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महावीर वाणी-(प्रवचन-24)

20 अप्रैल 2022

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प्राणिमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ( भगवान महावीर) ने कुछ वस्‍त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है। लेकिन इन सामग्रियों में असक्ति, ममता व मूर्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है।

संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है। अतएव मैं मानता हूं कि जो संग्रह करने की वृत्ति रखते हैं, वे गृहस्थ हैं, साधु नहीं।

पहले एक प्रश्‍न।

एक मित्र ने पूछा है कि रस परित्याग का क्या अर्थ है। क्या रस परित्याग का यही अर्थ है कि कोई भी इंद्रियजनित कंपन से ध्यान न जुड़े। फिर तो रस त्यागी को आंख, कान वगैरह बंद करके ही चलना उचित होगा। अंधे, बहरे, गुंगे सर्वश्रेष्ठ त्यागी सिद्ध होंगे। क्या यही महावीर और आपका खयाल है?

रस परित्याग का अर्थ अंधापन, बहरापन नहीं है, लेकिन बहुत लोगों ने वैसा अर्थ लिया है। ध्यान को इंद्रियों से तोड़ना तो कठिन, इंद्रियों को तोड़ देना बहुत आसान है। आंख जो देखती है, उससे रस को छोड़ना तो कठिन, आंख को फोड़ देना बहुत कठिन नहीं है। किन्हीं ने तो आंखें फोड़ ही ली है वस्तुत:। किन्हीं ने धुंधली कर ली है। आंख बंद करके चलने से कुछ भी न होगा, क्योंकि आंख बंद करने की जो वृत्ति पैदा हो रही है वह जिस भय से पैदा हो रही है। वह भय त्याग नहीं है।

और मन के नियम बहुत अदभुत है। जिससे हम भयभीत होते है, उससे हम बहुत गहरे में प्रभावित भी होते है। अगर मैं सौंदर्य को देख कर आंख बंद कर लूं तो वह भी सौंदर्य से प्रभावित होना है। उससे यह पता नहीं चलता कि मै सौदर्य की जो वासना थी, उससे मुक्त हो गया। उससे इतना ही पता चलता है कि सौदर्य की वासना भरपूर है, और मैं इतना भयभीत हूं अपनी वासना से कि भय के कारण मैंने आंख बंद कर ली हैं। लेकिन जिस भय से आंख बंद की है, वह आंख के भीतर चलता रहेगा। आवश्यक नहीं है कि हम बाहर ही देखें, तभी रूप दिखायी पड़े।

अगर रस भीतर मौजूद है तो रस भीतर भी रूप को निर्मित कर लेता है। रूप निर्मित हो जाते है, कल्पना निर्मित हो जाती है। और बाहर तो जगत इतना सुंदर कभी भी नहीं है जितना हम भीतर निर्मित कर सकते हैं। जो स्‍वप्‍न का जगत है, वह हमारे हाथ में है। अगर रस मौजूद हो और आंख फोड़ डाली जाये तो हम सपने देखने लगेंगे, और सपने बाहर के संसार से ज्यादा प्रीतिकर हैं। क्योंकि बाहर का संसार तो बाधा भी डालता है। सपने हमारे हाथ का खेल है। हम जितना सुंदर बना सकें, बना लें। और हम जितनी देर उन्हें टिकाना चाहें, टिका लें। फिर वे सपने की प्रतिमाएं किसी तरह का अवरोध भी उपस्थित नहीं करतीं।

बहुत लोग संसार से भयभीत होकर स्‍वप्‍न के संसार में प्रविष्ट हो जाते है। जिनको स्‍वप्‍न के संसार में प्रविष्ट होना हो, उन्हें आंखें बंद कर लेना बड़ा सहयोगी होगा, क्योंकि खुली आंख सपना देखना बड़ा मुश्किल है। लेकिन इससे रस विलीन न होगा, रस और प्रगाढ होकर प्रगट होगा।

आपके दिन उतने रसपूर्ण नहीं हैं, जितनी आपकी रातें रसपूर्ण हैं। और आपकी जागृति उतनी रसपूर्ण नहीं है, जितने स्‍वप्‍न आपके रसपूर्ण है। स्‍वप्‍न में आपका मन उन्‍मुक्‍त होकर अपने संसार का निर्माण कर लेता है। स्‍वप्‍न में हम सभी स्रष्टा हो जाते हैं और अपनी कल्पना का लोक निर्मित कर लेते हैं। बाहर का जगत थोड़ी बहुत बाधा भी डालता होगा, वह बाधा भी नष्ट हो जाती है।

रस परित्याग का अर्थ—इंद्रियों को नष्ट कर देना नहीं है। रस परित्याग का अर्थ है इंद्रियों और चेतना के बीच जो संबंध है, जो बहाव है, जो मूर्छा है, उसे क्षीण कर लेना।

इंद्रियां खबर देती है, वे खबर उपयोगी है। इंद्रियां सूचनाएं लाती हैं, संवेदनाएं लाती हैं बाहर के जगत की, वे अत्यंत जरूरी हैं। उन इंद्रियों से लायी गयी सूचनाओं, संवेदनाओं पर मन की जो गहरी भीतरी आसक्ति है, वह जो मन का रस है, वह जो मन का ध्यान है, जो मन का उन इंद्रियों से लायी गयी खबरों में डूब जाना है, खो जाना है, वहीं खतरा है।

मन अगर खोये न, चेतना अगर इंद्रियों की लायी हुई सूचनाओं में डूबे न, मालिक बनी रहे, तो त्याग है। इसे ऐसा समझें, इंद्रियां जब मालिक होती है चेतना की, और चेतना अनुसरण करती है इंद्रियों की, तो भोग है। और जब चेतना मालिक होती है इंद्रियों की, और इंद्रियां अनुसरण करती हैं चेतना का, तो त्याग है।

मैं मालिक बना रहूं इंद्रियां मेरी मालिक न हो जायें। इंद्रियां जहां मुझे ले जाना चाहें, वहां खींचने न लगें; मैं जहां जाना चाहूं जा सकूं। और मै जहां जाना चाहूं वहां जाने वाले रास्ते पर इंद्रियां मेरी सहयोगी हों। रास्ता मुझे देखना हो तो आंख देखे, ध्वनि मुझे सुननी हो तो कान ध्वनि सुने, मुझे जो करना हो इंद्रियां उसमें मुझे सहयोगी हो जायें, इंस्ट्रूमेंटल हों—यही उनका उपयोग है।

हमारी इंद्रियां और हमारा जो संबंध है वह मालिक का है या गुलाम का, इस पर ही सभी कुछ निर्भर करता है। यह मेरा हाथ, जो मैं उठाना चाहूं वही उठाये, तो मै त्यागी हूं और यह मेरा हाथ मुझसे कहने लगे कि यह उठाना ही पड़ेगा, और मुझे उठाना पड़े, तो मैं भोगी हूं यह मेरी आंख, जो मैं देखना चाहूं वही देखे तो मैं त्यागी हूं। और यह आंख ही मुझे सुझाने लगे कि यह देखो, यह देखना ही पड़ेगा, इसे देखे बिना नहीं जाया जा सकता, तो मैं भोगी हूं। भोग और त्याग का इतना ही अर्थ है कि इंद्रियां मालिक है या चेतना मालिक है? चेतना मालिक है तो रस विलीन हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि इंद्रियां विलीन हो जाती हैं, बल्कि सच तो उल्टी बात है, इंद्रियां परिशुद्ध हो जाती है। इसलिए महावीर की आंखें जितनी निर्मलता से देखती हैं, आपकी आंखें नहीं देख सकतीं। इसलिए हम महावीर को अंधा नहीं कहते, द्रष्टा कहते है, आंख वाला कहते है।

बुद्ध के हाथ जितना छूते हैं, उतना आपके हाथ नहीं छू सकते। नहीं छू सकते इसलिए कि भीतर का जो मालिक है, वह बेहोश है। नौकर मालिक हो गये हैं। भीतर की जो बेहोशी है वह संवेदना को पूरा गहरा नहीं होने देती, पूरा शुद्ध नहीं होने देती। बुद्ध की आंखें ट्रांसपेरेंट है। आपकी आंखों में धुआं है। वह धुआं आपकी गुलामी से पैदा हो रहा है। अगर ठीक से हम समझें, तो हम अंधे है आंखें होते हुए भी; क्योंकि भीतर जो देख सकता था आंखों से, वह मूर्च्‍छित है, सोया हुआ है। बुद्ध या महावीर जागे हुए हैं, अमूर्छित हैं। आंख सिर्फ बीच का काम करती है, मालकियत का नहीं। आंख अपनी तरफ से कुछ भी जोड़ती नहीं, आंख अपनी तरफ से कोई व्याख्या नहीं करती। भीतर जो है वह देखता है। आप अपनी खिड़की पर खड़े होकर बाहर की सड़क देख रहे हैं। खिड़की भी अगर इस देखने में कुछ अनुदान करने लगे, तो कठिनाई होगी। फिर आप वह न देख पायेंगे जो है। वह देखने लगेंगे जो खिड़की दिखाना चाहती है। लेकिन खिड़की कोई बाधा नहीं डालती, खिड़की सिर्फ राह है जहां से आप बाहर झांकते है।

आंख भी बुद्ध और महावीर के लिए सिर्फ एक मार्ग है, जहां से वे बाहर झांकते है। यह आंख सुझाती नहीं, क्या देखो; यह आंख कहती नहीं, ऐसा देखो; यह आंख कहती नहीं, ऐसा मत देखो। यह आंख सिर्फ शुद्ध मार्ग है।

तो महावीर जितनी निर्दोषता से देखते हैं, हम नहीं देख पाते। महावीर अगर आपका हाथ, हाथ में लें, तो वे आपको ही छू लेंगे। जब हम एक दूसरे का हाथ लेते हैं तो सिर्फ हड्डी मांस ही स्पर्श हो पाता है। छू लेंगे आपको ही क्योंकि बीच में कोई वासना का वेग नहीं है। कोई वासना का बुखार नहीं है। सब शांत है। हाथ सिर्फ छूने का ही काम करता है। इस हाथ की अपने तरफ से कोई आकांक्षा, कोई वासना नहीं है, तो महावीर इस हाथ के द्वारा आपके भीतर तक को स्पर्श कर लेंगे।

इंद्रियां महावीर और बुद्ध की अत्यंत निर्मल हो गयी हैं। वे शुद्ध हो गई हैं, वे उतना ही काम करती हैं, जितना करना जरूरी है। अपनी तरफ से वे कुछ भी जोड़ती नहीं।

हमारी सारी इंद्रियां विक्षिप्त हैं, और विक्षिप्त होंगी। क्योंकि जब मालिक मूर्छित है तो नौकर सम्यक नहीं हो सकते। जब एक रथ का सारथी सो गया हो तो घोड़े कहीं भी दौड़ने लगें, यह स्वाभाविक है। और उन सारे घोड़ों के बीच कोई ताल—मेल न रह जाये, यह भी स्वाभाविक है।

हमारी इंद्रियों के बीच कोई ताले—मेल भी नहीं है, भोगी की सभी इंद्रियां उसे विपरीत दिशाओं में खींचती रहती हैं। आंख कुछ देखना चाहती है, कान कुछ सुनना चाहता है, हाथ कुछ और छूना चाहते हैं इन सबके बीच विरोध है, इस विरोध से बड़ा कंट्राडिक्वान है, जीवन में बडी विसंगतियां पैदा होती हैं।

जैसे, आप एक सी के प्रेम में पड़ गये हैं, एक पुरुष के प्रेम में पड़ गये हैं। आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि सभी प्रेम इतनी कठिनाइयों में क्यों ले जाते हैं, और सभी प्रेम अंततः दुख क्यों बन जाते हैं। उसका कारण है। किसी का चेहरा आपको सुंदर लगा, यह आंख का रस है। अगर आंख बहुत प्रभावी सिद्ध हो जाये तो आप प्रेम में पड़ जायेंगे। लेकिन कल उसकी गंध शरीर की आपको अच्छी नहीं लगती, तब नाक इनकार करने लगेगी। आप उसके शरीर को छूते है, लेकिन उसके शरीर की ऊष्मा आपके हाथ को अच्छी नहीं लगती, तो हाथ इनकार करने लगेंगे।

आपकी सारी इंद्रियों के बीच कोई ताल—मेल नहीं है, इसलिए प्रेम विसंवाद हो जाता है। एक इंद्रिय के आधार पर आदमी चुन लेता है, बाकी इंद्रियां धीरे— धीरे अपना—अपना स्वर देना शुरू करेंगी और तब एक ही व्यक्ति के प्रति कोई इंद्रिय अच्छा अनुभव करती है, दूसरी इंद्रिय बुरा अनुभव करती है। आपके मन में हजार विचार एक ही व्यक्ति के प्रति हो जाते हैं।

और हममें से अधिक लोग आंख का इशारा मान कर चलते हैं। क्योंकि आंख बडी प्रभावी हो गयी है। हमारे चुनाव में, नब्बे प्रतिशत आंख काम करती है। हम आंख की मान लेते हैं, दूसरी इंद्रियों की हम कोई फिक्र नहीं करते। आज नहीं कल कठिनाई शुरू हो जाती है। क्योंकि दूसरी इंद्रियां भी असर्ट करना शुरू करती है, अपने वक्तव्य देना शुरू करती हैं।

आंख की गुलामी मानने को कान राजी नहीं है। इसलिए आंख ने कितना ही कहां हो कि चेहरा सुंदर है, इस कारण वाणी को कान मान लेगा कि सुंदर है, यह आवश्यक नहीं है। आंख की आवाज को, आंख की मालकियत को, नाक मानने को राजी नहीं है। आंख ने कहां हो कि शरीर सुंदर है, लेकिन नाक तो कहेगी कि शरीर से जो गंध आती है, अप्रीतिकर है।

फिर क्या होगा? एक ही व्यक्ति के प्रति पांचों इंद्रियों के अलग—अलग वक्तव्य जटिलता पैदा कर देते हैं। यह जो जटिलता है, केवल उसी व्यक्ति में नहीं होती, जिसका भीतर मालिक जगा होता है।

तो फिर पांचों इंद्रियों को जोड्ने वाला एक केंद्र भी होता है। हमारे भीतर कोई केंद्र नहीं है। हमारी हर इंद्रिय मालकियत जाहिर करती है। और हर इंद्रिय का वक्तव्य आखिरी है। कोई दूसरी इंद्रिय उसके वक्तव्य को काट नहीं सकती। हम सभी इंद्रियों के वक्तव्य इकट्ठे करके एक विसंगतियों का ढेर हो जाते हैं।

हमारे भीतर—जिसे हम प्रेम करते है—उसके प्रति घृणा भी होती है। क्योंकि एक इंद्रिय प्रेम करती है, एक घृणा करती है। और हम इसमें कभी ताल—मेल नहीं बिठा पाते। तो ज्यादा से ज्यादा हम यही करते है कि हम हर इंद्रिय को रोटेशन में मौका देते रहते है। हमारी इंद्रियां रोटरी क्लब के सदस्य है।

कभी आंख को मौका देते है तो वह मालकियत कर लेती है, तब। कभी कान को मौका देते है, तब वह मालकियत कर लेता है। लेकिन इनके बीच कभी कोई ताल—मेल निर्मित नहीं हो पाता। कोई संगति, कोई सामंजस्य, कोई संगीत पैदा नहीं हो पाता। इसलिए जीवन हमारा एक दुख हो जाता है।

जब भीतर का मालिक जगता है, तो वही संगति है, वही ताल—मेल है, वही हार्मनी है। सारी इंद्रियां, सारथी जग गया, और लगाम हाथ में आ गयी और सारे घोड़े एक साथ चलने लगे। उनकी गति में एक लय आ गयी। एक दिशा, एक आयाम आ गया। मूर्छित मनुष्य इंद्रियों के द्वारा अलग—अलग रास्तों पर खींचा जाता है। जैसे एक ही बैलगाड़ी अलग—अलग रास्तों पर, चारों तरफ जुते हुए बैलों से खींची जा रही हो। यात्रा नहीं हो पाती घसीटन होती है, और आखिर में सब अस्थि पंजर ढीले हो जाते है। कुछ परिणाम नहीं निकलता। जीवन निष्पत्तिहीन होता है, निष्कर्षरहित होता है।

रस परित्याग का अर्थ है—इंद्रियों की मालकियत का परित्याग, इंद्रियों का परित्याग नहीं। आंख नहीं फोड़ लेनी, कान नहीं फोड़ देना। वह तो मूढ़ता है। हालांकि वह आसान है। आंख फोड़ने में क्या कठिनाई है? जरा—सा जिद्दी स्वभाव चाहिए, जोश चाहिए, हठवादिता चाहिए। आंख फोडी जा सकती है। सोच—विचार नहीं चाहिए, आंख आसानी से फोडी जा सकती है। और फूट गयी, तो फिर तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन रस इतना आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। रस लंबा संघर्ष है, बारीक है, डेलिक्टे है, सूक्ष्म है, नाजुक है और सतत। आंख तो एक बार में फोडी जा सकती है, रस जीवन भर में धीरे—धीरे, धीरे— धीरे छोड़ा जा सकता है। इसलिए त्यागियो को आसान दिखा आंख का फोड़ लेना। कोई हिम्मतवर है, इकट्ठी फोड़ लेते है, कोई उतने हिम्मतवर नहीं है तो धीरे— धीरे फोड़ते है। कोई उतने हिम्मतवर नहीं तो फोड़ते नहीं, सिर्फ आंख बंद करके जीने लगते है। लेकिन वह हल नहीं है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आप नाहक ही आंख खोलकर जीये।

अधिक लोग नाहक आंख खोल कर जीते है। रास्ते से जा रहे है, तो दीवारों पर लगे पोस्टर भी उनको पढ़ने ही पड़ते है। वह नाहक आंख खोलकर जीना है। जिससे कोई प्रयोजन न था, जिससे कोई अर्थ न था और जिस पोस्टर को हजार दफे पढ़ चुके है क्योंकि उसी रास्ते से हजार बार गुजर चुके है। आज फिर उसको पढ़ेंगे।

पता नहीं, हमारी आंख पर हमारा कोई भी वश नहीं मालूम होता, इसलिए ऐसा हो रहा है। लेकिन उस पोस्टर को पढ़ लेना सिर्फ पढ़ लेना ही नहीं है, वह आपके भीतर भी जा रहा है और आपके जीवन को प्रभावित करेगा। ऐसा कुछ भी नहीं है जो आप भीतर ले जाते है जो आपको प्रभावित न करे। सब भोजन है—चाहे आप आंख से पोस्टर पढ़ रहे हों, वह भी भोजन है, वह भी आपके भीतर जा रहा है।

शंकर ने इन सबको ही आहार कहां है। कान से जो सुनते है, वह कान का भोजन है। मुंह से जो लेते है, वह मुंह का भोजन है। आंख से जो देखते है, वह आंख का भोजन है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप व्यर्थ ही आंख खोलकर चलते रहें कि व्यर्थ ही कान खोलकर बाजार के बीच में बैठ जायें। होश रखना जरूरी है। जो सार्थक है, उपादेय है, उसे ही भीतर जाने दें। जो निरर्थक है, निरुपादेय है, घातक है, उसे भीतर न जाने दें।

चुनाव जरूरी है, और चुनाव के साथ मालकियत निर्मित होती है। कौन चुने? लेकिन, आंख के पास चुनने की कोई क्षमता नहीं है; देख सकती है। कान सुन सकता है। चुनेगा कौन? आप। लेकिन आपका तो कोई पता ही नहीं है। आप तो कहीं है ही नहीं। इसलिए जिंदगी में कोई चुनाव नहीं है।

आप कुछ भी पढ़ते है, कुछ भी सुनते है, कुछ भी देखते हैं, वह सब आपके भीतर जा रहा है। और आपके कचरे का एक ढेर बना देता है। अगर आपके मन को उघाड़कर रखा जा सके बाहर तो कचरे का एक ढेर मिलेगा, जिसमें कोई संगति न मिलेगी। कबाड़, कुछ भी इकट्ठा कर लिया है। इकट्ठा करते वक्त सोचा भी नहीं। आप अपने घर में एक चीज लाने में जितना विचार करते है कि ले जाना कि नहीं, जगह घर में है या नहीं, कहां रखेंगे, क्या करेंगे, उतना भी विचार मन के भीतर ले जाने में आप नहीं करते। जगह है भीतर? वह भी कभी नहीं सोचते। जो ले जा रहे है वह ले जाने योग्य है? वह भी कभी नहीं सोचते। कुछ भी।

कभी आपने किसी आदमी से कहां है कि अब बातचीत आप जो कर रहे है, बंद कर दें, मेरे भीतर मत डालें। कभी नहीं कहां है। कुछ भी कोई आपके भीतर डाल सकता है। आप कोई टोकरी है, कचरे की? जिसमें कोई भी कुछ डाल सकता है। आप के घर में पड़ोसी कचरा फेंके तो आप पुइलस में रिपोर्ट कर देंगे, और पड़ोसी आपकी खोपड़ी में रोज कचरा फेंकता है, आपने कभी कोई रिपोर्ट नहीं की है। बल्कि एक दिन न फेंके तो आपको लगता है, दिन खाली—खाली जा रहा है। आओ, फेंको।

नहीं, हमें होश ही नहीं कि हम भीतर क्या ले जा रहे हैं। आंख, न तो फोड़नी उचित है और न जरूरत से ज्यादा खोलनी उचित है। इसलिए महावीर ने तो कहां है कि साधु इतना देखकर चले जितना आवश्यक है। महावीर ने कहां है कि आंख चार फीट देखे, चलते वक्त भिक्षु की। अगर आंख चार फीट देखे, तो उसका मतलब हुआ आप को नाक का अग्र हिस्सा दिखायी पड़ता रहेगा, बस। आंख झुकी होगी, चार फीट देखेगी। क्योंकि महावीर ने कहां है, चलने के लिए चार फीट देखना काफी है। फिर आगे बढ़ जाते हैं, चार फीट फिर दिखायी पड़ने लगता है, इतना काफी है। कोई दूर का आकाश चलने के लिए देखना आवश्यक नहीं है। उतना देखें, जितना जरूरी हो, काम के लिए। उतना सुनें जितना जरूरी हो, उतना बोलें जितना जरूरी हो, तो इसके परिणाम होंगे।

इसके दो परिणाम होंगे—एक तो व्यर्थ आपके भीतर इकट्ठा नहीं होगा वह आपकी शक्ति क्षीण करता है। दूसरा आपकी शक्ति बचेगी। वह शक्ति ही आपके उर्ध्वगमन के लिए मार्ग बनने वाली है। उसी शक्ति के सहारे आप अंतर की यात्रा पर निकलेंगे। हम तो करीब—करीब एच्यास्टेड़ है, खत्म है। कुछ बचता ही नहीं सांझ होते—होते, दिनभर में सब चुक जाता है। सांझ हम चुके चुकाये, चली हुई कारतूस की तरह अपने बिस्तर पर गिर जाते है। मगर रात भर भी हम शक्ति को इकट्ठा नहीं कर रहे है, खर्च कर रहे है। इसलिए एक मजे की घटना घटती है, लोग थके हुए बिस्तर में जाते है और सुबह और थके हुए उठते हैं। रात भी सपने चल रहे है और हम थक रहे है। हमारी जिंदगी एक लंबी थकान बन जाती है। एक शक्ति का संचयन नहीं। और जहां शक्ति नहीं है, वहां कुछ भी नहीं हो सकता।

तो दो परिणाम है—एक तो व्यर्थ इकट्ठा न हो, हमारे भीतर स्पेस, खाली जगह चाहिए। जिस आदमी के भीतर आकाश नहीं है, उस आदमी का आत्मा से कोई संबंध नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर आकाश नहीं है, वह उस परमात्मा के अतिथि को निमंत्रण भी नहीं भेज सकता। उसके भीतर वह मेहमान आ जाये तो ठहराने की जगह भी नहीं है।

भीतरी आकाश, इनर स्पेस, धर्म की अनिवार्य खोज है। हम जिसे बुला रहे, जिसे पुकार रहे, जिसे खोज रहे, उसके लायक हमारे भीतर जगह होनी चाहिए। स्थान होना चाहिए। वह रिक्तता बिलकुल नहीं है। आप भरे हुए है, ठसाठस भरे हुए है। परमात्मा की भी सामर्थ्य नहीं, लोग कहते है कि सर्वशक्तिमान है, मगर आपके भीतर घुसने की उसकी भी सामर्थ्य नहीं। जगह ही नहीं है वहां और शायद इसलिए आप भी अपने भीतर नहीं जा पाते, बाहर घूमते रहते है। वहां जगह तो चाहिए। और वहां आपने क्या भर रक्खा है, यह कभी आपने सोचा?

कभी दस मिनट बैठ जायें और एक कागज पर जो आपके मन के भीतर चलता हो, उसको लिख डालें, तब आपको पता चलेगा, आपने क्या भीतर भर रखा है कहीं कोई फिल्म की एक आ जायेगी कहीं पड़ोसी के कुत्ते का भौंकना आ जायेगा, कहीं रास्ते पर सुनी हुई कोई बात आ जायेगी, पता नहीं क्या—क्या कचरा वहां सब इकट्ठा है। और इस पर शक्ति व्यय हो रही है। चाहे आप फिल्म की एक कड़ी दोहराते हों और चाहे आप प्रभु का स्मरण करते हों, एक शब्द का भी भीतर उच्चारण शक्ति का हास है। फिर उसका क्या उपयोग कर रहे है, यह आप पर निर्भर है। अगर व्यर्थ ही खोते चले जा रहे है, तो आखिर में जीवन के अगर आप पायें, आप सिर्फ खो गये, कुछ पाया नहीं, तो इसमें आश्रर्य नहीं है।

हमारी मृत्यु अकसर हमें उस जगह पहुंचा देती है जहां अवसर था, शक्ति थी, लेकिन हम उसे फेंकते रहे। कुछ सृजन नहीं हो पाया। हमारी मृत्यु एक लंबे विध्वंस का अंत होती है, एक लंबे आत्मघात का अंत, एक सृजनात्मक, एक क्रिएटिव घटना नहीं।

महावीर की सारी उत्सुकता इसमें है कि भीतर एक सृजन हो जाये, वह सृजन ही आत्मा है।

इस सूत्र को हम समझें।

‘प्राणीमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है।’

महावीर ने नहीं कहां है कि आपके पास कुछ चीजें हैं तो आप परिग्रही है। महावीर ने यह भी नहीं कहां है कि आप सब चीजें छोड़कर खड़े हो गये तो आप अपरिग्रही हो गये, कि आपने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया।

वस्तुएं हैं, इससे कोई गृहस्थ नहीं होता; और वस्तुएं नहीं है, इससे कोई साधु नहीं होता। लेकिन अधिक साधु यही करते रहते है। कितनी कम वस्तुएं है, इससे सोचते है कि साधुता हो गयी। साधुता या गृहस्थ महावीर के लिए आंतरिक घटना है। वे कहते है, वस्तुओं में कितनी मूर्छा है, कितना लगाव है। इन सामग्रियों में आसक्ति, ममता, मूर्छा रखना ही परिग्रह है।

मूर्छा परिग्रह है। बेहोशी परिग्रह है, बेहोशी का क्या मतलब है? होश का क्या मतलब है? जब आप किसी चीज के लिए जीने लगते है, तब बेहोशी शुरू हो जाती है। एक आदमी धन के लिए जीता है, तो बेहोश है। वह कहता है, मेरी जिंदगी इसलिए है कि धन इकट्ठा करना है। धन मेरे लिए है, ऐसा नहीं, धन किसी और काम के लिए है, ऐसा भी नहीं, मैं धन के लिए हूं। मुझे धन इकट्ठा करना है। मैं एक मशीन हूं एक फैक्ट्री हूं मुझे धन इकट्ठा करना है।

जब एक आदमी वस्तुओं को अपने से ऊपर रख लेता है, और जब एक आदमी कहने लगता है कि मैं वस्तुओं के लिए जी रहा हूं वस्तुएं ही सब कुछ है, मेरे जीवन का लक्ष्य, साध्य—तब मूर्छा है। लेकिन हम सारे लोग इसी तरह जीते है। छोटी—सी चीज आपकी खो जाये तो ऐसा लगता है, आत्मा खो गयी। कभी आपने खयाल किया? उस चीज का कितना ही कम मूल्य क्यों न हो, रात नींद नहीं आती। चिंता भीतर मन में चलती है। दिनों तक पीछा करती है। एक छोटी—सी चीज का खो जाना।

बच्चों जैसी हमारी हालत है। एक बच्चे की गुडियां टूट जाये तो रोता है, छाती पीटता है। मुश्किल हो जाता है उसे यह स्वीकार करना कि गुडियां अब नहीं रही। दों—चार दस दिन उसके आंखों में आंसू भर—भर आते है। लेकिन यह बच्चे की ही बात होती तो क्षम्य थी, को की भी यही बात है। जरा—सा कुछ खो जाये। यह बड़े मजे की बात है कि उसके होने से कभी कोई सुख न मिला हो, तो भी खो जाये, तो खोने से दुख मिलता है।

आपके पास कोई चीज है। जब तक थी, तब तक आपको उससे कोई सुख न मिला। आपकी तिजोड़ी में एक सोने की ईंट रखी है, उससे आपको कोई सुख नहीं मिला। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसकी वजह से आप नाचे हों, आनंदित हुए हों, ऐसा कभी नहीं हुआ। लेकिन आज ईंट चोरी चली गयी, छाती पीट कर रो रहे हैं। जिस ईंट से कभी कोई खुशी नहीं मिली, उसके लिए रोने का क्या अर्थ है? और जो ईंट तिजोड़ी में ही रखी थी वह सोने की थी कि पत्थर की इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं पड़ता। छाती पर वजन ही रखना है तो सोने का रख लो कि पत्थर का रख लो।

महावीर का अर्थ है मूर्छा से, वस्तुएं हमसे ज्यादा मूल्यवान हो जायें तो मूर्छा है।

रस्किन ने कहां है कि धनी आदमी तब होता है, जब वह धन को दान कर पाता है। नहीं तो गरीब ही होता है। रस्किन का मतलब यह है कि आप धनी उसी दिन हैं, जिस दिन आप धन को छोड़ पाते हैं। अगर नहीं छोड़ पाते तो आप गरीब ही हैं। पकड़ गरीबी का लक्षण है, छोड़ना मालकियत का लक्षण है। अगर किसी चीज को आप छोड़ पाते है, तो समझना कि आप उसके मालिक हैं; और अगर किसी चीज को आप केवल पकड़ ही पाते हैं तो आप भूल कर मत समझना कि आप उसके मालिक हैं। इसका तो बडा अजीब मतलब हुआ। इसका मतलब हुआ कि जो चीजें आप किसी को बांट देते हैं, उनके आप मालिक हैं। और जो चीजें आप पकड़कर बैठे रहते है, उनके आप मालिक नहीं हैं।

दान मालकियत है; क्योंकि जो आदमी दे सकता है, वह यह बता रहा है कि वस्तु मुझ से नीची है, मुझसे ऊपर नहीं। मैं दे सकता हूं। देना मेरे हाथ में है। और जो व्यक्ति देकर प्रसन्न हो सकता है, उसकी मूर्छा टूट गयी। जो व्यक्ति केवल लेकर ही प्रसन्न होता है और देकर दुखी हो जाता है, वह मुर्छित है। त्याग का ऐसा है अर्थ।

त्याग का अर्थ है—दान की अनंत क्षमता, देने की क्षमता। जितना बड़ा हम दे पाते हैं, जितना ज्यादा हम दे पाते है, उतने ही हम मालिक होते चले जाते हैं। इसलिए महावीर ने सब दे दिया। महावीर ने कुछ भी नहीं बचाया। जो भी उनके पास था, सब देकर वे नग्‍न होकर चले गये। इस सब देने में, सिर्फ एक आंतरिक मालकियत की उदघोषणा है। इस देने को याद भी नहीं रखा कि मैने कितना दे दिया। अगर याद भी रखे कोई, तो उसका मतलब हुआ कि वस्तुओं की पकड़ जारी है। अगरकोईकहे कि मैंने इतना दान कर दिया, इसे दोहराये!

एक मित्र मेरे पास आये थे। उन्होंने कहां, पर्चा भी छपाये हुए हैं वे, कि एक लाख रुपया उन्होंने दान किया हुआ है। उन्होंने मुझे कहां कि मै अब तक लाख रुपया दान कर चुका हूं। नहीं, उनकी पली ने मुझे कहां कि मेरे पति लाख रुपया दान कर चुके है। उन्होंने पत्नी की तरफ बड़ी हैरानी से देखा और कहां कि पर्चा पुराना है, अब तो एक लाख, दस हजार!

एक पैसा दान नहीं हो सका इन सज्जन से। एक लाख दस हजार इनके एकाउंट में अब भी उसी भांति है जैसे पहले थे, उसी तरह गिनती में है। यह भला कह रहे हो कि दान कर दिया है, दान हो नहीं पाया। क्योंकि जो दान याद रह जाये वह दान नहीं है।

सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन के घर में कोई मेहमान आया हुआ है। बहुत दिन का पुराना मित्र है और मुल्ला उसे खिलाये चले जा रहे हैं। कोई बहुत बढ़िया मिठाई बनायी है। बार—बार आप कर रहे है, तो उस मित्र ने कहां कि बस अब रहने दें। तीन बार तो मैं ले ही चुका हूं। मुल्ला ने कहां, छोड़ो भी, ले तो तुम छह बार चुके हो, लेकिन गिन कौन रहा है? फिक्र छोड़ो, ले तुम छह बार चुके हो, लेकिन गिन कौन रहा है?

आदमी का मन ऐसा है, गिन भी रहा है और सोचता है गिन कौन रहा है? त्याग अकसर ऐसा ही चलता है। आदमी कहता है छोड़ दिया और दूसरी तरफ से पकड़ लेता है, गिनती किये चला जाता है। फिर भी सोचता है, गिन कौन रहा है? पैसा तो मिट्टी है लेकिन एक लाख दस हजार मैने दान कर दिया। मिट्टी के दान को कोई याद रखता है। दान तो हम तभी याद रखते हैं जब सोने का होता है। लेकिन अगर मिट्टी ही है तो फिर याददाश्त की कोई जरूरत नहीं।

दान की कोई स्मृति नहीं होती सिर्फ चोरी की स्मृति होती है। चोरी को याद रखना पड़ता है। और अगर दान भी याद रहे तो चोरी के ही समान हो जाता है। अर्थ क्या है? अर्थ इतना है कि हम इस भांति सम्मोहित हो सकते हैं वस्तुओं से, हिप्रोटाइज्‍ड हो सकते हैं कि हमारी आत्मा वस्तुओं में प्रवेश कर जाये।

एक कार सरसराती रास्ते से गुजर जाती है। कार तो गुजर जाती है, हवा के झोंके के साथ आपकी आत्मा भी कार के साथ बह जाती है। वह छवि आंख में रह जाती है। वह सपनों में प्रवेश कर जाती है। मन में एक ही बात घूमने लगती है, उस रंग की वैसी गाड़ी, पकड़ लेती है। इसे अगर हम विज्ञान की भाषा में समझें, तो यह हिप्रोटिज्ड है, यह सम्मोहन है। आप उस कार के रंग से, रूप से, आकृति से सम्मोहित हो गये। अब आपके चित्त में एक प्रतिमा बन गयी है। वह प्रतिमा जब तक न मिल जाये, आप दुखी होंगे।

हम वस्तुओं से सम्मोहित होते हैं। व्यक्तियों से ही होते हों, तो भी ठीक है, हम वस्तुओं से भी सम्मोहित होते हैं। देख लेते है एक आदमी की कमीज, रंग पकड़ लेता है, रूप पकड़ लेता है। आपकी आत्मा बह गयी आपके बाहर और कमीज से जाकर जुड़ गयी। अपने से बाहर बह जाना और किसी से जुड़ जाना, और फिर ऐसा अनुभव करना कि उसके मिले बिना सुख न होगा, यह सम्मोहन का लक्षण है। जहां—जहां हम सम्मोहित होते है, वहां—वहां लगता है, इसके बिना अब सुख न होगा। जब भी आपको लगे कि इसके बिना सुख न होगा, तो आप समझ लेना कि आप हिप्रोटाइज्‍ड हो गये, आप सम्मोहित हो गये।

सम्मोहन करने के लिए कोई आपकी आंखों में झांक कर घंटे भर तक देखना आवश्यक नहीं है। सम्मोहित करने के लिए आपको किसी टेबल पर लिटाकर किसी मेक्सकोली को या किसी को आपको बेहोश करना आवश्यक नहीं है। आप चौबीस घंटे सम्मोहित हो रहे हैं, और चारों तरफ उपाय किये गये हैं आपको सम्मोहित करने के, क्योंकि सारा व्यवसाय जीवन का, सम्मोहन पर खड़ा है।

खयाल में नहीं है, सारी एड़वरटाइजमेंट की कला सम्मोहन पर खड़ी है, वह आपको सम्मोहित कर रही है। रोज रेडियो आपसे कह रहा है कि यही सिगरेट, यही साबुन, यही टुथपेस्ट श्रेष्ठतम है। बस इसको कहे चला जा रहा है। अखबार में रोज बड़े—बड़े अक्षरों में आप यही पढ़ रहे हैं। रास्ते पर निकलते हैं, पोस्टर भी यही कहता है। और इस सबको कहने के और सम्मोहित करने के सारे उपाय किये जाते हैं, क्योंकि अगर कोई इतना ही कहे कि बिनाका टुथपेस्ट सबसे अच्छा है, तो मन में बहुत गहरा नहीं जाता। लेकिन पास में एक खूबसूरत अभिनेत्री को भी खड़ा कर दिया जाये, तो मन में ज्यादा जाता है। अब बिनाका अभिनेत्री का सहारा लेकर मन की गहराइयों में चला जायेगा। अभिनेत्री मुसकुराती हो, झूठे सही, लेकिन मोतियों जैसे चमकते दांत पकड़ लेते हैं मन को। बिनाका गौण हो जाता है, अभिनेत्री प्रमुख हो जाती है। अभिनेत्री का सहज सम्मोहन है क्योंकि सेक्स का सहज सम्मोहन है। वासना कामवासना का सहज सम्मोहन है। इसलिए आज दुनियां में कोई भी चीज बेचनी हो, तो बिना सी के सहारे के बेचना मुश्किल है; या बिना पुरुष के सहारे के बेचना मुश्किल है।

पहले उसे सम्मोहित करने के लिए काम—आविष्ट करना जरूरी है। अगर अभिनेत्री नग्‍न खड़ी हो, तो आपको पता नहीं होगा.. अब वैज्ञानिक कहते है कि आपकी आंखों की जो पुतली है, तत्काल बड़ी हो जाती है, जब नग्‍न सी को आप देखते हैं। और आप कुछ भी करें, वह नानवालेन्टरी है। आपके हाथ में नहीं है मामला। आप कितना ही संयम साधें और कुछ भी करें, आप आंख की पुतली को बड़ा होने से नहीं रोक सकते। जब आप नग्‍न चित्र देखते है, तब आंख की पुतली तत्काल बड़ी हो जाती है। क्यों? क्योंकि आपके भीतर की आसक्ति पूरी तरह देखना चाहती है। तो आंख का जो लेंस है, बड़ा हो जाये, ताकि पूरा चित्र भीतर चला जाये।

और जब आंख की पुतली बड़ी हो जाती है, वही मेक्सकोली आपकी आंख में पांच मिनट देखकर करता है, वह एक नग्‍न सी बिना आपकी तरफ देखे कर देती है। आंख की पुतली बड़ी हो जाती है, चित्र तत्काल भीतर चला जाता है, जैसे कैमरे के लेंस से चित्र भीतर चला जाता है। उस सी के साथ बिनाका टुथपेस्ट भी भीतर चला जाता है। यह क्लीशनिंग हो जाती है। अगर रोज—रोज यह होता रहे, तो जब भी आप सुंदर सी के संबंध में सोचेंगे, आपके भीतर बिनाका भी आवाज लगायेगा, और एक दिन आप जब दुकान पर जाकर कहेंगे कि बिनाका टुथपेस्ट दे दें, तो आप बिनाका टुथपेस्ट नहीं मांग रहे हैं, आप अनजाने अचेतन मन से बिनाका के साथ जो स्मृति जुड़ गयी है सी की, वह मांग रहे है। यह सम्मोहन है। यह सम्मोहन हजार तरह से चलता है, चारों तरफ चलता है। और ऐसा नहीं कि कोई जानकर जब विज्ञापन से आपको सम्मोहित करता है, यह तो अब होश की बात हो गयी, विज्ञापनदाता समझ गया है कि आपको कैसे पकड़ना है। मन के पकड़ने के नियम जाहिर हो गये है। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। नियम जाहिर नहीं थे, तब भी.. तब भी आदमी वस्तुओं से सम्मोहित हो रहा था। हम सदा ही वस्तुओं से सम्मोहित होते रहे है। इस सम्मोहन का नाम मूर्छा है।

मूर्छा का अर्थ है—कोई वस्तु इस भांति आपको पकड़ ले कि मन में यह भाव पैदा हो जाये कि इसके बिना अब कोई सुख नहीं मिल सकता। महावीर कहते हैं, जिस आदमी को ऐसा भाव पैदा हो गया, उसको दुख मिलेगा। जब तक वस्तु न मिलेगी, तब तक लगेगा, इसके बिना सुख नहीं मिल सकता, और जब वस्तु मिल जायेगी तो.. .वस्तु के कारण नहीं दिखायी पड़ रहा था कि सुख मिलेगा कि नहीं मिलेगा, यह आपका सम्मोहन था। वस्तु के मिलते ही टूट जायेगा।

इसे ठीक से समझ लें।

सम्मोहन तभी तक रह सकता है, जब तक आपके हाथ में वस्तु न हो। आपको लगे कि कोहिनूर हीरा मेरे पास हो तो मैं जगत का सबसे बड़ा आदमी हो जाऊंगा, लेकिन जब तक आपके हाथ में कोहिनूर हीरा नहीं है, तभी तक यह सम्मोहन काम कर सकता है। कोहिनूर हीरा आपके हाथ में आ जाये, सम्मोहन नहीं बचेगा। क्योंकि कोहिनूर हीरा हाथ में आ जायेगा और सुख का कोई पता नहीं चलेगा। तो सम्मोहन तत्काल टूट जायेगा। सम्मोहन टूटेगा तो दुख शुरू हो जायेगा। और जितनी बड़ी अपेक्षा बांधी थी सुख की, उतने ही बड़े गर्त में दुख के गिर जायेंगे। अपेक्षा के अनुकूल दुख होता है, ठीक उसी अनुपात में। अगर आपने सोचा था कि कोहिनूर के मिलते ही मोक्ष मिल जायेगा तो फिर कोहिनूर के मिलते ही आपसे बड़ा दुखी आदमी दुनिया में दूसरा नहीं होगा। इसलिए धनी आदमी दुखी हो जाते हैं। गरीब आदमी इतना दुखी नहीं होता। यह जरा अजीब लगेगी मेरी बात।

गरीब आदमी कष्ट में होता है, दुख में नहीं होता। अमीर आदमी कष्ट में नहीं होता, दुख में होता है। कष्ट का मतलब है अभाव और दुख का मतलब है, भाव। कष्ट हम उस चीज से उठाते हैं, जो हमें नहीं मिली है और जिसमें हमें आशा है कि मिल जाये तो सुख मिलेगा। इसलिए गरीब आदमी हमेशा आशा में होता है, सुख मिलेगा, आज नहीं कल, कल नहीं परसों; इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में, मगर सुख मिलेगा। यह आशा उसके भीतर एक थिरकन बनी रहती है। कितना ही कष्ट हो, अभाव हो, वह झेल लेता है, इस आशा के सहारे कि आज है कष्ट, कल होगा सुख। आज को गुजार देना है। कल की आशा उसे खींचे लिए चली जाती है। फिर एक दिन यही आदमी अमीर हो जाता है।

अमीर का मतलब, जो—जो इसने सोचा था आशा में, वह सब हाथ में आ जाता है। इस जगत में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं है, जब आशा आपके हाथ में आ जाती है। तब तत्सण सब फ्रस्ट्रेशन हो जाता है, सब विषाद हो जाता है। क्योंकि इतनी आशाएं बांधी थीं, इतने लंबे—लंबे सपने देखे थे, वे सब तिरोहित हो जाते हैं। हाथ में कोहिनूर आ जाता है, सिर्फ पत्थर का एक टुकड़ा मालूम पड़ता है। सब आशाएं खो गयीं। अब क्या होगा? अमीर आदमी इस दुख में पड़ जाता है कि अब क्या होगा? अब क्या करना है? कोई आशा नहीं दिखायी पड़ती आगे।

धन बड़े विषाद में गिरा देता है; कष्ट में नहीं, दुख में गिरा देता है। इसलिए दुख जो है वह समृद्ध आदमी का लक्षण है, कष्ट जो है गरीब आदमी का लक्षण है। और कष्ट और दुख, भाषाकोश में भले ही उनका एक ही अर्थ लिखा हो, जीवन के कोष में बिलकुल विपरीत अर्थ हैं। और मजा यह है कि कष्ट कभी इतना कष्टपूर्ण नहीं है, जितना दुख। क्योंकि दुख आंतरिक हताशा है और कष्ट बाहरी अभाव है। लेकिन भीतर आशा भरी रहती है

आपको पता नहीं है कि आप खोज रहे हैं कि ईश्वर का दर्शन हो जाये, ईश्वर का दर्शन हो जाये। हो जाये किसी दिन तो उससे बड़ा दुख फिर आपको कभी न होगा। अगर आपने सारी आशाएं इसी पर बांध रखी हैं कि ईश्वर का दर्शन हो जाये।

समझ लो कि किसी दिन ईश्वर आपसे मजाक कर दे—ऐसे वह कभी करता नहीं— और मोर खट बांध कर, बांसुरी बजा कर आपके सामने खड़ा हो जाये, तो थोड़ी बहुत देर देखिएगा फिर! फिर क्या करिएगा? फिर करने को क्या है? फिर आप उससे कहेंगे कि आप तिरोधान हो जाओ, तब आप फिर पहले जैसे लुप्त हो जाओ ताकि हम खोजें।

रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ईश्वर को खोजा मैंने बहुत—बहुत जन्मों तक। कभी किसी दूर तारे के किनारे उसकी झलक दिखायी पड़ी, लेकिन जब तक मैं अपनी धीमी—सी गति से चलता—चलता वहां तक पहुंचा, तब तक वह दूर निकल गया था। कहीं और जा चुका था। कभी किसी सूरज के पास उसकी छाया दिखी, और मैं जन्मों—जन्मों उसको खोजता रहा, खोज बड़ी आनंदपूर्ण थी। क्योंकि सदा वह दिखायी पड़ता था कि कहीं है।

फासला था। फासला पूरा हो सकता था। फिर एक दिन बड़ी मुश्किल हो गयी। मैं उसके द्वार पर पहुंच गया। जहां तख्ती लगी थी कि भगवान यहीं रहता है। बड़ा चित्त प्रसन्न हुआ छलांग लगाकर सीढ़ियां चढ़ गया। हाथ में सांकल लेकर ठोंकने जाता ही था दरवाजे पर, पुराने किस्म का दरवाजा होगा, कालबेल नहीं रही होगी। रवींद्रनाथ ने कविता भी लिखी, उसको काफी समय हो गया। कालबेल होती तो वह मुश्‍किल में पड़ जाते क्योंकि वह एकदम से बज जाती।

सांकल हाथ में लेकर ठोंकने ही जाता था कि तभी मुझे खयाल आया कि अगर आवाज मैने कर दी और दरवाजा खुल गया और ईश्वर सामने खड़ा हो गया, फिर! फिर क्या करिएगा? फिर तो सब अंत हो गया, फिर तो मरण ही रह गया हाथ में, फिर कोई खोज न बची; क्योंकि कोई आशा न बची। फिर कोई भविष्य न बचा, क्योंकि कुछ पाने को न बचा।

ईश्वर को पाने के बाद और क्या पाइएगा? फिर मैं क्या करूंगा? फिर मेरा अस्तित्व क्या होगा? सारा अस्तित्व तो तनाव है, आशा का, आकांक्षा का, भविष्य का। जब कोई भविष्य नहीं, कोई आशा नहीं, कोई तनाव नहीं, फिर मै क्या करूंगा? मेरे होने का क्या प्रयोजन है फिर? फिर मैं होऊंगा भी कैसे? वह तो होना बहुत बदतर हो जायेगा।

रवींद्रनाथ ने लिखा है, धीमे से छोड़ दी मैंने वह सांकल कि कहीं आवाज हो ही न जाये। पैर के जूते निकालकर हाथ में ले लिए, कहीं सीढ़ियों से उतरते वक्त पग ध्वनि सुनायी न पड़ जाये। और जो मैं भागा हूं उस दरवाजे से, तो फिर मैने लौटकर नहीं देखा। हालांकि अब मैं फिर ईश्वर को खोज रहा हूं और मुझे पता है कि उसका घर कहां है। उस जगह को भर छोड़कर सब जगह खोजता हूं। बहुत मनोवैज्ञानिक है, सार्थक है बात, अर्थपूर्ण है। आप जहां—जहां सम्मोहन रखते है, सम्मोहन का अर्थ—जहां—जहां आप सोचते हैं, सुख छिपा है, वहां—वहां पहुंचकर दुखी होंगे। क्योंकि वह आपकी आशा थी, जगत का अस्तित्व नहीं था। वह जगत का आश्वासन न था, आपकी कामना थी, वह आपने ही सोचा था, वह आपने ही कल्पित किया था, वह सुख आपने आरोपित किया था। दूर—दूर रहना, उसके पास मत जाना, नहीं तो वह नष्ट हो जायेगा। जितने पास जायेंगे उतनी मुसीबत होने लगेगी।

इंद्रधनुष जैसा है सुख। पास जायें, खो जाता है; दूर रहें, बहुत रंगीन।

महावीर कहते है इस मूर्छा को मैं परिग्रह कहता हूं। यह जो वस्तुओं में सुख रखने की और खोजने की चेष्टा है, इसे मूर्छा कहता हूं। पहले हम वस्तुओं में अपनी आत्मा को रख देते हैं, फिर उसको खोजने निकल जाते हैं। फिर जब वस्तु मिल जाती है तो आत्मा को पाते नहीं, ठीकरा वस्तु हाथ में रह जाती है। तब छाती पीटकर रोते हैं। थोड़ी बहुत देर रोना होता है, फिर तत्काल हम किसी दूसरी वस्तु में आत्मा को रख लेते हैं। वस्तुओं का कोई अंत नहीं, इसलिए जीवन की यात्रा का भी कोई अंत नहीं। चलती जाती है यात्रा। आज यहां, कल वहां।

पुरानी कहानियों में बच्चों की, आपने पढ़ा होगा कि सम्राट अपनी आत्मा को पक्षियों में छिपा देते। कोई तोते ‘ में अपनी आत्मा को रख देता है। जब तक तोता न मारा जाये, तब तक वह सम्राट नहीं मरता।

यह सम्राट रखते हों या न रखते हों, लेकिन यह कहानी बड़ी प्रतीकात्मक है। हम सब भी अपनी आत्मा को वस्तुओं में रख देते हैं, और जब तक हम उन वस्तुओं को पा न लें, तब तक जिंदगी बड़े मजे से चलती है। उन वस्तुओं को पाने से ही आत्मा उन वस्तुओं से खिसक जाती है। नष्ट हो जाती है। तब जिंदगी मुश्किल में पड़ जाती है।

यह जो मुसीबत है, यह एक आत्म-सम्मोहन, आटो-हिप्रोसिस का परिणाम है। इसको महावीर ने मूर्छा कहा है। कैसे इसे तोड़े? वस्तुओं से कैसे मुक्त हों? इसका यह मतलब नहीं किं महावीर को प्यास लगेगी तो पानी नहीं पीयेंगे। लेकिन महावीर पानी के प्रति मूर्छित नहीं है। वह ऐसा नहीं सोचते कि पानी पीने से प्यास मिट जायेगी। वह जानते हैं, प्यास तो फिर दो घड़ी बाद पैदा हो जायेगी। पानी प्यास को थोड़ी देर पोस्टपोन करता है। स्थगित करता है। वे नहीं सोचते कि खाना खाने से पेट भर जायेगा। खाना खाने से पेट का जो गैर भरापन है, वह थोड़ी देर के लिए सरक जायेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वे पेट को खाली रखते, या पानी नहीं पीते। वह पानी भी पीते हैं, पेट को जब जरूरत होती है भोजन भी देते हैं; लेकिन उनका कोई सम्मोहन नहीं है कि पानी स्वर्ग हो जायेगा, ऐसा उनका सम्मोहन नहीं।

हम सब ऐसी हालत में हैं, जैसे एक आदमी रेगिस्तान में पड़ा हो, प्यासा तड़प रहा हो। उस वक्त उसको ऐसा लगता है, अगर पानी मिल जाये, तो सब मिल गया। हमारी हालत ऐसी है कि हम सोच रहे हैं कि अगर पानी मिल जाये तो सब मिल गया। एक मित्र एक राज्य के मिनिस्टर हैं। वे मेरे पास आते थे। वे मुझसे आकर बोले, मुझे सिर्फ नींद आ जाये तो मुझे स्वर्ग मिल गया। और कुछ नहीं चाहिए। मैं आपके पास न आत्मा जानने आया, न परमात्मा की खोज के लिए आया, मैं तो सिर्फ एक ही आशा से आया हूं कि मुझे नींद आ जाये, तो मुझे सब मिल गया। मैंने उन्हें कुछ श्वास के ध्यान के प्रयोग बताये और मैंने कहा वह तो मिल ही जायेगा, कोई तकलीफ नहीं है। उन्होंने कहा, बस, यह अगर मुझे मिल जाये तो मुझे और कुछ चाहिए भी नहीं।

यह रेगिस्तान में पड़े हुए आदमी की हालत है कि पानी मिल जाये तो सब मिल जाये, और आप सबको पानी मिला हुआ है। और कुछ नहीं मिलता पानी मिलने से। लेकिन रेगिस्तान में ऐसा लगता है कि पानी मिल जाये तो सब मिल जाये। रेगिस्तान पानी के प्रति इतना बड़ा सम्मोहन पैदा कर देता है कि वह पड़ा हुआ आदमी सोच भी नहीं सकता कि पानी के मिलने के बाद कुछ और भी कुइनया में पाने को चीज रह जायेगी।

उन मित्र ने कुछ दिन ध्यान का प्रयोग किया, उनको नींद आ गयी। महीने भर बाद वे आये, और बोले, नींद तो आने लगी और कुछ भी नहीं हुआ।

मैंने, जब वह पहले आये थे तो टेप कर लिया था, जो-जो वह कह गये थे। मैंने टेप लगवाया और मैंने कहा, सुनिए। आप कहते थे, नींद मिल जाये तो सब मिल जाये। नींद मिल जाये तो न मुझे ईश्वर चाहिए, न आत्मा चाहिए। और अब जब नींद मिल गयी तो आप कहते है, नींद तो मिल गयी, और कुछ भी नहीं मिला।

उन्होंने मुझे धन्यवाद तक नहीं दिया। स्वर्ग वगैरह तो दूर, बल्कि मुझे उनकी बात सुनकर ऐसा लगा कि मुझसे कोई अपराध हो गया। उन्होंने कहां, नींद तो मिल गयी, और कुछ भी नहीं मिला। वह मुझसे शिकायत करने आये हैं, ऐसा उनका भाव लगा कि और कुछ भी नहीं मिला।

मैने उनसे पूछा, और क्या चाहिए? जिस दिन वह भी मिल जायेगा, आप ऐसा ही आकर कहोगे, ईश्वर तो मिल गया, और कुछ भी नहीं मिला। वह और है क्या? वह और कब मिलेगा? वह और कहीं है नहीं, वह हटता हुआ क्षितिज है, होराइजन है। जो भी चीज मिल जाती है, वह उससे हट जाता है, वह आगे निकल जाता है। हम कहते हैं वह.. वह और कुछ है नहीं। वह हमारा सम्मोहन है जो आगे खिसक जाता है।

हम वस्तुओं में नहीं जीते, हम उस और के सम्मोहन में जीते है। वह मिल जाये, तो सब मिल जाये। जब वह मिल जाता है, तो हमारा और, और आगे सरक जाता है। आकाश छूता दिखता है जमीन को, उसे हम क्षितिज कहते है। कहीं छूता नहीं आकाश जमीन को, लेकिन दिखता है छूता हुआ। आंख से ही देखने से कुछ सच नहीं होता दुनिया में। लोग कहते हैं, हम तो प्रत्यक्ष को मानते हैं। वह आकाश छूता दिखायी पड़ता है प्रत्यक्ष, जमीन को। आंखें भी बड़ा धोखा देती है। जायें, खोजने उस क्षितिज को। आगे बढ़ेंगे, क्षितिज भी आगे बढ़ता जायेगा। लेकिन कहीं भी खड़े रहें, आगे आकाश छूता हुआ दिखायी पड़ता रहेगा। वह है और, क्षितिज, कहीं छूता नहीं। कहीं भी मनुष्य की वासना तृप्ति को नहीं छूती। कहीं आकाश पृथ्वी को नहीं छूता। वासना आगे बढ़ती है, तृप्ति आगे हट जाती है—और। और यह और कभी भी नहीं मिलता।

इसे महावीर मूर्छा कहते हैं। मूर्छा परिग्रह है। वस्तुओं का होना नहीं, वस्तुओं में स्वर्ग का दिखायी देना। मकान का होना परिग्रह नहीं है; लेकिन मकान में अगर किसी को मोक्ष दिखायी पड़ रहा है, परमात्मा, तो परिग्रह है। धन परिग्रह नहीं है, लेकिन धन में अगर किसी को दिखायी पड़ रहा है परमात्मा, तो परिग्रह है। धन, धन है, मगर बड़े मजे के लोग हैं हम सब। या तो हम कहते हैं, धन परमात्मा है, या हम कहते है, धन मिट्टी है। लेकिन, धन, धन है, ऐसा कोई कहनेवाला नहीं मिलता।

धन सिर्फ धन है; न मिट्टी, न परमात्मा। या तो हम शिखर पर रखते हैं, वह भी झूठ है। और जब हम झूठ से परेशान हो जाते है, तो हम दूसरा झूठ पैदा करते हैं कि धन मिट्टी है। धन मिट्टी भी नहीं है। धन सिर्फ धन है। वस्तुएं जो हैं, वही हैं, लेकिन हम कुछ न कुछ करेंगे। या तो स्वर्ग से जोड़ेंगे, या नरक से जोड़ेंगे। हम नरक से क्यों जोड़ना चाहते हैं? स्वर्ग से जोड़—जोड़कर जब हम ऊब जाते हैं और कोई स्वर्ग नहीं पाते, तो क्रोध में हम नरक से जोड़ना शुरू कर देते हैं। जिसको हम पहले कहते थे स्वर्ग, वह जब नहीं मिलता तो हम अपने को समझाने के लिए कहने लगते है, वह तो नरक है, पाने योग्य नहीं है। पहले हम धन में कहते थे, मिल जायेगा सब कुछ; अब हम कहते है, धन में क्या रखा है? हाथ का मैल है, मिट्टी है। मगर यह भी तरकीब है मन की। धन सिर्फ धन है। धन का मतलब है, वह विनिमय का साधन है।

मिट्टी विनिमय का साधन नहीं है। उससे चीजें बदली जा, सकती हैं, मिट्टी से नहीं बदली जा सकतीं। वह चीजों के बदलने का उपयोगी माध्यम है। ठीक है, उतना काफी है। उससे ज्यादा आशा रखना गलत है। वह ज्यादा आशा जब हार जाती है, तो हम नीचे गिराकर देखना शुरू करते हैं। हम दूसरी अति पर हट जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत आसान है, लेकिन वस्तु के सत्य पर रुक जाना बहुत कठिन है।

धन सिर्फ धन है, उपयोगी है। न उसमें स्वर्ग है, न उसमें नरक है। हां, जो उसमें स्वर्ग देखेगा, उसे उसमें नरक मिलेगा। जो उसमें नरक देखने की कोशिश कर रहा है, उसके भीतर कहीं न कहीं, अभी भी उसमें स्वर्ग दिखाई पड़ रहा है। जो वही देख लेता है, जो धन है, उतना जितना है, उसकी मूर्छा टूट गयी।

महावीर का अति जोर सम्यक बोध पर है, राइट अण्डरस्टैडिंग पर है। हर चीज को, वह जैसी है वैसा ही जान लेना। इंचभर अपने मन को न जोड़ना। इंचभर अपनी आकांक्षाएं आशाओं को स्थापित न करना। जो जितना है, जैसा है उतना ही जान लेना अपने प्रोजेक्यान, अपने प्रक्षेप संयुक्त न करना। लेकिन हम नहीं बच सकते। किसी को हम कहेंगे सुंदर है, किसी को हम कहेंगे कुरूप है, किसी को हम कहेंगे मित्र है, किसी को हम कहेंगे शत्रु है। और जब हम यह वक्तव्य देते हैं, तब हमने आकांक्षाएं जोड़नी शुरू कर दीं।

मित्र जब आप किसी को कहते हैं, तो क्या मतलब है आपका? आपका मतलब है कि इससे कुछ अपेक्षाएं पूरी हो सकती हैं। मित्र है, मुसीबत में काम पड़ेगा। मित्र है, इससे हम आशा रख सकते हैं कि कल ऐसा करेगा। शत्रु से भी आपकी आशाएं हैं कि वह क्या—क्या करेगा। विपरीत आशाएं हैं। आप में बाधा डालेगा, लेकिन आपने कुछ जोड़ दीं आशाएं।

जब आपने किसी को कहां मित्र, तो आपने आशाएं जोड़ लीं, जब आपने किसी को कहां शत्रु तो आपने आशाएं जोड़ लीं। आप सम्मोहन के जगत में प्रवेश कर गये। जब आपने अ को अ कहां, ब को ब कहां, न मित्र को मित्र कहां, न शत्रु को शत्रु कहां। जब आपने जो है, उतना ही जाना, उसमें कुछ अपनी तरफ से भविष्य न जोड़ा, तो आप मूर्छा के बाहर हो गये।

मूर्छा के बाहर होने की विधि के तीन सूत्र—

स्व—वस्तुओं को उनके तथ्य में देखना, आशाओं में नहीं।

दो—वस्तुओं को कभी भी साध्य न समझना, साधन।

तीन—स्वयं की मालकियत कभी भी वस्तुओं के मरुस्थल में न खो जाये, इसके लिए सचेत रहना।

‘सामग्रियों में आसक्ति, ममता, मूर्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है। संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है।’

बाहर हम जो भी करते हैं, वह भीतर की झलक है। बाहर का हमारा सारा व्यवहार हमारे अंतस का फैलाव है। आप बाहर जो भी करते हैं, वह आपके भीतर की खबर देता है। जरा—सी भी बात आप बाहर करते हैं, वह भीतर की खबर देता है। आप बैठे हैं, या बैठे—बैठे टांग भी हिला रहे हैं कुर्सी पर तो वह आपके भीतर की खबर दे रहा है। क्योंकि टांग ऐसे नहीं मिलती, उसे हिलाना पड़ता है। आप हिला रहे हैं। आपको पता भी न हो, और पता हो जाये तो तत्काल टांग रुक जाये। इस वक्त किसी की भी टांग नहीं हिल रही होगी। तत्काल रुक जाये। लेकिन हिल रही थी, और आपको पता चला तो रुक भी गयी। इसका मतलब क्या हुआ, आपके भीतर बहुत—कुछ चल रहा है, जिसका आपको पता नहीं। और आपके भीतर बहुत—कुछ हो रहा है जो बाहर भी प्रगट हो रहा है, लेकिन आपको पता नहीं।

इसलिए बड़े मजे की घटना घटती है। दूसरों के दोष हमें जल्दी दिखायी पड़ जाते हैं, अपने दोष मुश्किल से दिखायी पड़ते है; क्योंकि खुद के दोष अचेतन चलते रहते हैं। ऐसा कोई जानकर नहीं करता कि अपने दोष नहीं देखना चाहता, लेकिन खुद के दोष इतने अचेतन हो गये होते हैं, इतने हम आदी हो गये होते हैं कि दिखायी नहीं पड़ते। दूसरे के तत्काल दिखायी पड़ जाते हैं। क्योंकि दूसरा सामने खड़ा होता है। फिर अपने दोषों के साथ हमारे लगाव होते हैं, मूर्छाएं होती हैं, अंधापन होता है। दूसरे के दोष के प्रति हम बिल्कुल निरीक्षक, शुद्ध निरीक्षक होते हैं।

इसलिए ध्यान रखना, आपके संबंध में दूसरे जो कहें, उसे बहुत गौर से सोचना। जल्दी उसे इंकार मत कर देना। क्योंकि बहुत मौके ये है कि वे सही होंगे।

और अपने संबंध में आप जो मानते चले जाते हैं, उसको जल्दी स्वीकार मत कर लेना, बहुत कारण तो यह है कि वह सिर्फ आदतन है। आप ऐसा मानते रहे हैं। अपने संबंध में अपनी जो धारणा हो, उस पर बहुत सोच—विचार करना, बहुत कठोरता से। और दूसरे आपके बाबत जो कहते हों, उस पर बहुत विनम्रता से, जल्दबाजी किये बिना सोच—विचार करना। अकसर दूसरे सही पाये जायेंगे। आप गलत पाये जाओगे। क्योंकि आपको अपने होने का अधिक हिस्सा अचेतन है। आपको पता ही नहीं कि आप क्या कर रहे है। यह जो हमारी स्थिति है, इसमें प्रतिपल हमारा जो भीतर है, भीतरी है, वह बाहर आ रहा है। हमारे द्वार पर उसकी झलक दिखायी पड़ती है।

एक आदमी संग्रह करता है। धन संग्रह करता है। इकट्ठा करता चला जाता है धन। धन मूल्यवान नहीं है बड़ा। धन न हो तो आप पोस्टल स्टैम्प इकट्ठा कर सकते है। उसमें कोई अड़चन नहीं पड़ती। यही काम हो जायेगा। सिगरेट की डिब्बिया इकट्ठी कर सकते हैं, वही काम हो जायेगा। कई दफा हमें लगता है कि बड़ी इनोसेंट हॉबी है किसी आदमी की, बड़ी निर्दोष। कि पोस्टल स्टैम्प इकट्ठा करता है। सवाल यह नहीं है कि आप क्या इकट्ठा करते है, सवाल यह है कि आप इकट्ठा करते है। भीतर कहीं कोई चीज खालीपन अनुभव कर रही है, उसको आप भरते चले जाते है। इसका यह मतलब नहीं कि आप कुछ भी इकट्ठा मत करें। इसका कुल मतलब इतना है कि लोभ के कारण इकट्ठा मत करें।

जरूरत और लोभ में बड़ा फर्क है, आवश्यकता और लोभ में बड़ा फर्क है। बड़े मजे की बात है, लोभी अकसर अपनी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर पाता। क्योंकि लोभ के कारण आवश्यकता पूरी करने में भी जो खर्च करना है, वह उसकी हिम्मत के बाहर होता है। अकसर ऐसा होता है कि एक धनी आदमी है, लेकिन अपनी बीमारी का इलाज नहीं करता; क्योंकि उसमें खर्च करना पड़े। वह खर्च करना उसे कठिन मालूम पड़ता है। तो यह तो हद्द हो गयी। आवश्यकता के लिए धन उपयोगी हो सकता है, लेकिन इस आदमी के लिए आवश्यकता से भी कोई बड़ी चीज है, और वह है भीतर का गड्डा, लोभ। वहां चीजें भरी होनी चाहिए, वहां जरा—सी भी कोई चीज हट जाये तो उसे खालीपन लगता है। खालीपन में बेचैनी मालूम पड़ती है।

धनी अकसर कंजूस हो जाते है, गरीब कंजूस नहीं होते। इसका मतलब यह नहीं कि अगर यह गरीब कल अमीर हो जाये तो कंजूस नहीं होगा। गरीब कंजूस नहीं होते इसका कुल कारण इतना है कि भीतर वैसे ही खाली है, थोड़ा बचाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। खाली तो रहेंगे ही, इसलिए गरीब आदमी सहज खर्च कर लेता है लेकिन अमीर आदमी को लगता है कि सब तो भर गया, जरा सा कोना खाली है। इसको भर लें तो तृप्ति हो जाये। वह कोना कभी नहीं भरता, वह कोना बड़ा होता जाता है। वह कभी नहीं भरता, एक कोना सदा खाली रह जाता है। क्योंकि हम अपनी आत्मा को वस्तुओं से भर नहीं सकते, सिर्फ धोखा दे सकते है भरने का। कोई वस्तु भीतर नहीं जाती, वस्तु तो बाहर रह जाती है। इसलिए भीतर के खालीपन को भर नहीं सकती।

लेकिन, यह भीतर का खालीपन, महावीर कहते है, लोभ है। जब एक आदमी बाहर संग्रह करता है तो वह इतनी खबर देता है कि भीतर खाली है। वह खालीपन गड्डे की तरह पुकारता है, भरो। वह लोभ है। इस लोभ को हम हजार ढंग दे सकते है, इस लोभ को कोई आदमी धन से भर सकता है, कोई आदमी ज्ञान से भर सकता है, कोई आदमी त्याग से भर सकता है। बड़ा मुश्‍किल होगा मामला। क्योंकि हम त्यागी को कभी लोभी नहीं कहते।

लेकिन आपने चार उपवास किये, फिर सोचा की आठ कर लें तो पुण्य और ज्यादा होगा। तो यह लोभ है। चार करने वाला सोचता है कि अगले साल आठ कर लूं तो क्या फर्क हुआ। चार लाख जिसके पास हैं, वह सोचता है अगले साल आठ लाख हो जायें। गणित में कहां भेद है। इस वर्ष आपने इतनी तपश्रर्या की, सोचते हैं, अगले वर्ष दुगुनी कर लें। कहां भेद है? ज्यादा, और ज्यादा लोभ की मांग है। त्याग से भी लोभ अपने को भर सकता है। धन से भी भर सकता है, ज्ञान से भी भर सकता है। और जान लूं और जान लूं तो उससे भी भराव शुरू हो जायेगा।

महावीर कहते है, बाहर का संग्रह अंदर के लोभ की झलक है। संग्रह को छोड़ कर भाग जाने से लोभ नहीं मिटेगा।

आइने में आपका चेहरा दिखायी पड़ रहा है, कुरूप है, तो कुरूप दिखायी पड़ रहा है। एक डंडा उठाकर आइना तोड़ दें, झलक नदारद हो जायेगी; लेकिन आप नदारद नहीं हो जायेंगे। और आपका कुरूप चेहरा भी नदारद नहीं हो जायेगा। सिर्फ झलक नदारद हो जायेगी।

मेरे भीतर लोभ है, मैं धन इकट्ठा कर रहा हूं। धन दर्पण है। समझ में आ गया मुझे कि धन का संग्रह लोभ है, धन छोड़ कर मैं भाग गया। दर्पण मैने तोड़ दिया, मैं वही का वही हूं झलक टूट गयी। यह समझ लेना।

महावीर कहते है, लोभ की झलक है। झलक को तोड्ने से लोभ नहीं टूटेगा, सिर्फ झलक दिखायी पड़नी बंद हो जायेगी। अब मैं भाग गया जंगल में। अब मै तपक्ष्चर्या कर रहा हूं त्याग कर रहा हूं और अब मै त्याग का संग्रह कर रहा हूं। वह आदमी मैं वही हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। घर छोड़ कर चला जाऊं आश्रम। घर के मुकदमें नहीं लडूंगा तो आश्रम के मुकदमें लडूंगा लेकिन अदालत जाऊंगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

मेरा मकान, मेरा बेटा, मेरी पली, मेरा पति, इनको छोड़ दूंगा तो कहूंगा, मेरा धर्म, मेरा शास्त्र, मेरा वेद, मेरे महावीर, मेरे बुद्ध, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वहां लकड़ियां उठ जायेंगी और सिर खुल जायेंगे।

एक मित्र मुझे मिलने आये थे; अभी थे। उनकी पत्नी धार्मिक है, जैसे कि धार्मिक लोग होते है तो मुझसे पूछने लगे कि यहां पास में कोई जैन मंदिर हो, तो मेरी पत्नी बिना नमस्कार किये भोजन नहीं करती। तो मैंने कहां यहां बहुत जैन मंदिर हैं। चले जायें, जो भी जैन मंदिर मिले, नमस्कार करा दें। कोई बड़ी कठिन बात नहीं है, बम्बई में। वे गये। एक मित्र को मैने साथ कर दिया कि इनको किसी जैन मंदिर पहुंचा दें। उस बेचारे को क्या पता? कि जैन मंदिर में भी बड़े फर्क होते हैं। वे थे दिगंबर, वह ले गया श्वेतांबर। उसने बता दिया कि यह रहा मंदिर, आप अंदर जाकर नमस्कार कर लें। लेकिन वे देवी उदास होकर वहीं सीढ़ियों पर बैठ गयीं। उसने कहां यह हमारा मंदिर नहीं है। ये हमारे महावीर नहीं है। हमें तो दिगंबर मंदिर ले चलो। यह तो श्वेतांबर मंदिर है। वह सज्जन अब तक यही सोचते रहे थे बेचारे कि जैन मंदिर, यानी जैन मंदिर। उनको कभी खयाल न था कि इसमें भी, महावीर में भी टाईप, प्रकार होते हैं।

उस सी ने उस मँदिर में जाकर नमस्कार करने से इनकार कर दिया। वे उनके महावीर नहीं हैं। ऐसे मंदिर हैं जैनियों के जहां सुबह दस बजे तक महावीर श्वेतांबर रहते है, दस बजे के बाद दिगंबर हो जाते है। तो दस बजे तक श्वेतांबर नमस्कार करते, दस के बाद दिगंबर नमस्कार करते।

आदमी छा—गुइड्डयों के खेलों के ऊपर कभी नहीं उठ पाता, और इन पर मुकदमे चलते हैं। क्योंकि अगर दस से साढे दस बजे तक महावीर श्वेतांबर ही रह गये, तो वह जो दूसरे उपासक है, वे लट्ठ लेकर खड़े हो जाते है। न मालूम कितने जैनियों के मंदिरों पर पुलिस ने ताला डाल रखा है, क्योंकि भक्त तय नहीं कर पाते। महावीर ताले में बंद हैं, क्योंकि भक्त तय नहीं कर पाते कि कैसे

बांटें! कैसे आधा—आधा करें! फिर मेरे महावीर, और मेरे बुद्ध, और मेरे राम, और मेरे कृष्ण। मगर वह मेरा खड़ा रहता है, ममता खड़ी रहती है, मूर्छा खड़ी रहती है। आदमी झलक को तोड़ दे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, जब तक आदमी अपने भीतर की स्थिति को न बदल ले।

दर्पणों को मिटाने से कोई भी सार नहीं। दर्पण बड़े मित्र हैं, झलक देते है, आपकी खबर देते है। अच्छा है, दर्पणों को रहने दें, लेकिन भीतर जो कुरूपता है, उसे मिटाये। तो दर्पण, जिस दिन कुरूपता नहीं होगी भीतर, उस दिन बता देंगे कि अब आप सुंदर हो गये है। अब भीतर लोभ नहीं है।

धन छोड़ने से कोई प्रयोजन हल नहीं होता है, लोभ छोड़ने से प्रयोजन हल होता है। लोभ बड़ी अलग बात है और एक आंतरिक क्रांति है। लोभ कब छूटता है? लोभ है क्यों?

लोभ है इसलिए कि हम भीतर खाली है, अर्थहीन, एम्पटी, रिक्त, कुछ भी वहां नहीं है। इसलिए लोभ है। किसी भी चीज से भर दें, यह बात बुरी नहीं है, भरने की। कठिनाई इसलिए खड़ी हो जाती है कि जिन चीजों से हम भरने जाते है, वे भीतर जा नहीं सकतीं। क्या है जो भीतर जा सकता है? उसकी खोज करनी चाहिए। या कहीं ऐसा तो नहीं है कि भीतर हम खाली है ही नहीं। यह हमारा खयाल ही है, और यह खयाल इसलिए है कि हम भीतर कभी गये नहीं। हमने ठीक जांच पड़ताल न की। या यह खयाल इसलिए है कि बाहर के जगत से खालीपन का जो अर्थ होता है भीतर के जगत में वही नहीं होता।

एक कमरा खाली है। लाओत्से ने कहां है, एक कमरा खाली है, तो हम कहते है खाली है। लेकिन लाओत्से कहता है, तुम ऐसा भी तो कह सकते हो कि कमरा अपने से भरा है, और कोई चीज से नहीं भरा, अपने से भरा है। तुम ऐसा भी कह सकते हो, कमरा खालीपन से भरा है। खालीपन भी एक भरावट है। लेकिन जो फर्नीचर को ही भरावट समझते है, उनको कमरा खाली दिखायी पड़ेगा। खाली दिखायी पड़ने का कारण यह नहीं कि कमरा खाली है, खाली दिखायी पड़ने का कारण यह है कि आपके भरेपन की परिभाषा। हमने अब तक चीजों को ही भरापन समझा है। आत्मा में कोई चीज नहीं है। इसलिए हमको आत्मा खाली दिखायी पड़ती है। फिर हम चीजों से ही भरते चले जाते है। फिर लोभ का पागलपन पैदा हो जाता है, कभी भराव पैदा नहीं होता

महावीर कहते है, कि भीतर जाकर जो देख ले, वह पाता है, आत्मा तो भरी ही हुई है। अपने से भरी है, किसी और से नहीं। जिस दिन उसका भरापन हमें पता चल जाता है, उस दिन लोभ तिरोहित हो जाता है। क्योंकि फिर भरने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जिस दिन लोभ हट जाता है, उस दिन संग्रह की पागल दौड़ समाप्त हो जाती है।

यह जो संग्रह करने की वृत्ति रखते है, ऐसे लोग गृहस्थ है, साधु नहीं, फिर यह वृत्ति कुछ भी हो। किस चीज का आप संग्रह करते है, इससे भेद नहीं पड़ता। आप संग्रह करते है, तो आप गृहस्थ है। अगर आप संग्रह नहीं करते है, तो आप साधु है। इसलिए साधु या गृहस्थ होना ऊपरी घटना नहीं है, बड़ी आंतरिक क्रांति है।

मैंने सुना है, एस्किमो परिवारों में एक रिवाज है। एक फ्रेंच यात्री जब पहली दफा एस्किमो ध्रुवीय देशों में गया, तो उसे कुछ पता नहीं था। बहुत गरीब है एस्किमो, गरीब से गरीब है, लेकिन शायद उनसे संपन्न आदमी पाना भी बहुत मुश्किल है। उस फ्रेंच लेखक ने लिखा है कि मैने उनसे ज्यादा समृद्ध लोग नहीं देखे। पता उसे कैसे चला? जिस घर में भी वह ठहरा, फ्रेंच आदत का, उसे कुछ पता नहीं था कि यहां रिवाज क्या है, यहां का हिसाब क्या है? किसी एस्किमो से उसने कह दिया कि तुम्हारे जूते तो बहुत खूबसूरत है! उसने तत्काल जूते भेंट कर दिये। उसके पास दूसरी जोड़ी नहीं है। बर्फीली जगह है, नंगे पैर चलना जीवन को जोखम में डालना है, लेकिन यह सवाल नहीं है।

दों—चार दिन बाद उसे बड़ी हैरानी हुई कि वह जिससे भी कुछ कह दे कि यह चीज बड़ी अच्छी है, वह तत्काल भेंट कर देता है। तब उसे पता चला कि एस्किमो मानते हैं कि जो चीज किसी को पसंद आ गयी, वह उसकी हो गयी। उसने पूछा कि इसके मानने का कारण क्या है? तो जिस वृद्ध से उसने पूछा, उस वृद्ध ने कहां, इसके दो कारण हैं, एक तो चीजें किसी की नहीं है, चीजें है। दूसरा इसके मानने का कारण है कि जिसके पास है, उसके लिए तो अब व्यर्थ हो गयी है। जिसके पास नहीं है, वह सम्मोहित हो रहा है। अगर उसे न मिले तो उसका सम्मोहन लंबा हो जायेगा, उसे तत्काल दे देनी जरूरी है ताकि उसका सम्मोहन टूट जाये। और तीसरा कारण यह है कि जिस चीज के हम मालिक है, उसकी मालकियत का मौका ही तभी आता है, जब हम किसी को देते हैं। नहीं तो कोई मौका नहीं आता।

चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों का पकडना, क्लिगिंग आपको गृहस्थ बनाता है। ये एस्किमो संन्यासी है, साधु है। जिसे हम साधु कहते हैं, अगर उसके भीतर हम झांकें तो वहां संग्रह मौजूद रहता है। बना रहता है, तो फिर वह गृहस्थ है। बाहर से आप क्या है, यह बहुत मूल्य का नहीं है। भीतर से आप क्या है, यही मूल्य का है। लेकिन भीतर से आप क्या है, यह आपके अतिरिक्त कौन जानेगा? कैसे जानेगा? इसलिए सदा अपने भीतर पर एक आंख रखनी चाहिए निरीक्षण की, कि मैं भीतर क्या हूं। चीज को पकड़ता हूं? चीज मूल्यवान है बहुत? चीज न होगी तो मैं मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा, मैं चीजों का एक जोड़ हूं तो मैं गृहस्थ हूं। फिर भाग कर जंगल में जाने से कुछ भी न होगा। फिर इस गृहस्थ होने की भीतरी व्यवस्था को तोड़ना पड़ेगा।

संन्यासी होना एक आंतरिक क्रांति है। यह भीतर घटित हो जाये, तो फिर बाहर वस्तुएं हों या न हों, गौण है।

महावीर ने मूर्छा को परिग्रह कहां है, अमूर्छा को संन्यास कहां है। महावीर का सूत्र है—जो सोता है, वह असाधु है। सुत्‍ता अमुनि। जो जागता है—वह साधु है। असुत्ता मूनि! जो सोया नहीं है, जागा हुआ है, वह साधु है।

भीतरी जागरण साधुता है, भीतरी बेहोशी असाधुता है।

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रचनाएँ
महावीर वाणी - ओशो
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इन प्रवचनों में महावीर वाणी की व्याख्या करते हुए ओशो ने साधना जगत से जुड़े गूढ़ सूत्रों को समसामयिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इन सूत्रों में सम्मिलित हैं--समय और मृत्यु का अंतरबोध, अलिप्तता और अनासक्ति का भावबोध, मुमुक्षा के चार बीज, छह लेश्याएं: चेतना में उठी लहरें इत्यादि।
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महावीर—वाणी (प्रवचन-01)

20 अप्रैल 2022
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जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्‍यक्‍तियों में महावीर है। बड़ी है चढ़ाई। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्‍छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्‍हें चढ़ाई करनी ह

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महावीर वाणी-(प्रवचन-02)

20 अप्रैल 2022
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अरिहंत मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं। साधु मंगल हैं। केवलीप्ररूपित अर्थात आत्मज्ञकथित धर्म मंगल है। अरिहंत लोकोत्तम हैं। सिद्ध लोकोत्तम हैं। साधु लोकोत्तम हैं। केवलीप्ररूपित अर्थात आत्मशकथित धर्म लोकोत्तम

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महावीर वाणी-(प्रवचन-03)

20 अप्रैल 2022
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शरणागति—स्प अरिहते सरण पवज्जामि। सिद्धे सरण पवज्जामि। सादू सरण पवज्जामि। केवलिपन्नत्त धम्म सरण पवज्जामि।  अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूं। साधुओं की शरण स्वीका

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महावीर वाणी-(प्रवचन-04)

20 अप्रैल 2022
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धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन-सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है — तो अमंगल क्या है, द

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महावीर वाणी-(प्रवचन-05)

20 अप्रैल 2022
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धर्म मंगल है। कौन-सा धर्म? अहिंसा, संयम और तप। अहिंसा धर्म की आत्मा है। कल अहिंसा पर थोड़ी बातें मैंने आपसे कहीं, थोड़े और आयामों से अहिंसा को समझ लेना जरूरी है। हिंसा पैदा ही क्यों होती है? हिंसा जन

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महावीर वाणी-(प्रवचन-06)

20 अप्रैल 2022
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एक मित्र ने पूछा है कि महावीर रास्ते से गुजरते हों और किसी प्राणी की हत्या हो रही हो तो महावीर क्या करेंगे? किसी स्त्री के साथ बलात्कार की घटना घट रही हो तो महावीर क्या करेंगे? क्या वे अनुपस्थित हैं,

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महावीर वाणी-(प्रवचन-07)

20 अप्रैल 2022
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सूर्यास्त के समय, जैसे कोई फूल अपनी पंखुड़ियों को बन्द कर ले— संयम ऐसा नहीं है। वरन सूर्योदय के समय जैसे कोई कली अपनी पंखुड़ियों को खोल ले—संयम ऐसा है। संयम मृत्यु के भय में सिकुड़ गए चित्त की रुग्ण दशा

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महावीर वाणी-(प्रवचन-08)

20 अप्रैल 2022
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अहिंसा है आत्मा, संयम है प्राण, तप है शरीर। स्वभावतः अहिंसा के संबंध में भूलें हुई हैं, गलत व्याख्याएं हुई हैं। लेकिन वे भूलें और व्याख्याएं अपरिचय की भूलें हैं। संयम के संबंध में भी भूलें हुई हैं, गल

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महावीर वाणी-(प्रवचन-09)

20 अप्रैल 2022
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तप के संबंध में, मनुष्य की प्राण ऊर्जा को रूपान्तरण करने की प्रक्रिया के संबंध में और थोड़े-से वैज्ञानिक तथ्य समझ लेने आवश्यक हैं। धर्म भी विज्ञान है, या कहें परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। क्योंकि

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महावीर वाणी-(प्रवचन-10)

20 अप्रैल 2022
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होगी। और हम अपने बाहर खड़े हैं। हम वहां खड़े हैं जहां हमें नहीं होना चाहिए; हम वहां नहीं खड़े हैं जहां हमें होना चाहिए। हम अपने को ही छोड़कर, अपने से ही च्युत होकर, अपने से ही दूर खड़े हैं। हम दूसरों से अज

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महावीर वाणी-(प्रवचन-11)

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अनशन के बाद महावीर ने दूसरा बाहयत्तप ऊणोदरी कहा है। ऊणोदरी का अर्थ है : अपूर्ण भोजन, अपूर्ण आहार। आश्चर्य होगा कि अनशन के बाद ऊणोदरी के लिए क्यों महावीर ने कहा है! अनशन का अर्थ तो है निराहार। अगर ऊणोद

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महावीर वाणी-(प्रवचन-12)

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बाह्य-तप का चौथा चरण है — रस-परित्याग। परंपरा रस-परित्याग से अर्थ लेती रही है। किन्हीं रसों का, किन्हीं स्वादों का निषेध, नियंत्रण। इतनी स्थूल बात रस-परित्याग नहीं है। वस्तुतः सधना के जगत में स्थूल स

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महावीर वाणी-(प्रवचन-13)

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बाह्य तप का अन्तिम सूत्र, अन्तिम अंग है—संलीनता। संलीनता सेतु है, बाहयत्तप और अंतरत्तप के बीच। संलीनता के बिना कोई बाहयत्तप से अंतरत्तप की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। इस लिए संलीनता को बहुत ध्यानपूर

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महावीर वाणी-(प्रवचन-14)

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तप के छह बाहय अंगों की हमने चर्चा की है, आज से अंतरत्तपों के संबंध में बात करेंगे। महावीर ने पहला अंतरत्तप कहा है — प्रायश्चित। पहले तो हम समझ लें कि प्रायश्चित क्या नहीं हैं तो आ सान होगा समझना कि प्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-15)

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अंतरत्तप की दूसरी सीढ़ी है विनय। प्रायश्चित के बाद ही विनय के पैदा होने की सम्भावना है। क्योंकि जब तक मन देखता रहता है दूसरे के दोष, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य सोचता है कि मुझे छोड़कर शे

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महावीर वाणी-(प्रवचन-16)

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तीसरा अंतरत्तप महावीर ने कहा है, वैयावृत्य। वैयावृत्य का अर्थ होता है–सेवा। लेकिन महावीर सेवा से बहुत दूसरे अर्थ लेते हैं। सेवा का एक अर्थ है मसीही, क्रिश्चियन अर्थ है। और शायद पृथ्वी पर ईसाइयत ने,

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महावीर वाणी-(प्रवचन-17)

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ग्‍यारहवां तप या पांचवां अंतर—कर—तप है ध्यान। जो दस तपो से गुजरते है उन्हें तो ध्यान को समझना कठिन नहीं होता। लेकिन जो केवल दस तपो को समझ से समझते हैं, उन्हें ध्यान को समझना बहुत कठिन होता है। फिर भी

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महावीर वाणी-(प्रवचन-18)

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महावीर के साधना सूत्रों में आज बारहवें और अंतिम तप पर बात करेंगे। अंतिम तप को महावीर ने कहा है—कायोत्सर्ग— शरीर का छूट जाना। मृत्यु में तो सभी का शरीर छूट जाता है। शरीर तो छूट जाता है मृत्यु में, लेकि

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महावीर वाणी-(प्रवचन-19)

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अरस्‍तु ने कहा है कि—यदि मृत्यु न हो, तो जगत में कोई धर्म भी न हो। ठीक ही है उसकी बात, क्योंकि अगर मृत्यु न हो, तो जगत में कोई जीवन भी नहीं हो सकता मृत्यु केवल मनुष्य के लिए है। इसे थोड़ा समझ लें।

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महावीर वाणी-(प्रवचन-20)

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मृत्यु के संबंध में थोड़ी—सी बातें और। पहली बात—मृत्यु अत्यंत निजी अनुभव है। दूसरे को हम मरता हुआ देखते हैं, लेकिन मृत्यु को नहीं देखते! दूसरे को मरता हुआ देखना, मृत्यु का परिचय नहीं है। मृत्यु आंतर

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महावीर वाणी-(प्रवचन-21)

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सदा अप्रमादी व सावधान रहते हुए असत्य को त्याग कर हितकारी सत्य—वचन ही बोलना चाहिए। इस प्रकार का सत्य बोलना सदा बड़ा कठिन होता है। श्रेष्ठ साधु पापमय, निश्रयात्मक और दूसरों को दुख देने वाली वाणी न बोल

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महावीर वाणी-(प्रवचन-22)

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जो मनुष्य काम और भोगों के रस को जानता है, उनका अनुभवी है, उसके लिए अब्रह्मचर्य त्यागकर, ब्रह्मचर्य के महाव्रत को धारण करना अत्यन्त दुष्कर है। निर्ग्रन्थ मुनि अब्रह्मचर्य अर्थात मैथुन—संसर्ग का त्या

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महावीर वाणी-(प्रवचन-23)

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एक मित्र ने पूछा है, यदि कामवासना जैविक, बायोलाजिकल है, केवल जैविक है, तब तो तत्र की पद्धति ही ठीक होगी। लेकिन यदि मात्र आदतन, हैबिचुअल है, तब महावीर की विधि से श्रेष्ठ और कुछ नहीं हो सकता। क्या है—जै

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महावीर वाणी-(प्रवचन-24)

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प्राणिमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ( भगवान महावीर) ने कुछ वस्‍त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है। लेकिन इन सामग्रियों में असक्ति, ममता व मूर्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि न

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महावीर वाणी-(प्रवचन-25)

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सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद श्रेयार्थी को सभी प्रकार के भोजन—पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि—भोजन से जो जीव विरत रहता है, वह निराश्रव अ

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महावीर वाणी-(प्रवचन-26)

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जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक—ठीक समझता हो तथा कार्य—विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक—ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।

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महावीर वाणी-(प्रवचन-27)

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संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है—मनुष्यत्व, धर्म—श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ। संसार में परिभ्रमण करते—करते जब कभी बहुत काल में पाप कर्मों का वेग क्ष

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महावीर वाणी-(प्रवचन-28)

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एक मित्र ने पूछा है, मनुष्य जीवन है दुर्लभ, लेकिन हम आदमियों को उस दुर्लभता का बोध क्यों नहीं होता? श्रवण करने की कला क्या है? कलियुग, सतयुग मनोस्थितियो के नाम हैं? क्या बुद्धत्व को भी हम एक मनोस्थिति

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महावीर वाणी-(प्रवचन-29)

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जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेहबंधनों से रहित हो जा। अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। तू इस प्रप

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महावीर वाणी-(प्रवचन-30)

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प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म अर्थात जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त हैं वे कर्म-बंधन करनेवाली हैं और जो प्रवृत्तियां प्रमादरहित हैं, वे कर्म-बंधन नहीं करतीं। प्रमाद के होने और न होने से मनुष्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-31)

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दूध, दही, घी, मक्खन, मलाई, शक्कर, गुड़, खांड, तेल, मधु, मद्य, मांस आदि रसवाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं

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महावीर वाणी-(प्रवचन-32)

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अनिगृहित क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ, ये चारों काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार-वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं। चावल और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-33)

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अकेले ही है भोगना  संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। पापी जीव के दुख को न जातिवाले ब

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महावीर वाणी-(प्रवचन-34)

20 अप्रैल 2022
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यह निःश्रेयस का मार्ग है जो मनुष्य सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग करता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। जो मनुष्य किसी परतंत्रता के कारण वस्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-35)

20 अप्रैल 2022
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आप ही हैं अपने परम मित्र आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा मित्र है और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु। पांच इन्‍दिरयां

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महावीर वाणी-(प्रवचन-36)

20 अप्रैल 2022
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साधना का सूत्र : संयम जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़-निश्चयी हो कि देह भले ही चली जाये, पर मैं अपना धर्म-शासन नहीं छोड़ सकता, उसे इन्दिरयां कभी भी विचलित नहीं कर सकतीं। जैसे भीषण बवंडर सुमेरु पर्वत क

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महावीर वाणी-(प्रवचन-37)

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विकास की ओर गति है धर्म धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव—ये छह द्रव्य हैं। केवल दर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा है। धर्म द्रव्य का लक्षण गति है; अधर्म द्रव्य का लक्षण स्थिति है,

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महावीर वाणी-(प्रवचन-38)

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आत्मा का लक्षण है ज्ञान ज्ञान, दर्शन, चारितरय, तप, वीर्य और उपयोग अर्थात अनुभव–ये सब जीव के लक्षण हैं। शब्द, अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, रस, गंध और स्पर्श–ये सब पुदगल के लक्षण है

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महावीर वाणी-(प्रवचन-39)

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मुमुक्षा के चार बीज मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग-वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।

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महावीर वाणी-(प्रवचन-40)

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पांच ज्ञान और आठ कर्म श्रुत, मति, अवधि, मन—पर्याय और कैवल्य —— इस भांति ज्ञान पांच प्रकार का है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —— इस प्रकार संक्षेप में ये आठ

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महावीर वाणी-(प्रवचन-41)

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छह लेश्याएं कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल–ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं। कृष्ण, नील, कापोत–ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है। तेज, पदम और शु

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महावीर वाणी-(प्रवचन-42)

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पांच समितियां और तीन गुप्तियां पांच समिति और तीन गुप्ति–इस प्रकार आठ प्रवचन-माताएं कहलाती हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उच्चार या उत्सर्ग–ये पांच समितियां हैं। तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति औ

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महावीर वाणी-(प्रवचन-43)

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कौन है पूज्य? पूज्य-सूत्र: आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं।  जहोवइट्ठं अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ।। भअन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं। अलद्धु

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महावीर वाणी-(प्रवचन-44)

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राग, द्वेष, भय से रहित है ब्राह्मण ब्राह्मण-सूत्र : 1 जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई। रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ।। जायरुवं जहामट्ठं, निद्धन्तमल-पावगं। राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माह

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महावीर वाणी-(प्रवचन-46)

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वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से ब्राह्मण—सूत्र : 3 न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ।। समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण उ मुणी होइ, तवेण होइ तावस

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महावीर वाणी-(प्रवचन-45)

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अलिप्तता है ब्राह्मणत्व ब्राह्मण-सूत्र : 2 दिव्व-माणुसत्तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं। मणसा काय-वक्केणं, तं वयं बूम माहणं ।। भजहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम म

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महावीर वाणी-(प्रवचन-47)

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अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु भिक्षु-सूत्रः जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोस-पहारत्तज्जणाओ य। भय-भेरव-सद्द-सप्पहासे, समसुह-दुक्खसहे अ जे स भिक्खू हत्थसंजए पायसंजए,वायसंजए संजइन्दिए। अज्झप्परए सुसमाहि

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महावीर वाणी-(प्रवचन-48)

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भिक्षु कौन? भिक्षु-सूत्रः 3 उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू।। अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे, उंछं चरे जीविय नाभिकंखे। इडिंढ़

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महावीर वाणी-(प्रवचन-49)

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कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु भिक्षु-सूत्र : 4 न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पेज्ज न तं वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू।। न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत

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