क्या न तुमने दीप बाला?
क्या न इसके शीन अधरों-
से लगाई अमर ज्वाला?
अगम निशि हो यह अकेला,
तुहिन-पतझर-वात-बेला,
उन करों की सजल सुधि में
पहनता अंगार-माला!
स्नेह माँगा औ’ न बाती,
नींद कब, कब क्लान्ति भाती!
वर इसे दो एक कह दो
मिलन के क्षण का उजाला!
झर इसी से अग्नि के कण,
बन रहे हैं वेदना-घन,
प्राण में इसने विरह का
मोम सा मृदु शलभ पाला?
यह जला निज धूम पीकर,
जीत डाली मृत्यु जी कर,
रत्न सा तम में तुम्हारा
अंक मृदु पद का सँभाला!
यह न झंझा से बुझेगा,
बन मिटेगा मिट बनेगा,
भय इसे है हो न जावे
प्रिय तुम्हारा पंथ काला!