19 जनवरी 2016
घूम रही है चाक
घडी पल दिवस महीना वार
दुःख की भठ्ठी में
यूँ तपता है कुम्हार .
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सिरहाने ख्वाब की रोशनाई है सोचता हूँ लिखूंकोरे पन्नों की रूह अफ़ज़ाई है सोचता हूँ लिखूं कंटीली धुंध में लब्ज़ों की गरमाई हैसोचता हूँ लिखूं . आँखें सैलाब की पसंद हैं लिखूं तो कैसे लिखूं
घूम रही है चाक घडी पल दिवस महीना वार दुक्ख की भट्ठी में यूँ तपता है कुम्हार
घूम रही है चाक घडी पल दिवस महीना वार दुःख की भठ्ठी में यूँ तपता है कुम्हार .
मेरी प्रथम प्रस्तुति को सराहने के लिए मैं उदार पाठकों का हार्दिक आभारी हूँ.
मुक्त हो गया बैल रह गया बंधन कोल्हू वहीँ पि स रहा देह शैल पर साँस का चन्दन व्यर्थ घिस रहा प्रकाशित काव्य संग्रह पाँव पगडण्डी ठौर से
शब्दानगरी के सदस्यगणमेरी मित्रता का निवेदन स्वीकार करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.झारखण्ड के हज़ारीबाग़ मैं १९६५ में जन्मा मैं बस प्रकृति से एक लगाव महसूस करता हूँ. पटना विश्वविद्यालय से जियोलॉजी में स्नातक करने के बाद भी मेरी रूचि भाषा और साहित्य में रही है और छिटपुट कविताएँ लिखता रहता हूँ. १९९२ में
रंग चम्पई मार्ख़ीन की धोती रंगाई चम्पई हथेलिओं से अंगना पसारती भौजाई मेहँदी पर जल्दी चढ़ी रोज रोज की पीसी हरदिया ऊपर से चम्पई चढ़ा के बढ़ी दरदिया ई सब कैसे कहें बतावें रो रही ननमुनिया और चाहिए मूढ़ी लाई थरिया ले अल्मुनिआ धुप मुई सिहरावन वाली न समझे न बूझे मुंडेर से जो ढूढे तब से दूर तलक ना सूझे अम्मा जी
फेंट फेंट के बात के झाग जहर बेल से जल गइल बाग़गला फाड़ केकान फाड़ केराग होईल बैराग ,कइसन मधुबनई ता खाण्डवई तांडव के पांडव भुखला के का दिहनमुह में रोटी सागब्बात के झागबात के आग गला पे गमछा मू पर गमछा ढोलक ताली सम पर खाली चिकरते रहो चिल्लाओ भेजे थे पेट काट केमु पर मट्टी साट के गऊ से सीधा था तुम मु में जी
आज तव तर्पण भंगुर दर्पण . सत्यशील हेआजीवन पुष्प सुकोमल अभिवंदन पुण्य रिक्त है वृहत मरू वज्राहत भग्न कदम्ब तरु पाषाण कुरूप से संघर्षण विदा हे भंगुर दर्पण . तुझ पर प्रहार शब्दबेधि कलिकाल सत्य की बलिवेदी छद्म हास का कुटिल व्याल रच रहा मौन का मकड़जाल यह विश्व असुंदर चक्क्रव्यूह लघु दर्पण! अब जीवन दुरूह