दोस्तों,
इस तरह से लिखना अच्छा तो नहीं है मगर फरवरी से लेकर मार्च तक का महीना बहुत तंग करता है। पता नहीं इन दो महीनों में दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर तमाम जगहों में ऐसा क्या हो जाता है कि वक्ता के तौर पर बुलाने की भीड़ लग जाती है। मेरा जवाब हर बार ना ही होता है, फिर भी ना कहने में काफी समय लग जाता है। कुछ ख़ास बचा नहीं है कहने के लिए, जो त्वरित प्रतिक्रियाएं होती हैं वो कस्बा पर लिख ही देता हूं। पर ये समझना कि हम राष्ट्रवाद से लेकर गांधी और मीडिया और महिला सब पर बोल देंगे, थोड़ी ज़्यादती होगी। मैंने जिनको भी दबाव में हां कहा है, उनसे भी वादा करता हूं कि हां कहने के बाद भी नहीं जाऊंगा। उनसे आग्रह है कि बाद में मुझे दोष न दें। जो भी दबाव में हां बुलवा लेते हैं, वो नोट कर लें कि हां करने के बाद भी नहीं जाऊंगा। आपको ज़रूर बुरा लग रहा है लेकिन मैं यह बात साफ साफ न कहूं तो वहां आने वाले श्रोताओं के साथ नाइंसाफी होगी। ये बेहद लापरवाही का काम है कि वक्ता के पास बोलने के लिए कुछ नहीं है, आप किसी शाम किसी का नाम तय कर लेते हैं और नैतिक दबाव डालने लगते हैं कि आना होगा। किसी विषय पर बोलने और सुनने का मतलब यह होना चाहिए कि दोनों तरफ से तैयारी होनी चाहिए। कुछ भी बोल देने का आग्रह एक किस्म की बेईमानी है। जो जिस विषय के अध्येता हैं उन्हें ही वक्ता के योग्य समझा जाना चाहिए। नए लोगों को भी सुनने का अभ्यास किया जाना चाहिए। हमनें तीन चार साल बोल लिया। जब काम नहीं रहेगा तब बुलवाइयेगा। दिन भर आकर बोलूंगा।
इसका कारण सिंपल है। हम लोगों को अपना काम भी करना होता है। उसी की तैयारी के लिए वक्त नहीं मिल पाता, दिल्ली जैसे शहर में सुबह के वक्त कहीं डेढ़ घंटा लगाकर जाना और कुछ बोलना और फिर डेढ़ घंटा गाड़ी चलाकर दफ्तर पहुंचना, मुुझसे नहीं हो पाएगा। इतनी ऊर्जा नहीं है। यह सही है कि युवाओं के बीच जाने से मेरी समझ भी बढ़ेगी लेकिन बात समय की है। उनके बीच में बग़ैर तैयारी के नहीं जाना चाहता हूं। किसी जगह बोलने के लिए हां कहने का मतलब है कि जाने से पहले तैयारी की जाए। कुछ नया खोजा जाए, कुछ बेहतर पढ़ा जाए। इतना वक्त नहीं होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के मेरे मित्र किसी के ज़रिये संपर्क साधने का प्रयास न करें। मैं जाना ही नहीं चाहता हूं। मुश्किल से साप्ताहांत का वक्त मिलता है। उसमें मुझे अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाहन करना होता है। उस पैमाने पर भी खरा उतरना ज़रूरी है जो कि शनिवार और रविवार के दिनों में बाहर रहने के कारण नहीं निभा पाता हूं। इसलिए हफ्ते भर की मगज़मारी के बाद शनिवार और रविवार पर नज़र मत डालिये। आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि मुझे छोड़ दीजिए। आयोजकों में इतनी ईमानदारी होनी चाहिए कि जब वक्ता तैयार नहीं है तो छोड़ दें। उन्हें ठीक ठीक पता होना चाहिए कि आप किससे क्या चाहते हैं।
मेरे बारे में राय बनाने से पहले सोचिये कि आप क्यों सेमिनार का आयोजन करते हैं। दुकान चलाने के लिए। अगर नहीं तो आप उसी वक्ता को बुलायेंगे न जो तैयारी करे,कहने के लिए अपनी सामग्री जुटाये। आने से पहले थोड़ा रिसर्च करे। सुनने वाले भी इस दिल्ली में कितनी मेहनत से आते हैं। कम से कम श्रोता के समय का सम्मान तो किया ही जाना चाहिए। दूसरे वक्ता मित्रों से भी आग्रह है कि कहीं जाने से पहले तभी हामी भरें जब आपके पास कुछ ठोस हो कहने के लिए। वर्ना आराम से श्रोता बनकर जाइये। कुछ लोग तो इस कालेज से निकलते हैं,उस कालेज में चले जाते हैं बोलने। मैं खुद कई जगहों पर सुनने गया हूं। वक्ता कुछ का कुछ बोलते चले जाते हैं। प्रस्तुतकर्ता नाहक गंभीर हुआ जाता है। वक्ता इस गुमान में होता है कि चूंकि वह कुछ है इसलिए कुछ भी बोलेगा। कुछ ऐसे विषय हैं जिनका नाम सुनते ही लगता है कि दस साल से ये टापिक नहीं बदला है। ऐसे टापिक में प्रमुख हैं मीडिया। जिस टापिक में पहले मीडिया लगा हो समझ लीजिए वो बोलने लायक नहीं है। उसके पीछे कुछ भी जोड़ कर बात कर लेने से क्या हो जाता है।
सेमिनारों को लंगर में मत बदलिये। इनकी गंभीरता को बहाल कीजिए। लोग शेयर न करें तो अख़बार पढ़ने तक का टाइम नहीं होता है। इसलिए चिंतन-मनन की जगह उन्हीं को बुलाया जाए जो कम से कम हफ्ते में दो बार लाइब्रेरी जाते हों या फील्ड में जाते हों। गंभीरता से घटनाओ को देखते-परखते हों। इससे सबका फायदा होता है। मैंने कस्बा पर पहले भी लिखा है। ख़ास मित्रों को भी मना कर देता हूं। थोड़ा बुरा लगता है लेकिन इससे मुझे बहुत राहत महसूस होती है। अंग्रेज़ी में बड़बड़ाने को फैफिंग कहते हैं। सेमिनार में जाकर फैफिंग मत कीजिए वर्ना मलेरिया डिपाट वाला फौगिंग करने लगेगा। तो बहरहाल मेरे शुभचिंतकों, आपसे यही अनुनय-विनय है कि मुझे सेमिनार और सभा से मुक्ति दे दें। पुस्तकों के लोकापर्ण से भी मुक्ति दे दीजिए। इस साल का कोटा पूरा हो गया।
आपका ही रहूंगा, आप अगर ध्यान से मेरी बात सोचेंगे तो अहंकार नज़र नहीं आएगा। पहले भी इस तरह आग्रह किया है फिर भी लोग फोन कर देते हैं। इससे पता चलता है कि उन्हें मेरे काम की जानकारी कम है, नाम का पता चल गया है। मेरे लिए मेरा नाम कोई मायने नहीं रखता। मैं नाम मुक्त काम युक्त जीवन जीने में यकीन रखता हूं।
रवीश