अब तक भी हम हैं अस्त-व्यस्त
मुदित-मुख निगड़ित चरण-हस्त
उठ-उठकर भीतर से कण्ठों में
टकराता है हृदयोद्गार
आरती न सकते हैं उतार
युग को मुखरित करने वाले शब्दों के अनुपम शिल्पकार !
हे प्रेमचन्द
यह भूख-प्यास
सर्दी-गर्मी
अपमान-ग्लानि
नाना अभाव अभियोगों से यह नोक-झोंक
यह नाराजी
यह भोलापन
यह अपने को ठगने देना
यह गरजू होकर बाँह बेच देना सस्ते—
हे अग्रज, इनसे तुम भली-भाँति परिचित थे
मालूम तुम्हें था हम कैसे थोड़े में मुर्झा जाते हैं
खिल जाते हैं, थोड़े में ही
था पता तुम्हें, कितना दुर्वह होता अक्षम के लिए भार
हे अन्तर्यामी, हे कथाकार
गोबर महगू बलचनमा और चातुरी चमार
सब छीन ले रहे स्वाधिकार
आगे बढ़कर सब जूझ रहे
रहनुमा बन गये लाखों के
अपना त्रिशंकुपन छोड़ इन्हीं का साथ दे रहा मध्य वर्ग
तुम जला गये हो मशाल
बन गया आज वह ज्योति-स्तम्भ
कोने-कोने में बढ़ता ही जाता है किरनों का पसार
लो, देखो अपना चमत्कार !