21 सितम्बर 2015
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मै सुशील कुमार रावत "शील" साधारण व्यक्ति हूँ , मैं कुछ थोड़ी बहुत तुकबंदी कर लेता हूँ , मेरी तरह मेरी कावताएं भी सरल और साधारण हैं , D
साहित्य का अवि हूँ, हाँ मैं कवि हूँ !!..........बहुत सुन्दर !
22 सितम्बर 2015
हाँ मैं कवि हूँ! सुंदर रचना!
हाँ मैं कवि हूँ ,प्रकृति के छोरों को, बाँध -बाँध धागों में !एक- एक शब्द बाँट सहस्त्रों भागों में ,कवितायेँ रचता हूँ ,साहित्य का अवि हूँ,हाँ मैं कवि हूँ !!
दीप तुम महान हो !!अँधेरी रातों में,प्रियतम के हांथों में ,हीरे से दिखते हो,किरणों की खान हो!दीप तुम महान हो !!अति शांत चित्त हो, बड़े ही पवित्र हो ,यामिनी की छाती पर ,सदा विद्यमान हो !दीप तुम महान हो !!भक्ति के प्रतीक हो, ह्रदय के समीप हो ,पथिकों के मित्र हो ,पतंगों की जान हो !दीप तुम महान हो !!किया
वह मुग्धा यूं ऊर बशी ज्यों माटी में प्राण,रूठी तो मानी नहीं, कितने दिये प्रमाण।कुछ पग चलकरके रूकी, देखा मेरी ओर।आगे चल फिर मुड् गई पहुॅच गली के छोर ।जाकर फिर लौटी नहीं, कितनी देखी राह। आखिर मे मन थक गया, मुख से निकली आह। पत्रों में भी शब्द् के, ऐसे मारे बॉण। हृदय टूट कर यूॅ गिरा ज्यों माटी के भॉड
ऐसा अविरल प्यार कहॉ भूलूॅगा !केश घटा आकार कहॉ भूलूॅगा !तेरे तीखे नयन धनुष के उन बाणों के ,दिल पर हुए प्रहार कहाँ भूलूंगा !*********************याद मुझे है कीर्ति लता के उन पन्नों में ,छुपा -छुपा कर भेजा करती थी वो पाती ! प्रतिदिन छत पर आ जाती थी मिलने,छण भर का अवकाश अगर वो पाती !!*******************
ओ निष्ठुर परिवर्तन तू , मत आना मेरी गलियों में,तेरे डर से हलचन है , मेरी बगिया की कलियों में ।जिनके दिल का रश पीने काे, बैठे हैं भंवरी सारे, उनकी खुशियों के पराग कण, सिमट गये हैं नलियों में ।।ओ निष्ठुर परिवर्तन ………मत आना तू तेरे डर से, पुष्पों में अकुलाहट है,प्रात: ही तोडे जायेंगें, सबके मन में आ
गमले में पेड़ों का होना,जैसे पिंजरे में मैना,एक छोटी बगिया में जैसे,रक्खा जाये मृग छौना,कैसे कटते होगें दिन,और कैसे कटती होंगी रातें,किससे कर पाते होंगें वो,अपने दिल की सारी बातें,कैसे कटता होगा उनका,जीवन यूॅ बनके बौना,गमले में पेड़ों का होना,जैसे पिंजरे मे मैना ।।
आह व्यथा क्या सहते सहते ही जीवन जीना होगा,बदन हो गया है नीला क्या और गरल पीना होगा ।।पीड़ा से दुखता है तल मन, धीरज का सारा संचित धन,कोई कब का चुरा ले गया, सब अच्छा ओ बुरा ले गया।।आशाओं के लिपि चित्रों पर काली काली पोत सियाही ,क्यों आँचल में छेद कर रहा भूल गया ये था उसका ही !!उसने ही अपने हॉथों स
स्वप्नों में रहता हूॅ,भावों में बहता हूॅ। अपने मन की सुनता हूॅ,अपने मन की कहता हॅ।। नीर छीर विवेक की,अति विशिष्ट छवि हूॅ ।। हॉ मै कवि हूॅ.............. प्रकृति के छोरों को,बॉध बॉध धागों में। एक एक शब्द बॉट,सहस्त्रो भागों में ।। मेघों को चीर कर,निकलता हुआ रवि
अंतिम पल शेष रहे हॅ,मेरे पीड़ित जीवन के,ओ प्रेम पथिक आ जाओं मुंदने से पहले पलकें।घायल है ह्रदय हमारा, अगणित विषाक्त तीरों से,तुम हॅस कर खेल रहीं हो, निजी घर में यूॅ हीरों से।।मेरी ये दोनों पलकें है, क्यों दृग जल से गीली,जब तुम इठलाती फिरती हो, आेढ चुनरिया नीली।।कॉटे ही थे जीवन में, मृदु कलियॉ कब ख
खा न जाये ये अंधेरी रात मुझको इसलिए, याद का उसकी जला रक्खा है मैने ये दिया ।। पर उसे क्या खबर, वो खेल समझी है इसे, जिसको चाहा दे दिया दिल जिससे चाजा ले लिया।। **********कस्तियॉ डूब न जायें जो ये मझधार न हो, कोई यूॅ
आज उठी फिर अन्तर्मन में, भूली बिसरी सी ज्वाला ।फिर से इस ह्रदय पटल पर, उन मेघों ने डाका डाला !!विमुख हो चुका था जिनसे मैं, भूल गया था जिनके दॉव ।आज अचानक हेर घेर कर, हाय दे गये कितने घाव ।।यौवन की थीं कुछ यादें, और कुछ यादें थी तरूणाई की ।कुछ उसके अधरों की थीं, और कुछ उसकी अगणाई की ।।उस यौना का
जिंदगी कुछ और सस्ती हो गई।शहर में इन कातिलों की,जबसे बस्ती हो गई।दूध जिनको था पिलाया,अब वही हमको डसेंगें ।अब तो सत्ता जालिमों की,ही गिरिस्ती हो गई।।
शहरों से दूर गॉव, मस्ती मे चूर गॉव, ठण्ढी बयारों में, हल्की फुहारों में, सावन में लगते हैं, जन्नत की हूर गॉव ।।