मुला स्वांग खूब भरयो
भगवती चरण वर्मा की कहानी दो बांके के अंत में एक देहाती आदमी लड़ाई का माहौल बनाये लखनऊ के दो शोहदों से ये कहता है और कहानी ख़त्म हो जाती है .
समाजवादी पार्टी के झगडे के नाटकीय पटाक्षेप के बाद दो बांके का ये संवाद याद आता रहा.
कैकेयी, मंथरा, दशरथ, धृतराष्ट्र, अभिमन्यु, शकुनि , अकबर - दनादन दागी गयी सारी उपमाएं धरी रह गयीं. आखिरकार पिता मुलायम सिंह यादव ने अपने सियासी वारिस बेटे अखिलेश यादव का पार्टी में वर्चस्व साबित करा ही दिया- बहुत नाटकीय ढंग से, खुद अपने ऊपर खलनायकी ओढ़ कर- बुढ़ापा, बुज़ुर्गी, बेचारगी के परदे में उन्होंने ऐसा दांव खेल ा कि उनकी पीठ पर लदे शिवपाल यादव लद्द से नीचे आ गिरे. शिवपाल को ज़मीनी हकीकत दिखाने के लिए मुलायम इससे बढ़िया चाल नहीं चल सकते थे.
मुलायम के इस दांव में अखिलेश के सलाहकार स्टीव जारडिंग का भी योगदान माना जाना चाहिए जिन्होंने सलाह दी थी की अखिलेश के पक्ष में सहानुभूति पैदा करने के लिए जनता की निगाह में समाजवादी पार्टी में झगड़ा कराने की ज़रूरत है
निष्कासन के फैसले को रद्द करने का ऐलान करते हुए शिवपाल का उतरा चेहरा बता रहा था कि दंगल में ऊपर से देखने पर, पब्लिक की निगाह में भले ही अखिलेश ने मुलायम को चित किया हो, लेकिन धोबीपाट का दर्द तो शिवपाल के ही हिस्से में आया है. शुक्रवार की शाम अखिलेश और रामगोपाल यादव के निष्कासन पर चुपके चुपके मूँछों पर ताव दे रहे शिवपाल शनिवार की सुबह अखिलेश के समर्थन में जुटे विधायकों और समर्थकों की भीड़ देखकर जब तक बाज़ी पलटने का माजरा ठीक से समझ पाते, वो ज़मीन पर गिरे धूल चाट रहे थे.
अब इस चोट को चुनाव तक तो मुस्कुराते हुए सहना शिवपाल की राजनैतिक मजबूरी है. समाजवादी पार्टी के विधायकों, कार्यकर्ताओं की नज़र में अमर सिंह के अलावा वो भी खलनायक बन चुके हैं.
निष्कासन रद्द हो जाने के बाद शिवपाल को पार्टी में अखिलेश के दबदबे को तो मानना ही पड़ेगा , उन रामगोपाल यादव की जली कटी भी सुननी पड़ेगी जिनको निपटने के लिए उन्होंने लगातार इतने जतन किये.
लंबे समय से समाजवादी पार्टी में चले आ रहे अखिलेश और शिवपाल के अहम के टकराव में मुलायम सिंह यादव अपने छोटे भाई शिवपाल को ये बात मानने के लिए तैयार नहीं कर पा रहे थे कि अखिलेश कि बढ़ती लोकप्रियता के आगे उनके पाँव के नीचे की ज़मीन छोटी पड़ चुकी है.शिवपाल पिछले कुछ समय से लगातार सर्र्टी संगठन पर अपनी पकड़ की अकड़ दिखा रहे थे अखिलेश उसे मानने को तैयार नहीं थे क्योंकि 2012 के बाद से अब तक उन्होंने अपने काम के बूते पर अपने पिता और पार्टी की परछाईं से अलग अपनी एक साफ़ सुथरी छवि बनाई है. चुनाव उनके चेहरे पर ही लड़ा जाना है तो उनकी बात आगे रहनी चाहिए - ये बात अखिलेश तमाम पार्टी बैठकों और मीडिया मंचों से दोहरा चुके हैं.
पार्टी हारे या जीते, अब अखिलेश की बात को शिवपाल को तवज्जो देनी ही पड़ेगी.