नई दिल्ली : कहते हैं हौसला बुलंद हो और काम दिल से किया जा रहा हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। ऐसा ही कारनामा केरल की एक पंचायत ने कर दिखाया। केरल में कुट्टमपरूर नदी आज से 20 साल पहले प्रदूषण और खनन माफियाओं के अत्याचार से सूख चुकी थी। नदी का प्रवाह लगभग ख़त्म हो चुका था। कहा जाता है कि कुट्टमपरूर एक वक्त पाम्पा और आचांकॉविल नदियों की एक सहायक नदी हुआ करती थी लेकिन इस नदी को प्रदूषण, भू-माफियाओं और खनन माफियाओं ने गन्दा नाला बना डाला
अब कुट्टमपरूर नदी को जिन्दा कर लिया गया है। इसके लिए उन 700 मजदूरों का ध्यन्यवाद करना होगा जिन्होंने इस नदी को दुबारा पुनर्जीवित कर डाला। पर्यावरणविदों का हमेशा कहना रहा है कि किसी भी नदी को हमेशा पुर्नजीवित किया जा सकता है। बावजूद यह पता हो कि इसमें प्रदूषण की समस्या कितनी गंभीर है और यह ख़त्म होने के कितने करीब है। इतिहास में कुट्टमपरूर नदी हमेशा के लिए इसका उदाहरण बन गई।
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कुट्टमपरूर मरने से पहले
एक समय था जब कुट्टमपरूर बुधनूर की लाइफलाइन हुआ करती थी। गांव के निवासियों को न कभी पीने की पानी की समस्या का सामना करना पड़ा और न ही सिंचाई के पानी की। नदी 25,000 एकड़ में फैले धान के खेतों के लिए सिंचाई एकमात्र स्रोत हुआ करती थी। यही नहीं इस नदी का इस्तेमाल व्यापार ियों द्वारा परिवहन के इस्तेमाल में भी किया जाता था। नदी कई बार बाढ़ के पानी के समाधान में भी काम आयी क्योंकि जब पम्बा और अचंकोविल का प्रवाह बढ़ा तो कुट्टमपरूर ने इसका अतिरिक्त पानी ले लिया।
पुरानी सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार 12 किमी लंबी नदी, बुधनूर पंचायत से अलापुज़हा जिले तक फैली हुई थी। यह 100 मीटर चौड़ी थी लेकिन 2005 तक यह रेत खनन और पानी में कचरे के डंपिंग के कारण 10-15 मीटर रह गई थी। धीरे-धीरे यह नदी टैंकर लॉरी के लिए एक ऐसा स्थान बन गया जहाँ वह अपने सेप्टिक कचरे को डंप करने लगे।
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इसके आलावा नदी में प्लास्टिक के कचरे को भी बड़ी मात्रा में फेंका जाने लगा। नदी में प्रदूषण इतना बुरा था कि 2011 में एक नाव इस नदी में पानी की घास के बीच बुरी तरह फंस गई। स्थिति इतनी खतरनाक हो गई थी कि यात्रियों को बचाने के लिए अग्निशामकों को बुलाना पड़ा।
1997 के दौरान नदी को भू माफिआओं का भी सामना करना पड़ा क्योंकि उस वक्त रेत खनन कानूनी था। जल्द यह नदी खनन माफियाओं का अड्डा बन गई। धीरे-धीरे नदी का पानी का प्रवाह ख़त्म हो गया। हालाँकि साल 2013 में कई संगठनों ने कुट्टमपरूर को बचाने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद की।
2013 में बुद्धनूर पंचायत की अगुवाई में एक परियोजना का प्रस्ताव रखा गया लेकिन 4 साल तक यह योजना शुरू नहीं हो पायी। आख़िरकार साल जनवरी 2017 में यह यह प्रोजेक्ट शुरू हो पाया। कुट्टमपरूर को साफ़ करने की इस परियोजना को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के जरिये चलाया गया। जिसके तहत इस पर मजदूरों के लिए एक करोड़ रूपये तक खर्च किये गए।
700 महिला और पुरुषों ने अंततः 70 दिनों में इस नदी को ज़िंदा कर दिया। मजदूर गंदे पानी में गए, प्लास्टिक के कचरे को बड़ी मात्रा में हटाया। परिणामस्वरूप 45वें दिन नदी से पानी बहना शुरू हो गया और नया पानी आने लगा। सीवेज, प्लास्टिक अपशिष्ट और मिट्टी की तलछट इतनी मोटी थी कि मजदूरों के लिए यह एक कठिन काम था।
मजदूरों का कहना है कि "यह काम उन्होने केवल पैसे की खातिर नहीं थी, बल्कि पूरी ईमानदारी से पानी के जीवन को लौटाने की कोशिश कर रहे थे। अंततः पानी की सफाई का पूरा काम 20 मार्च 2017 को पूरा हुआ। पानी फिर से साधारण तरीके से बहने लगा।
हालांकि अब तक इसका पानी पीने और खाना पकाने के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है, लेकिन बुदनूर के निवासियों को विश्वास है कि वह जल्द ऐसा करने में सक्षम होंगे। थोड़े समय के भीतर, हम इसे पीने के लिए भी इस्तेमाल कर सकेंगे