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ना देखना कोई ख्वाब ....💔💔💔 (लघुकथा )

Archana Singh

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नमस्ते दोस्तों 🙏🙏 ये किताब एक औरत की कहानी है । जिसने एक ख्वाब देखे थे जो ख्वाब अधूरे ही रह गए और अपनों के द्वारा बेरहम तरीके से तोड़े गए । देखते तो सभी हैं ख्वाब , पर पूरा कहां हो पाता है । कुछ ख्वाब अधूरे ही रह जाते हैं या फिर कुछ ख्वाबों को रिश्तो की दुहाई देकर अधूरा ही कर दिए जाता हैं । ऐसा ही एक अधूरा ख्वाब " आशा " ने भी देखा था । वो पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छी थी । उसने यूनिवर्सिटी में टॉप भी किया था । वो प्रोफेसर बनना चाहती थी । अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती थी , पर " बी . एड " करते - करते ही उसकी शादी एक अच्छे परिवार की सरकारी नौकरी कर रहे लड़के " पवन चतुर्वेदी " से तय कर दी गई । जब उसने अपने घरवालों से खासकर अपने पापा से अपने आगे की पढ़ाई के बारे में कहा तो उन्होंने यही कहां कि " अरे ! वो लोग खुद अच्छे पढ़े लिखे हैं और तुम्हारी आगे की पढ़ाई लिखाई के लिए वो कभी मना नहीं करेंगे " । आशा के मन में फिर भी शंका थी तो उसने फोन से डायरेक्ट पवन से ही बात कर ली । वो बोली " मैं शादी के बाद भी पढ़ना चाहती हूं तथा अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं " । पवन ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई । आशा इस शादी से खुश थी । 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🌺🌺🌺🌺🌺 शादी के चार-पांच महीने बीत चुके थे । वोअपनी पढ़ाई की इच्छा को जब भी पवन के आगे रहती तो... पवन कोई ना कोई बहाना करके उसे टाल देता । आशा घर की जिम्मेदारियों में धीरे-धीरे फंसती जा रही थी । उसकी प्रोफेसर बनने की ख्वाब अब धूमिल होते जा रहे थे । मानो उस पर अमावस की काली छाया पड़ती जा रही हो । जब उसे बहुत घुटन महसूस हुई तो वो पवन को शादी से पहले किए वादे के बारे में याद दिलाते हुए कहा : " आपने शादी से पहले कहा था कि मेरी पढ़ाई लिखाई से आपको कोई आपत्ति नहीं है तो अब आप अपने वादे से कैसे मुकर सकते हैं ...... ? मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ , अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूंँ , अपनी पहचान बनाना चाहती हूंँ .... आप प्लीज ! मुझे पढ़ने दीजिए " । पवन गुस्से से उसे एक चांटा लगाया और बोला " जब तुम्हें पढ़ने लिखने का इतना ही शौक था तो तुम्हारे बाप ने तुम्हारी शादी क्यों कर दी....? रखते अपनी बेटी को और कुछ दिन .... अच्छे से पढ़ा लिखा कर , नौकरी करवाते । गलती तुम्हारे पापा की है .... मेरी नहीं । मैंने शादी सिर्फ अपने परिवार के लिए की है । तुम मांँ की हालत देख रही है .... वो पिछले 1 साल से पैरालाइसिस से बेड पर पड़ी है । घर में एक बहन है जिसकी देखभाल , शादी - ब्याह की जिम्मेवारी पापा के बाद मेरी ही हैं तो ..... मैं इन जिम्मेदारियों को पूरा करूं या तुम्हारे ख्वाबों को......? कल को नौकरी करने के चक्कर में तुम मांँ का ध्यान नहीं रख पाओगी.... ..... और फिर कल को हमारी भी तो बच्चे होंगे ....। उनकी देखभाल कौन करेगा .....? या उनके लिए मुझे हमेशा एक मेड (काम वाली बाई ) रखना होगा ...? .....और फिर तुम्हें इस घर में कमी क्या है .....? अच्छे से खाती - पीती हो ..... अच्छे गहने और कपड़े पहनती हो ..... समाज में लोगों से सम्मान पाती हो .... एक औरत को और क्या चाहिए .....? अगर तुम्हें अपनी जरूरत के लिए मुझसे पैसे मांगने में शर्म आती है तो मैं खुद ही हर महीने तुम्हें अच्छी खासी राशि दे दिया करूंगा .... पर प्लीज ! तुम अपनी जिम्मेदारियों को समझो और पूरा करो .... इतना बोल कर पवन कमरे से बाहर चला गया । आशा वहीं फर्श पर बैठकर सोचने लगी ..... मांँ- बाप पहले पढ़ाने लिखाने पर जोर देते हैं .... फिर आंँखों में नए नए ख्वाब दिखाते हैं ...... फिर कोई बहेलिया आता है और उसे अपने साथ ले जाकर उसके पंखों को काट देता है ..... और हम हर बार यही सोचते हैं कि शायद इसी में हमारी भलाई है । " जो ख्वाब हमारे पूरे नहीं हो पाए वो अधूरे ख्वाब हम अपने बच्चों की पूरी करेंगे .....। यही सिलसिला चलता रहता है और एक नए ख्वाब का जन्म होता है । पर कहीं ना कहीं हमारे ख्वाब पूरे नहीं हुए या नहीं हो पाते हैं ..... इसके लिए परिवार के साथ साथ हम भी जिम्मेवार हैं.... क्या मैं गलत हूंँ.....? या मेरी सोच गलत है .....? आज किशोर दा का एक गीत बहुत याद आ रहा है । अगर सच पूछो तो नारी के ऊपर ही इस गीत की कुछ पंक्तियां है जैसे कि : 💔" कभी टूट गया .... कभी तोड़ा गया ..... सौ बार मुझे फिर जोड़ा गया ..... यूं ही लूट लूट के और मिट मिट के..... बनता ही रहा हूं मैं ..... घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं "....💔 धन्यवाद दोस्तों 🙏🙏💐💐आपकी अर्चना..✍️ 

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