भाग 2
सावित्री सुबह-सुबह लाला की दुकान पर जाती है।
"लाला जी राम-राम" सावित्री लाला के सामने हाथ जोड़े, नज़रें झुकाए खड़ी है।
लाला अवाक सा सावित्री को देखता ही रह जाता है, उसने इतनी सुन्दर औरत आज तक नहीं देखी थी।
रामलाल सावित्री को इसलिए घर से बाहर नहीं जाने देता था, क्योंकि वो बला की खूबसूरत थी। हालांकि भूख, गरीबी और रोज़ की खिट-पिट ने उसका वो रूप छीन लिया था, लेकिन फिर भी अभी भी उसकी सुन्दरता के सामने सब पानी भरते थे।
" राम-राम! कौन हो तुम, हमने तो पहले तुम्हें देखा नहीं कभी?" सावित्री की सुन्दरता को देख लाला की लार टपकाने लगी, अवाक् सा उसे देखे जा रहा है।
सावित्री, " लाला जी मैं रामलाल की बहु"
लाला ने चर्चा सुना तो था जब रामलाल की शादी हुई, कि पूरे गांव में ऐसी बहू नहीं जैसी रामलाल लाया, परी है परी, आज साक्षात् देख भी लिया।
" अरे, ऊऊऊऊ रामलाल, अरे ये तो बन्दर के गले में मोतियों का हार पड़ गया रे। ख़ैर बताओ कैसे आना हुआ"! लाला खुशी को दबाते हुए कहता है, क्यों कि वो समझ जाता है कि इसे काम की ज़रूरत ही खींच लाई है, और अब तो वो लाला के चंगुल में फंसी समझो।
" लाला जी कोई काम मिल जाता तो, बड़ी आस लेकर आई हूं, बच्चे दो दिन से भूखे हैं" सावित्री याचना भरे स्वर में।
उसे देखते ही लाला की लार टपक रही है, उसे यही चाहिए था बोला, " हां, हां क्यों नहीं, अनाज वगैरा झाड़- पटक दिया कर, तेरा भी काम चल जाएगा, मेरा भी काम बन जाएगा"
" जी, लाला जी, तनिक थोड़ा सा दाल-चावल दे दिओ, बच्चों को खाना खिलाए के अभी काम पे आ जाऊंगी"
और लाला उसे दाल-चावल दे देता है, उसे मालूम है कि सावित्री ज़रूरत मंद है, काम पर तो आना ही पड़ेगा, थोड़े से दाल-चावल लेकर भाग तो जाएगी नहीं, और लाला को भी उस पर अपनी धाक जमानी थी, वरना ऐसे तो लाला है बड़ा कंजूस।