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महावीर वाणी-(प्रवचन-38)

20 अप्रैल 2022

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आत्मा का लक्षण है ज्ञान

ज्ञान, दर्शन, चारितरय, तप, वीर्य और उपयोग अर्थात अनुभव–ये सब जीव के लक्षण हैं।

शब्द, अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, रस, गंध और स्पर्श–ये सब पुदगल के लक्षण हैं।

जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष–ये नौ सत्यतत्व हैं।

जीवादिक सत्य पदार्थों के अस्तित्व में सदगुरु के उपदेश से, अथवा स्वयं ही अपने भाव से श्रद्धान करना, सम्यक्तव कहा गया है।

चेतना का लक्षण है, उपयोग या अनुभव। अनुभव को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। अस्तित्व तो पदार्थ का भी है। राह पर पड़े हुए पत्थर का भी अस्तित्व है, एग्जिस्टेन्स है, लेकिन उस पत्थर को अपने अस्तित्व का कोई बोध नहीं है, कुछ पता नहीं है, कुछ पता नहीं कि “मैं हूं’। उसे अनुभव नहीं है।

अस्तित्व के बोध का नाम “अनुभव’ है–और वही चैतन्य में और अजीव में, आत्मा में और पदार्थ में भेद है। अस्तित्व दोनों का है–पदार्थ का भी और आत्मा का भी, लेकिन आत्मा के साथ एक नये तत्व का उदभावन है। एक नया आयाम खुलता है कि आत्मा को यह पता भी है कि “मैं हूं’।

होने में कोई फर्क नहीं है। पत्थर भी है, आत्मा भी है, पर आत्मा को यह भी पता है कि “मैं हूं।’ और यह बहुत बड़ी घटना है। इस घटना के इर्द-गिर्द ही जीवन की सारी साधना, जीवन की सारी यात्रा है। यह तो पता है कि “मैं हूं’, और जिस दिन यह भी पता चल जाता है कि “मैं क्या हूं’, उस दिन यात्रा पूरी हो जाती है।

पदार्थ है, उसको पता नहीं है कि वह है। आत्मा है, उसको यह भी है, पता है कि “मैं हूं’ लेकिन यह पता नही है कि “मैं कौन हूं’। और परमात्मा उस अवस्था का नाम है, जहां तीसरी घटना भी घट जाती है, जहां यह भी पता है कि “मैं कौन हूं’।

तो अस्तित्व की तीन स्थितियां हुई : एक कोरा अस्तित्व–बोधहीन; दूसरा भरा हुआ अस्तित्व–अनुभव से; और तीसरा परिपूर्ण विकसित अस्तित्व–जहां यह भी अनुभव हो गया कि “मैं कौन हूं, मैं क्या हूं’।

और ऐसा नहीं कि ये अवस्थाएं पत्थर की, आदमी की और परमात्मा की हैं, आप इन तीनों अवस्थाओं में भी बराबर रूपांतरित रहते हैं। किसी क्षण में आप पत्थर की तरह होते हैं, जहां आप होते हैं और आपको अपने होने का पता नहीं होता। किसी क्षण में आप आदमी की तरह होते हैं, जहां आपको अपने होने का भी बोध है। और किसी क्षण में आप परमात्मा को भी छू लेते हैं, जहां आपको यह भी पता होता है कि “हम कौन हैं’।

तो ये तीन पदार्थ-अस्तित्व की ही अवस्थायें नहीं हैं–चेतना, इन तीनों में निरंतर डोलती रहती है। किसी-किसी क्षण में आप बिलकुल परमात्मा के करीब होते हैं। कुछ क्षणों में आप मनुष्य होते हैं। बहुत अधिक क्षणों में आप पत्थर ही होते हैं।

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने बाल बनवाने एक नाई की दूकान पर गया है। दाढ़ी पर साबुन लगा दी गई है, गले में कपड़ा बांध दिया गया है–और नाई बिलकुल तैयार ही है काम शुरू करने को कि एक लड़का भागा हुआ आया और उसने कहा–“शेख, तुम्हारे घर में आग लगी है।’ नसरुद्दीन ने कपड़ा फेंका, भूल गया अपना कोट उठाना भी, चेहरे पर लगी हुई साबुन, और उस लड़के के पीछे भागा घबड़ाकर। लेकिन पचास कदम के बाद अचानक ठहर गया, और कहा कि “मैं भी कैसा पागल हूं! क्योंकि पहले तो मेरा नाम शेख नहीं, मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है; और दूसरा, मेरा कोई मकान नहीं जिसमें आग लग जाये!’

ऐसे क्षण आपके जीवन में भी हैं। आपको भी न तो अपने नाम का पता है और न अपने घर का पता है। न तो आपको पता है कि आप कौन हैं और न आपको पता है कि आप कहां से आते हैं और कहां जाते हैं। न आप अपने मूल स्रोत से परिचित हैं और न अपने अंतिम पड़ाव से और नाम जो आप जानते हैं कि आपका है, वह बिलकुल काम चलाऊ है, दिया हुआ है। राम की जगह कृष्ण भी दिया जाता, तो भी चल जाता काम। कृष्ण की जगह मोहम्मद दिया जाता, तो भी चल जाता काम। नाम दिया हुआ है, नाम कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन इस झूठे नाम को हम मानकर जी लेते हैं कि मैं हूं। और एक घर बना लेते हैं, जो कि घर नहीं है। क्योंकि जो छूट जाये, उसे घर कहना व्यर्थ है। और जिसे बनाना पड़े, वह मिटेगा भी। उस घर की तलाश ही धर्म की खोज है, जो हमारा बनाया हुआ नहीं है और जो मिटेगा भी नहीं। और जब तक हम उस घर में प्रविष्ट न हो जायें–जिसे महावीर “मोक्ष’ कहते हैं; जिसे शंकर “ब्रह्म’ कहते हैं; जिसे जीसस ने “किंगडम आफ गाड’ कहा है–जब तक उस घर में हम प्रविष्ट न हो जायें तब तक जीवन एक बेचैनी और एक दुख की एक यात्रा रहेगी।

महावीर जीव का पहला लक्षण कहते हैं, अनुभव–यह बोध कि “मैं हूं’। लेकिन यह पहला लक्षण है, यह यात्रा की शुरुआत है। यह भी अनुभव में आ जाये कि “मैं कौन हूं?’ तो यात्रा पूरी हो गई; वह यात्रा का अंत है।

“ज्ञान, दर्शन, चारितरय, तप, वीर्य और उपयोग–ये सब जीव के लक्षण हैं।’

थोड़ा-थोड़ा इन लक्षणों के संबंध में समझ लें, क्योंकि आगे हम विस्तार से इनकी बात कर पायेंगे।

ज्ञान से महावीर का अर्थ है, जानने की क्षमता–सामग्री नहीं, क्षमता; इनफमशन नहीं, सूचनाओं का संग्रह नहीं, क्योंकि सूचनाओं का संग्रह तो यंत्र भी कर सकता है। आप के मस्तिष्क में जो-जो सूचनाएं इकट्ठी हैं, वे तो टेपरिकार्ड पर भी इकट्ठी की जा सकती हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं, आपका मस्तिष्क टेपरिकार्ड से कुछ भिन्न नहीं है! इसलिए आपके मस्तिष्क को अगर चोट पहुंचाई जाये, तो आपकी स्मृति खो जायेगी। आपके मस्तिष्क से कुछ स्मृतियां बाहर भी निकाली जा सकती हैं, जिनका आपको फिर कभी भी पता नहीं चलेगा। और आपके मस्तिष्क में ऐसी स्मृतियां भी डाली जा सकती हैं, जिनका आपको कभी कोई अनुभव नहीं हुआ।

नवीनतम खोजें कहती हैं कि मेमोरी ट्रांसप्लांट भी की जा सकती है। आइंस्टीन मरता है तो आइंस्टीन के साथ उसकी स्मृतियों का पूरा का पूरा संग्रह भी नष्ट हो जाता है। यह बड़ा भारी नुकसान है। अब विज्ञान कहता है कि दस-बीस वर्ष के भीतर हम इस जगह पहुंच जायेंगे–प्राथमिक प्रयोग सफल हुए हैं–जहां मरते हुए आइंस्टीन को तो मरने देंगे, लेकिन उसकी स्मृति को बचा लेंगे; उसके मस्तिष्क में जो उसकी स्मृतियों का तानाबाना है, उसे बचा लेंगे और एक नवजात बच्चे के ऊपर उसे ट्रांसप्लांट कर देंगे। एक नये बच्चे को उन स्मृतियों के साथ जोड़ देंगे। वह बच्चा स्मृतियों के साथ ही बड़ा होगा। और जो उसने कभी नहीं जाना, वह भी उसे लगेगा कि मैं जानता हूं। अगर आइंस्टीन की पत्नी सामने आ जाये तो वह कहेगा, यह मेरी पत्नी है; जिसे उसने कभी देखा भी नहीं। क्योंकि अब स्मृति आइंस्टीन की काम करेगी।

छोटे प्रयोग इसमें सफल हो गये हैं, पशुओं पर प्रयोग सफल हो गये हैं। इसलिये आदमी पर प्रयोग बहुत दूर नहीं हैं।

यह जानकर आपको हैरानी होगी कि महावीर पहले व्यक्ति हैं मनुष्य जाति के इतिहास में जिन्होंने स्मृति को पदार्थ कहा, जिन्होंने स्मृति को चेतना नहीं कहा; जिन्होंने कहा, स्मृति भी सूम पदार्थ है। आपके मस्तिष्क को खास जगह अगर इलेकिटरकली स्टिम्युलेट किया जाये, विद्युत से उत्तेजित किया जाये, तो खास स्मृतियां पैदा होनी शुरू हो जाती हैं। जैसे आपके मस्तिष्क में बचपन की स्मृतियां किसी कोने में पड़ी हैं, उनको विद्युत से जगाया जाये, तो आप तत्काल बचपन में वापस चले जायेंगे और सारी स्मृतियां सजीव हो उठेंगी। उत्तेजन बंद कर दिया जाये, स्मृति बन्द हो जायेगी। फिर से उत्तेजित किया जाये, फिर से वही स्मृति वापस लौटेगी, फिर से वही कथा वापस दुहरेगी। जैसे टेपरिकार्ड पर आप एक ही बात को कितनी ही बार सुन सकते हैं, हजार बार उसी जगह को उत्तेजित करने पर वही स्मृति फिर लौटने लगेगी।

मस्तिष्क शरीर का हिस्सा है, इसलिए स्मृति भी शरीर की ही प्रक्रिया है–आणविक पदार्थ।

ज्ञान का अर्थ स्मृति नहीं है। ज्ञान का अर्थ, स्मृति को भी जानने वाला जो तत्व है भीतर, उससे है। इसे ठीक से समझ लें, अन्यथा भूल होनी आसान है। आप जो जानते हैं, उससे ज्ञान का संबंध नहीं है। अगर आप अपने जानने को भी जानने में समर्थ हो जायें, तो ज्ञान का संबंध शुरू होगा।

आपके मन में एक विचार चल रहा है। आप चाहें तो दूर खड़े होकर इस विचार को चलते हुए भी देख सकते हैं। अगर यह संभव न होता, तो ध्यान का कोई उपाय भी न था। ध्यान इसीलिए संभव है कि आप अपने विचार को भी देख सकते हैं। और जिसको आप देख रहे हैं, वह पराया हो गया, वह देखनेवाला आप हो गये।

तो महावीर का ज्ञान से अर्थ है–जानने की क्षमता; संग्रह नहीं जानने का, ज्ञान का संग्रह नहीं–ज्ञान की प्रक्रिया के पीछे साक्षी का भाव। वहीं चेतना का पता चलेगा। अन्यथा अगर स्मृति ही मनुष्य की चेतना हो, तो बहुत जल्दी मनुष्य को पैदा किया जा सकेगा। कोई कठिनाई नहीं है। स्मृति तो पैदा की जा सकती है। कम्प्यूटर हैं, उनकी स्मृति आदमी से ज्यादा प्रगाढ़ है। और आदमी से भूल भी हो जाये, कम्प्यूटर से भूल होने की भी कोई संभावना नहीं है।

आज नहीं कल, हम मनुष्य से भी बेहतर मस्तिष्क विकसित कर लेंगे। कर ही लिया है। लेकिन, फिर भी एक कमी रह जायेगी, इस बात की कोई संभावना नहीं है कि कम्प्यूटर ध्यान कर सके। कम्प्यूटर विचार कर सकता है–और आप से अच्छा विचार कर सकता है, नवीनतम कम्प्यूटर उस जगह पहुंच गये हैं। मैं एक आंकड़ा पढ़ रहा था कि अगर दुनिया के सारे बड़े गणितज्ञ–समझ लें दस हजार गणितज्ञ–एक सवाल को हल करने में लगें, तो जिस सवाल को दस हजार गणितज्ञ दस हजार वर्ष में हल कर पायेंगे, उसे कम्प्यूटर एक सेकेंड में हल कर दे सकता है।

स्मृति की क्षमता तो बहुत विकसित हो गई है यंत्र के पास। आदमी की स्मृति का यंत्र तो आउट आफ डेट है। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं रह गया। लेकिन, इतना सब करने के बाद भी, दस हजार आइंस्टीन का काम, दस हजार वर्ष में जो हो पाता, कम्प्यूटर वह एक सेकेंड में कर देगा, लेकिन कम्प्यूटर एक महावीर का काम जरा भी नहीं कर सकता। क्योंकि महावीर का काम स्मृति से संबंधित नहीं, स्मृति के पीछे जो साक्षी है, वह जो विटनेस है, जो स्मृति को भी देखता है, उससे संबंधित है। कम्प्यूटर साक्षी नहीं हो सकता। वह अपने को बांट नहीं सकता, कि खुद खड़े होकर देख सके भीतर कि क्या चल रहा है। हम बांट सकते हैं। वह जो बांटने की कला है, उससे ही ज्ञान का जन्म होता है।

तो महावीर कहते हैं, आत्मा का लक्षण है–ज्ञान, दर्शन। जो पहली झलक है स्वयं की, उसका नाम ज्ञान है। और जब हम उस झलक को सारे जगत और अस्तित्व के साथ संयुक्त करके देखने में समर्थ हो जाते हैं, गेस्टाल्ट पैदा हो जाता है, अपनी झलक के साथ जब सारे जगत की झलक का भी हमें बोध हो जाता है।

ध्यान रहे, जो भी मैं अपने संबंध में जानता हूं, उससे ज्यादा मैं किसी के संबंध में नहीं जान सकता। मेरा ज्ञान ही, अपने संबंध में फैलकर जगत के संबंध में ज्ञान बनता है। अगर आप कहते हैं कि कहीं कोई परमात्मा नहीं है, तो उसका अर्थ यही हुआ कि आपको अपनी आत्मा का कोई अनुभव नहीं है। अगर आपको अपनी आत्मा का अनुभव हो, तो पहला ज्ञान तो यही होगा कि आत्मा है। दर्शन यह होगा कि सभी तरफ आत्मा है। जिस क्षण अपने भीतर जाने हुए तत्व को आप फैलाकर कास्मिक, जागतिक कर लेंगे, उस क्षण दर्शन की स्थिति निर्मित हो जायेगी।

किसी पशु के पास दर्शन नहीं है, क्योंकि ज्ञान भी नहीं है। पशु अपने से पीछे खड़ा नहीं हो सकता। स्मृति तो पशु के पास है। आप का कुत्ता आपको पहचानता है। आपकी गाय आपको पहचानती है। स्मृति तो पशु के पास है, वृक्षों के पास भी स्मृति है!

अभी वैज्ञानिक प्रयोग करते हैं कि अगर आप वृक्ष के पास रोज प्रीतिपूर्ण ढंग से जायें, तो वृक्ष का रिस्पान्स, उसका उत्तर भिन्न होता है। अगर आप क्रोध से जायें, घृणा से जायें, तो भिन्न होता है। जब आप प्रेम से वृक्ष के पास खड़े होते हैं, तो वृक्ष खुलता है। अब इसके वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं कि जब प्रेम से कोई वृक्ष को थपथपाता है, तो वृक्ष भीतर संवेदित होता है। वृक्ष भी अपने मित्र को और अपने शत्रु को पहचानता है। शत्रु करीब आता है तो वृक्ष सिकुड़ता है, जैसे आप सिकुड़ जायेंगे। कोई छुरा लेकर आपके पास आये तो आप भीतर सिकुड़ जायेंगे बचने की आकांक्षा में। वृक्ष भी सिकुड़ता है। और जब कोई मित्र करीब आता है तो वृक्ष भी फैलता है।

अब जाना गया है कि वृक्ष के पास भी स्मृति है। लेकिन, ध्यान सिर्फ मनुष्य के पास है। और इसलिए जब तक कोई ध्यान को उपलब्ध न हो जाये, तब तक मनुष्य होने की पूरी गरिमा को उपलब्ध नहीं होता। सिर्फ मनुष्य के शरीर में जन्म ले लेने से कोई मनुष्य नहीं हो जाता। सिर्फ संभावना है कि मनुष्य हो सकता है। द्वार खुला है, लेकिन यात्रा करनी पड़ेगी। मनुष्य कोई जन्म के साथ पैदा नहीं होता। मनुष्यता एक उपलब्धि है, एक अर्जन है। और इस अर्जन की जो दिशा है, वह ज्ञान और दर्शन है।

महावीर के इस सूत्र को ठीक से समझें।

ज्ञान का अर्थ है, पहली बार उसकी झलक पाना जो सबसे गहराई में मेरे भीतर साक्षी की तरह छिपा है। फिर उस झलक को जागतिक संबंध में जोड़ना और जो भीतर देखा है उसे बाहर देख लेना दर्शन है। और फिर जो भीतर देखा है, उसे जीवन में उतर जाने देना, चारितरय है। वह जो भीतर देखा है और बाहर पहचाना है, वह जीवन भी बन जाये, सिर्फ बौद्धिक झलक न रहे। क्योंकि आप कह सकते हैं कि मैं आत्मा हूं, ऐसी मुझे झलक मिल गई है, लेकिन आपका आचरण कहेगा कि आप शरीर हैं, आपका व्यवहार कहेगा कि आप शरीर हैं; आपका ढंग, उठना, बैठना कहेगा कि आप शरीर हैं; आपकी आंखें, आपकी नाक, आपकी इनिदरयां खबर देंगी कि आप शरीर हैं। तो आपकी सिर्फ बौद्धिक झलक से कुछ भी न होगा। यह आपका आचरण हो जाये– हो ही जायेगा, अगर आपका ज्ञान वास्तविक हो, और ज्ञान दर्शन बने, तो आचरण अनिवार्य है। उसे महावीर “चारितरय’ कहते हैं।

किसी पशु के पास चरित्र नहीं है–हो नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान के बिना दर्शन नहीं, दर्शन के बिना चरित्र नहीं।

मनुष्य की क्षमता है कि वह जैसा देखे, वैसा ही जी भी सके। और ध्यान रहे, इस जीने में चेष्टा नहीं करनी पड़ती। यह जरा जटिल है। जैन साधुओं ने पूरी स्थिति को उल्टा कर दिया है, पहले चरित्र। महावीर पहले चरित्र का उपयोग नहीं करते, महावीर कहते हैं–ज्ञान, दर्शन, चरित्र। जैन साधु से पूछें, वह कहता है चरित्र पहले। जब चरित्र पहले होगा–ज्ञान के पहले होगा, दर्शन के पहले होगा, तो झूठा और पाखण्डी होगा। क्योंकि जो मैंने जाना नहीं है, उसे मैं जी कैसे सकता हूं? जो मैंने देखा नहीं है, वह वस्तुतः मेरा आचरण कैसे बन सकता है? थोप सकता हूं, जबरदस्ती कर सकता हूं अपने साथ।

आदमी हिंसा करने में कुशल है–दूसरों के साथ भी, अपने साथ भी। आप चाहें तो आप अहिंसक हो सकते हैं, मगर वह अहिंसा झूठी होगी और भीतर हिंसा उबलती होगी। आप चाहें तो आप ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकते हैं, वह थोथा होगा, भीतर कामवासना भरी होगी।

लेकिन महावीर जिस ढंग से चल रहे हैं, वह बिलकुल वैज्ञानिक है बात। पहली झलक ज्ञान–अपने होने की–फिर दर्शन। अपने होने और दूसरों के होने के बीच का पूरा तारतम्य खयाल में आ जाये, क्योंकि मैं तभी अहिंसक हो सकता हूं, अगर मुझे पता चले कि मैं तो आत्मा हूं और पता चले कि आप आत्मा नहीं हैं, तो अहिंसक होने की कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन मुझे लगता है कि जैसा मेरे भीतर है, वैसा ही आपके भीतर भी है, जिस दिन मेरा भीतर और आपका भीतर एक होने लगते हैं, जिस दिन मैं आपमें अपने को ही देख पाता हूं और मुझे लगता है कि आप को पहुंचाई गई चोट खुद को ही पहुंचाई गई चोट होगी, उस दिन अहिंसा का जन्म हो सकता है।

महावीर चींटी पर भी पैर रखने में हिचकिचाते हैं, संभलकर चलते हैं, इसलिए नहीं कि चींटी को दुख हो जायेगा, चींटी का दुख महावीर का अपना ही दुख होगा। कोई चींटी की फिक्र नहीं कर सकता इस जगत में, सब अपनी ही फिक्र करते हैं। लेकिन जिस दिन अपना इतना फैलाव हो जाता है कि चींटी भी उसमें समाहित हो जाती है–इसे “दर्शन’ कहेंगे। महावीर को लगा कि जो मैं हूं, वही और सबके भीतर है। यह प्रतीति जब प्रगाढ़ हो जाती है, तब आचरण में उतरनी शुरू हो जाती है। उतरेगी ही।

तो ध्यान रहे, जब आचरण को जबरदस्ती लाना पड़ता है, तब आप व्यर्थ की चेष्टा में लगे हैं। तब ज्यादा से ज्यादा हिपोक्रेट, एक पाखंडी आदमी पैदा हो जायेगा जो बाहर कुछ होगा भीतर कुछ होगा–ठीक उल्टा होगा, और बड़ी बेचैनी में होगा; क्योंकि उसके जीवन की व्यवस्था सहज नहीं हो सकती; उसके भीतर से कुछ बह नहीं रहा है; अहिंसा भीतर से नहीं आ रही है, ऊपर से थोपी जा रही है। तो एक बड़े मजे की घटना घटेगी, एक तरफ अहिंसा थोप लेगा तो हिंसा दूसरी तरफ से शुरू हो जायेगी। क्योंकि हिंसा भीतर है तो उसे बहाव चाहिये। किसी झरने को हम रोक दें पत्थर से, तो झरना दूसरी तरफ से फूटना शुरू हो जायेगा। बहुत पत्थर लगा देंगे तो झरना रिस-रिस कर बूंद-बूंद बहुत जगह से फूटने लगेगा। झरना नहीं रह जायेगा, बूंद-बूंद झरने लगेगा।

जो लोग आचरण को ऊपर से थोप लेते हैं, उनका दुराचरण बूंद-बूंद होकर झरने लगता है। और ऐसे ढंग से झरता है कि वे खुद भी नहीं पहचान पाते। मवाद हो जाती है भीतर, सब सड़ जाता है, सिर्फ ऊपर शुभ्र आवरण होता है।

महावीर चारितरय उसे कहते हैं, जो ज्ञान और दर्शन के बाद घटता है। उसके पहले घट नहीं सकता। मनुष्य को बदलना हो तो वह क्या करता है, उसे बदलने से शुरू नहीं किया जा सकता। वह क्या है, उसकी ही बदलाहट से ज्ञान बदलता है तो कर्म अनिवार्यरूपेण बदल जाता है। वह उसकी छाया है।

तो महावीर कहते हैं–“ज्ञान, दर्शन, चारितरय, तप, वीर्य और अनुभव–ये जीव के लक्षण हैं।’

“तप’ भी महावीर का समझने जैसा शब्द है। हम आमतौर से तप का अर्थ समझते हैं–अपने को तपाना; सताना। इससे बड़ी कोई भ्रान्ति नहीं हो सकती, भ्रान्ति पुरानी है, लेकिन परम्परागत है। और जैन साधु निरंतर अपने को सताने और तपाने में गौरव अनुभव करते हैं। लेकिन तप एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है–अल्केमिकल।

मनुष्य की जीवन-ऊर्जा एक तरह की अग्नि है। और अगर हम ठीक से समझें तो जिन लोगों ने भी जीवन को समझने की कोशिश की है, वे मानते हैं कि जीवन एक प्रगाढ़ अग्नि का नाम है। हेराक्लीतु ने यूनान में यही बात कही–करीब-करीब महावीर के समय में–कि अग्नि जीवन का मौलिक तत्व है। और अब विज्ञान कहता है कि “विद्युत’ जीवन का मौलिक तत्व है। लेकिन “विद्युत’ अग्नि का ही एक रूप है, या “अग्नि’ विद्युत का एक रूप है।

आपके शरीर में प्रतिपल अग्नि पैदा हो रही है। आप एक दीया हैं। जैसे दीया जलता है, वैसे ही आपका जीवन जलता है। और ठीक वैज्ञानिक हिसाब से भी जो कुछ दीये में घटता है, वही आप में घटता है।

दीया जल रहा है, वह क्या कर रहा है? आसपास जो आक्सीजन है, प्राणवायु है, उसको अवशोषित कर रहा है। वह प्राणवायु ही दीये में जल रही है। इसलिए कभी ऐसा हो सकता है कि तूफान आ रहा हो और आप सोचें कि दीया बुझ न जाए, तो उसे बर्तन से ढंक दें। हो सकता था तूफान दीए को न बुझा पाता, लेकिन आपका बर्तन दीए को बुझा देगा। क्योंकि बर्तन के भीतर की आक्सीजन थोड़ी ही देर में समाप्त हो जायेगी। और जैसे ही आक्सीजन समाप्त हुई कि दीया बुझ जायेगा।

आक्सीजन के बिना अग्नि नहीं हो सकती। आप भी यही कर रहे हैं। श्वास लेकर, जीवन के दीये को आक्सीजन दे रहे हैं। आपकी श्वास बंद हुई कि आप भी बुझ जायेंगे। तो वैज्ञानिक तो कहते हैं कि जीवन आक्सीडाइजेशन है। विज्ञान की भाषा में ठीक कहते हैं। सारा जीवन आक्सीजन पर निर्भर है। आप आक्सीजन को जला रहे हैं। और जब जल जाती है आक्सीजन, तो कार्बनडाईआक्साईड को बाहर फेंक रहे हैं। एक क्षण को भी हवा से आक्सीजन तिरोहित हो जाये, जीवन पृथ्वी से तिरोहित हो जायेगा।

आक्सीजन जब भीतर जलती है, तो जीवन की ज्योति पैदा होती है।

यह जो जीवन की ज्योति है, इसके दो उपयोग हो सकते हैं। एक उपयोग है, काम वासना में इस जीवन की ज्योति को बाहर निष्कासित करना।

और ध्यान रहे। जीवन जब भर जाता है भीतर, अगर आप उसका कोई भी उपयोग न करें तो बोझिल हो जायेंगे, परेशान हो जायेंगे। प्रवाह रुक जाये तो बेचैनी हो जायेगी।

कामवासना का इसीलिए इतना आकर्षण है। क्योंकि कामवासना जीवन की बढ़ी हुई शक्ति को फेंकने का उपाय है। आप फिर खाली हो जाते हैं, फिर श्वास लेकर जीवन को भरने लगते हैं। फिर जीवन इकट्ठा हो जाता है। फिर आप खाली हो जाते हैं।

“तप’ ठीक इसी से संबंधित दूसरी प्रक्रिया है। वह जो जीवन की अधिक ऊर्जा भीतर इकट्ठी होती है, उस ऊर्जा को काम वासना में न बहने देने का नाम “तप’ है। उस गम को, उस अग्नि को बाहर न जाने देना और भीतर की तरफ ऊर्ध्वगामी करने का नाम तप है। वह जो जीवन की ज्योति है, वह भीतर की तरफ बहने लगे–बाहर की तरफ नहीं, दूसरे की तरफ नहीं।

कामवासना का अर्थ है–दूसरे की तरफ, साधना का अर्थ है–अपनी ही तरफ। अंतर्यात्रा पर जीवन ऊर्जा बहने लगे, वह जो अग्नि जीवन की पैदा हो रही है, वह बाहर न जाये, बल्कि भीतर उसकी यात्रा शुरू हो जाये। अग्नि की अंतर्यात्रा का नाम तप है। उसके वैज्ञानिक उपाय हैं कि वह कैसे भीतर बहना शुरू हो सकती है।

ध्यान रहे, जो चीज भी बाहर बह सकती है, वह भीतर भी बह सकती है। जो चीज भी बह सकती है, उसकी दिशा भी बदली जा सकती है। अगर बहाव है पूरब की तरफ, तो पश्चिम की तरफ भी हो सकता है। प्रक्रिया का पता होना चाहिये कि वह पश्चिम की तरफ कैसे हो जाये। हमारी सारी जीवनऊर्जा बाहर बह रही है।

मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन मरने के करीब था। उसकी पत्नी ने कहा कि “नसरुद्दीन, अगर तुम पहले मर जाओ तो मरने के बाद संपर्क साधने की कोशिश करना। मैं जानना चाहती हूं कि ये हिन्दू जो कहते हैं कि आत्मा फिर से जन्म लेती है, यह सच है या नहीं? अगर मैं मरूं तुमसे पहले तो मैं कोशिश करूंगी तुमसे संपर्क साधने की।’

नसरुद्दीन मरा पहले। सालभर तक उसकी विधवा पत्नी राह देखती रही। कुछ हुआ नहीं। कोई खबर न मिली। फिर धीरे-धीरे बात ही भूल गई। एक दिन अचानक सांझ को चाय बनाती थी चौके में और नसरुद्दीन की आवाज आई–फातिमा! घबड़ा गई। आवाज वैसी ही थी जैसे नसरुद्दीन रोज सांझ को जब जीवित था और बाजार से, दुकान से वापस लौटता था और–नसरुद्दीन ने कहा, “घबड़ा मत, वायदे के अनुसार तुझे खबर करने आया हूं। मेरा जन्म हो गया है। और दूसरे खेत में देख, एक खूबसूरत गाय खड़ी है। सफेद काला रंग है।’

पत्नी को थोड़ी हैरानी हुई कि “गाय की चर्चा उठाने की क्या जरूरत है?’ पर उसने बात टाली। उसने कहा, कुछ और अपने संबंध में कहो–प्रसन्न तो हो, आनंदित तो हो?’ नसरुद्दीन ने कहा, “बहुत आनंदित हूं, थोड़ा मुझे गाय के संबंध में और बताने दे। बड़ी प्यारी और आकर्षक गाय है, उसकी चमड़ी बड़ी चिकनी और कोमल है।’ पत्नी ने कहा कि “छोड़ो भी गाय की बकवास, गाय से क्या लेना-देना है। मैं तुम्हारे संबंध में जानने को आतुर हूं, और तुम एक मूर्ख गाय के संबंध में कहे चले जा रहे हो।’ नसरुद्दीन ने कहा, “क्षमा कर, इट सीम्स आइ फरगाट टु टैल यू दैट नाउ आइ एम ए बुल इन पंजाब–मैं भूल गया बताना कि मैं एक बैल हो गया हूं, सांड हो गया हूं पंजाब में।’ सांड की उत्सुकता गाय में ही हो सकती है।

जीवन कामवासना है, जैसा जीवन हम जानते हैं। पुरुष उत्सुक है स्त्री में, स्त्री उत्सुक है पुरुष में। तप का अर्थ है–यह उत्सुकता अपने में आ जाये, दूसरे से हट जाये। जब तक यह उत्सुकता दूसरे में है–महावीर कहते हैं–संसार है। जिस दिन यह सारी उत्सुकता अपने में लौटकर वर्तुल बन जाती है, तप शुरू हुआ। तप कहना उचित है, क्योंकि अति कठिन है यह बात–दूसरे से उत्सुकता अपने में ले आना। होनी तो नहीं चाहिये, कठिन होनी तो नहीं चाहिये क्योंकि दूसरे में भी हम उत्सुक अपने लिए ही होते हैं। गहरे में तो उत्सुकता अपने ही लिए है। दूसरे के द्वारा घूमकर, अपने में लौटते हैं।

उपनिषद कहते हैं कोई पति, पत्नी को प्रेम नहीं करता, पत्नी के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है। कोई मां बेटे को प्रेम नहीं करती, बेटे के द्वारा अपने को ही प्रेम करती है। प्रेम तो हम अपने को ही करते हैं, लेकिन हमारा प्रेम वाया–किसी से होकर आता है। जब हमारा प्रेम किसी से होकर आता है, तो उसका नाम अब्रह्मचर्य है। और जब हमारा प्रेम किसी से होकर नहीं आता है, सीधा अपने में ठहर जाता है–तपश्चर्या है, ब्रह्मचर्य है।

तप शब्द चुनना जरूरी था, क्योंकि जब कोई व्यक्ति अपनी ऊर्जा को बाहर जाने से रोकता है, तो उत्तप्त होता है; सारा जीवन एक नई अग्नि से भर जाता है। वह अग्नि बड़े अदभुत काम करती है, जीवन की पूरी कीमिया को बदल देती है। जीवन का एक-एक कोष्ठ उस अग्नि के प्रवाह से बदल जाता है। अलकेमिस्ट कहते हैं कि लोहा सोना हो जाता है, अगर अग्नि पास हो। तप उसी अग्नि का नाम है, जिसमें आपकी साधारण धातु लोहा स्वर्ण बन जायेगी। जो कचरा है वह जल जायेगा।

उपनिषदों ने नचिकेत-अग्नि की बात कही है। वह इसी अग्नि की चर्चा है। कठोपनिषद में नचिकेता पूछता है यम से कि किस भांति उस परम तत्व को पाया जा सकता है, जो मृत्यु के पार है। तो नचिकेता को यम ने कहा है कि तीन तरह की अग्नियों से गुजरना जरूरी है, और चूंकि तू पहला पूछनेवाला है, इसलिए वे अग्नियां तेरे ही नाम से पहचानी जायेंगी; नचिकेत-अग्नि कही जायेंगी। वे तीन अग्नियां–महावीर उन्हीं तीन अग्नियों की प्रक्रिया को तप कहते हैं।

दूसरे से अपने पर लौटना पहली अग्नि है। दूसरे से अपने पर लौटना, दूसरे को खोना, छोड़ना–पहली अग्नि है। दूसरी अग्नि में स्वयं को भी छोड़ना है। पहली अग्नि में दूसरा जल जायेगा, सिर्फ मैं बचूंगा। लेकिन मैं का कोई उपयोग नहीं है, जब तू खो जाये। वह तू का ही संदर्भ है, उसका ही अटका हुआ हिस्सा है। दूसरी अग्नि में मुझे भी जल जाना है; मैं भी न बचूं, शून्य रह जाए। और तीसरी अग्नि में शून्य का भाव भी न रह जाये; इतनी शून्यता हो जाये कि यह भी भाव न रहे कि अब मैं शून्य हो गया, कि अब मैं निरअहंकारी हो गया।

इन तीन अग्नियों का नाम तप है। और इस तप से जो गुजरता है वह उस परम अवस्था को उपलब्ध हो जाता है, जिसे महावीर ने “मुक्ति’ कहा है; परम स्वतंत्रता, “मोक्ष’ कहा है।

“वीर्य और उपयोग–ये सब जीव के लक्षण हैं।’

वीर्य का अर्थ है–पुरुषार्थ, और वीर्य का अर्थ “काम-ऊर्जा’ भी है। काम-ऊर्जा के संबंध में एक बात खयाल में ले लें कि काम-ऊर्जा के दो हिस्से हैं। एक तो शारीरिक हिस्सा है, जिसे हम वीर्य कहते हैं। महावीर उसे वीर्य नहीं कह रहे। एक उस शारीरिक हिस्से वीर्य के साथ, सीमेन के साथ जुड़ा हुआ आंतरिक हिस्सा है, जैसे शरीर और आत्मा है, वैसे ही प्रत्येक वीर्यकण भी शरीर और आत्मा है। इसीलिए तो वीर्यकण जाकर नये बच्चे का जन्म हो जाता है। प्रत्येक वीर्यकण दो हिस्से लिए हुए हैं। एक तो उसकी खोल है, जो शरीर का हिस्सा है। और दूसरा उसके भीतर छिपा हुआ जीव है, वह उसकी आत्मा है।

इस भीतर छिपे हुए जीव के दो उपयोग हो सकते हैं : एक उपयोग है नये शरीर को जन्म देना, और एक उपयोग है कि यह वीर्य की खोल तो पड़ी रह जाये और भीतर की जीवन-धारा है, वह ऊर्ध्वमुखी हो जाए स्वयं के भीतर। तो स्वयं का नया जन्म हो जाता है, स्वयं का नया जीवन हो जाता है।

मनुष्य दो तरह के जन्म दे सकता है : एक तो बच्चों को जन्म दे सकता है, जो उसके शरीर की ही यात्रा है; और एक अपने को जन्म दे सकता है, जो उसकी आत्मा की यात्रा है। अपने को जन्म देना हो तो वीर्य में छिपी हुई ऊर्जा जो उसको मुक्त करना है, देह से और ऊर्ध्वमुखी करना है।

महावीर ने, उसके बड़े अदभुत सूत्र खोजे हैं, कैसे वह वीर्य-ऊर्जा मुक्त हो सकती है; खोल पड़ी रह जायेगी शरीर में, उसके भीतर छिपी हुई शक्ति अन्तर्मुखी हो जायेगी। इसलिए जोर इस बात पर नहीं है कि कोई वीर्य का संग्रह करे, जोर इस बात पर है कि वीर्य से शक्ति को मुक्त करे।

महावीर उसमें सफल हो पाये, इसलिए हमने उन्हें “महावीर’ कहा। उनका नाम इसी कारण “महावीर’ पड़ा। नाम तो वर्धमान था उनका, लेकिन जब वे वीर्य की ऊर्जा को मुक्त करने में सफल हो गये, तो यह इतने बड़े संघर्ष और इतनी बड़ी विजय की बात थी कि हमने उन्हें “महावीर’ कहा। वर्धमान नाम को तो लोग धीरे-धीरे भूल ही गये, महावीर ही नाम रह गया।

महावीर ने कहा है कि मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा विजय का क्षण उस समय होता है, जब वह अपने जीवन को ही अपने नये जन्म का आधार बना लेता है; अपने को ही पुनजवित करने के लिए अपने जीवन की प्रक्रिया को मोड़ दे देता है और अपनी जीवन शक्ति का मालिक हो जाता है।

उसे महावीर “पुरुषार्थ’ कहते हैं। और अनुभव यह जीव के लक्षण हैं।

“शब्द, अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श–ये पुदगल के लक्षण हैं।’

महावीर अति वैज्ञानिक हैं अपने दृष्टिकोण में। उनका दृष्टिकोण दार्शनिक का नहीं, वैज्ञानिक का है। इसलिए शंकर से वे राजी नहीं होंगे कि जगत माया है, कि जगत असत्य है। इसलिए वे उन लोगों से भी राजी नहीं होंगे जो कहते हैं एक ही ब्रह्म है और सब स्वप्न है। क्योंकि महावीर कहते हैं कि तुम्हारा सिद्धांत सवाल नहीं है; जीवन को परखो, सिद्धांत को जीवन पर थोपो मत। जीवन ही निर्णायक है, तुम्हारा सिद्धांत निर्णायक नहीं है। तो महावीर कहते हैं कि जीवन को देखकर तो साफ पता चलता है कि जीवन दो हिस्सों में बंटा है : एक चैतन्य और एक अचैतन्य, एक आत्मा और एक पदार्थ। तुम्हारे सिद्धांतों का सवाल नहीं है।

महावीर सिद्धांतवादी नहीं हैं, ठीक प्रयोगवादी हैं। वे कहते हैं, जीवन को देखो, तर्क का सवाल नहीं है। और तर्क से भी आदमी पहुंचता कहां है?

शंकर बड़ी कोशिश करते हैं कि जगत असत्य है, लेकिन कुछ असत्य हो नहीं पाता। शंकर से भी पूछा जा सकता है कि अगर जगत असत्य है तो इतनी चेष्टा भी क्या करनी उसको असत्य सिद्ध करने की? जो है ही नहीं उसकी चर्चा भी क्यों चलानी? इतना तो शंकर को भी मानना पड़ेगा कि है जरूर, भले ही असत्य हो। पदार्थ की सत्ता है, उसे इनकार नहीं किया जा सकता। और महावीर का एक और दृष्टिकोण समझ लेने जैसा है।

महावीर कहते हैं दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जिनको हम ब्रह्मवादी कहते हैं, जो कहते हैं–ब्रह्म है, पदार्थ नहीं है। दूसरे, जो बिलकुल इनका ही शीर्षासन करता हुआ रूप हैं, वे कहते हैं–ब्रह्म नहीं है, पदार्थ है। पर दोनों ही मोनिस्ट हैं, दोनों ही एकवादी हैं। एक तरफ माक्र्स, दिदरो, एपीक्यूरस, चार्वाक जैसे लोग हैं–जो कहते हैं कि सिर्फ पदार्थ है, ब्रह्म नहीं है; ब्रह्म मनुष्य की कल्पना है। ठीक इनके विपरीत खड़े हुए शंकर और अद्वैतवादी हैं, बर्कले और-और लोग हैं–जो कहते हैं कि पदार्थ असत्य है, ब्रह्म सत्य है। लेकिन दोनों में एक बात की सहमति है कि एक ही सत्य हो सकता है। और महावीर कहते हैं कि दोनों ही यथार्थ से दूर हैं, दोनों अपनी मान्यता को थोपने की कोशिश में लगे हैं। और दोनों सहमत हैं, दोनों में भेद ज्यादा नहीं है। भेद इतना ही है कि उस एक तत्व को शंकर कहते हैं “ब्रह्म’ और माक्र्स कहता है “पदार्थ’–“मैटर’। और कोई भेद नहीं है। लेकिन पदार्थ एक ही होना चाहिए।

महावीर कहते हैं, मेरा कोई सिद्धांत नहीं है थोपने को। मैं जीवन को देखता हूं तो पाता हूं कि वहां दो हैं : वहां “पदार्थ’ है और “चैतन्य’ है। शरीर में भी झांकता हूं तो पाता हूं कि दो हैं : पदार्थ है और चैतन्य है। और दोनों में कोई भी एकता नहीं है; और दोनों में कोई समता नहीं है; और दोनों में कोई तालमेल नहीं है। दोनों बिलकुल विपरीत हैं, क्योंकि पदार्थ का लक्षण है, “अचेतना’; और जीव का लक्षण है, “चेतना’। ये चैतन्य के भेद हैं–जो महावीर कहते हैं, इतने स्पष्ट हैं कि इसे झुठलाने की सारी चेष्टा निरर्थक है। इसलिए महावीर दोनों को स्वीकार करते हैं।

पर महावीर पदार्थ को जो नाम देते हैं, वह बड़ा अदभुत है, वैसा नाम दुनिया की किसी दूसरी भाषा में नहीं है। और दुनिया के किसी भी तत्वचिंतक ने पदार्थ को पुदगल नहीं कहा है–पदार्थ कहा है, मैटर कहा है, और हजार नाम दिये हैं। लेकिन पुदगल अनूठा है, इसका अनुवाद नहीं हो सकता किसी भी भाषा में।

पदार्थ का अर्थ है–जो है। मैटर का भी अर्थ है–मैटीरियल–जो है, जिसका अस्तित्व है। पुदगल बड़ा अनूठा शब्द है। पुदगल का अर्थ है–जो है, नहीं होने की क्षमता रखता है; और नहीं होकर भी नहीं, नहीं होता। पुदगल का अर्थ है–प्रवाह। महावीर कहते हैं–पदार्थ कोई स्थिति नहीं है, बल्कि एक प्रवाह है।

पुदगल में जो शब्द है “गल’, वह महत्वपूर्ण है–जो गल रहा है। आप देखते हैं पत्थर को, पत्थर लग रहा है–है, लेकिन महावीर कहते हैं– गल रहा है। क्योंकि यह भी कल मिटकर रेत हो जायेगा। गलन चल रहा है, परिवर्तन चल रहा है। है नहीं पत्थर, पत्थर भी हो रहा है। नदी की तरह बह रहा है। पहाड़ भी हो रहे हैं।

जगत में कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। पुदगल गत्यात्मक शब्द है। पुदगल का अर्थ है–मैटर इन प्रोसेस, गतिमान पदार्थ। महावीर कहते हैं, कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, बह रही हैं चीजें। पदार्थ न तो कभी पूरी तरह मिटता है, और न पूरी तरह कभी होता है। सिर्फ बीच में है, प्रवाह में है।

आप देखें अपने शरीर को : बच्चा था, जवान हो गया, बूढ़ा हो गया। एक दफा आप कहते हैं–बच्चा है शरीर, एक दफा कहते हैं–जवान है, एक दफा कहते हैं–बूढ़ा है, लेकिन बहुत गौर से देखें, शरीर कभी भी “है’ की स्थिति में नहीं है–सदा हो रहा है। जब बच्चा है, तब भी “है’ नहीं, तब वह जवान हो रहा है। जब जवान है, तब भी “है’ नहीं, तब वह बूढ़ा हो रहा है। शरीर हो रहा है, एक नदी की तरह बह रहा है।

पुदगल का अर्थ है, प्रवाह। पदार्थ एक प्रवाह है। न तो कभी पूरी तरह होता है कि आप कह सकें, “है’ और न पूरी तरह कभी मिटता है कि कह सकें, “नहीं है’, दोनों के बीच में सधा है–है भी, नहीं भी है। बड़ी गहरी दृष्टि है, क्योंकि विज्ञान राजी है अब महावीर से। क्योंकि विज्ञान कहता है, पदार्थ भी जहां हमें ठहरा हुआ दिखाई पड़ता है, वहां भी ठहरा नहीं है।

आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, वह भी गतिमान है, उसके भी इलेकटरान्स घूम रहे हैं। बड़ी तेजी से घूम रहे हैं। इतनी तेजी से घूम रहे हैं कि आप गिर नहीं पाते हैं, संभले हुए हैं। जैसे बिजली का पंखा अगर बहुत तेजी से घूमे, तो आपको उसकी तीन पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़तीं। पंखा इतनी तेजी से घूम रहा है कि बीच की खाली जगह दिखाई नहीं पड़ती। इसके पहले कि खाली जगह दिखाई पड़े, पंखुड़ी आ जाती है और आपको पूरा एक गोला, घूमता हुआ वर्तुल दिखाई पड़ता है।

अगर बिजली का पंखा उतनी गति से घुमाया जा सके, जितनी गति से आपकी कुस के इलेकटरान्स घूम रहे हैं, तो आप बिजली के पंखे पर बड़े मजे से बैठ सकते हैं–जैसे कुस पर बैठे हैं। आपको पता भी नहीं चलेगा कि नीचे कोई चीज घूम रही है। क्योंकि गति इतनी तेज होगी कि आपको पता चलने के पहले दूसरी पंखुड़ी आपके नीचे आ जायेगी। बीच के खड्डे में आप गिर न पायेंगे। क्योंकि गिरने में जितना समय लगता है, उससे कम समय पंखुड़ी के आने में लगेगा। आप संभले रहेंगे।

अब विज्ञान कहता है कि हर चीज घूम रही है, हर चीज गतिमान है। वह जो पत्थर का टुकड़ा है, वह भी ठहरा हुआ नहीं है, वह भी बह रहा है। अपने भीतर ही बह रहा है। महावीर का पुदगल शब्द बड़ा सोचने जैसा है। आज से पच्चीस सौ साल पहले महावीर का पुदगल कहना, कि पदार्थ गतिमान है, गत्यात्मक है; जगत में कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। बहुत बाद में एडिंग्टन ने कहा, अभी तीस साल पहले कहा कि मनुष्य की भाषा में एक शब्द गलत है, और वह है–रेस्ट : कोई चीज ठहरी हुई नहीं है; सब चीजें चल रही हैं। महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले, पदार्थ के लिए जो शब्द दिया, वह है–पुदगल। और पुदगल का अर्थ है–रेस्टलेसनेस।

इसलिए एक और बात समझ लेनी जरूरी है : जब तक आप शरीर से जुड़े हैं, रेस्ट इज नाट पासिबल। जब तक आप शरीर से जुड़े हैं, तब तक रेस्टलेसनेस है। तब तक बेचैनी रहेगी ही। इसलिए महावीर कहते हैं, शरीर से मुक्त होकर ही कोई शान्त हो सकता है। क्योंकि शरीर का स्वभाव परिवर्तन है। इसके पहले कि आप ठहरें, शरीर बदल जाता है। अभी स्वस्थ है, अभी बीमार है। अभी ठीक है, अभी गलत है।

शरीर बदल रहा है। अगर ठीक से कहें तो शरीर स्वस्थ कभी भी नहीं होता। जिसको आप स्वास्थ्य कहते हैं वह भी स्वास्थ्य नहीं होता। शरीर स्वस्थ हो ही नहीं सकता, ठीक अर्थों में, सिर्फ आत्मा ही स्वस्थ हो सकती है। इसलिए हमने जो शब्द दिया है स्वास्थ्य के लिए वह बड़ा समझने जैसा है। उसका अर्थ है, स्वयं में स्थित हो जाना–स्वस्थ। शरीर कभी स्वयं में स्थित नहीं हो सकता वह हमेशा बह रहा है। और उसे हमेशा पर की जरूरत है–भोजन चाहिये, श्वास चाहिये, वह हमेशा “पर’ पर निर्भर है, वह कभी स्वस्थ नहीं हो सकता, सिर्फ आत्मा ही स्वस्थ हो सकती है।

यह जो महावीर का शब्द है पुदगल, यह पूरे जगत में चेतना को छोड़कर सभी पर लागू है। सिर्फ चेतना पुदगल नहीं है। बुद्ध ने चेतना के लिए भी पुदगल शब्द का प्रयोग किया है। क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि वह भी बदल रही है। यहां बुद्ध और महावीर का बुनियादी भेद है। महावीर ने पदार्थ को पुदगल कहा है, बुद्ध ने आत्मा को भी पुदगल कहा है। क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि पदार्थ ही नहीं बदल रहा है, आत्मा भी बदल रही है। आत्मा के लिए अपवाद करने की क्या जरूरत है? सब चीजें बदल रही हैं। जैसे सांझ को हम दीया जलाते हैं और सुबह दीये को बुझाते हैं, तो हम सुबह कहते हैं उसी दीये को बुझा रहे हैं, पर बुद्ध कहते हैं कि नहीं, क्योंकि वह दीया तो रातभर बदलता रहा–ज्योति बदलती रही, धुआं बनती रही, नई ज्योति आती रही; दीये की ज्योति तो प्रवाह थी। तो तुमने जो दीया जलाया था, उसे तुम बुझा नहीं सकते। वह तो न-मालूम कब का बुझ गया, उसकी संतति बची है, उसकी संतान बची है, उसकी धारा बची है। वह किसी दूसरी ज्योति को जन्म दे गया है। तो सुबह तुम उसकी संतान को बुझा रहे हो, उसको नहीं बुझा रहे, बुद्ध कहते हैं चेतना भी ऐसे ही दीये की लौ की तरह जल रही है।

बुद्ध कहते हैं, जगत में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है, सभी पुदगल है। लेकिन महावीर की बात ज्यादा वैज्ञानिक मालूम पड़ती है–कारण है। और कारण यह है कि जगत में हर चीज विपरीत से बनी है। अगर सभी कुछ परिवर्तन है, तो परिवर्तन को नापने और जानने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर परिवर्तन पता चलता है तो जरूर कोई तत्व होना चाहिये जो परिवर्तित नहीं होता। नहीं तो परिवर्तन का पता किसको चलेगा? परिवर्तन से विपरीत कुछ होना जरूरी है।

जगत में विपरीत के बिना कोई उपाय नहीं है। अगर सिर्फ अंधेरा हो तो आपको अंधेरे का पता नहीं चल सकता, या कि चल सकता है? क्योंकि प्रकाश के बिना कैसे अंधेरे का पता चलेगा? विपरीत चाहिये। अगर सिर्फ जीवन हो मृत्यु न हो, तो आपको जीवन का पता नहीं चलेगा। जीवन का पता मृत्यु के साथ ही चल सकता है। सिर्फ प्रेम हो, घृणा न हो, तो आपको प्रेम का पता नहीं चलेगा। सिर्फ मित्रता हो, शत्रुता न हो, तो आपको मित्रता का पता नहीं चलेगा। द्वंद्व है जीवन।

अगर पता चलता है–तो महावीर कहेंगे कि अगर किसी को पता चल रहा है कि सब प्रवाह है, तो एक बात पक्की है कि वह खुद प्रवाह नहीं हो सकता क्योंकि प्रवाह से बाहर किसी का खड़ा होना जरूरी है। लगता है, नदी बह रही है, क्योंकि आप खड़े हैं। तो नदी बहती हुई नहीं मालूम पड़ेगी, अगर आप भी बह रहे हों!

इसे ऐसा समझें :

आइंस्टीन कहा करता था कि दो ट्रेनें शून्य आकाश में चलाई जायें, दोनों एक ही गति से चल रही हों, तो क्या पता चलेगा कि चल रही हैं? दो ट्रेन, एक साथ समानांतर, शून्य आकाश में जहां आसपास कुछ भी नहीं है–क्योंकि वृक्ष हों तो पता चल जायेगा कि चल रही हैं, वे खड़े हैं–शून्य आकाश में दो ट्रेनें साथ चल रही हों–समानान्तर, दोनों बराबर एक गति से चल रही हों, तो दोनों ट्रेनों के यात्रियों को पता नहीं चल सकता कि आप खिड़की के बाहर मुंह निकालिए, तो उस तरफ जो आदमी था, वह सदा वही है, वही खिड़की, वही नंबर। आप कभी पता नहीं लगा सकते कि चल रही हैं, क्योंकि चलने का पता कोई चीज ठहरी हो तो चलता है। इसलिए जब एक ट्रेन खड़ी रहती है और एक ट्रेन चलती है, तो कभी-कभी खड़ी ट्रेनवालों को शक हो जाता है कि उनकी ट्रेन चल पड़ी है। और जब एक ट्रेन खड़ी होती है और एक ट्रेन चलती है–समझें कि एक ट्रेन खड़ी है, और दूसरी ट्रेन उसके पास से गुजरती है, पचास मील की रफ्तार से तो अभी उसकी गति पचास मील प्रति घंटा है। दूसरी कल्पना करें कि पहली ट्रेन भी पचास मील की रफ्तार से विपरीत दिशा में जा रही है और फिर एक ट्रेन उसके करीब से गुजरती है जो पचास मील की रफ्तार से दूसरी दिशा में जा रही है, तो जब वे दोनों करीब होती हैं, तो उनकी रफ्तार सौ मील होती है–एक-दूसरे की तुलना में। इसलिए जब एक ट्रेन आपके करीब से गुजरती है, तो आपको लगता है कि आपकी ट्रेन–अगर चल रही है, तो बहुत तेजी से चलने लगी है। क्योंकि दूसरी ट्रेन पचास मील रफ्तार से पीछे जा रही है, आपकी पचास मील की रफ्तार से आगे जा रही है। दोनों ट्रेनें एक-दूसरे की तुलना में सौ मील की रफ्तार से चल रही हैं।

वृक्ष खड़े हैं किनारे पर, उनकी वजह से आपको पता चलता है कि आपकी ट्रेन चल रही है। किसी दिन वृक्ष तय कर लें और साथ चल पड़ें तो जिस ट्रेन से आप चल रहे हैं, थोड़ी देर में आप समझ जायेंगे कि ट्रेन चल नहीं रही है, स्टेशन के साथ ही चली जा रही है।

गति की प्रतीति हो रही है, क्योंकि कहीं कोई गति से विपरीत है। जीवन की सब प्रतीतियां विपरीत पर निर्भर हैं। पुरुष को अनुभव होता है, क्योंकि स्त्री है; स्त्री को अनुभव होता है, क्योंकि पुरुष है–सारा विपरीत, दि पोलर अपोजिट!

ध्रुवीय विपरीतता है, अभी तो विज्ञान भी इस नतीजे पर पहुंचा है। अभी विज्ञान साफ नहीं हो पा रहा है, लेकिन विज्ञान में एक नई धारणा पैदा हुई है। वह है, एन्टी-मैटर–वह कहते हैं कि पदार्थ है, तो विपरीत-पदार्थ भी चाहिये। और बहुत अनूठी बात अभी पैदा हुई है, और इस आदमी को नोबल प्राइज भी मिला जिसने यह अनूठी बात कही है कि एन्टी-मैटर होना चाहिये। और उसने एक और अजीब बात कही कि समय बह रहा है, अतीत से भविष्य की तरफ, तो समय की एक विपरीत धारा भी चाहिये, जो भविष्य से अतीत की तरफ बह रही हो। नहीं तो समय बह नहीं सकता।

यह बहुत अजीब धारणा है, और इसकी कल्पना करना बहुत घबड़ानेवाली है। इसका मतलब यह है–होजेनबर्ग का कहना है कि कहीं न कहीं कोई जगत होगा, इसी जगत के किनारे, जहां समय उल्टा बह रहा होगा। जहां बूढ़ा आदमी पैदा होगा, फिर जवान होगा, फिर बच्चा होगा, और फिर गर्भ में चला जायेगा। और होजेनबर्ग को नोबल प्राइज भी मिली है, क्योंकि उसकी बात तात्विक है।

जगत में विपरीतता होगी ही, यह एक शाश्वत नियम है। इसलिए बुद्ध की बात किसी और अर्थ में अर्थपूर्ण हो, पर वैज्ञानिक अर्थों में महत्वपूर्ण नहीं है। महावीर ठीक कह रहे हैं कि विपरीतता है; वहां पुदगल है और यहां भीतर अपुदगल, एन्टी-मैटर है। वहां सब चीजें बाहर बह रही हैं–पदार्थ में, यहां कुछ भी नहीं बह रहा है, सब खड़ा है, सब ठहरा हुआ है।

इस ठहरी हुई स्थिति का अनुभव “मुक्ति’ है। और इस बहते हुए के साथ जुड़े रहना “संसार’ है। संसार का अर्थ है, बहाव। पदार्थ के लक्षण महावीर ने कहे, “शब्द, अन्धकार, प्रकाश, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श–ये सब पदार्थ के लक्षण हैं।’

“जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष–ये नौ सत्यत्तत्व हैं।’

पहले छह महातत्व कहे हैं महावीर ने। वे महातत्व मैटाफिजिकल हैं। जगत, जागतिक रूप से इन छह तत्वों में समा गया है। अब जिन नौ तत्वों की बात वे कर रहे हैं, वे नौ तत्व–साधक, साधक के आयाम, और साधक के मार्ग के संबंध में हैं। जगत की बात छह तत्वों में पूरी हो गयी, फिर एक-एक साधक एक-एक जगत है अपने भीतर। विराट है जगत, फिर वह विराट एक-एक मनुष्य में छिपा है। उस मनुष्य को साधना की दृष्टि से जिन तत्वों में विभक्त करना चाहिये, वे नौ तत्व हैं।

“जीव’, “अजीव’–यह पहला विभाजन है। अजीव पुदगल है, जीव चैतन्य जिसे अनुभव की क्षमता है। यह जो अनुभव की क्षमता है, यह सात स्थितियों से गुजर सकती है। उन सात स्थितियों का इतना मूल्य है, इसलिए महावीर ने उनको भी “तत्व’ कहा है–वे तत्व हैं नहीं। वे सात स्थितियां हैं–बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष। इनको एक-एक को बारीकी से समझना जरूरी है, क्योंकि महावीर का पूरा का पूरा साधना-पथ इन सात की समझ पर निर्भर होगा।

“जीव’ और “अजीव’ दो विभाजन हुए जीवन के : पदार्थ और परमात्मा। पदार्थ से परमात्मा तक जाने का, पदार्थ से परमात्मा तक मुक्त होने की सात सीढ़ियां हैं, या परमात्मा से पदार्थ तक उतरने की भी सात सीढ़ियां हैं। ये सात सीढ़ियां–महावीर के हिसाब से बड़ी अनूठी इनकी व्याख्या है।

“बन्ध’ : महावीर कहते हैं, बन्ध भी एक तत्व है–बाँन्डेज, परतंत्रता। किसी ने भी परतंत्रता को तत्व नहीं कहा है। महावीर कहते हैं, परतंत्रता भी एक तत्व है। इसे समझें, क्या अर्थ है? आप वस्तुतः स्वतंत्र होना चाहते हैं? सभी कहेंगे, “हां’, लेकिन थोड़ा गौर से सोचेंगे तो कहना पड़ेगा, “नहीं’।

एरिफ फ्रोम ने अभी एक किताब लिखी है, किताब का नाम है–फियर आफ फ्रीडम; स्वतंत्रता का भय। लोग कहते जरूर हैं कि हम स्वतंत्र होना चाहते हैं, लेकिन कोई भी स्वतंत्र होना नहीं चाहता। थोड़ा सोचें, सच में आप स्वतंत्र होना चाहते हैं? खोजते तो रोज परतंत्रता हैं–और जब तक परतंत्रता न मिल जाये तब तक आश्वस्त नहीं होते। रोज खोजते हैं–कोई सहारा, कोई आसरा, कोई शरण, कोई सुरक्षा। खोजते तो परतंत्रता हैं।

एक आदमी धन इकट्ठा कर रहा है। वह सोचता है कि धन होगा, तो मैं स्वतंत्र हो जाऊंगा। क्योंकि जितना धन होगा, उतनी शक्ति होगी। लेकिन होता यह है कि जितना धन हो जाता है, उतना वह परतंत्र होता है। अमीर आदमी से गरीब आदमी खोजने बहुत मुश्किल हैं। उनका खयाल होता है कि पैसों की मालकियत उनके पास है, लेकिन पैसा मालिक हो जाता है। एक कौड़ी भी छोड़ना मुश्किल हो जाता है, एक पैसा भी छोड़ना मुश्किल हो जाता है।

राकफैलर लन्दन आया तो एक होटल में ठहरा और उसने आते ही पूछा कि “सबसे सस्ता कमरा कौनसा है?’ अखबारों में फोटो उसका निकला था। मैनेजर पहचान गया। उसने कहा कि “आप राकफैलर मालूम होते हैं, और आप सस्ता कमरा खोजते हैं? और आपके बेटे यहां आते हैं तो सबसे कीमती कमरा खोजते हैं।’ तो राकफैलर ने ठंडी सांस भरकर कहा कि “दे आर मोर फारच्युनेट, दे हैव ए रिच फादर, आई ऐम नाट सो–मैं इतना भाग्यशाली नहीं हूं, मैं एक गरीब बाप का बेटा हूं। वे मौज कर रहे हैं, उड़ा रहे हैं, वे एक अमीर बाप के बेटे हैं।’

धन स्वतंत्रता देता होगा, ऐसा हमारा खयाल है–देता नहीं, परतंत्रता देता है। सम्राट को लगता होगा कि वह स्वतंत्र है, क्योंकि इतनी शक्ति उसके पास है। लेकिन जितनी शक्ति इकट्ठी होती है, उतना परतंत्र हो जाता है, उतना घिर जाता है, उतना मुश्किल में पड़ जाता है।

प्रेम में हमें लगता है कि प्रेम से स्वतंत्रता मिलेगी–मिलनी चाहिये, लेकिन मिलती नहीं। जिसके भी प्रेम में आप पड़ते हैं, परतंत्रता शुरू हो जाती है। पत्नी पति को बांधने की कोशिश में लगी है, पति पत्नी को बांधने की कोशिश में लगा है। दोनों के हाथ एक दूसरे की गर्दन पर हैं। दोनों कोशिश में लगे हैं कि दूसरे को किस भांति बिलकुल वस्तु की तरह, पदार्थ की तरह कर दें। और दोनों सफल हो जाते हैं, एक दूसरे को गुलाम बना लेते हैं। इसलिए बहादुर से बहादुर पति जब घर की तरफ आता है, तब देखें, तब उसके हाथ-पैर कंपने लगते हैं। तब वह तैयारी करने लगता है कि अब क्या करें। क्योंकि जिससे भी हम प्रेम करते हैं, वहीं परतंत्रता शुरू हो जाती है।

प्रेम का मतलब हुआ कि हमने अपने को जरा भी शिथिल छोड़ा कि दूसरे ने हम पर कब्जा किया। हमने जरा ही अपने अस्त्र-शस्त्र हटाकर रखे कि दूसरा हम पर हावी हुआ। और आप भी इसी कोशिश में लगे हैं कि आप हावी हो जायें। बाप बेटे पर हावी होने की कोशिश में लगा है, बेटे बाप पर हावी होने की कोशिश में लगे हैं।

हमारे पूरे जीवन की चेष्टा यही है कि हम मालिक हो जायें। लेकिन आखिरी परिणाम यह होता है कि हम न मालूम कितने लोगों के गुलाम हो जाते हैं। निश्चित ही, कहीं गहरे में हम स्वतंत्रता से डरते हैं। थोड़ी देर सोचें कि अगर आप अकेले रह जायें पृथ्वी पर तो क्या आप पूरे स्वतंत्र होंगे क्योंकि कोई परतंत्र करनेवाला नहीं होगा, तो कोई उपाय ही नहीं होगा। लेकिन क्या आप अकेले होने पसंद करेंगे? सब भोजन की सुविधा हो–सब हो, लेकिन आप अकेले हों, सारा जीवन का रस चला जायेगा। पूरी तरह स्वतंत्र होंगे, लेकिन रस बिलकुल खो जायेगा।

स्वतंत्रता में हमारा रस ही नहीं है, इसलिए लोग मोक्ष की बात सुनते हैं, लेकिन मोक्ष को खोजने नहीं जाते। महावीर कहते हैं कि बंध, परतंत्रता हमारे जीवन का एक तथ्य है। हम बंधन चाहते हैं–कोई बांध ले। फिर बड़े मजे की बात है कि कोई न बांधे, तो हमें बुरा लगता है, और कोई बांधे, तो बुरा लगता है।

एक फिल्म अभिनेता से उसका एक मित्र पूछ रहा था कि “तुम जरूर थक जाते होओगे, क्योंकि जहां भी तुम जाते हो, वहीं इतनी भीड़ घेर लेती है, लोग हस्ताक्षर मांगते हैं, धक्कम-धुक्की होती है–तुम जरूर थक जाते होओगे? तुम जरूर ऊब गये होओगे?’ तो उसने कहा कि “बिलकुल ऊब गया हूं, लेकिन इससे भी एक बुरी चीज है, और वह यह है कि कोई न घेरे और कोई हस्ताक्षर न मांगे–उससे यह बेहतर है।’

मैं एक कालेज में शिक्षक था। और एक युवती ने मुझसे आकर कहा कि “एक युवक उसे कभी चिट्ठियां फेंकता है लिखकर, कभी कंकड़ मारता है।’ वह बहुत नाराज थी। मैंने उससे कहा, “तू बैठ, और तू इस तरह सोच कि तू छह साल कालेज में रहे, कोई कंकड़ न मारे, कोई चिट्ठी न फेंके, फिर क्या हो?’ वह थोड़ी बेचैन हो गई। उसने कहा कि “आप किस तरह की बातें करते हैं, वह ज्यादा दुखद होगा।’ तो मैंने कहा, “फिर फेंकने दे चिट्ठी। और तू जो यहां कहने आई है उसमें सिर्फ तेरा क्रोध ही नहीं, तेरा गौरव और गरिमा भी मालूम हो रही है, तेरे चेहरे पर शान भी है कि कोई पत्थर मारता है, कोई चिट्ठी फेंकता है। तू फिर से सोचकर, इस पर ध्यान करके आना कि तू इसका रस भी ले रही है या नहीं ले रही है? क्योंकि मैं उन लड़कियों को भी जानता हूं, जिनकी तरफ कोई नहीं देख रहा है, तो वे परेशान हैं।’

सुना है मैंने कि एक स्त्री ने–जो पचास साल की हो गई और विवाह नहीं कर पाई, क्योंकि कोई बांधने नहीं आया, कोई बंधने नहीं आया–एक दिन सुबह-सुबह फायर ब्रिगेड को फोन किया, बड़ी घबराहट में कि “दो जवान आदमी मेरी खिड़की में घुसने की कोशिश कर रहे हैं, शीघ्रता करें।’ तो फायर ब्रिगेड के लोगों ने कहा कि “क्षमा करें, आपसे भूल हो गई, यह तो फायर डिपार्टमेंट है, आप पुलिस स्टेशन को खबर करें।’ उस स्त्री ने कहा कि, “पुलिस स्टेशन से मुझे मतलब नहीं, मुझे फायर डिपार्टमेंट से ही मतलब है।’ तो उन्होंने पूछा कि “क्या मतलब है? हम क्या कर सकते हैं?’ उस स्त्री ने कहा कि “बड़ी सीढ़ी ले आएं, वे लोग छोटी सीढ़ी से घुसने की कोशिश कर रहे हैं। बड़ी सीढ़ी की जरूरत है।’

पचास साल जिसे किसी ने कंकड़ न मारा हो, चिट्ठी न लिखी हो, उसकी हालत ऐसी हो ही जायेगी।

आदमी बंधने के लिए आतुर है। न बंधे तो मुसीबत में पड़ता है। लगता है मैं बेकार हूं, मेरे जीवन का कोई अर्थ नहीं है। बांध ले कोई तो लगता है कि बंधन हो गया, कैसे छुटकारा हो? आदमी एक उलझन है, और उलझन का कारण यह है कि वह चीजों को साफ-साफ नहीं समझ पाता कि क्या, क्या है?

पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि बंध हमारे भीतर एक तत्व है, हम बंधना चाहते हैं। और जब तक हम बंधना चाहते हैं तब तक दुनिया में कोई भी हमें मुक्त नहीं कर सकता।

मजे की बात यह है कि हम अगर बंधना चाहते हैं, तो जो हमें मुक्त करने आयेगा, हम उसी से बंध जायेंगे; महावीर से बंधे हुए लोग हैं। वह बंधत्तत्व काम कर रहा है। वे कह रहे हैं कि हम जैन हैं। आपके जैन होने का क्या मतलब है? महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गये, आप क्यों पीछा कर रहे हैं?

इधर मैं देखता हूं, जब मैं महावीर पर बोलता हूं तो दूसरी शक्लें दिखाई पड़ती हैं, जब मैं लाओत्से पर बोलता हूं, दूसरी शक्लें दिखाई पड़ती हैं। लाओत्से से आपका कोई बंधन नहीं है, बंधत्तत्व महावीर से लगता है। तब आप दिखाई नहीं पड़ते, आपका कोई रस नहीं है लाओत्से में। आप वहीं दिखाई पड़ते हैं, जहां आपका बंध है। जहां आपकी गर्दन बंधी है, वहां आप चले जाते हैं। गुलाम हैं।

महावीर आपको मुक्त करना चाहते हैं, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। महावीर क्या करेंगे, आप बंधना चाहते हैं। महावीर कहते हैं, अपने पैर पर खड़े हो जाओ। आप कहते हैं, “आप ही हमारी शरण हैं’। महावीर कहते हैं, कोई किसी का सहारा नहीं, कोई किसी का आसरा नहीं, आप कहते हैं कि “आपके बिना यह भव-सागर से कैसे पार हों?’ और वे कह रहे हैं कि हमारे ही कारण डूब रहे हो भव-सागर में।

दूसरे के कारण आदमी डूबता है, अपने कारण उबरता है। कोई गुरु उबार नहीं सकता। लेकिन आपने डूबना पक्का कर रखा है। आपकी पूरी चेष्टा यही है कि किसी तरह डूब जायें।

इस भीतर के तत्व को ठीक से समझ लेना जरूरी है। और जब तक बंध की वृत्ति काम कर रही है, तब तक मोक्ष से आपका कोई संपर्क नहीं हो सकता, मुक्ति की हवा भी आपको नहीं लग सकती। आप पहचानें इस मानसिक बात को कि आप जहां भी जाते हैं, वहां जल्दी से बंधने को आतुर हो जाते हैं। स्वतंत्र रहना कष्टपूर्ण मालूम पड़ता है, मुक्त रहना कष्टपूर्ण मालूम पड़ता है, क्यों?

क्योंकि अकेले रहना कष्टपूर्ण मालूम पड़ता है। अकेले में आप बैठ नहीं पाते–अखबार खोल लेते हैं, किताब खोल लेते हैं, रेडिओ खोल लेते हैं, टेलिविजन–कोई नहीं मिलता, तो होटल, क्लब, रोटरी, लायंस; सब इंतजाम हैं, वहां भागे जाते हैं, क्यों? थोड़ी देर अकेले होने में इतनी अड़चन क्या है? अपने साथ होने में इतना दुख क्या है? दूसरे का साथ क्यों इतना जरूरी है?

अकेले में डर लगता है, भय लगता है। अकेले में जीवन की सारी समस्या सामने खड़ी हो जाती है। अगर ज्यादा देर अकेले रहेंगे तो सवाल उठेगा, “मैं कौन हूं?’ भीड़ में रहते हैं तो पता रहता है कि कौन हैं क्योंकि भीड़ याद दिलाती रहती है–आपका नाम, आपका गांव, आपका घर, आपका पेशा–भीड़ याद दिलाती रहती है। अकेले में भीड़ याद नहीं दिलाती।

और भीड़ के दिये हुए जितने लेबल हैं, वे भीड़ के साथ ही छूट जाते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति बंधन से मुक्त होना चाहता है, उसे एकांत में रस लेना चाहिए, अकेले में रस लेना चाहिए, अपने में रस लेना चाहिए। धीरे-धीरे दूसरे की निर्भरता छोड़नी चाहिए। उस जगह आ जाना चाहिए, जहां अगर मैं अकेला हूं तो पर्याप्त हूं।

अगर कोई व्यक्ति अकेले में पर्याप्त है, तो बंधन का तत्व गिर गया। अगर कोई अकेले में पर्याप्त नहीं है, वह बंधेगा ही, वह खोजेगा ही कुछ न कुछ। उसे कोई न कोई डूबने के लिए सहारा चाहिए। तब एक सुविधा है कि जब दूसरा हमें डुबाता है, तो हम दोष दूसरे को दे सकते हैं, दूसरे में दोष दिखाई पड़ते हैं। लेकिन हम दूसरे की तलाश क्यों करते हैं? और जब आप एक गलत आदमी से मैत्री बना लेते हैं, या विवाह कर लेते हैं एक गलत स्त्री से, तो आप सोचते हैं –गलती हो गई, गलत स्त्री से विवाह कर लिया। आपको पता नहीं है कि आप गलत स्त्री से ही विवाह कर सकते हैं। ठीक स्त्री की आप तलाश ही न करेंगे।

मैंने सुना है कि एक आदमी एक बार ठीक स्त्री की तलाश करते-करते अविवाहित मरा। उसने पक्का ही कर लिया था कि जब तक पूर्ण स्त्री न मिले, तब तक मैं विवाह न करूंगा। फिर जब वह बूढ़ा हो गया, नब्बे साल का हो गया, तब किसी ने पूछा कि “आप जीवन भर तलाश कर रहे हैं पूर्ण स्त्री की, क्या पूर्ण स्त्री मिली ही नहीं इतनी बड़ी पृथ्वी पर?’ उसने कहा, “पहले तो बहुत मुश्किल था, मिली नहीं, फिर मिली भी।’

तो उस आदमी ने पूछा, “आपने विवाह क्यों नहीं कर लिया?’ तो उस आदमी ने कहा कि “वह भी पूर्ण पुरुष की तलाश कर रही थी। तब हमको पता चला कि यह असंभव है मामला।’

वह भी अविवाहित ही मरी होगी, उसका कुछ पता नहीं है।

हम जो हैं, उसी को हम खोजते हैं। वही हमें मिल भी सकता है। तो जो भी आपको मिल जाये, वह आपकी ही खोज है, और आपके ही चित्त का दर्शन है उसमें। अगर आपने गलत स्त्री खोज ली है, तो आप गलत स्त्री खोजने में बड़े कुशल हैं। और आप दूसरी स्त्री खोजेंगे तो ऐसी ही गलत स्त्री खोजेंगे। आप अन्यथा नहीं खोज सकते, क्योंकि आप ही खोजेंगे।

हम जो भी कर रहे हैं अपने चारों तरफ–दुख, चिंता, पीड़ा–वे सब हमारे ही उपाय हैं। और आप चकित होंगे जानकर कि अगर आपके दुख आपसे छीन लिये जायें, तो आप राजी नहीं होंगे। क्योंकि वे आपने खड़े किये हैं। उनका कुछ कारण है।

मेरे पास लोग आते हैं, वे ऐसी चिंताएं बताते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि आप कहते तो जरूर हैं, लेकिन आप चिंताएं बताते वक्त ऐसे

लगते हैं, जैसे कि बड़ा भारी काम कर रहे हैं, कि कोई बड़ी उपलब्धि कर ली है आपने!

आप चिंताओं में रस लेते हैं। लोग अपने दुख को कितने रस से सुनाते हैं। आप ऊबते हैं, वे नहीं ऊबते। उनकी दुख कथा आप सुनो, कितना रस लेते हैं। पश्चिम में तो पूरा धंधा खड़ा हो गया है साइको-एनालिसिस का। वह पूरा धंधा इस बात पर निर्भर है कि लोग अपना दुख सुनाने में रस लेते हैं। और अब कोई राजी नहीं है सुनने को, किसी के पास समय नहीं है। तो प्रोफेशनल सुननेवाला चाहिए। वह जो साइको-एनालिस्ट है, सुननेवाला है, वह प्रोफेशनल है। वह पैसा लेता है। उसको कोई मतलब नहीं है। वह बड़े गौर से सुनता है। लेकिन पता नहीं कि वह गौर और उसका ध्यान, सिर्फ दिखावा भी हो सकता है।

मैंने सुना है कि एक दिन फ्रायड को उसके एक युवक शिष्य ने पूछा कि “मैं तो थक जाता हूं, दो-चार-पांच मरीजों को सुनने के बाद, और आप शाम को भी ताजे दिखाई पड़ते हैं।’ फ्रायड ने कहा, “सुनता ही कौन है? सिर्फ चेहरे का ढंग होता है कि हां, सुन रहे हैं। मगर वह आदमी हल्का होकर ठीक भी हो जाता है।’

दुख की चर्चा करने में रस आता है, उससे लगता है कि आप महत्वपूर्ण हैं, कुछ आपकी जिंदगी में भी हो रहा है।

मैंने सुना है कि एक स्त्री एक डाक्टर के पास गई। और उसने कहा कि “कोई न कोई आपरेशन कर ही दें।’ डाक्टर ने कहा, “लेकिन तुझे कोई जरूरत ही नहीं है, तू बिलकुल स्वस्थ है।’ उसने कहा, “वह तो सब ठीक है, लेकिन जब भी स्त्रियां मिलती हैं–कोई कहती है उसका अपेन्डिक्स का आपरेशन हो गया है, किसी का टान्सिल का हो गया है, मेरा कुछ भी नहीं हुआ है। तो जिंदगी बेकार ही जा रही है–कुछ भी कर दें, चर्चा के लिए ही सही।’

आदमी अपनी बीमारी में, अपने दुख में, अपनी पीड़ा में, अपनी चिंता में रस ले रहा है। महावीर उस रस को ही बंध कहते हैं।

“पुण्य’,”पाप’–महावीर के हिसाब से पुण्य पाप की बड़ी अलग धारणा है। महावीर पुण्य, पाप को भी पौदगलिक कहते हैं, मैटीरियल कहते हैं। वे कहते हैं, जब आप पाप करते हैं तब आप की चेतना के पास खास तरह के परमाणु इकट्ठे हो जाते हैं, जब आप पुण्य करते हैं तब खास तरह के परमाणु इकट्ठे हो जाते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं, पुण्य करने से कोई मुक्त नहीं होगा, क्योंकि पुण्य भी परमाणुओं को इकट्ठा करता है। पुण्य करने से अच्छा शरीर मिल सकता है, पुण्य के परमाणु होंगे। और पाप करने से बुरा शरीर मिल सकता है, बुरे परमाणु होंगे।

महावीर कहते हैं, पाप है, जैसे लोहे की हथकड़ियां और पुण्य है, जैसे सोने की हथकड़ियां। लेकिन सोने की हथकड़ियों को हथकड़ियां नहीं कहते, उनको आभूषण कहते हैं। जब आपको किसी स्त्री को बांधना हो, तो लोहे की हथकड़ी भेंट मत करना–सोने की, उनको लोग आभूषण कहते हैं। सोना जिस तरह बांध लेता है, उतना लोहा कभी भी नहीं बांध सकता, क्योंकि लोहे में कोई रस पैदा होता नहीं मालूम होता। इसलिए महावीर कहते हैं, पुण्य भी बांधता है।

बुरे कर्म तो बांधते ही हैं, अच्छे कर्म भी बांध लेते हैं। और हर कर्म पौदगलिक है–यह बड़ी क्रांतिकारी धारणा है। महावीर कहते हैं जब तुम शुभ कर्म करते हो तो तुम्हारे पास शुभ परमाणु इकट्ठे होते हैं, वस्तुतः। तुम्हारी चेतना के आस-पास अच्छे तत्व इकट्ठे हो जाते हैं। इसलिए तुम्हें अच्छा लगता है। जैसे चारों तरफ फूल खिले हों और किसी को अच्छा लगे, ऐसा ही पुण्य करते वक्त अच्छा लगता है। पाप करते वक्त बुरा लगता है, जैसे कोई दुगध के बीच बैठा हो।

तो जब आप चोरी करते हैं तो मन को बुरा लगता है, झूठ बोलते हैं तो मन को बुरा लगता है, क्रोध करते हैं तो मन को बुरा लगता है; उस बुरे लगने का कारण है कि आप गलत, विकृत, दुगधयुक्त परमाणुओं को अपने पास बुला रहे हैं, निमंत्रण दे रहे हैं। और जब आप किसी पर दया करते हैं, किसी पर करुणा प्रगट करते हैं, किसी गिरे को उठने का सहारा दे देते हैं–कोई छोटा-सा कृत्य भी–कि एक बूढ़े आदमी को देखकर मुस्कुरा देते हैं, जिसको देखकर अब कोई नहीं मुस्कुराता, तो आपके भीतर एक हल्कापन छा जाता है; आप उड़ने लगते हैं, पंख निकल आते हैं।

यह जो आपको उड़ने का हल्कापन मालूम होता है, यह जो ग्रेव्हिटेशन कम हो जाता है, कशिश कम हो जाती है जमीन की, यह जो प्रसादयुक्त अवस्था है, इसको महावीर “पुण्य’ कहते हैं।

महावीर के हिसाब से जो करके भी आपको हल्कापन मालूम होता हो, प्रसन्नता मालूम होती हो, खिलते हों आप, फूल की तरह बनते हों, वह पुण्य है। और जिससे भी आप भारी होते हों, पथरीले होते हों, डूबते हों नीचे, और जिससे बोझिलता बढ़ती हो–वह पाप है। जो नीचे लाता हो, डुबाता हो, वजन देता हो, वह पाप है; और जो ऊपर ले जाता हो, हल्का करता हो, आकाश में खोलता हो, वह पुण्य है।

इसका अर्थ अगर खयाल में आ जाये तो आप बहुत हैरान होंगे। अगर आपका धर्म भी आपको भारी करता है, सीरियस करता है, तो पाप है। अगर आपका धर्म आपको उत्सव देता है, आनंद देता है, नृत्य देता है, तो ही पुण्य है। पुण्य का लक्षण है कि आप हल्के हो जायेंगे, बच्चे की तरह नाचने लगेंगे; पाप का अर्थ है, आप भारी हो जायेंगे, बैठ जायेंगे पत्थर की तरह।

अपने साधु संन्यासियों को जाकर गौर से देखें, क्या उनके जीवन में उत्सव है? और जिनके जीवन में उत्सव ही नहीं है, उनके जीवन में मोक्ष तो बहुत दूर है। अभी पुण्य भी जीवन में नहीं है। क्या आपका साधु हंस सकता है? बच्चे की तरह किलकारी ले सकता है? नाच सकता है? प्रफुल्लित हो सकता है?

नहीं, वह भारी है। और न केवल खुद भारी है, अगर आप हंसते हुए उसके पास पहुंच जायें, तो अपमान अनुभव करेगा। वह आपको भी भारी करता है। तो जब आप मंदिर में पहुंचते हैं, तो आप जूते ही बाहर नहीं उतारते, सब हल्कापन भी बाहर रख देते हैं। एकदम गंभीर होकर, रीढ़ को सीधी करके, आंखें भारी करके, नीची करके आप अंदर प्रवेश करते हैं।

मंदिर में जिंदा आदमी के लिये कोई जगह नहीं मालूम होती–मरे-मराये लोग, इसलिए अगर मंदिर में बच्चे आ जायें, तो सबको लगता है कि डिस्टबन्स कर रहे हैं। सच्चाई उलटी है। बच्चे मंदिर में पुण्य ला रहे हैं। और अगर आप भी बच्चों की तरह कूद सकें, और नाच सकें, और गीत गा सकें, तो ही, तो ही मंदिर पुण्य के तत्व देगा।

मैं निरंतर कहता हूं कि कभी एक बगीचे में भी पुण्य के तत्व हो सकते हैं, कभी एक नदी के किनारे भी, कभी एक पहाड़ के एकांत में भी। जरूरी नहीं है कि मंदिर में ही हों। क्योंकि मंदिर पर गंभीर लोगों ने बड़े पुराने दिनों से कब्जा कर रखा है। गंभीर लोग एक लिहाज से खतरनाक हैं, क्योंकि जहां भी गंभीर लोग हों, वे हल्के-फुल्के लोगों को निकालकर बाहर कर देते हैं।

इकानामिक्स का एक नियम है कि जब भी बुरे सिक्के हों तब अच्छे सिक्के चलन के बाहर हो जाते हैं। रद्दी नोट अगर आपके खीसे में पड़ा हो, तो पहले आप रद्दी को चलायेंगे कि असली को? रद्दी पहले चलेगा, असली को आप छिपाकर रखेंगे। रद्दी हमेशा असली को चलन के बाहर कर देता है।

गंभीर लोग प्रफुल्लता को सदा बाहर कर देते हैं। और उन्होंने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि प्रफुल्लता पाप मालूम होने लगी है। अगर आप हंसते हैं, तो आप पापी हैं। आपको एक रोती हुई लम्बी शक्ल चाहिये, तब आप पुण्यात्मा मालूम होंगे।

महावीर कहते हैं, पुण्य का तत्व प्रफुल्ल करनेवाला तत्व है। और यह निश्चित सही है। और इससे ज्यादा सही कोई और बात नहीं हो सकती। अगर आपने जीवन में कभी भी कोई हल्कापन अनुभव किया है, तो आप समझ लेना कि वहां पुण्य का तत्व आपने आकर्षित किया था। अगर आपको भारीपन अनुभव होता है, बोझिलता अनुभव होती है, तो उसका मतलब है कि शरीर वजनी हो रहा है, आत्मा ताकत खो रही है, शरीर ज्यादा भारी होकर छा रहा है।

प्रफुल्लता की तलाश, पुण्य की तलाश है। और ध्यान रहे, जो खुद प्रफुल्लित रहना चाहता है, वह दूसरे को प्रफुल्लित करेगा; क्योंकि प्रफुल्लता संक्रामक है। अगर यहां इतने लोग रो रहे हों, तो आप प्रफुल्लित नहीं हो सकते अकेले। आप दब जायेंगे। तो जो आदमी आनंदित होना चाहता है, वह दूसरे को दुख नहीं देना चाहेगा; क्योंकि आनंदित होने की बुनियादी शर्त ही यह है कि आनंद चारों तरफ हो, तो ही आप आनंदित हो पायेंगे। और जो आदमी दुखी होना चाहता है, वह अपने चारों तरफ दुखी चेहरे पैदा करेगा; क्योंकि दुख के बीच ही दुखी हुआ जा सकता है।

जब धर्म जन्म लेता है, तो नाचता हुआ होता है, और जब धर्म संप्रदाय बनता है तो मुर्दा हो जाता है, लाश हो जाता है–गंभीर । और उसके आसपास बैठे हुए लोग वैसे ही हो जाते हैं, जब घर में कोई मर जाता है तो पड़ोस के लोग आकर आस-पास बैठ जाते हैं। मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में बैठे हैं लोग–जैसे लाश के आसपास।

महावीर के पास जो प्रफुल्लता रही होगी, वह महावीर की मूर्ति के पास नहीं बची। जरा महावीर का चेहरा देखें, जाकर अपने ही मंदिर की मूर्ति में जरा गौर से देखें। यह चेहरा बिलकुल हलका है, इस चेहरे पर लेशमात्र भी बोझ नहीं है; यह छोटे बच्चे की भांति निदाष है; इस पर कोई भार नहीं, कोई चिंता नहीं। महावीर इसीलिए नग्न भी खड़े हो गये। छोटा बच्चा ही नग्न खड़ा हो सकता है।

नहीं कि आप नग्न खड़े हो जायें तो छोटे बच्चे हो जायेंगे। कुछ पागल भी नग्न खड़े हो जाते हैं। लेकिन अगर आप नग्न खड़े हैं और आपको पता है कि आप नग्न खड़े हैं तो आप छोटे बच्चे नहीं हैं।

महावीर इतने हल्के हो गये, कि नग्न खड़े हो गये। उन्हें पता भी नहीं चला होगा कि वे नग्न हैं। और उनकी नग्नता का दूसरों को भी पता नहीं चलता कि वे नग्न हैं। एक निदाष, एक इनोसेंस, एक कुवांरापन भीतर आ गया, जहां सब बोझ गिर गये।

महावीर कहते हैं–पुण्य हल्का करनेवाला तत्व है, पाप बोझिल करनेवाला तत्व है। लेकिन ध्यान रहे, पुण्य से ही कोई मुक्त नहीं हो जायेगा। पुण्य पाप से मुक्त करेगा। और आखिरी घड़ी आती है, जब आदमी को पुण्य से भी मुक्त हो जाना पड़ता है, क्योंकि वह कितना ही हल्का करता हो, फिर भी थोड़ा तो भारी होगा ही। तत्व है तो उसका थोड़ा तो बोझ होगा ही। आपने कितना ही पतला कपड़ा पहन रखा हो, मलमल पहन रखी हो ढाका की, तो भी थोड़ा सा बोझ देगी। उतना बोझ भी मोक्ष के लिए बाधा है।

तो महावीर कहते हैं, पहला पड़ाव है पाप से मुक्ति, पाप के तत्वों से छुटकारा; और दूसरा पड़ाव है पुण्य से मुक्ति, और तीसरा पड़ाव नहीं है, मंजिल है आखिरी, क्योंकि वहां फिर कुछ भी नहीं बचता जिससे छूटना है।

“आस्रव’ का अर्थ है बुलाना, निमंत्रण, आने देना। आप खुले होते हैं कुछ चीजों के लिए। एक सूबसूरत स्त्री पास से निकलती है, आपके भीतर एक दरवाजा खुल जाता है। साथ में पत्नी हो तो बात अलग है। तो आप दरवाजे को पकड़े रखते हैं, खुलने नहीं देते। पत्नी न हो तो दरवाजा एकदम खुल जाता है।

“आस्रव’ का अर्थ है, आपकी वृत्ति खुलने की, पाप की तरफ। जहां-जहां गलत है, आप एकदम से खुल जाते हैं। शराब की दुकान हो, भीतर कोई कहने लगता है, चलो।

“आस्रव’ का अर्थ है, खुलने की वृत्ति पाप की तरफ। वह हमारे भीतर है। हम सब आस्रव में जी रहे हैं। यह हो सकता है कि सबके आस्रव की अपनी-अपनी शर्तें हों।

मैंने सुना है, एक साधु अपनी आजीविका के लिए एक छोटी सी नाव चलाता था, इस किनारे से उस किनारे तक नदी के। एक दिन एक स्मगलर ने उससे कहा कि “यह सोने का इतना पाट है, इसको ले चलो, मैं सौ रुपये दूंगा।’ उसने कहा कि “भूलकर ऐसी बात मत करना।

वह आपको अछूता नहीं छोड़ेगा। वह आपके भीतर जा रहा है, तो आस्रव हो रहा है। कुछ भी कचरा भीतर जा रहा है। “पनामा सरस सिगरेट छे’–उसको भी पढ़े जा रहे हैं। उसको भीतर लिए जा रहे हैं। वह भरता जा रहा है। वह काम करेगा, क्योंकि आस्रव हो रहा है। और जब आप पढ़ रहे हैं, तो आपकी ऊर्जा बाहर जा रही है, आपकी चेतना बाहर जा रही है, आपकी शक्ति बाहर जा रही है।

छोटे से कृत्य में भी शक्ति का अपव्यय हो रहा है। इसलिए महावीर कहते हैं कि जमीन पर चार कदम देखकर साधु चले। ज्यादा देखने की जरूरत नहीं है, चार कदम काफी है। जब चार कदम चल लेंगे, तो आंखें चार कदम और देख लेगीं। पर जमीन पर देख कर चलें, कई कारणों से : जमीन पर जब आप देखकर चलते हैं, आप हैरान होंगे आपकी आंखें थकेंगी नहीं। और कहीं भी आप देखकर चलेंगे तो आंखें थकेंगी, क्योंकि जमीन हमारी जीवन-दात्री है, वहां से हम पैदा हुए हैं। शरीर भी एक वृक्ष है, जो जमीन से पैदा हुआ है। मिट्टी इसके कण-कण में है।

जब आप जमीन पर देखकर चलते हैं, तो जो ऊर्जा जमीन पर जा रही है, वह वापस लौट आती है, द्विगुणित होकर वापिस लौट आती है। जब आप घास पर देखकर चलते हैं; तो ऊर्जा वापिस लौट आती है। आदमी के कृत्यों को देखकर मत चलें, और आदमी को मत देखें। आदमी से थोड़ा बचें। आदमी खतरनाक है। उसकी छोटी-छोटी बात भी आपको बाहर ले जा रही है।

लेकिन हम ऊर्जा नष्ट करने में लगे हैं। हमें संवरित करने का खयाल ही नहीं है। संवर का सुख हमें पता नहीं है। महावीर कहते हैं कि संवर का एक सुख है। शुद्ध ऊर्जा जब भीतर होती है, आप कुछ उसका उपयोग नहीं करते, सिर्फ ऊर्जा होती है, ऊर्जा उबलती है, ऊर्जा नाचती है, कोई उपयोग नहीं करते, सिर्फ शक्ति का शुद्ध आनंद–संवर है। और जो व्यक्ति आस्रव से बचे और संवर करे अपनी ऊर्जा का–वह शक्तिशाली होता चला जायेगा। उसके पास वीर्य होगा; उसके पास पुरुषार्थ होगा; उसके पास साहस होगा। अगर वह आदमी आपकी आंख में आंख डाल देगा, तो आपके भीतर कुछ हिल जायेगा। लेकिन आपकी आंख तो खर्च हो चुकी है। वह वैसे ही है, जैसे चला हुआ कारतूस होता है। उससे आप किसी को देखें भी, तो कहीं उसके भीतर कुछ नहीं होता।

आप एक प्रयोग करें। एक सात दिन तक सिर्फ जमीन पर देखकर चलें और सात दिन बाद जरा किसी की तरफ देखें। अनूठा अनुभव होगा। अगर सात दिन आप जमीन पर देखकर चलते रहे हैं और फिर कोई आदमी जा रहा हो आपके सामने, तो सिर्फ उसके सिर के पीछे दोनों आंखें गड़ाकर कहें कि “पीछे लौटकर देख’ , तो वह आदमी उसी वक्त लौटकर देखेगा। अब आपके पास शक्ति है। करने की जरूरत नहीं है, एकाध ऐसा प्रयोग करके देख लेना। करने की जरूरत नहीं है क्योंकि उसमें भी शक्ति-ऊर्जा नष्ट हो रही है।

अगर महावीर जैसे व्यक्तियों के पास लोग जाकर सम्मोहित हो जाते हैं, तो ऐसा नहीं है कि महावीर सम्मोहित कर रहे हैं। महावीर का क्या प्रयोजन हो सकता है? लेकिन महावीर इतनी ऊर्जा से भरे हैं कि स्वभावतः उस विराट ऊर्जा की तरफ आप चुम्बक की तरह खिंचे आते हैं। आपको भला लगेगा कि आप सम्मोहित हो गये, हिप्नोटाइज हो गये, महावीर ने कुछ खींच लिया, महावीर खींच नहीं रहे हैं। लेकिन संवरित ऊर्जा आकर्षित करती है, मैगनेटिक हो जाती है।

“निर्जरा’ और “मोक्ष’।

निर्जरा महावीर का विशेष शब्द है और बड़ा बहुमूल्य शब्द है। निर्जरा का अर्थ है, वे जो हमने जन्मों-जन्मों में कर्म इकट्ठे किए हैं, वे जो हमने जन्मों-जन्मों में बंध किये हैं, पाप किये हैं, पुण्य किए हैं, वे हमारे चारों तरफ इकट्ठे हैं, जैसे धूल–कोई यात्री चले रास्ते पर और धूल इकट्ठी हो जाए वस्त्रों पर। वस्त्रों से धूल को झाड़ दें, उस धूल के झड़ जाने का नाम निर्जरा है।

निर्जरा का अर्थ है, वह जो हमने जन्मों-जन्मों में इकट्ठा किया है, वह सब झड़ जाये, हम फिर से खाली हो जायें, शून्य हो जायें। निर्जरा का अर्थ है, हमने जो संग्रह किया है, वह सब झड़ जाए। बड़े सूम संग्रह हैं हमारे : हमारा ज्ञान , हमारी स्मृति, हमारे कर्म, हमारे जन्मों-जन्मों के संस्कार, वे सब इकट्ठे हैं। निर्जरा में वे गिरने शुरू हो जाते हैं। निर्जरा की प्रक्रिया ही महावीर का योग है, कि वे कैसे गिरें?

आस्रव बदलें। गलत के द्वार को खुला न रखें, शक्ति को व्यर्थ मत जाने दें; जब जरूरी हो तभी जाने दें; संवर करें। और भी बहुत इकट्ठा है, पुराना इकट्ठा है। नया इकट्ठा होना बंद हो जायेगा, अगर आस्रव और संवर का ध्यान रहे। लेकिन जो पुराना रखा है, उसके प्रति साक्षी का भाव रखें; उसे सिर्फ देखें, उसे शक्ति मत दें।

एक आदमी आपको गाली देता है। जैसे ही वह गाली देता है, आपको भी गाली देने की इच्छा होती है। इस इच्छा को देखें; यह इच्छा पुरानी आदत है। यह पुराना संस्कार है। जब जब आपको गाली दी गई है, आपने भी गाली दी है। यह सिर्फ उसकी लकीर है। इसे देखें, इसे काम मत करने दें। क्योंकि अगर आप गाली दे रहे हैं, तो आप ऊर्जा भी बाहर भेज रहे हैं। फिर नया संस्कार बन रहा है, फिर नया कर्म बन रहा है।

महावीर एक जंगल में खड़े हैं। एक ग्वाला आया और उसने कहा कि “मैं जरा जल्दी में हूं, मेरी गायें यह बैठी हैं यहां, तुम जरा ध्यान रखना।’ उस ग्वाले को यह पता नहीं है कि वे मौन में हैं। और उन्होंने सुना भी नहीं, उन्होंने “हां-हूं’ कुछ भी नहीं कहा। ग्वाला जल्दी में था, जल्दी चला गया। सांझ को लौटकर जब वह आया, तो महावीर वहीं मौन खड़े थे। उन्होंने “हां-ना’ कुछ भी नहीं कहा। उन्होंने “हां-ना’ कहना तो बंद कर दिया था। उन्होंने तो बाहर के सब संबंध शिथिल कर दिये थे, सब सेतु तोड़ डाले थे। गायें अपने-आप उठकर जंगल की तरफ चली गई थीं। वह ग्वाला आया और उसने देखा कि गायें वहां नहीं हैं। उसने पूछा, “कहां हैं मेरी गायें?’ महावीर को चुपचाप खड़ा देखकर उसने समझा कि आदमी चालबाज है। बताता क्यों नहीं है कि मेरी गायें कहां हैं? जब महावीर चुपचाप ही खड़े रहे, तो उसने सोचा कि “हो सकता है, यह आदमी पागल हो! किस तरह का आदमी है? न आंख खोलता है, न बोलता है! मैंने गलत आदमी से कह दिया।’ तो वह गया जंगल में अपनी गायों को खोजने। वह जब गायों को जंगल में खोज रहा था, तब गायें जंगल से चरकर सांझ हो जाने के कारण वापस लौट आई थीं। जब वह आदमी लौटकर आया, तो उसने देखा कि गायें महावीर के पास इकट्ठी हैं। उसने सोचा कि “यह आदमी तो गायों को लेकर भागने का इरादा रखता है। इसने पहले गायें छिपा दी थीं और अब गायें निकाल ली हैं। अब अंधेरा हुआ, अब यह गायें लेकर भाग जाता।’ तो उसने उनकी अच्छी पिटाई की, और उनको बोलते-सुनते न देखकर उसने कहा, “क्या तुम बहरे हो?’ और उसे इतना गुस्सा आया कि उसने दो लकड़ियां उठाकर उनके कान में ठोक दीं। महावीर सब देखते रहे। वह आदमी चला गया।

बड़ी प्यारी कथा है कि इंद्र को पीड़ा हुई। शुभ को पीड़ा होगी ही, इतना ही मतलब है। दिव्य जो है, उसको पीड़ा होगी ही, किसी को अकारण सताये जाने पर। तो कथा है कि इंद्र आया, और उसने महावीर के अंतस्तल में, क्योंकि ऊपर से तो वे चुप थे, कहा कि “दुख होता है, अकारण आपको सताया गया।’ महावीर ने भीतर कहा कि “अकारण कुछ भी नहीं होता है, मैंने कभी न कभी कुछ किया होगा, यह उसका फल है। अच्छा हुआ, निर्जरा हो गई; एक संबंध छूटा, एक झंझट मिटी। उस आदमी को जो करना था, वह कर गया।’ इंद्र ने कहा कि “हमें कुछ कहें, हम कुछ इंतजाम करें, कोई प्रतिबंध करें।’ तो महावीर ने कहा, “तुम कुछ मत करो । क्योंकि मैं तुमसे कुछ भी करने को कहूं , तो वह कहना एक नया बंध हो जाएगा–एक नया कर्म। फिर मुझे उससे भी निबटना पड़ेगा। तुम मुझे छोड़ो। पुराना लेन-देन चुक जाये, इतना काफी है। मुझे कोई नया लेन-देन शुरू नहीं करना है; मैं व्यापार सिकोड़ रहा हूं, समेट रहा हूं।

निर्जरा का अर्थ है : वह जो पुराना लेन-देन है, वह चुक जाये। जब कोई गाली दे, तो उसे देख लेना। ताकि जो पुराना लेन-देन है, वह चुक जाये। धीरे-धीरे एक क्षण आता है, जब सब संस्कार झर जाते हैं। ऐसी निर्जरा की अवस्था के पूरे होने पर जो बच रहता है वह मोक्ष है, वह मुक्त अवस्था है–जहां चेतना पर कोई भी बंधन नहीं, कोई भी बोझ नहीं, कोई कन्डीशनिंग नहीं, कोई संस्कार नहीं।”ये नौ सत्य तत्व हैं। ऐसे सत्य तत्वों के संबंध में सदगुरु के उपदेश से या स्वयं अपने ही भाव से श्रद्धान करना (श्रद्धा करना) सम्यकत्व कहा गया है।’

सम्यकत्व का अर्थ है : सम्यसंतुलित हो जाना–टोटली बैलेंस्ड। यह घटना दो तरह से घट सकती है : सद्गुरु के उपदेश से, या अपने ही प्रयास से।

सदगुरु के उपदेश का क्या अर्थ है? सदगुरु का मतलब है कि जिसने स्वयं जाना हो। पंडित के उपदेश से यह घटना नहीं घट सकती। जिसने स्वयं जाना हो, उसके उपदेश से घट सकती है। लेकिन सदगुरु के उपदेश से भी नहीं घटेगी, अगर आप उपदेश लें ही न, अगर कुछ आप में प्रवेश ही न करे। तो वर्षा के पानी की तरह आपके शरीर पर गिरकर उपदेश विदा हो जायेगा, धूल में खो जायेगा।

वर्षा का पानी गिरता है। अगर आप उसे आकाश से सीधे ही ले लें अपने मुंह में, तो वह शुद्ध होता है। और अगर जमीन पर गिर जाए, तो अशुद्ध हो जाता है। पंडितों से सुनना, जमीन पर गिरे हुए पानी को इकट्ठा करना है; और महावीर जैसे व्यक्ति से सुनना, सीधे आकाश से गिरी शुद्ध बूंद को मुंह में ले लेना है।

सदगुरु का अर्थ है : जिसने स्वयं जाना है, जो दूसरों के जाने हुए को नहीं कह रहा है, जिसकी अपनी प्रतीति, अपना दर्शन है; जिसका अपना साक्षात्कार है–उसके उपदेश से यह घटना घटती है। लेकिन उसके उपदेश को लेने की तैयारी हो, मन खुला हो, हृदय के द्वार उन्मुक्त हों, तो ही श्रद्धा घटित होती है। सुनकर ही घटित हो जाती है, अगर सुननेवाला तैयार हो। इसलिए महावीर ने सुननेवालों को अलग ही नाम दिया। उन्होंने सुननेवालों को “श्रावक’ कहा है।

सभी सुननेवाले श्रावक नहीं होते हैं। यहां इतने लोग सुन रहे हैं, सभी श्रावक नहीं हैं। जो श्रावक है, वह सुनकर ही श्रद्धा को उपलब्ध हो जाएगा। श्रावक का अर्थ है : जो इतना हार्दिक रूप से सुन रहा है, इतनी सहानुभूति से सुन रहा है, इतने प्रेम से सुन रहा है कि भीतर कोई भी विरोध, कोई रेजिस्टेन्स नहीं है, कोई बचाव नहीं है। वह सब तरह से बह जाने को राजी है। गुरु जहां ले जाये उस धारा में बह जाने को राजी है। गुरु चाहे मौत में ही क्यों न ले जाये, तो भी वह जाने को राजी है। ऐसे सरल भाव से सुनी गई बात से श्रद्धा का जन्म होता है। और या फिर अपने ही प्रयास से।

सौ में से एक व्यक्ति अपने प्रयास से भी कर सकता है। लेकिन उसका अपना प्रयास भी इसलिए सफल होता है कि पिछले जन्मों में सदगुरु के पास कुछ जाना है; उसे कुछ झलक मिल गई है, कोई संपर्क मिल चुका है।

जैसे जन्म अपने ही द्वारा नहीं मिलता, मां-बाप से मिलता है; वैसे ही श्रद्धा भी वस्तुतः अपने ही द्वारा नहीं मिलती, वह भी सदगुरु से ही मिलती है। कोई आदमी जैसे अपने को ही जन्म देने की कोशिश करे कि मैं अपना ही मां-बाप भी बन जाऊं, तो बहुत मुसीबत होगी, बहुत झंझट होगी। शायद यह हो भी नहीं सकता है। वैसे ही ज्ञान का जन्म भी, जहां ज्ञान घटा हो, उस आदमी के निकट आसानी से हो जाता है।

यह इसलिए नहीं कि गुरु आपको ज्ञान दे देता है। ज्ञान कुछ दी जानेवाली चीज नहीं है। पर गुरु कैटलिटिक एजेंट है, गुरु उत्परेरक तत्व है। उसकी मौजूदगी में घटना घट जाती है। घटना तो आपके भीतर ही घटती है, घटना आपसे ही घटती है, पर उसकी मौजूदगी आपको हिम्मत और साहस दे देती है। उसकी मौजूदगी में आप निदाष हो पाते हैं। उसकी मौजूदगी में उसका संगीत आपको शांत कर पाता है। उसकी उपस्थिति आपको उठा लेती है उन ऊंचाइयों पर, जिन पर आप अपने ही बल नहीं उठ सकते। उन ऊंचाइयों पर सत्य का दर्शन हो जाता है। उस सत्य के दर्शन की स्थिति को “सम्यकत्व’ कहा है।

ऐसा व्यक्ति संतुलित हो जाता है, सम्यक हो जाता है। और जो व्यक्ति सम्यकत्व को उपलब्ध हो गया, उसके जीवन की सबसे बड़ी

कठिनाई हट गई; दिशा बदल गई, यात्रा का रुख बदल गया। संसार की तरफ उसने पीठ कर ली, और मोक्ष की तरफ उसका मुंह हो गया।

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रचनाएँ
महावीर वाणी - ओशो
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इन प्रवचनों में महावीर वाणी की व्याख्या करते हुए ओशो ने साधना जगत से जुड़े गूढ़ सूत्रों को समसामयिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इन सूत्रों में सम्मिलित हैं--समय और मृत्यु का अंतरबोध, अलिप्तता और अनासक्ति का भावबोध, मुमुक्षा के चार बीज, छह लेश्याएं: चेतना में उठी लहरें इत्यादि।
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महावीर—वाणी (प्रवचन-01)

20 अप्रैल 2022
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जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्‍यक्‍तियों में महावीर है। बड़ी है चढ़ाई। जमीन पर खड़े होकर भी गौरीशंकर के हिमाच्‍छादित शिखर को देखा जा सकता है। लेकिन जिन्‍हें चढ़ाई करनी ह

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महावीर वाणी-(प्रवचन-02)

20 अप्रैल 2022
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अरिहंत मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं। साधु मंगल हैं। केवलीप्ररूपित अर्थात आत्मज्ञकथित धर्म मंगल है। अरिहंत लोकोत्तम हैं। सिद्ध लोकोत्तम हैं। साधु लोकोत्तम हैं। केवलीप्ररूपित अर्थात आत्मशकथित धर्म लोकोत्तम

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महावीर वाणी-(प्रवचन-03)

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शरणागति—स्प अरिहते सरण पवज्जामि। सिद्धे सरण पवज्जामि। सादू सरण पवज्जामि। केवलिपन्नत्त धम्म सरण पवज्जामि।  अरिहंत की शरण स्वीकार करता हूं। सिद्धों की शरण स्वीकार करता हूं। साधुओं की शरण स्वीका

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महावीर वाणी-(प्रवचन-04)

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धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन-सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है — तो अमंगल क्या है, द

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महावीर वाणी-(प्रवचन-05)

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धर्म मंगल है। कौन-सा धर्म? अहिंसा, संयम और तप। अहिंसा धर्म की आत्मा है। कल अहिंसा पर थोड़ी बातें मैंने आपसे कहीं, थोड़े और आयामों से अहिंसा को समझ लेना जरूरी है। हिंसा पैदा ही क्यों होती है? हिंसा जन

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महावीर वाणी-(प्रवचन-06)

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एक मित्र ने पूछा है कि महावीर रास्ते से गुजरते हों और किसी प्राणी की हत्या हो रही हो तो महावीर क्या करेंगे? किसी स्त्री के साथ बलात्कार की घटना घट रही हो तो महावीर क्या करेंगे? क्या वे अनुपस्थित हैं,

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महावीर वाणी-(प्रवचन-07)

20 अप्रैल 2022
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सूर्यास्त के समय, जैसे कोई फूल अपनी पंखुड़ियों को बन्द कर ले— संयम ऐसा नहीं है। वरन सूर्योदय के समय जैसे कोई कली अपनी पंखुड़ियों को खोल ले—संयम ऐसा है। संयम मृत्यु के भय में सिकुड़ गए चित्त की रुग्ण दशा

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महावीर वाणी-(प्रवचन-08)

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अहिंसा है आत्मा, संयम है प्राण, तप है शरीर। स्वभावतः अहिंसा के संबंध में भूलें हुई हैं, गलत व्याख्याएं हुई हैं। लेकिन वे भूलें और व्याख्याएं अपरिचय की भूलें हैं। संयम के संबंध में भी भूलें हुई हैं, गल

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महावीर वाणी-(प्रवचन-09)

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तप के संबंध में, मनुष्य की प्राण ऊर्जा को रूपान्तरण करने की प्रक्रिया के संबंध में और थोड़े-से वैज्ञानिक तथ्य समझ लेने आवश्यक हैं। धर्म भी विज्ञान है, या कहें परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है। क्योंकि

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महावीर वाणी-(प्रवचन-10)

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होगी। और हम अपने बाहर खड़े हैं। हम वहां खड़े हैं जहां हमें नहीं होना चाहिए; हम वहां नहीं खड़े हैं जहां हमें होना चाहिए। हम अपने को ही छोड़कर, अपने से ही च्युत होकर, अपने से ही दूर खड़े हैं। हम दूसरों से अज

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महावीर वाणी-(प्रवचन-11)

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अनशन के बाद महावीर ने दूसरा बाहयत्तप ऊणोदरी कहा है। ऊणोदरी का अर्थ है : अपूर्ण भोजन, अपूर्ण आहार। आश्चर्य होगा कि अनशन के बाद ऊणोदरी के लिए क्यों महावीर ने कहा है! अनशन का अर्थ तो है निराहार। अगर ऊणोद

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महावीर वाणी-(प्रवचन-12)

20 अप्रैल 2022
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बाह्य-तप का चौथा चरण है — रस-परित्याग। परंपरा रस-परित्याग से अर्थ लेती रही है। किन्हीं रसों का, किन्हीं स्वादों का निषेध, नियंत्रण। इतनी स्थूल बात रस-परित्याग नहीं है। वस्तुतः सधना के जगत में स्थूल स

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महावीर वाणी-(प्रवचन-13)

20 अप्रैल 2022
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बाह्य तप का अन्तिम सूत्र, अन्तिम अंग है—संलीनता। संलीनता सेतु है, बाहयत्तप और अंतरत्तप के बीच। संलीनता के बिना कोई बाहयत्तप से अंतरत्तप की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। इस लिए संलीनता को बहुत ध्यानपूर

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महावीर वाणी-(प्रवचन-14)

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तप के छह बाहय अंगों की हमने चर्चा की है, आज से अंतरत्तपों के संबंध में बात करेंगे। महावीर ने पहला अंतरत्तप कहा है — प्रायश्चित। पहले तो हम समझ लें कि प्रायश्चित क्या नहीं हैं तो आ सान होगा समझना कि प्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-15)

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अंतरत्तप की दूसरी सीढ़ी है विनय। प्रायश्चित के बाद ही विनय के पैदा होने की सम्भावना है। क्योंकि जब तक मन देखता रहता है दूसरे के दोष, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य सोचता है कि मुझे छोड़कर शे

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महावीर वाणी-(प्रवचन-16)

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तीसरा अंतरत्तप महावीर ने कहा है, वैयावृत्य। वैयावृत्य का अर्थ होता है–सेवा। लेकिन महावीर सेवा से बहुत दूसरे अर्थ लेते हैं। सेवा का एक अर्थ है मसीही, क्रिश्चियन अर्थ है। और शायद पृथ्वी पर ईसाइयत ने,

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महावीर वाणी-(प्रवचन-17)

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ग्‍यारहवां तप या पांचवां अंतर—कर—तप है ध्यान। जो दस तपो से गुजरते है उन्हें तो ध्यान को समझना कठिन नहीं होता। लेकिन जो केवल दस तपो को समझ से समझते हैं, उन्हें ध्यान को समझना बहुत कठिन होता है। फिर भी

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महावीर वाणी-(प्रवचन-18)

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महावीर के साधना सूत्रों में आज बारहवें और अंतिम तप पर बात करेंगे। अंतिम तप को महावीर ने कहा है—कायोत्सर्ग— शरीर का छूट जाना। मृत्यु में तो सभी का शरीर छूट जाता है। शरीर तो छूट जाता है मृत्यु में, लेकि

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महावीर वाणी-(प्रवचन-19)

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अरस्‍तु ने कहा है कि—यदि मृत्यु न हो, तो जगत में कोई धर्म भी न हो। ठीक ही है उसकी बात, क्योंकि अगर मृत्यु न हो, तो जगत में कोई जीवन भी नहीं हो सकता मृत्यु केवल मनुष्य के लिए है। इसे थोड़ा समझ लें।

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महावीर वाणी-(प्रवचन-20)

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मृत्यु के संबंध में थोड़ी—सी बातें और। पहली बात—मृत्यु अत्यंत निजी अनुभव है। दूसरे को हम मरता हुआ देखते हैं, लेकिन मृत्यु को नहीं देखते! दूसरे को मरता हुआ देखना, मृत्यु का परिचय नहीं है। मृत्यु आंतर

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महावीर वाणी-(प्रवचन-21)

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सदा अप्रमादी व सावधान रहते हुए असत्य को त्याग कर हितकारी सत्य—वचन ही बोलना चाहिए। इस प्रकार का सत्य बोलना सदा बड़ा कठिन होता है। श्रेष्ठ साधु पापमय, निश्रयात्मक और दूसरों को दुख देने वाली वाणी न बोल

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महावीर वाणी-(प्रवचन-22)

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जो मनुष्य काम और भोगों के रस को जानता है, उनका अनुभवी है, उसके लिए अब्रह्मचर्य त्यागकर, ब्रह्मचर्य के महाव्रत को धारण करना अत्यन्त दुष्कर है। निर्ग्रन्थ मुनि अब्रह्मचर्य अर्थात मैथुन—संसर्ग का त्या

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महावीर वाणी-(प्रवचन-23)

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एक मित्र ने पूछा है, यदि कामवासना जैविक, बायोलाजिकल है, केवल जैविक है, तब तो तत्र की पद्धति ही ठीक होगी। लेकिन यदि मात्र आदतन, हैबिचुअल है, तब महावीर की विधि से श्रेष्ठ और कुछ नहीं हो सकता। क्या है—जै

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महावीर वाणी-(प्रवचन-24)

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प्राणिमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ( भगवान महावीर) ने कुछ वस्‍त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है। लेकिन इन सामग्रियों में असक्ति, ममता व मूर्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि न

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महावीर वाणी-(प्रवचन-25)

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सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद श्रेयार्थी को सभी प्रकार के भोजन—पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि—भोजन से जो जीव विरत रहता है, वह निराश्रव अ

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महावीर वाणी-(प्रवचन-26)

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जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक—ठीक समझता हो तथा कार्य—विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक—ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।

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महावीर वाणी-(प्रवचन-27)

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संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है—मनुष्यत्व, धर्म—श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ। संसार में परिभ्रमण करते—करते जब कभी बहुत काल में पाप कर्मों का वेग क्ष

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महावीर वाणी-(प्रवचन-28)

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एक मित्र ने पूछा है, मनुष्य जीवन है दुर्लभ, लेकिन हम आदमियों को उस दुर्लभता का बोध क्यों नहीं होता? श्रवण करने की कला क्या है? कलियुग, सतयुग मनोस्थितियो के नाम हैं? क्या बुद्धत्व को भी हम एक मनोस्थिति

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महावीर वाणी-(प्रवचन-29)

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जैसे कमल शरद-काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता और अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेहबंधनों से रहित हो जा। अतः गौतम! क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर। तू इस प्रप

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महावीर वाणी-(प्रवचन-30)

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प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म अर्थात जो प्रवृत्तियां प्रमादयुक्त हैं वे कर्म-बंधन करनेवाली हैं और जो प्रवृत्तियां प्रमादरहित हैं, वे कर्म-बंधन नहीं करतीं। प्रमाद के होने और न होने से मनुष्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-31)

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दूध, दही, घी, मक्खन, मलाई, शक्कर, गुड़, खांड, तेल, मधु, मद्य, मांस आदि रसवाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं

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महावीर वाणी-(प्रवचन-32)

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अनिगृहित क्रोध और मान तथा बढ़ते हुए माया और लोभ, ये चारों काले कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार-वृक्ष की जड़ों को सींचते रहते हैं। चावल और जौ आदि धान्यों तथा सुवर्ण और पशुओं से परिपूर्ण यह समस्त पृथ्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-33)

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अकेले ही है भोगना  संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकर्मों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। पापी जीव के दुख को न जातिवाले ब

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महावीर वाणी-(प्रवचन-34)

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यह निःश्रेयस का मार्ग है जो मनुष्य सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग करता है, वही सच्चा त्यागी कहलाता है। जो मनुष्य किसी परतंत्रता के कारण वस्

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महावीर वाणी-(प्रवचन-35)

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आप ही हैं अपने परम मित्र आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा मित्र है और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु। पांच इन्‍दिरयां

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महावीर वाणी-(प्रवचन-36)

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साधना का सूत्र : संयम जिस साधक की आत्मा इस प्रकार दृढ़-निश्चयी हो कि देह भले ही चली जाये, पर मैं अपना धर्म-शासन नहीं छोड़ सकता, उसे इन्दिरयां कभी भी विचलित नहीं कर सकतीं। जैसे भीषण बवंडर सुमेरु पर्वत क

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महावीर वाणी-(प्रवचन-37)

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विकास की ओर गति है धर्म धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव—ये छह द्रव्य हैं। केवल दर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा है। धर्म द्रव्य का लक्षण गति है; अधर्म द्रव्य का लक्षण स्थिति है,

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महावीर वाणी-(प्रवचन-38)

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आत्मा का लक्षण है ज्ञान ज्ञान, दर्शन, चारितरय, तप, वीर्य और उपयोग अर्थात अनुभव–ये सब जीव के लक्षण हैं। शब्द, अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, रस, गंध और स्पर्श–ये सब पुदगल के लक्षण है

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महावीर वाणी-(प्रवचन-39)

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मुमुक्षा के चार बीज मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग-वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।

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महावीर वाणी-(प्रवचन-40)

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पांच ज्ञान और आठ कर्म श्रुत, मति, अवधि, मन—पर्याय और कैवल्य —— इस भांति ज्ञान पांच प्रकार का है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —— इस प्रकार संक्षेप में ये आठ

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महावीर वाणी-(प्रवचन-41)

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छह लेश्याएं कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल–ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं। कृष्ण, नील, कापोत–ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है। तेज, पदम और शु

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महावीर वाणी-(प्रवचन-42)

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पांच समितियां और तीन गुप्तियां पांच समिति और तीन गुप्ति–इस प्रकार आठ प्रवचन-माताएं कहलाती हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उच्चार या उत्सर्ग–ये पांच समितियां हैं। तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति औ

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महावीर वाणी-(प्रवचन-43)

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कौन है पूज्य? पूज्य-सूत्र: आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वक्कं।  जहोवइट्ठं अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो ।। भअन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं। अलद्धु

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महावीर वाणी-(प्रवचन-44)

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राग, द्वेष, भय से रहित है ब्राह्मण ब्राह्मण-सूत्र : 1 जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई। रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ।। जायरुवं जहामट्ठं, निद्धन्तमल-पावगं। राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माह

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महावीर वाणी-(प्रवचन-46)

20 अप्रैल 2022
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वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से ब्राह्मण—सूत्र : 3 न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ।। समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण उ मुणी होइ, तवेण होइ तावस

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महावीर वाणी-(प्रवचन-45)

20 अप्रैल 2022
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अलिप्तता है ब्राह्मणत्व ब्राह्मण-सूत्र : 2 दिव्व-माणुसत्तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं। मणसा काय-वक्केणं, तं वयं बूम माहणं ।। भजहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम म

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महावीर वाणी-(प्रवचन-47)

20 अप्रैल 2022
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अस्पर्शित, अकंप है भिक्षु भिक्षु-सूत्रः जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोस-पहारत्तज्जणाओ य। भय-भेरव-सद्द-सप्पहासे, समसुह-दुक्खसहे अ जे स भिक्खू हत्थसंजए पायसंजए,वायसंजए संजइन्दिए। अज्झप्परए सुसमाहि

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महावीर वाणी-(प्रवचन-48)

20 अप्रैल 2022
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भिक्षु कौन? भिक्षु-सूत्रः 3 उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू।। अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे, उंछं चरे जीविय नाभिकंखे। इडिंढ़

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महावीर वाणी-(प्रवचन-49)

20 अप्रैल 2022
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कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु भिक्षु-सूत्र : 4 न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पेज्ज न तं वएज्जा। जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू।। न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत

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