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मुक्तक

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सत्ता कितनी प्यारीमेरे देश के हुक्मरानो को सत्ता कितनी प्यारी हैरोज़ मरे मजदूर किसान सैनिको ने जान वारी हैआदि से अंत तक का इतिहास उठाकर देख लो कब किसी प्रधान ने की इसके निवारण की तैयारी है !!डी के निवातिया

शीर्षक- हिय/हृदय/दिल आदि,“मुक्तक” शिकायत हिमायत भरी है हिया में लगी आग जलती कवायत हिया में हृदय वेदना में तड़फता विलखता विरह वदगुबानी बढ़ाए हिया में॥-1 संगदिल दिल में सजाते न पत्थर तंगदिल दिल से उड़ा देते पत्थर पत्थर की प्रचलन दिलों को दुखाए दिल दिल से कहता चलाएं न पत्थर॥-2 महातम मिश्र, ग

मापनी- 2122 2122 2122 2122 “मुक्तक” हर दिशाओं से पवन उठने लगी है आंधियों सी बेवजह सी बज रही हैं घंटियाँ म्मुनादियों सी लोग बहरे तो नहीं पहचानते हैं रुख हवा की आँख पर रखके हथेली झांकते क्कहानियों सी॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

आज के दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना प्रारम्भ की थी। आज के दिन सम्राट विक्रमादित्य ने राज्य स्थापित किया था इनके नाम पर ही विक्रमी संवत प्रारम्भ होता है। आज के दिन ही प्रभु श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ था। आज के दिन ही शक्ति और भक्ति के नौ दिन नवरात्र

शब्द - साजन ,सजन,सजना ,बालम ,बलमा ,बलम आदि मापनी -१२२ ,१२२,१२२,१२२ “मुक्तक” सजन हैं हमारा नयन दिल दुलारा बलम के हृदयतल चमन चित हमारा करूँ नित्य पूजा की थाली लिए मैं सजाकर निभाकर लजाकर दिदारा॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

शीर्षक- तर्पण मापनी- 22 22 22 22....... “मुक्तक” अर्पण करती हूँ प्यार सनम तर्पण करती हूँ छार सनम झंकृत वीणा की मृदु वाणी अपनापन जीवन सार सनम॥-1 अर्पण तर्पण सत्य समर्पण हर्षित मन कोमल प्रत्यर्पण भाव विभाव अनुरूप तुम्हारे आहुति करती हूँ अब घर्षण॥-2 महातम

मापनी __ 122 122 122 122 “मुक्तक” शिवा शिव हरी हर हलाहल विषामृत कंठनील शंकर त्रिशूल चंदा धर चित्त नमः शिव शिवाय नमः नमामि नमः अवघड़ी मढ़ी महिमा करुणा नमो वृत॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

मापनी- 122 122 122 122 “मुक्तक” कहाँ से नहा चाँदनी आ गई री किसी की वफा बेवफा छा गई री दिखाती अमावस की काली घटा तूँ हटा जुल्फ अपनी घिरी आ गई री॥-1 अभी सूख जाएगें पानी थिरा के उगा आज सूरज किरनिया जगा के चली जा अभी तूँ सुहानी जगह से न बिजली गिरा रे बदरिया बुल

मापनी- 212 212 212 212 चाहता हूँ निभा लूँ वफ़ा भावना ले दिया हूँ कसम खुद खता साधना पाँव रखने लगा हूँ भले मोड़ पर दो कदम चल जुदा हो गया बालमा॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

शीर्षक एवं मापनी मुक्तक, शीर्षक - देश ,मुल्क ,राष्ट्र ,राज्य, मापनी --- 122 122 122 122 “मुक्तक” सहजता सरलता सुगमता सुहाए निडरता सहज देश सबको सिखाये निहायत जरूरी मगर याद रखना हताशा मिले तो निराशा न आए॥-1 जरूरी नहीं है कि हम गीत गाएँ जरूरी नहीं की अलग गुनगुनाएँ

शीर्षक - आवाज, आहट , ध्वनि , स्वर “मुक्तक” सरसर साँप देखि डर लागे, स्वर डमरू के चित अनुरागे मुख ललाट चंद्रमा सुभागे, आहट शिव सुन नंदी जागे महिमा अमिट धवल कैलाषा, माँ शिवशक्ति भर अभिलाषा जय गणेश लंबोदर आगे, सुरम्यता भूषित मणिनागे॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

शीर्षक - करूणा ,दया, सहानुभूति, मेहरबानी, करम या समानार्थी “दोहा-मुक्तक” सहानभूति संवेदना, मानव जीवन सार करम धरम करुणा दया, कब जाये बेकार मेहरबान जब हो खुदा, मानों महिमा काम नीति अनीति विलासिता, मापदंड आधार॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

"मुक्तक" तहखाने खुद राज उगलने लगे, बेचारे नोट बाहर फुदकने लगे दिवारें खुलकर सांस लेने लगी, नियति हथौडों के बदलने लगे भला हो गुलाबी रंगत गुलाबी ठण्ड का सिहरन के शीलन में यूँ ही नहीं अनसुनी सड़कों पर भरोषे के प्रचलन पसरने लगे।।-1 आत्मा कहीं और तो शरीर कहीं और आत्मसात हो

शीर्षक --- खुशहाल ,सम्पन्न, समृध्द “दोहा मुक्तक” समृद्धि तुझको कब कहें, रहती तूँ खुशहाल संपन्नता नजीर है, क्यों रहती पैमाल सुख समीप की चाहना, लालच तेरे धाम मन का चैन चुरा लिया, करके मालामाल॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

“दोहा मुक्तक” रसना रस की पारखी, घेरे रहते दाँत बिगड़ी जीभ भली नहीं, चोटिल होते आँत जिह्वा वाणी माधुरी, मीठे मीठे स्वाद शहद भरी जुबान बड़ी, बैठे अपनी पाँत॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

“दोहा मुक्तक” कली कली कहने लगी, मत जा मुझको छोड़ कल तो मैं भी खिलूंगी, पुष्प बनूँगी दौड़ नाहक न परेशान हो, डाली डाली मौर महक उठूँगी बाग में, लग जाएगी होड़॥ महातम मिश्रा, गौतम गोरखपुरी

शीर्षक मुक्तक, शीर्षक - कोष ,भंडार ,निधि ,खजाना आदि “मुक्तक” खबर खजाने की लगी, कोष कहर भंडार चहल पहल दिखने लगी, दिपक तले अंहार निधि विधी की जंखना, सूझे नहीं उपाय कस विधि वैतरणी तरे, साख रहे संसार॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

शब्द -- विश्व, जगत ,जग , भव ,संसार “दोहा मुक्तक” पैसा पैसा जग करें, पैसा कर कर मैल पहर चबैना खुश हुआ, नोट हजारी फैल सो जाते थे चैन से, बंडल बिस्तर माथ नींद खुली रंगत उड़ी, लुट गै बरबस छैल॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

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मै ये दावा नहीं करता कि कभी लडखडाया नहीं।मगर ये इल्जाम गलत है कि मुझे चलना आया नहीं।अक्सर गिर जाता हूँ , किसीके सहारे नहीं चलता,मै आदमी हूँ मेरे दोस्त कोई चौपाया नहीं।।

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माली ही खुद अपना चमन बेचने लगे है।वतन के रखवाले ही वतन बेचने लगे है ।।आज के इस दौर में मुझे ये मलाल हैकुछ कलमकार भी कलम बेचने लगे है।

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