नई दिल्लीः
उनकी ज़िंदगी पर कभी भी मौत की गाड़ी चढ़ा सकता है। नशे में टुल्ल कोई लोकल भाईजान। बाखबर होते हुए भी इस बात से बेख़बर हैं। डिवाइडर पर हर रोज़ सोते ये ग़रीब। क्या करें साहब...मजबूर हैं। गर सिर पर छत नसीब होती । तो खुले आसमां को छत थोड़ी समझते। जिंदगी और मौत के बीच। सड़क के बीचोंबीच डिवाइडर को बिस्तर समझकर क्यूँ सोते। क्या जान देने का शौक़ थोड़ी चर्राया है।
तस्वीर यूपी के मुरादाबाद शहर की है। खींची है मेरे मित्र सैफ़ अली खान ने। हर रोज़ उस रोड से कितने खबरनवीस गुज़रते हैं। किसी को क्या परवाह। सबके लिए आम बात है। मगर ज़िंदगी ऑन द रोड की यह मार्मिक तस्वीर क्लिक करने का आइडिया क्लिक हुआ अमर उजाला के छायाकार Md Saif Ali के दिमाग़ में। देश बदल रहा है के नारों के बीच इस क्लिक ने भारत और इंडिया के बीच फ़र्क़ की गहरी तस्वीर खींच दी। यह सिर्फ मुरादाबाद का हाल नहीं, कमोबेश हर शहर का है। बात आँकड़ों के साथ रखता हूँ।
कितने शर्म की बात है। आज़ादी के छह दशक बाद भी देश में साढ़े चार लाख परिवार बेघर हैं। बेघर परिवारों में से प्रत्येक का औसत तकरीबन चार( 3.9 व्यक्ति) व्यक्तियों का है। यानी करीब 17.7 लाख लोग आसमान को छत मानकर धरती को हर रोज़ बिस्तर बनाकर सोने को मजबूर हैं।
2011 के जनगणना के आंकडों को देखें। बीते एक दशक(2001-2011) के बीच बेघर लोगों की संख्या 8 प्रतिशत घटी है। फिर भी देश में कुल 17.7 लाख लोगों के सिर को छत नसीब नहीं है। हालांकि देश की कुल आबादी में बेघर लोगों की संख्या महज 0.15 प्रतिशत है फिर भी 17 लाख कुनबे का बेघर होना अब तक की सरकारों की विफलता का सबसे बड़ा सुबूत है। हाउसिंग स्कीमों की ख़ामियों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
जनगणना में उन परिवारों को बेघर माना जाता है, जो किसी इमारत, जनगणना के क्रम में दर्ज मकान में नहीं रहते। बल्कि खुले में, सड़क के किनारे, फुटपाथ, फ्लाईओवर या फिर सीढियों के नीचे रहने-सोने को मजबूर होते हैं। या फिर जो लोग पूजास्थल, रेलवे प्लेटफार्म अथवा मंडप आदि में रहते हैं।जनगणना में ऐसे लोगों की गिनती 28 फरवरी 2011 को हुई थी।
हालांकि बेघर लोगों की संख्या सटीक बता पाना मुश्किल है वजह किऐसे लोगों का कोई स्थायी वास-स्थान, पता-ठिकाना नहीं होता। ख़ानाबदोश ज़िंदगी होती है।
शहरों में बढ़ रहे बेघर
जनगणना के आंकड़ों से खुलासा हो चुका है कि साल 2001 से 2011 के बीच शहरी क्षेत्रों में बेघर लोगों की संख्या 20.5 प्रतिशत बढ़ी है जबकि ग्रामीण इलाकों में 28.4 प्रतिशत घटी है। बेघर आबादी में बच्चों की संख्या साल 2001 में 17.8 प्रतिशत थी जो साल 2011 में घटकर 15.3 प्रतिशत हो गई है।
यूपी टॉप पर
बेघर परिवारों की संख्या के मामले में यूपी टॉप पर है। आँकड़ों सहित शीर्ष के पाँच राज्यों का ब्योरा यूं है। उत्तरप्रदेश (3.3 लाख), महाराष्ट्र (2.1 लाख), राजस्थान (1.8 लाख), मध्यप्रदेश (1.46 लाख) और आंध्रप्रदेश (1.45 लाख). हैं। गुजरात (1.4 लाख) का स्थान इस क्रम में छठा है। अगर कुल आबादी में बेघर लोगों के अनुपात के लिहाज से देखें तो शीर्ष के पाँच राज्यों में राजस्थान (0.3%), गुजरात (0.24%), हरियाणा (0.2%),मध्यप्रदेश (0.2%) तथा महाराष्ट्र (0.19%) का नाम आएगा।
केवल 21.9 % दलितों के पास पक्का घर
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार जिन लोगों के सिर को छत नसीब हैं उन लोगों में 5.35% परिवार अत्यंत जर्जर मकानों में रहने को बाध्य हैं। देश के 8.1% अनुसूचित जाति के परिवार तथा 6.3% प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के परिवार अत्यंत जर्जर मकानों में रहते हैं। अनुसूचित जाति के परिवारों में 21.9% तथा अनुसूचित जनजाति के परिवारों में 10.1% सीमेंटदार पक्की छत के मकानों में रहते हैं।
बहरहाल केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर मिशन आशियाना स्कीम ज़ोर-शोर से चलाने की ज़रूरत है। कोई बेघर न रहे। नहीं तो डिवाइडरों पर पलती ये ज़िंदगियाँ सरकार और समाज की शर्मिंदगी का सबब बनती रहेंगीं।