नई दिल्ली : पंख से नहीं हौसले से उड़ान होती है। यह साबित किया है झारखंड के पिछड़े जिले सरायकेला के कलेक्टर रमेश घोलप ने। वे कहने को दिव्यांग है लेकिन अपने काम करने के तरिके से सूबे में सारे कलेक्टरों को पीछे छोड़ दिया है. इनके मेज पर फाइल आते ही फ़ौरी तौर पर उनको अमली जामा पहनाया जाता हैं. यू तो इनके दफ्तर के दरवाजे में कुंडी ज़रुर मिलता हैं लेकिन गरीबी के लिए हमेशा खुला रहता हैं . जनता ही नहीं सरकार भी इनके हुनर से खुश होकर झारखंड के ऊर्जा विभाग में संयुक्त सचिव के पद हटा कर सराईकेला जैसे नक्सल प्रभावीत जिले में कलेक्टर बना कर भेजा है.
तंगहाली के दिनों में शादियों में साज-सज्जा वाली पेंटिंग भी करते थे. यह IAS
आपको जान कर ताज्जुब होगा कि इस IAS अफसर यानी रमेश घोपल ने सिर्फ अपने शरीर से ही संघर्ष नहीं किया बल्कि आर्थिक तंगहाली ने भी उन्हें पढ़ने के लिए सही मौके नहीं मिल. हकीकत तो यह हैं कि रमेश इतने गरीब घर से थे कि गुजारे के लिए मां को सड़को पर निकल कर चूंड़िंया बेचनी पड़ती थी . और जब चूडियाँ बेच कर भी रमेश कि पढ़ाई पूरी न हो पाई तो रमेश खुद चूडियाँ बेचने लगा. रमेश कहते हैं कि चूडियाँ बेचना इसलिए ज़रुरी हो गया था क्योंकि किताब खरीदने तक के पैसे नहीं थे.
रमेश के संघर्ष की कहानी , रमेश की जुबानी...
रमेश कहते हैं कि संघर्ष के लंबे दौर में उन्होंने वो दिन भी देखे हैं, जब घर में अन्न का एक दाना भी नहीं होता था. फिर पढ़ाने खातिर रुपये खर्च करना उनके लिए बहुत बड़ी बात थी. एक बार मां को सामूहिक ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के नाम पर 18 हजार रूपये मिले, जिसको उन्होंने पढ़ाई करने के लिए इस्तेमाल किया और गांव छोड़ कर इस इरादे से बाहर निकले कि वह कुछ बन कर ही गांव वापस लौटेंगे. शुरुआत में उन्होंने तहसीलदार की पढ़ाई करने का फैसला किया और इसे पास भी किया. लेकिन कुछ वक्त बाद आईएएस बनने को अपना लक्ष्य बनाया.
और रंग लाई मेहनत...
रमेश कलेक्टर बनने का सपना आंखों में संजोए पुणे पहुंच गए. पहले प्रयास में वे असफल रहे. वे फिर भी डटे रहे और दूसरे प्रयास में आईएस परीक्षा में 287 रैंक हासिल की. आज वह सराईकेला खरसांवा जिला के क्लेकटर हैं और उनकी संघर्ष की कहानी प्रेरणा पुंज बनकर लाखों लोगों के जीवन में ऊर्जा भर रही है.
वाकई रमेश आज वैसे तमाम लोगों के लिए एक मिसाल हैं जो संघर्ष के बलबूते दुनिया में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं.