आह व्यथा क्या सहते सहते ही जीवन जीना होगा,
बदन हो गया है नीला क्या और गरल पीना होगा ।।
पीड़ा से दुखता है तल मन, धीरज का सारा संचित धन,
कोई कब का चुरा ले गया, सब अच्छा ओ बुरा ले गया।।
आशाओं के लिपि चित्रों पर काली काली पोत सियाही ,
क्यों आँचल में छेद कर रहा भूल गया ये था उसका ही !!
उसने ही अपने हॉथों से, जाग जाग करके रातों में,
सतरंगे रेशम तारों से वर्षो तक बीना होगा ।।
छूते ही डसती हैं रातें, अधसुलगी बाती सी बातें,
कहॉ गया वो अमन हमारा, क्यों न मिला फिर आते जाते।।
दीवारों को तकता जीवन, देश बन गया है कंटक वन,
क्या जाने कम तार तार हो, प्रतिपल उधड़ रही है सीवन।।
हिन्दू मुस्लिम का कह कह कर, गर्म लहू फैला धरती पर,
मॉ कहती है आखिर क्यों तुम मूॅग दल रहे हो छाती पर ।।
क्यों अस्त्रों से भर ली झोली, किस रंग से ये खेली होली,
मैने कभी न तुझको डॉटा, फिर किससे ये सीखी बोली ।।
याद नहीं आता उन तेरे छोटे छोटे दो हॉथों से,
मैने भूले से भी तुझसे, दूध कभी छीना होगा ।।
आह व्यथा क्या सहती सहते ही जीवन जीना होगा,
बदन हो गया है नीला क्या और गरल पीना होगा ।।
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