मै सुशील कुमार रावत "शील" साधारण व्यक्ति हूँ , मैं कुछ थोड़ी बहुत तुकबंदी कर लेता हूँ , मेरी तरह मेरी कावताएं भी सरल और साधारण हैं ,
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मेरे गीत व कवितायेँ
अंतिम पल शेष रहे हॅ,मेरे पीड़ित जीवन के,ओ प्रेम पथिक आ जाओं मुंदने से पहले पलकें।घायल है ह्रदय हमारा, अगणित विषाक्त तीरों से,तुम हॅस कर खेल रहीं हो, निजी घर में यूॅ हीरों से।।मेरी ये दोनों पलकें है, क्यों दृग जल से गीली,जब तुम इठलाती फिरती हो, आेढ चुनरिया नीली।।कॉटे ही थे जीवन में, मृदु कलियॉ कब ख
शहरों से दूर गॉव, मस्ती मे चूर गॉव, ठण्ढी बयारों में, हल्की फुहारों में, सावन में लगते हैं, जन्नत की हूर गॉव ।।
जिंदगी कुछ और सस्ती हो गई।शहर में इन कातिलों की,जबसे बस्ती हो गई।दूध जिनको था पिलाया,अब वही हमको डसेंगें ।अब तो सत्ता जालिमों की,ही गिरिस्ती हो गई।।
आज उठी फिर अन्तर्मन में, भूली बिसरी सी ज्वाला ।फिर से इस ह्रदय पटल पर, उन मेघों ने डाका डाला !!विमुख हो चुका था जिनसे मैं, भूल गया था जिनके दॉव ।आज अचानक हेर घेर कर, हाय दे गये कितने घाव ।।यौवन की थीं कुछ यादें, और कुछ यादें थी तरूणाई की ।कुछ उसके अधरों की थीं, और कुछ उसकी अगणाई की ।।उस यौना का
खा न जाये ये अंधेरी रात मुझको इसलिए, याद का उसकी जला रक्खा है मैने ये दिया ।। पर उसे क्या खबर, वो खेल समझी है इसे, जिसको चाहा दे दिया दिल जिससे चाजा ले लिया।। **********कस्तियॉ डूब न जायें जो ये मझधार न हो, कोई यूॅ
स्वप्नों में रहता हूॅ,भावों में बहता हूॅ। अपने मन की सुनता हूॅ,अपने मन की कहता हॅ।। नीर छीर विवेक की,अति विशिष्ट छवि हूॅ ।। हॉ मै कवि हूॅ.............. प्रकृति के छोरों को,बॉध बॉध धागों में। एक एक शब्द बॉट,सहस्त्रो भागों में ।। मेघों को चीर कर,निकलता हुआ रवि
आह व्यथा क्या सहते सहते ही जीवन जीना होगा,बदन हो गया है नीला क्या और गरल पीना होगा ।।पीड़ा से दुखता है तल मन, धीरज का सारा संचित धन,कोई कब का चुरा ले गया, सब अच्छा ओ बुरा ले गया।।आशाओं के लिपि चित्रों पर काली काली पोत सियाही ,क्यों आँचल में छेद कर रहा भूल गया ये था उसका ही !!उसने ही अपने हॉथों स
गमले में पेड़ों का होना,जैसे पिंजरे में मैना,एक छोटी बगिया में जैसे,रक्खा जाये मृग छौना,कैसे कटते होगें दिन,और कैसे कटती होंगी रातें,किससे कर पाते होंगें वो,अपने दिल की सारी बातें,कैसे कटता होगा उनका,जीवन यूॅ बनके बौना,गमले में पेड़ों का होना,जैसे पिंजरे मे मैना ।।
आसमॉ चुप है जमीं हैरान है मै क्या करूॅ,बिन तुम्हारे सारा शहर वीराना है मैं क्या करूॅ।उन घनी जुल्फों की छाया अब तलक भूली नहीं,हॉथ मे तेरा पुराना पैगाम है मैं क्या करूॅ।।जिन्दगी खामोश लमहों में सितम ढाती रही,बस वही तस्वीर ऑखों को नजर आती रहीं।हादसा वर्षो पुराना है मगर अब तक नया,दिन में मेरे या