइड जिन्हें सब पंडितजी कहते थे, उन पंडितजी ने आ कर मुझे रोक दिया था  -

’‘रहने दीजिये, अंधेरा घिर आया है। उस कब्र की स्टोरी मैं बताता हूं आपको, किसी संपेरन की कब्र है वह जिसकी आत्मा ने किसी बाबू साहेब से बदला लिया था बताते हैं। उसके परिवार के लोग यहीं पास की बस्ती में बसे हुए हैं। उनमें से कोई आपको विस्तार से बता देगा - - -    ’‘

मुझे सब्र कहां ? लौटते-लौटते ही संपेरों की उस बस्ती से एक अनुभवी संपेरे को साथ बिठा लिया गया।

बारनवापारा के स्वप्निल, रहस्य भरे अंधियारे से माहौल में जब हम अपनी काॅटेज तक पहुंचे तब वहां उस माहौल के अनुरूप अलाव जलाया जा चुका था। ठंड कुछ बढ़ चली थी।
लालटेन की मंद-मंद रौशनी में गर्मागरम कबाब व अदरक की चाय की चुस्कियों के साथअलाव तापते हुए उस संपेरे ने जो कुछ बताया वह रौंगटे खड़े कर देने वाला ही तो था।

बरसों पहले कभी किसी ’साहेब’ ने इन्हीं में से किसी काॅटेज में डेरा डाला था शिकार की तलाश में। उन्हें यहां की
अति सुंदर संपेरन  के बारे में बताया गया था। साहेब उसी की तलाश में यहां तब और घने रहे इस जंगल में आए थे। वह बुलवाई गई सांप दिखाने के बहाने से। उसका पति यहां से करीब सत्रह-अठारह किलामीटर दूर गांव में बाजार आदि के लिये गया हुआ था। अच्छी रकम मिलेगी इस उमीद में संपेरन अपनी सबसे ज्यादा करतब व जहर भरी नागिन की पिटारी ले कर आई। मगर नागिन और उसका जहर किसी काम न आया !

भोली संपेरन उस खेले-खाए, महा चालू साहेब के चंगुल से स्वयं का न बचा पाई। हालांकि बचने की जद्दो-जहद में साहेब का करीने से तह किया गया रूमाल संपेरन की मुठ्ठी में आ गया, या कि उसने जानते-बूझतेकिसी भी तरह से वह रूमाल अपने कब्जे में कर लिया, जिसे अपनी मुठ्ठी में दबा वह अपनी नागिन की पिटारी उठा कर भागते-दौड़ते उस जगहतक आई जहां उसकी कब्र बनी हुई है, और वहीं वह रूमाल पिटारी में रख उसने नागिन का जहर अपनी छोटी अंगुली में डंसवा पिटारी को उसी दम बंद कर दिया। मिनट के छठवें क्षण बीतते न बीतते उसके प्राण पखेरू उड़ लिये अनंत आकाश की और। उसका संुदर शरीर नीला पड़ गया। बाजार से लौटने पर रास्ते में ही संपेरे को यह सब देखना पड़ गया। उसने बुझे-लुटे दिल से नागिन की पिटारी खोली तो उसकी आशंकाऐं सत्य निकलीं।

नागिन ने संपेरन को अकारण ही नहीं डंसा था। पिटारी में एक कोने में करीने से तह किया मगर तुड़-मुड सा गया एक महंगा रूमाल संपेरन की मैली मुठ्ठी के दाग वैसे ही दर्शा रहा था जैसे संपेरन की नुची-धजी काया किसी साहेब की खोटी नीयत के मैल को दर्शा रही थी। संपेरे व उसकी बस्ती के लोगों ने वहीं संपेरन का क्रिया-कर्म कर दिया।

’‘हमारे में बाई साब, वैसे तो दफनाते हैं ़ ़ ़ पर जिसका बदला लेना हो उसे जलाया जाता है।’‘ उस घटना की याद से कुछ दुखी सा वह संपेरा कह रहा था कहीं षून्य में तकता हुआ सा। सन्न सी बैठी मुझे बता रहा था वह- कि संपेरे के पास एक ढाई फुट लंबा व लगभग एक फुट चैड़ा लकड़ी का बक्सा था जिसकी निचली सतह लौहे की थी। संपेरन के क्रियाकर्म के ठीक बाद उसने सावधानी से उस नागिन को साहेब के रूमाल सहित उस बक्से में डाल बक्सा बंद कर दिया।

अब बक्से में बंद थी वही जहरीली, भूखी नागिन जिसे ले कर संपेरन साहेब के पास गई थी। वह नागिन उस रूमाल की खुश्बू, उसमें बसी पसीने की गंध को तो ठीक से पहले ही ले चुकी थी। अब, बक्से को संपेरन की चिता के अंगारों पर रख, हल्के-हल्के तपाते थे वे लोग।

बक्से की गर्म होती सतह पर नागिन गर्मी से त्रस्त हो इधर-उधर, जिधर भी दौड़ती बक्से में तो पाती साहेब के रूमाल में बसी वही और केवल वही गंध। चिता शांत होने पर भी यही बक्से को गर्म करने का क्रम एक दिन और जारी रखा गया। अब तो न नागिन को चैन था न संपेरे को ही।

डाकबंगले से पता तो चल ही गया था कि कौन, कहां के बड़े साहेब पधारे थे।
अपने करीब नौ बरस के इकलौते और संपेरन की मौत के बाद बिन मां के हो चुके पुत्र को ले संपेरा चल पड़ा था बड़े शहर की ओर, उस बक्से को भी अपने साथ बड़े एहतियात से ले कर। पता पूछते-पूछते वह अंततः उनके भव्य बंगले
तक जा ही पहुंचा।

उधर, साहब का निष्ठावान ड्रायवर जो कि साहब की सारी करतूतों से पूरी तरह वाकिफ था ही, वह बार-बार मेम साहेब को आगाह करता रहा कि साहेब का कीमती रूमाल गायब हुआ है। उनका परफ्यूम बदल दें, उनका नहाने का साबुन बदल दें।
संपेरों की बस्ती से गायब हुआ है जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता है। लेकिन मेम साहेब को ऐसी अंधविश्वास भरी बातों में कोई यकीन न था, और यदि वे साहब का परफ्यूम, उनका साबुन बदल भी देतीं तो भी वे बेचारी अपने पति के पसीने की उस गंध को तो नहीं ही बदल सकती थीं जो कि नागिन के नथुनों में चढ़ चुकी थी।

संपेरा बड़े इतमीनान से बता रहा था कि इसी नागिन में आ समाई थी ’संपेरन की आत्मा’ जो अब पूरी तरह अपनी बेइज्जती व असमय मौत का बदला लेने को कुलबुला रही थी। चाय समाप्त कर वो अपनी ही धुन में अलाव की आग से बीड़ी सुलगा चुका था।

उसके शब्द कहीं बड़ी दूर से आते लगते थे मुझे, जैसे वो वहीं उस जगह, उस काल में ही जा पहुंचा था। वो आगे बता रहा था कि उस संपेरे ने बड़ी चतुराई से मौका देखकर साहेब के बंगले में भीख मांगने का नाटक किया। बंगले से जब कुछ न मिला, किसीने उस पर ध्यान नहीं दिया, आसपास के सन्नाटे की भी जब उसे पूरी तसल्ली हो गई तो उसने अपनी पीठ पर गठरी में छिपाए लकड़ी के बक्से को जरा सा खोल भर दिया। नागिन पलक झपकते ही बंगले में घुस ली। थोड़ी देर तक वह वहीं मंडराता रहा। कहीं कोई हलचल नहीं थी बंगले में। यानि नागिन अपने ठिकाने में जा छुपी थी।

’‘और बाई साब वो कोई साधारण नागिन नहीं थी। संपेरन की आत्मा थी उसमें। बदला लेने के लिये उतावली थी।’‘

मैं अपनी रौ में सुने जाती थी, वह अपनी रौ में कहे जाता था।

’‘शाम को जब साहेब आॅफिस से घर वापस लौटे, मेमसाहेब उनसे हंसी-खुशी उनका हैट, टाई, कोट ले रहीं थीं तब फुर्ती से न जाने कहां छुपी वह नागिन रूपी आत्मा अचानक प्रकट हुई और उसी पल-छिन में ही, सोफे बैठ मौजे उतारते साहेब को उनके सीधे हाथ की अंगुली पर डंस लिया। साहेब चीख पड़े।

मेमसाहेब बिचारी कुछ न समझ पाईं। और उनके देखते-देखते ही पल-छिन के छठवें हिस्से में ही साहेब की आंखें फटी की फटी रह गईं। उन आंखों में अपनी मौत का खौफ लिये साहेब सोफे पर ही ढेर हो गए।‘’ संपेरा प्रत्यक्षदर्शी सा सुना रहा था।

बंगले में शोर मच गया। सब जो भी थे वहां, वे दौड़े। ड्रायवर भी दौड़ा-दौड़ा पहुंचा। उसने नजारा देखा तो उसके लिये कुछ समझना बाकी न रहा। वहीं सोफे के ही नीचे एक कोने में दुबकी पड़ी थी वह संपेरन की आत्मा नागिन के रूप में। ड्रायवर उधर बढ़ा तो वह अपना पूरा फन फैलाकर सीधी खड़ी हो गई फुफकारती हुई। किसी और को लेकिन वह क्यों डंसती। उसे तो जिससे बदला लेना था ले चुकी थी।

फिर भी किसीकी हिम्मत न हुई उसकी तरफ जाने की।

कोई डाॅक्टर को बुलाओ,
कोई ऐंबुलेंस बुलाओ, कोई अस्पताल ले जाओ जैसी पुकारों में अब कुछ न रक्खा था। क्योंकि साहेब की फटी-फटी आंखें बताती थीं कि संपेरन की आत्मा ने अपना राई-रत्ती पूरा बदला ले लिया था। बाकी जो भी बचा होगा उसे ऊपर वाले पर छोड़ देने के अलावा कोई चारा न था। यहां का उसका बदला तो पूरा हो चुका था।

आखिरकार उस नागिन को पकड़वाने के लिये किसी संपेरे को ढूंढा गया।

‘‘हम लोग तो वहीं थे ही। कहां है नागिन ? कैसी नागिन ? करते हम लोग वहां पहुंचे। हमने अपनी नागिन को उसका मुंह दबाकर पकड़ा और उसे पिटारी में डाल कर जहरीली नागिन को पकडने के नाम पर अपना मेहनताना वसूल कर वापस आ गए। मैं ही था तब नौ बरस का। मेरा बापू अब नहीं है। तब मैं नहीं जानता था कि कैसे नागिन के रूप में आ कर मेरी मां की आत्मा ने बदला लिया था। बाद में कुछ बड़ा होने पर मेरे बापू ने मुझे सब समझाया, सब बताया।’‘

हतप्रभ थी मैं, फिर भी यह समझ पाना कठिन न था कि एक सोची-समझी अपमान जनक हरकत का यह एक अपनी ही तरह से सोच-समझ कर लिया गया बदला था जिसे नागिन में आत्मा का प्रवेश मान कर वे लोग अपने दुखते-दरकते जख्मों पर मरहम रख लेते थे।

नागिन का बदला जैसे जुमले अक्सरसुने थे मगर इतना सटीक व वैज्ञानिक ढंग से बदला लिये जाने का यह पहला उदाहरण मेरे सामने आया था।

मंद होते अलाव की आग में संपेरा और लकड़ियां डाल रहा था। चटचट् करती लकड़ियां पहले धुंआती थीं फिर भड़कते शोलों में तब्दील हो रही थीं। मानव में जो आदिम भूख दबी हुई है उसे संतुलित न रख पाने की, उस अपनी हवस की कितनी वीभत्स व कितनी आदिम विधि से सजा पाई थी किसी दुर्बुद्धि मानव ने, यह सोच कर कलेजा कांपना स्वाभाविक था। वह तो चला गया सजा पा कर किंतु उसके कृत्य के कारण एक तरफ, एक पति से उसकी पत्नी
असमय छिनी, एक बच्चा बिन मां का हुआ, तो दूसरी तरफ एक पत्नी व उसके बच्चों को भी अनायास ही बहुत कुछ खोना पड़ा था। यह लगभग् वैसा ही था कि करे कोई भरे कोई।

‘’इसे कुछ पैसे दे दीजियेगा कहानी के बदले। ये लोग थोड़े लालची होते हैं।’‘

पंडितजी ने कहा था सो मैने उस संपेरे को कुछ रूपयों की पेशकश की जिसे उसने बड़ी सहजता से ठुकरा दिया था यह कह कर कि सांप तो उसने दिखाया ही नहीं तब पैसा किस बात का ?

कितनी मासूमियत व ईमानदारी से उठ खड़ा हुआ था वापस जाने के लिये वह एक उस बदनसीब औरत का बेटा कि जिसने अपनी बेइज्जती का बदला उस एक रूमाल के आधार पर लिया था।
रह रह कर यह खयाल भी मेरे मन को मथता था कि यदि उन लोगों ने नागिन की आत्मा के रूप में वह तत्काल बदला न लिया होता तो आज भी उन्हें कौन सी कोर्ट में किस विधि के अंर्तगत, कैसा-क्या और कितने समय के बाद न्याय मिल पाता ?

बुझे मन से मैं बड़कू-छुटकू को सांप देखने के लिये बुला रही हूं---

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प्रभा मिश्रा 'नूतन'

प्रभा मिश्रा 'नूतन'

बहुत खूबसूरत लिखा है आपने बहन 😊🙏 पढ़ें मेरी कहानी कचोटती तन्हाइयां 😊🙏

24 अक्टूबर 2023

Neeraj Agarwal

Neeraj Agarwal

बहुत बढ़िया लिखती हैं आप और एहसासों के साथ हंसी और अधिकार का भी दायित्व बस कस्तूरी मृग तृष्णा की खोज रहती हैं

24 मई 2023

1
रचनाएँ
कस्तूरी
5.0
कहानियों के इस संग्रह में मेरी नई व कुछ तो बेहद पुरानी कहानियां हैं जो समय के अंतराल का अनुभव तो अवश्य कराएंगी मगर मुझे यकीन है कि पाठक उनसे अभिभूत हुए बिना नहीं रहेंगे। कथा संग्रह का शीर्षक मैंने कस्तूरी रखा है क्योंकि कन्या भू्रण हत्या जैसे विषय पर यह कहानी इंदौर के नई दुनिया में प्रकाशित हुई थी और इसने पाठकों का बेहद ध्यान आकर्षित किया था। यह विषय आज भी समीचीन है। इसके अलावा, कई बार ये भी होता है कि लेखक सोचता है कि वो अपनी रचना को इस तरीके से अंत तक लाऐगा। लेकिन मैंने पाया है कि जब लेखन में स्वाभाविक गति हो तो पात्र स्वतंत्र हो जाते हैं और वे लेखक के कहे में नहीं चलते। वे कथा-कहानी के अंत को स्वयं तय करते हैं। तब पात्र इतने मैच्यौर व सहज होते हैं कि आप उनसे मनचाहा नहीं करा सकते। साहेब का रूमाल, कस्तूरी, तुम, बहुत कुछ है बाकी, जवाब या नमक की खदान हो, चांदी का वरक हो कि हैप्पी न्यू ईयर हो, इस संग्रह में सभी मेरी लिखी कुछ ऐसी ही कहानियां हैं- मुझे लगता रहा कि जिनके पात्रों पर मेरा कोई वश नहीं रह गया था। कई बार पाठक कहते हैं कि आपने तो बिल्कुल मेरे मन के भीतरी शब्दों को कागज पर उतार दिया। तो, लेखक का मन भी उस दर्द से राहत पा कर कुछ हल्का हो जाता है। मिसरानी ऐसी ही एक कहानी बन पड़ी है। बाकी कहानियों में भी किसी न किसी तरह, कहीं न कहीं किसी के किसी दर्द को, किसी घटना को, किसी आंतरिक तसल्ली के भावों को उकेरने की कोशिश की है मैंने जो इस कहानी संग्रह के रूप में आपके सामने प्रस्तुत है।

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