
लखनऊ: तीन दिन पहले मैं सिद्धार्थनगर में था। बस के इंतजार में बगल में ही बैठे रामसंजीवन से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। अलीगढ में ईंट के भठ्ठे में झोकाई का काम करने वाले इस व्यक्ति का कहना था कि यहां कोइ घंधा न मिलने से ही बाहर जाना पडता है। मजबूरी है उसकी। न जाय, तो खाय क्या? परिवार को गुजर बसर कैसे हो? समूचे पूर्वांचल में दो लाख से भी कहीं अधिक ऐसे रामसंजीवन आपको मिल जायेंगे, जो दिहाडी पर काम करने के लिये पश्यिमी उत्तर प्रदेश ओर दूसरे राज्यों में जाने के लिये मजबूर हैं।
इस प्रसंग को उठाना इसलिये जरूरी हो गया है कि इसी 25 जून को ही योगी सरकार अपने सौ दिन पूरे करने जा रही है। इस दिन समूचे प्रदेश में योगी सरकार की उपलब्धियों को जगह जगह बखान किया जायेगा। यह होना भी चाहिये। किसी भी सरकार के अच्छे कामों को महत्व तो मिलना ही चाहिये। फिर , मुख्य मंत्री योगी ने अपनी तरफ से पूरा भगीरथ प्रयास किया ही है।
इस स्थिति में सिद्धार्थनगर में ही ऐसा सवाल मन में उटा था। इसीलिये रामसंजीवन का मन टटोलने की कोशिश की थी। इसी क्रम में यह जानने का मन हुआ कि क्या हुआ भाजपा के उस चुनावी वायदे का जिसमें कहा गया था कि पलायन रोकने के लिये ‘एंटी पलायन टास्क फोर्स का गठन किया जायेगा? इस बाबत पूर्वांचल के लोगों से बातचीत के बाद उनकी भी यही मंशा जान पडी थी। यहो के लोग इसका माकूल जवाब सुनना चाहते हैं। लेकिन, योगी सरकार इस सवाल का माकूल जवाब शायदय, न दे सके। वजह साफ है। लगता है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दकोष में विकास का अर्थ आमधारणा के एकदम विपरीत कुछ और ही है। उसमें विकास के लिये पलायन को जरूरी माना गया है।
इस सबंध में प्रमुख राजनीति क विश्लेषक विजय विशाल की मानें, तो हाल ही में कराये गये एक आर्थिक सर्वैक्षण के बाद मोदी सरकार ने देश के आर्थिक विकास के लिये पलायन को जरूरी माना है। यही वजह है कि देश के विकास के लिये उदारीकउण को जरूरी मानने वाली भाजपा मजदूरों के हित में पलायन के खिलाफ कैसे बात कर सकती हैं? पूंजी और श्रमिक के हित कभी भी समान नहीं हो सकते है। इसीलिये पलायन को उदारीकरण की आधारभूत सच्चाइयों में से एक माना गया है। गांवों की तबाही से ही शहर आबाद होते हैं। यही वजह है कि एक समझीबूझी रणनीति के ही तहत भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में पलायन को रोकने का कोई राोडमेप ही नहीं दिया गया है।
पूर्वांचल में देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर, सिद्धार्थनगर जैसे अनेक जिलों में खेती ही रोजगार का मुख्य जरिया है। लेकिन पिछले कई सालों से यह बहुत घाटे का धंधा हो गया है। सोनभद्र जैसे पथरीले और खेती न कर सकने वाले इलाके में तो पलायन बेहिसाव है। यहां की पिछली, आदिवासी जातिया जनजातियांें के लोग सपरिवार पलायन कर जाते है। बुंदेलखंड की ही तरह पूर्वाचल में भी पलायन लोगों की नियति बन गयी है। देखना है कि सौ दिन पूरे करने जा रही यांगी सरकार इस मुद्दे पर क्या कहकर पुंदेलखंड ओर पूर्वाचल के आम आदमी का भरोसा बनाये रखेगी?