नई दिल्लीः अगस्त 2013 की एक रात जब मुज़फ्फरनगर जल रहा था तब जातिगत आधार पर शहर से डीएम और एसएसपी को एक फ़ोन पर एक साथ हटा दिया गया. अगले तीन घंटो में नए अफसरों के हवाले एक जलता हुआ शहर सुपुर्द कर दिया गया. और अगली सुबह तक नफरत की धधकती आग कई लाशें निगल गयी. कुछ ऐसा ही खौफनाक हादसा जून 2016 को मथुरा में देखने को मिला. अंतर सिर्फ इतना था की यहाँ जातिगत फैसले की जगह मुद्दा ज़मीन पर कब्ज़े का था. लाशों के ढेर यहाँ भी लगे.
इन खौफनाक हादसों से बढ़कर जुर्म के निशान और भी थे. कोतवालियों में घुसकर कहीं थानेदार मारे गए तो कहीं जिलाधिकारी की नाक के नीचे घरों पर कब्ज़े हुए. करोड़ों रूपए के खनन माफिया का खेल तो विक्रमादित्य मार्ग के बंगले से चल रहा था. गायत्री प्रजापति तो बस मोहरा थे. अगर आपकी जेब में पचास लाख रूपए थे तो आपको सिंचाई विभाग की मलाईदार कुर्सी मिल सकती थी. अगर आप नॉएडा एवम ग्रेटर नॉएडा को लूटकर अरबों की घूस सरकार से साझा कर सकते थे तो भले ही आप मायावती के नज़दीकी रहे हों आपको यादव राज में भी चीफ इंजीनियर बनाया जा सकता था. आप मायावती के प्रमुख सचिव रहे हों तो कोई बात नही अगर आप सड़क के ठेकों से अंधी कमाई का फार्मूला जानते थे तो लखनऊ में 5 कालिदास मार्ग में आपको परमानेंट दफ्तर एलॉट हो सकता था.
और हाँ , मुख़्तसर सी एक बात तो रह गयी. मुग़ल शासन के 300 साल बाद, पहली बार देश ने देखा की गद्दी को लेकर घरों में तलवारें कैसे खिंचती है. सत्ता को लेकर मंच पर हाथापाई कैसे होती है और बाप, बेटे, चाचा और भाई सडकों पर एक दूसरे की पगड़ियां कैसे उछालते हैं. 300 साल पहले हमने रजवाड़ों की ये रंजिश आगरा के मुग़लों में देखी थी और आज आगरा से 300 किलोमीटर दूर लखनऊ के कालिदास मार्ग पर यादव वंश में देखने का 'सौभाग्य' मिला.
2 -2 लाख की पगार उठाने वाले टीवी एंकर तो ये मंज़र भूल गए. अख़बारों के मालिकों ने भी 150 करोड़ के विज्ञापन के आगे मुख्य पृष्ठ की सुर्ख़ियों गिरवी रख दीं. लेकिन क्या यादव और मुस्लमान वोटरों को छोड़कर यूपी के सारे मतदाता ये मंज़र भूल गए ? खैर, इस यक्ष प्रश्न के उत्तर के लिए हमे 11 मार्च तक रुकना होगा.
लेकिन राजनीति क पंडितों से मेरा एक सवाल है?
क्या गठबंधन करने से पाप धुल जाते हैं ?
अगर नही धुलते ..
तो फिर सच बोलिये ...
ज़ुबान पर सच
दिल में इंडिया