दुनिया की सबसे बड़ी संस्था संयुक्त राष्ट्र में आज भारत का दबदबा होता अगर दो वोट से शशि थरूर महासचिव का चुनाव ना हारते. लेकिन जिस मनमोहन सिंह ने शशि थरूर को महासचिव का ग्लोबल चुनाव लड़वाया था वहीं प्रचार प्रसार के अंतिम दौर में ढीले पड़ गए थे. मनमोहन सरकार की इस शिथिलता पर थरूर राजनैतिक मजबूरियों के चलते खुलकर नहीं लिख सके. लेकिन एक अंग्रेजी मैगज़ीन में उन्होंने अब ये स्वीकार किया कि वो जीती हुई बाज़ी ज़रूर हारे.
आज दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्तियों में एक होते थरूर
जिस शख़्स को दुनिया की सबसे रसूखदार गद्दी पर बैठना था वो शख़्स कैसे दुश्मनो को जीतकर, अपनो से हार गया. आखिर किन लोगों की वजह से थरूर के हांथ से यह मौका निकल गया. पहली बार अपनी और देश की इस ऐतिहासिक हार पर खुलासा किया है पूर्व विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने. थरूर एक अंग्रेजी पत्रिका में लिखतें हैं कि वो संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बनने के बिलकुल करीब थे लेकिन दुनिया के इस सबसे बड़े चुनाव में अपनों ने ही साथ नही दिया.
28 साल तक संयुक्त राष्ट्र के अहम पदों पर कामयाबी के साथ झंडे गाड़ने वाले थरूर को जब दुनिया के कई देश महासचिव बनाना चाहते थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनसे एक दिन अचानक पूछा," " अगर भारत आपको मैदान में उतारे तो क्या आप महासचिव के लिए चुनाव लड़ना चाहेंगे ?"
अपनी गलतियों से एशिया का प्रतिनिधित्व नही कर सका भारत
दरअसल 2006 में विश्व की सर्वोच्च संस्था संयुक्त राष्ट्र का महासचिव, एशिया महादीप से बनना था. शशि थरूर एशिया की तरफ से दौड़ में सबसे आगे थे. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हामी के बाद थरूर को लगा उनकी राह में रोड़ा चीन और पाकिस्तान हैं. ये दोनों देश उन्हें कभी महासचिव बनने नही देंगे. कश्मीर के भय से पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सुरक्षा सदस्य के मुद्दे पर चीन उनका विरोध करेगा. चुनाव में भारत को अपमान न झेलना पड़े इसलिए थरूर ने चीन के विदेश मंत्री से मुलाकात करके उनकी राय जाननी चाही. इत्तेफ़ाक़ से संयुक्त राष्ट्र में काम करते समय थरूर की चीन के विदेश मंत्री बने, ली ज़्हाओशिन से अच्छी दोस्ती हो गई थी. थरूर ने बीजिंग जाकर, ली से ख़ास मुलाकात की और बताया कि वे भारत सरकार के ना राजनयिक हैं न अधिकारी, ...वो तो संयुक्त राष्ट्र के पदाधिकारी होने के कारण महासचिव का चुनाव लड़ रहे हैं. इस दलील पर ली ने थरूर को यक़ीन दिलाया कि चीन उनकी जीत में आड़े नही आएगा. थरूर ने अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत से भी कहा कि उन्हें भारत सरकार के अधिकारी के तौर पर नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र के पदाधिकारी के तौर पर समर्थन मिला है इसलिए उनका विरोध ना किया जाय. चूँकि थरूर का दुनिया भर में नेटवर्क था इसलिए पाकिस्तान ने भी उनका ज्यादा विरोध नही किया.
चीन और पाकिस्तान ने थरूर का ज्यादा विरोध नही किया
चीन और पाकिस्तान की ख़ामोशी देखकर शशि थरूर को भरोसा हो गया कि वो चुनाव के बाद दक्षिण कोरिया के राजनयिक बान की मून को पराजित करके कोफ़ी अन्नान की जगह संयुक्त राष्ट्र के नए महासचिव बन जायेंगे.
लेकिन वोटिंग के जब नतीजे आये तो दो वोट से शशि थरूर की किस्मत धोखा दे गयी. दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र के रूप में भारत को भी धक्का लगा. दरअसल थरूर और मनमोहन सिंह दोनों को लग रहा था कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश हर हाल में भारत का साथ देंगे. दिल्ली और वाशिंगटन जिस तरह न्यूक्लियर डील पर उस वक़्त एक साथ थे उससे किसी तरह के संदेह का सवाल नही था. लेकिन अमेरिकी ने वोट बान की मून को दिया.
कैसे हार गए जीते हुई बाज़ी, क्या खा जॉर्ज बुश ने इस हार पर ?
शशि थरूर अपनी कथा में आगे लिखते हैं कि 2011 में जब जॉर्ज बुश मुम्बई आये तो एक डिनर में उन्होंने कहा कि सारा मामला सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट कांडोलिसा राइस देख रहीं थीं. जॉर्ज बुश ने चुनाव की ज़िम्मेदारी उनपर छोड़ रखी थी. थरूर का कहना था कि भारत की तरफ से किसी ने सेक्रेटरी अॉफ़ स्टेट और वाइट हाउस से ज़ोर देकर सिफ़ारिश ही नहीं की. विदेश मन्त्रालय के बाबू भी निश्चिन्त थे कि अमेरिका तो भारत का साथ देगा ही. तंज़ानिया और क़तर ने भी बान की मून को वोट दिया. चूँकि तंज़ानिया के पूर्व शासक के मनमोहन सिंह से करीबी रिश्ते थे इसलिए उनके उत्तरकाधिकारी ने थरूर को वोट नही दिया. इसी तरह क़तर के अमीर ने थरूर को बताया कि भारत के राजनयिक ने उन्हें महासचिव के चुनाव पर ज्यादा कुछ बोला ही नही था इसलिए उन्होंने भी बान को वोट दे दिया.
हालाँकि कांग्रेस नेता होने के नाते शशि थरूर ने मनमोहन सिंह और उनकी सरकार पर ज्यादा नही लिखा है लेकिन वो इशारे इशारे में कह गए कि चीन के समर्थन के बावजूद भारत सरकार अपनी ढिलाई के कारण महासचिव चुनाव खुद ही गवां बैठी. ज़ाहिर तौर पर संयुक्त राष्ट्र के चुनाव में अप्रत्याशित विफलता, यूपीए सरकार की कई मोर्चों पर हार में से एक बड़ी हार रही.
(अंग्रेजी पत्रिका ओपन में प्रकाशित कवर स्टोरी के कुछ अंश का हिंदी में अनुवाद. लेख क ने पाठकों को समझाने की दृष्टि से कुछ अंश सम्पादित किये हैं.)