नई दिल्ली: अपने जीवन का 67वां बसंत देख रहे आईआईटी दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर आलोक सागर ने अपनी पूरी जिंदगी आदिवासियों को उनका हक दिलाने में खपा दी. चेहरे पर लंबी सफेद दाढ़ी, सफेद हो चुके बाल, बदन पर खादी का कुर्ता और धोती. पहली नजर में देखने के बाद आपको भी आलोक सागर किसी आम आदिवासी जैसे ही दिखेंगे. लेकिन आलोक सागर के पास डिग्रियों का अंबार है. प्रतिभा ऐसी कि कभी अमेरिका ने भी उन्हें अपने मुल्क सोध के लिए बुलाया था. सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी ही नहीं कई विदेशी भाषाओं का ज्ञान होने के बाद भी वो आदिवासियों से उनकी भाषा में ही बात करते हुए दिख जाएंगे.
IIT में बच्चों को पढ़ाते थे आलोक
आलोक का जन्म साल 1950 में हुआ था. आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग की। 1977 में अमेरिका के हृयूस्टन यूनिवर्सिटी टेक्सास से शोध डिग्री ली। टेक्सास यूनिवर्सिटी से डेंटल ब्रांच में पोस्ट डाक्टरेट और समाजशास्त्र विभाग, डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा में फैलोशिप भी की। पढ़ाई पूरी करने के बाद आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बन गए. लेकिन उनका मन नहीं लगा. वो कुछ अलग करना चाहते थे इसलिए नौकरी छोड़ कर वो आदिवासियों के बीच चले गएं.
आदिवासियों के हक के लिए लड़ रहे हैं.
दिल्ली आईआईटी से पढ़ाई छोड़ने के बाद से लगातार आलोक आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं. इसके अलावा गांव में फलदार पौधे लगाते हैं. अब हजारों फलदार पौधे लगाकर आदिवासियों में गरीबी से लड़ने की उम्मीद जगा रहे हैं. उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मौसंबी, किन्नू, संतरा, रीठा, मुनगा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं.