वह मुग्धा यूं ऊर बशी ज्यों माटी में प्राण,
रूठी तो मानी नहीं, कितने दिये प्रमाण।
कुछ पग चलकरके रूकी, देखा मेरी ओर।
आगे चल फिर मुड् गई पहुॅच गली के छोर ।
जाकर फिर लौटी नहीं, कितनी देखी राह।
आखिर मे मन थक गया,
मुख से निकली आह।
पत्रों में भी शब्द् के, ऐसे मारे बॉण।
हृदय टूट कर यूॅ गिरा ज्यों माटी के भॉड़ ।।