"क्या है ? तुम हमेशा किसी भी नई योजना के विपक्ष में ही क्यों रहती हो? मेरी कोई बात तुम्हे समझ ही नहीं आती। कोई भी प्लान बनाओ, तुम्हें उसकी कमियां नजर आतीं है। तुम औरतों की बुद्धि भी ना........…..।" राकेश बोल रहा था।
कुछ महीनों से ये रोज़ का काम है। सविता समझा - समझाकर थक गई है। राकेश को उसके किसी शुभचिंतक ने समझा दिया है कि 40 साल का हो गया हैअब अपना कोई काम शुरू कर दे।
"अरे! तुझे क्या चिंता है? भाभीजी तो सरकारी नौकरी में है। मजे है तेरे। क्यों किसी की सुनता है! मेरी वाइफ नौकरी करती तो मैं तो न सुनता किसी साले की। लात मारता साली ऐसी नौकरी को।"
सविता ने कितनी बार समझाया कि ये दोस्त जलते है। उन्हें लगता है कि हमारे बराबर कमाने वाला इतनी अच्छी जिंदगी कैसे जीता है। पर राकेश को कुछ समझ नहीं आता।
रोज़ का वहीं आलाप "कब तक करूं नौकरी? तुम्हे क्या पता प्राइवेट नौकरी कैसी की जाती है? साले खून चूस लेते है।"
वाकई!उसको कैसे पता होगा?
लोगों के दिमाग में जाला जो लगा है सरकारी नौकरी के बारे में। यदि सरकारी नौकरी इतनी ही आसान है तो आपने प्राइवेट क्यों की, सरकारी करते। बचपन और जवानी में भी मौज ली, पढ़ाई नहीं की और अब प्राइवेट नौकरी अच्छी नहीं लगती, साहब क्यों सुने किसी की? सविता मन ही मन में कुढ़ रही है।
खून पसीना एक करके, बचपन जवानी भुलाकर किताबों में सर खपाना पड़ता है तब जाकर कहीं मिलती है सरकारी अफसरी। और ऑफिस में काम होता है आराम नहीं होता। पूरे लॉकडाउन में जब प्राइवेट वाले घर बैठकर सेलरी ले रहे थे तो सरकारी नौकरी वाले ही हॉस्पिटल में, थाने में, गलियों में, राशन दफ्तरों में, ऑफिस में मेहनत कर रहे थे। पता नहीं सरकारी नौकरी को क्या समझ रखा है? खासकर तब, जब वह बहु या बीवी की हो। सविता के हाथ किचन में जल्दी- जल्दी चल रहे हैं।
"तुम ऑफिस जाओ, मैं किचन समेट दूंगा।"
"क्यों तुम्हे लेट जाना है? में मैं तो सोच रही थी कि तुम्हारे साथ ही निकल जाती।"
"तुम्हे तो मैं छोड़ दूंगा।"
सविता शाम को घर आई तो साहब टीवी देख रहे थे। सविता ने चाय बनाई और साथ बैठ कर पी। थोड़ी देर में राकेश किचन में आकर बोला "मैं कुछ हेल्प कराऊं?"
" क्या बात है? कुछ तो दाल में काला है!"
" नहीं कुछ नहीं।"
" अरे! एक बात बतानी थी वो बेदी ना पार्टनरशिप के लिए बोल रहा है।"
"राकेश अभी बच्चे उस फेज में है जहां हैं हम रिस्क नहीं ले सकते। आकृति को इंजीनियरिंग में और हर्ष को एमबीबीएस में एडमिशन के लिए लाखों रुपए चाहिए।"
" तो मैंने पूरा प्लान करके रखा है ना! तीन महीने खाली थोड़े ही बैठा हूं, पूरी प्लांनिंग है अपन की। एक बार बिजनेस सेट हो गया ना! तो बस......। लोकडाउन ने गड़बड़ कर दीा, नहीं तो इतनी धांसू प्लांनिंग थी, तभी मैंने जॉब छोड़ दी थी।"
"कब? फिर से?"
"जनवरी में।"
"अब बता रहे हो, पांच महीने बाद! "
"देखो! औरतों में दूरदर्शिता तो होती नहीं। बेकार में पांच महीने दिमाग का दही हो जाता। कितना शानदार निकला लाकडाउन का समय। अब कुछ जमाता हूं।"
"सब जमा जमाया ही तो था?"
"तुम्हे क्या पता, अच्छी लाइफ क्या होती है? तुम तो सरकारी दफ्तर में जाकर बैठ जाती हो।"
"ओह! सचमुच मुझे कुछ नहीं पता । चलो आज कुछ सोचती हूं।"
"ये मेरा काम है तुम दिमाग मत लगाओ।"
सविता सुबह उठी तो एकदम तरोताजा फील कर रही थी। अच्छे से तैयार होकर बाहर निकल गई। एक सप्ताह बाद एक फाइल राकेश के हाथ में देते हुए बोली -
"साइन कर देना, मैंने लाइफ सेट कर ली है। ............अपनी। तुम्हारी सेट करना मेरे बस की बात नहीं।"
"डिवोर्स!" राकेश कुर्सी से उछल पड़ा।
"पागल हो, जी पाओगी अकेले ? तुम्हे तो कोई भी बेवकूफ बना देगा। तुम औरतों को अक्ल तो होती ......."
फिर अचानक ही जोर से दहाड़ा, " निकल जाओ मेरे घर से।"
"आप निकल जाओ मेरे घर से" सविता ने शांति से कहा।
राकेश अवाक रह गया।
"ये तो साला कभी दिमाग में ही नहीं आया। प्लांनिंग गड़बड़ हो गई।"
दूर रेडियो पर गाना बज रहा है 'मीत ना मिला रे मन का....'
- गीता भदौरिया