शायद नवंबर का पहला हफ्ता था। दफ़्तर में नीरज वत्स आए और अपनी शादी का कार्ड दिया। कार्ड खोल भी नहीं पाया था कि नीरज ने एक और बम गिरा दिया। मैं आज नौकरी भी छोड़ रहा हूँ। भारत में तो नौकरी कस कर धर लेने के बाद ही शादी का इंतज़ाम किया जाता है लेकिन यहाँ तो मामला उलटा निकला। शादी के फैसले के साथ नौकरी ही छोड़ दी । समझ नहीं आया कि शादी के लिए बधाई दूँ या नौकरी छोड़ने पर अफ़सोस । नीरज वत्स पाँच साल से आउट पुट डेस्क पर काम करते हुए समझ गए कि कुछ बदलना है तो बदलने का रास्ता पत्रकारिता नहीं है। वैसे भी आज की पत्रकारिता हर तरह के जवान सपनों के ख़िलाफ़ है। मूर्ख और बंदर नेताओं का समर्थक पैदा करने की फैक्ट्री ।
नीरज ने पार्षद बनने के लिए पत्रकारिता छोड़ दी। कई महीनों से उनके दिमाग़ में यह बात चल रही थी। किसी वजह से पिछले चुनाव में अपनी किस्मत नहीं आज़मा पाये। मगर वे स्पष्ट हैं कि पार्षद ही बनना है। मुझे अफ़सोस है कि नीरज की शादी में समालखा नहीं जा सका। भूल गया और बारात जाने के लिए जो मित्र माहौल बनाते हैं वे मुझे ही भूल गए। मैं इस एक शादी में ज़रूर जाना चाहता था। ख़ासकर साक्षी से मिलने, जिसने ऐसे लड़के का साथ देने का फैसला किया जो नौकरी छोड़कर उससे शादी करने आ रहा हो। साक्षी के माता पिता को भी सलामी मिलनी चाहिए कि ऐसा दामाद फिर भी चुना ! आमतौर पर तय की गई शादियों में ऐसा कहाँ होता है। नीरज से ज़्यादा बड़ा जिगरा साक्षी का है। सो सलाम साक्षी।
मेरे कई नौजवान मित्र बीजेपी, कांग्रेस, जनता दल युनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बसपा में गए हैं। कुछ उन दलों में जाकर बिला गए तो कुछ जाकर लौट आए। इनमें से ज़्यादातर का सपना सांसदी और विधायकी का रहा है। कुछ तो आई टी सेल के बाहुबलीय गति को प्राप्त हुए। सड़क पर गुंडई कर नहीं सकते तो डेस्क टॉप पर बैठकर कर रहे हैं। आई टी सेल में जवानी बर्बाद कर रहे तमाम युवाओं से कहता हूँ कि उस सेल को लात मार कर बाहर आ जाओ। वहाँ नेता नहीं पैदा होते हैं। वहां नेता अपने लिए विक्षिप्तों की फौज तैयार करवाता है।
एकाध मित्र का सपना ज़रूर अलग है। वे वाक़ई राजनीति बदलना चाहते हैं। इसके लिए अपनी कमाई और जीवन दोनों का निवेश कर रहे हैं। वे बड़ा जोखिम ले रहे हैं। दुनिया भर में घूमकर अपना अनुभव बढ़ा रहे हैं और संगठन क्षमता पर काम करना चाहते हैं। अध्ययन कर रहे हैं और मौजूदा राजनीति की कमियों के आगे नया विकल्प बनने और खड़ा करने का बड़ा हौसला रखते हैं। चुनाव लड़ना चाहते हैं और दूसरों से भी कहते हैं कि चुनाव लड़ने के बारे में क्यों नहीं सोचते।
कांग्रेस में गए युवा मित्रों ने सबसे अधिक निराश किया है। दोस्त होने के बाद भी ये मुझे सियासी रूप से नकारे और डरपोक लगते हैं। आज तक नेता बनना तो दूर अपना कोई राजनैतिक कैरेक्टर तक नहीं बना पाए। ख़ुद कभी सड़क पर नहीं उतरेंगे और उतरेंगे तो तुरंत कीमत वसूलने लग जाते हैं। दिन भर इस चक्कर में रहते हैं कि कब राहुल गांधी भाव देंगे तब जाकर राजनीति करेंगे। ये कांग्रेसी कैरेक्टर है। बिना संघर्ष किए तुरंत सबकुछ पा लेने की राजनीति। पहले मिलेगा तब राजनीतिक को थोड़ा सा देंगे।
दोस्तों, राजनीति मिलने के बाद नहीं की जाती, इसलिए की जाती है ताकि आपका यक़ीन ऐसा कहता है, बाकी मिले न मिले। वाम दलों का भी बुरा हाल है। पार्टी के संगठन में जवानी अभिशाप है। बुढ़ापा ही दिखता है। छात्र जीवन में कई दोस्त थे, जो वाम छात्र संगठनों से जुड़े थे। इनमें से कई प्रतिभाशाली होने के बाद भी नेता नहीं बन सके या बनने नहीं दिया गया। जबकि कइयों ने ज़मीन पर अच्छा काम किया, फिर भी वे पार्टी के लिए छात्र ही रह गए।दिल्ली में लेफ़्ट पोलिटिक्स का मतलब पढ़ाई में दोयम दर्जे का होने के बावजूद डीयू में नौकरी लेना होता था, यही काम आजकल लोग संघ और बीजेपी के नाम पर कर रहे हैं। लिहाज़ा वाम राजनीति ने युवा नेतृत्व को कुचल कर रख दिया।
वाम दलों में बुढ़ा रहे युवा मित्रों से कहता हूँ कि बकायदा वक्त आ गया है कि आप इन दलों को दस साल के लिए छोड़ दें और अपने अनुभव और मानव संसाधन को वहाँ ट्रांसफ़र कर दें जहाँ मेहनत करने से कुछ हो सकता है। किसी दूसरे बड़े प्लेटफार्म को चुन लें जो भले वामपंथ न हो बल्कि आपके मिज़ाज की राजनीति की झलक मिलती है। ये काम अभी और इसी वक्त करें। खुदरा खुदरी खटने से कुछ नहीं होगा या फिर खुले मन से ईमानदारी से लेफ़्ट की राजनीति को परवान चढ़ायें और ख़ुद नेतृत्व करें। लेफ़्ट दलों के भीतर बग़ावत बहुत ज़रूरी है। आइडिया है सोच कर देखियेगा।
राजनीति में विद्यार्थी परिषद वाले मित्रों ने ज़्यादा तरक्की की क्योंकि उनका प्लेटफार्म भी स्थापित और बड़ा है। इसलिए भी कि संघ सल्तनत में युवाओं को खपा लेने की कूव्वत बहुत है। छोटी मोटी ज़मींदारी बाँट कर मनसबदार बनने का सपना थमा दिया जाता है।वैसे वहाँ वे भी कुछ अलग नहीं कर रहे। वही नेता के लिए नारेबाज़ी और पार्टी के लिए पोस्टरबाजी। फालतू और फ़र्ज़ी सेमिनार। आजकल एक नया काम और मिल गया। रोज़ अपने दिवंगत और मौजूदा नेताओं की जयंती और पुण्यतिथि पर संदेश भेजना। वे रोज़ इतनी प्रेरणा पाते हैं कि प्रेरणा का मट्ठा बन गए हैं। पुराने पड़ चुके नेतृत्व की साइक्लोस्टाइल कॉपी बन रहे हैं। व्हीप के कोड़े से चलने वाले विधायक और सांसद बनकर ही क्या कर लेंगे। उन मित्रों को सलाह दूँगा कि हिन्दू मुस्लिम राजनीति का बकवास छोड़े और आर्थिक चिंतन विकसित करें । सारी पार्टी एक आदमी के लिए एक ही ज़ुबान बोलती है। यह प्रमाण है कि वहाँ राजनीति ख़त्म हो रही है। सत्ता मिलना कौन सी बड़ी बात है इस देश में। गुंडा भी चुनाव जीत जाता है। पढ़ा लिखा हार जाता है।
कई मित्रों ने दलित राजनीति में नया करने के लिए संघर्ष का लंबा रास्ता चुना है। वे पहले इधर उधर के दलों में गए फिर अपना रास्ता बनाने का संकल्प लेकर लौट आए। कुछ मित्र मौलिक रूप से जोखिम ले रहे हैं तो कुछ दलित राजनीति में अवसरवादी हो गए हैं। दलित कार्ड लेकर कभी कांग्रेस तो आजकल बीजेपी के नेताओं को डॉ अंबेडकर पर सलाह देते रहते हैं। इसलिए जो अलग करना चाहते हैं, उन पर मेरी उदार नज़र है। देखना है कि वे अपनी संगठन और नेतृत्व क्षमता का विस्तार कैसे करते हैं। किसी पार्टी में न जाकर अपनी पार्टी बनाने का हौसला करना आज की जवानी के बस की बात नहीं। फिर भी कुछ ने किया तो है। आज़ाद भारत में कांशीराम इकलौता और अदभुत उदाहरण हैं। दलित राजनीतिक मित्रों से यही कहने का मन करता है कि कांशीराम ने मौका देखकर राजनीति नहीं की बल्कि राजनीति में मौके का निर्माण किया।
सबसे बुरा हाल है राजनीति में आ रहे मुस्लिम मित्रों का। हर दल में जुगाड़ खोजते हैं। बजाए बड़ा नेता बनने या ज़मीन पर अपनी राजनीतिक पहचान को निखारने के सहायक बनने की नियति पाल ली है। कुछ तो बेहद प्रतिभाशाली हैं लेकिन तमाम दलों ने इन युवाओं का साहस तोड़ दिया है। वे कार्यकर्ता और समर्थक तो अच्छा बन जाते हैं मगर नेता नहीं। इन मित्रों से यही कहूँगा कि नेता बनने की दावेदारी कीजिये। जगह देखकर जगह मत बनाइये। खुदरा खुदरी पार्टियों में बहुत समय बर्बाद किया। दूसरों के मोहल्ले में जाकर तक़रीरें कीजिये। अपने मोहल्ले में तो कीजिये ही।
बहरहाल, नीरज वत्स का रास्ता सबसे अलग है। उसने एक छोटे सपने के लिए अपने तमाम बड़े सपने त्याग दिये। मैंने नीरज को ख़ूब शुभकामनायें दीं। नीरज से यही कहा कि न तो सांप्रदायिक राजनीति करना और न किसी भी तरह से इनके काम आना। बाकी आगे चल कर वो कैसा नेता बनेगा, मैं नहीं जानता। फिलहाल उसके इस जज़्बे के साथ हूँ। कल नीरज से बात की और शादी में न आने का अफ़सोस जताया। हरियाणा में पार्षदी का चुनाव पाँच साल बाद होगा। अभी नीरज को आर्थिक चुनौतियों का भी इंतज़ाम करना है और राजनीतिक समझदारी के विस्तार का अध्ययन भी। हो सकता है कुछ दिनों के लिए नौकरी भी करनी पड़े लेकिन यही दुआ करूँगा कि वो अपने सपने में कामयाब रहे। नीरज का मोहल्ला एक दिन बदलेगा और भारतीय राजनीति में एक ऐसा पार्षद आयेगा जो पार्षद ही बनना चाहता है।