
शुक्रवार को दक्षिण दिल्ली के ग्रेटर कैलाश पार्ट टू के इलाके में प्रवेश करते ही एक खास तरह का पोस्टर हर चार कदम पर दिखने लगा। मैंने कहीं इस तरह के पोस्टर नहीं देखे हैं। मुझे लगा कि जानना चाहिए। आखिर हर सोसायटी के बाहर यह पोस्टर क्यों लगा है। यह इलाक़ा कुछ मध्यमवर्ग और बहुत कुछ संपन्न वर्ग से भरा है। दिल्ली के महँगे इलाक़ों में से एक है। मैं जानना चाहता था कि ऐसे तबके को अपनी अपनी सोसायटी और नुक्कड़ पर ये पोस्टर लगाने की नौबत क्यों आई। इनके संघर्ष का नतीजा क्या निकला। मीडिया ने दिखाया भी है या मीडिया के बग़ैर अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं। हो सकता है मीडिया ने दिखाया भी हो और मेरे ध्यान में न आया हो। यह मुमकिन है क्योंकि मैं अब अख़बार ध्यान से नहीं पढ़ता। वैसा पाठक नहीं रहा जैसा पहले था। हफ्ते में कभी कभार पढ़ लिया या किसी ने शेयर किया तो देख लिया। कारण यह है कि इस माध्यम में मेरी आस्था काफी कमज़ोर हो गई है।
यमुना, तारा, गंगोत्री सोसायटी अलकनंदा में बन रहे मेगा मॉल का विरोध करती है। पोस्टर पर विरोध का कारण भी लिखा हुआ है। रिहायशी इलाके में मेगा मॉल बनेगा तो ट्रैफिक जाम लगेगा। पार्किंग की समस्या और भी बदतर होगी। मॉल के लिए पानी की ज़रूरत होगी जिसका असर इलाके की जल आपूर्ति पर पड़ सकता है। अगर मॉल ने ज़मीन से पानी का दोहन किया तो भू-जल पर असर पड़ सकता है। इतनी बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही पर नज़र रखने में पुलिस का ध्यान बँटेगा और अपराध बढ़ सकता है। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि लोग अपनी शहरी समस्याओं को विकास की चमक से हटकर पहचानने लगे हैं। मॉल को समस्या के रूप में भी देखने लगे हैं।
दफ़्तर लौट कर अपने सहयोगी सुशील से डिटेल मंगाने के लिए कहा। मेरी दिलचस्पी यह देखने में थी कि अगर मीडिया लोगों को बेदख़ल कर दे, किसी उद्योगपति या राजनीति क दल के गिरोह में शामिल हो जाए तो क्या लोग अपना मीडिया बना सकते हैं ? आजकल कई स्तरों पर ऐसा होता दिख रहा है। हो सकता है उनका संबंध सिर्फ एक मुद्दे तक ही हो लेकिन ग्रेटर कैलाश में जो दिखा वो नागरिक मीडिया का एक अलग ही स्वरूप है। लोग संगठित होकर मॉल के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। आप उनके इलाके से गुज़रते हुए मॉल के विरोध वाले होर्डिंग देखे बिना नहीं रह सकते हैं।
ग्रेटर कैलाश के तमाम रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन इस मुद्दे पर एकजुट हो गए हैं। यह इलाक़ा पहले से ही बेतहाशा कारों के कारण घिनौना लगता है। आज जिस तरह से थूकने और पेशाब करने या कचरा फेंकने को गंदगी कहा जा रहा है, मेरी राय में इन सबसे ज़्यादा हमारे मोहल्लों को कारें गंदा कर रही हैं। कारें उत्तर आधुनिक मेकेनिकल मूत्र हैं जो हर शहरों में फैली हुई हैं। ट्रैफिक जाम के कारण इलाक़ा का इलाक़ा रिहायशी कम कार का कबाड़ ज्यादा लगता है। ऐसा नज़ारा हर इलाक़े का है। हमारे इलाक़े का भी हैं।लोगों के गेट पर कार पार्क न करने की सूचना, कचरा न फेंकने की सूचना के साथ लगी है। हर घर दुकान हो गया है। दुकान में रखा सामान हो गया है।
ग्रेटर कैलाश के लोगों ने मॉल के बहाने इस हक़ीक़त को देख लिया है। उन्होंने जान लिया है कि रिहाइशी इलाक़े में ये बन गया तो यहाँ मकान कम कारें ज़्यादा दिखेंगी।इसलिए इसका विरोध करना होगा। बक़ायदा सूचना के अधिकार के ज़रिये ख़ूब सारी सूचनाएँ जमा की गईं हैं। पता किया गया है कि कैसे 2002 में मॉल बनने की जगह बसी ग़रीबों की बस्ती को अवैध क़रार देकर उजाड़ा गया। यह कहकर कि यहाँ पर खेल ने का मैदान और खेल सुविधा केंद्र बनेगा। एक साल बाद डीडीए ने यहाँ कम्युनिटी सेंटर बनाने की बात कही और धीरे धीरे समय बीतने के साथ 3.7 एकड़ ज़मीन में मेगा मॉल बनाने की अनुमति दे दी। नागरिकों ने सभी दलों का दरवाज़ा खटखटाया है। अदालत में जनहित याचिका दायर की है।
अब एक दूसरा खेल देखिये। जिन दलों को फ़ैसला पलटवा देना था, वो भी समर्थन के नाम पर होर्डिंग लगाकर चले गए हैं। बीजेपी का पोस्टर भी दिखा है कि वो भी इस मॉल के ख़िलाफ़ है।आम आदमी पार्टी का भी विरोध में पोस्टर लगा है।राजनीतिक पोस्टरों में भी वही NO है जो नागरिकों के पोस्टर में है। अब इस नौटंकी की क्या ज़रूरत है। दिल्ली विकास प्राधिकरण केंद्र सरकार के अधीन है। केंद्र में बीजेपी की सरकार है। दावे से तो नहीं कह सकता मगर हो सकता है कि मॉल बनाने का फ़ैसला यूपीए की सरकार में हुआ हो। 2002 में जब झुग्गियों को हटाया गया था तब नागरिकों के अनुसार दक्षिण दिल्ली के बीजेपी सांसद वी के मल्होत्रा ने खेल का मैदान बनने का भरोसा दिया था। उस वक्त केंद्र में बीजेपी की सरकार थी। दिल्ली में तब कांग्रेस की सरकार थी और अब आम आदमी पार्टी की है। राजनीतिक दलों ने पोस्टर लगा कर समर्थन के नाम पर विरोध को ख़त्म करने यानी ‘न्यूट्रलाइज़’ करने का यह खेल खेला है। उम्मीद है लोगों को बात समझ में आ गई होगी।प्रेस रिलीज़ में जिस औद्योगिक घराने को मॉल बनाने की ज़मीन बेची गई है क्या उसके ख़िलाफ़ बीजेपी कांग्रेस का कार्यकर्ता और नेता लड़ पाएगा? मज़ाक़ की भी हद होती है।
आप सोच रहे होंगे कि मैं इस विरोध को कवर करूँगा। मेरा नैतिक समर्थन रहेगा मगर मैं इसे कवर नहीं करूंगा। मेरे कवर करने से भी कुछ नहीं होगा लेकिन नहीं कवर करने का ये कारण नहीं है।यह भी तथ्य है कि मुझसे किसी ने कवर करने के लिए संपर्क नहीं किया है। मैं चाहता हूँ कि साधन संपन्न लोग संस्थाओं और राजनीतिक दलों से संघर्ष के दौरान उसी तरह हताश हों, हार जायें, बिखर जाएँ और संगठित हों जैसे एक ग़रीब, किसान और आम आदमी हार जाता है।फिर भी लड़ता रहता है। कई बार जीत भी जाता है। तो इसके ज़रिये ग्रेटर कैलाश पार्ट टू की जनता समझे कि कोरपोरेट, राजनीति और मीडिया का गठबंधन क्या होता है। जिसे बनाये रखने में उनके ही बीच के कई लोगों का थोड़ा थोड़ा हाथ होगा।
मैं चाहूँगा कि ग्रेटर कैलाश पार्ट टू के लोग जीत जायें। उनके भीतर का ये नागरिक बोध और हिस्सेदारी का भाव जीते ताकि वे समझ सकें कि लड़ना कितना मुश्किल हो रहा है। ग्रेटर कैलाश पार्ट टू में बड़े वकील, नेता, पत्रकार, व्यापार ी, आर्किटेक्ट सब रहते होंगे।कई लोग राजनीतिक दलों में किसी न किसी पद पर होंगे, उन्हें चंदा भी देते होंगे।ऐसे लोगों को अपने दम पर ही अपनी लड़ाई जीतनी चाहिए। वे जीत गए तो एक मिसाल बना देंगे। क्या अमीर या साधन संपन्न लोग मिलकर अपनी ही बिरादरी के किसी समूह को हरा सकते हैं, जो वाक़