किसी कविता को पढ़ते हुए क्यों लगता है
मैं भी एक कविता लिखूँ
उस कवि के जैसा लिखूँ
जिसकी छू जाती है कविता
अपने भीतर के अंधेरों से बचाते हुए
उजाले में ले आऊँ ख़ुद को
आरी पर चलता रहूँ,कटता रहूँ
अलग हो जाऊँ अपने अंतर्विरोधों से
क्या ये कविता में ही मुमकिन है
क्या ख़ुद के डर से मुक्त होने के लिए
कविता लिखना जरूरी है
क्या सत्ता से हारते हुए भी लड़ने के लिए
कविता लिखना ज़रूरी है
ये कैसी महत्वकांक्षा है
कि मेरे नाम से भी हो एक कविता
जिसे पढ़ कर कोई लिखे अपनी कविता
क्या इसी तरह पैदा होते हैं कवि
पढ़ने के बाद किसी और की कविता
मैं झूठ कहता हूँ कि डर नहीं लगता
फिर क्यों हिम्मत आ जाती है
पढ़ने के बाद किसी की कविता
क्या इसलिए लिखना चाहता हूँ
अपने नाम से अपनी कोई कविता
रवीश कुमार